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फरेब - 3


राजभा अपने डाईनींग टेबल पर बैठ, गुजरात के बहुप्रसीध गरमा गरम जलेबी-फाफडा चाय के साथ फरमा रहे थे। तरु उसे चाय दे रही थी, तभी पीछे से आवाज आयी। गुड मोरनींग बाबासा, गुड मोरनींग मासा।
राजभा और तरुने जब मुडकर देखा तो, वृदा एक बडी सी मुस्कान लिए सीडीयो पर खडी थी।(वृदाका कमरा २ माले पर है) और फिर सीडीयो पर ऐसे दौडी मानो कोई पानी पर सरफिंग कर रहा हो।
( राजभा और तरु कही वह गीर न जाए इसलीए चींतीत) अरे बेटा संभलकर।
बोलते बोलते तो, वृदा डाईनींग टेबल तक आ पहुची।
राजभा- अरे बेटा, ये क्या बचपना है ? अगर कही पैर फिसल जाता तो ?
तुम्हे चोट लग जाती। अगली बार संभलकर।
(तरु गुस्सेमे) आपने ही इसे सर चढा रखा है। हर बार अगली बार संभलकर कह कर छोड देते हो।
रुको इसे तो मै मजा चखाती हु।( कह तरु वृदाको पकडने आगे बढी।) मगर वृदा राजभा के पीछे जाके छीप गई।
तरु अभी वृदाका कान पकडने जा ही रही थी की, उसका एक हाथ चायके प्यालेको लगा और वो गीर गया। यह देख राजभा कहने लगा। देखो गलतीया तो तुम करती हो और हमारी लाडो को डाट रही हो। चलो जाओ और हमारे लिए चाय लेकर आओ।( तरु गुस्सेमे) आप हर बार किसी न किसी बहाने इसे बचा लेते हो, मगर देखना एक दिन मै इसे छोडुगी नही। (कहते हुए रसोई में चाय लेने चली गइ)
यह देख दोनो पीता-पुत्री एक साथ हस पडे।(वृदा नाश्ते के लिए अपनी खुरशी पर आ बैठी) तभी राजभा ने धीरे से पुछा, वृदा बेटा तुजे कल अच्छे से नींद आयी की नही। (तबतक तरुभी रसोईसे चाय लेकर आ पहुची) कहने लगी, लाडो वह डरावना सपना तो, आज नींदमे नही आया न ? (और दोनो वृदाकी तरफ देखने लगे)
वृदा- बाबासा मै वही बताने तो आयी थी। मुझे वह सपना आजभी आया था।
( राजभा और तरु चींतीत हो गये और एक दुसरे की तरफ देखने लगे) मगर तभी वृदा ने कहा, अरे रुकीये मेरी बाततो पुरी होने दीजिये। आजतक जो मुझे सपना दीखाई दे रहा था। वह सीर्फ आधा ही सपना था।
राजभा और तरु चौकते हुए एक साथ बोल पडे- आधा ? वृदाने कहा- हा बाबासा, आधा।
कल रात मुझे पुरा सपना आया। तभी मुझे पता चला की वह तो आधा सपना था। फिर वृदाने राजभा और तरुको सारा सपना विस्तारसे कह सुनाया। और फिर पुछने लगी। कल आपने कौनसी दवाई मुझे पीलाई थी। मुझे लगता है। यह सब उसी का प्रभाव है।
तरुने बताया, वह तो साधुने दी थी।
वृदाने कहा- मगर मासा, सपना तो आजभी आया था। इसलिए इसे रोकने का उपायभी वही साधु बाबा बता सकते है।
तरु- हा बेटा, तुम बीलकुल ठिक कह रही हो। मै जल्द से जल्द उन्हे यहा बुलवाती हु। यह कहते हुये चंपाको बुलाने चली गई। जीससे वह साधुको बुलाने का संदेशा भेज सके। जबकी वृदा और राजभा बाते करते हुए। अपना नाश्ता खतम करने लगे।
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आज राजस्थान अपना हर रंग दिखा रहा था। अभी कुछ वक्त पहले गरमी अपना कहर बरसा रही थी और अभी देखो।
महादेव के मंदीर के ठिक ऊपर बादल ऐसे मंडरा रह थे, मानो देवाधी देव का अभीषेक कर रहे हो।
और देखो गंगाजी सीधे महादेवकी जटा मे आ रही हो वैसे मंदीर पर बारीश होने लगी। लोग खुदको गीला होने से बचाने के लिए। इधर उधर भागने लगे।
मगर दो लोग मंदीर के बाहीर खडे भीग रहे थे। उनमे से एक शायद चलने को कह रहा था। मगर दुसरे को कोई भान न था। न बारीश का, न कपडो का और ना ही जगह का। पोशाक से एक आम आदमी लग रहा था, मगर दुजा कोई साधु जान पडता था।
अरे, वह तो ऋषभ गुरू और वीलाश है।
वीलाशने ऋषभको जोर से जकजोडा, तभी ऋषभ होशमे आते हुए। बोल पडा, 'पांखी'।
वीलाश- अरे क्या कर रहे हो, ऋषभ ?
खुदको संभालो, आसपास लोग देख लैगे। तुम साधुके परिवेश में हो। सबको शक हो जाएगा।
ऋषभ-(अपनी अस्त-वस्त माला ठिक करते हुए) ह..हा।
वीलाश- एक बात बताओ, तुम किसके पीछे दौड रहे थे ? वह लडकी कौन थी ?
और क्या पांखी उसी का नाम है ?
ऋषभ- अरे, कुछ नही। चलो आश्रम चले। अभी लोगो का ध्यान हम पर केन्द्रीत हो रहा है। (कहते हुए वहा से ऋषभने प्रश्थान किया और वीलाशने भी वही मार्ग अपनाया।)
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राजभा की हवेली आज शांत पडी है। मानो आज उसका मौन व्रत हो। और ठिक यही हाल वृदाके कमरे का भी था। पुरे कमरे मे सन्नाटा छाया हुआ है। वृदा एक लंबे आयातकार टेबल पर बेठी है। कुछ ५*३ फिट लंबाई होगी। वह सामने पडे कैनवास को ध्यानसे देख रही है।
उसकी मुद्रा कुछ इस प्रकार है की उसका दाया पैर टेबल पर आधा मुडा रखा हे और उसी पैर की टोच पर अपने दाए हाथ की कोनी धर रखी है। हाथ की उन्गलीया इस प्रकार मोडी है। जीससे उसका चहेरा उस पर आराम कर सके। जबकी दूजा पैर टेबल से नीचे की ओर हवामे झुम रहा है। बालो का गोल गुच्छा बनाकर एक साथ बांधे हुए है। जीससे वो काममे बाधा न बने। फिरभी हवाकी वजह से एक बहार नीकली लट अटखेलीया कर रही है। दाए हाथमे पकडा हुआ पेईन्टीग ब्रस का पीछला हिस्सा जाकर वृदाके दातोके बीच फसकर टकटक की आवाज कर रहा है। मगर यह देखकर ये बीलकुल भी नही कहा जा सकता की, उसके होठो का लाल रंग उस ब्रसकी देन हे या फिर ब्रह्माजी की कला। उसके मनमे क्या चल रहा है, ये तो पता नही। पर उसकी दाए-बाए हिलती आँखे बता रही है की वो जरुर उस कैनवास मे कुछ ढुढने का प्रयाश कर रही थी।
उसने हरे रंगका लहेगां पहेन रखा है और ऊपर जांबुनी रंगका ब्लाउज। आधे मुडे पैर के कारण उसका गोरा पैर दीखाई देने से, ये बिलकुल भी मालूम नही पडता की, ये वस्त्र उस पर अच्छे लग रहे है या फिर उसके कारण वस्त्र ? और उस पर उसकी पायल, सन्नाटे मे संगीत बनी जा रही है।
तभी उसके रुमका दरवाजा खुला और साथ ही आवाज आयी। वृदा बेटा क्या कर रही हो ?
तब जाके कमरे का मौन भंग हुआ और वृदाकी नजर दरलाजे पर गई। देखा उसकी माँ तरु खडी है।
तरुकी नजरभी सीधे वृदा पर गई। फिर सामने पडे कैनवास पर और आश्चर्यसे बोल उठी, ये क्या तुम तसवीर बना रही हो, लाडो ?
मुझेभी दीखाओ कहते हुए आगे बढी।( कैनवाश वृदाकी ओर रखा था और तरुके एकदम वीपरीत दीशामे)
मगर, अभी वो तसवीर को देखती वृलाने जटसे तसवीरको उठा लीया और कहने लगी। नही, अभी नही। तरु कहने लगी मगर क्यू ?
वृदा- अभी ये बाकी है। पुरा होने पर दीखाऊगी। तरु कहने लगी, ये तो बता दो बना क्या रही हो ? मगर वृदाने अभी नही कहते हुए, तरुको प्यारसे कमरे के बाहर कर दीया और अंदर से लोक करते हुए, पुछने लगी- अच्छा , मासा वह साधुजी घर कब आ रहे है। जीन्होने मुझे पुडीया दी थी ?
तरु बाहर से कहने लगी- चंपा गई थी, उनकी कुटीया ३-४ बार वे अभी समाधी मे है। इसलीए अभी नही आ सकते मगर उनके शीष्यने बताया है। जैसे ही समाधी से बहार आयेगे। हमारे घरको आवेगै।
पर सुन लाडो, चित्र तो दिखा दे। अंदर से आवाज आयी, अभी नही मासा।
तरु (गुस्सेमे कहने लगी), रुक मै तेरे बाबासा को भेजती हु। उन्है तो दीखानी पडेगी, कहते हुए वहा से चल दी। और वृदाभी वापस उसी मुद्रामे आकर बैठ गई और चित्रको नीहारने लगी।
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वीलाश जैसे ही ऋषभके तंबु मे घुसा। तो देखता है, पुरा तंबु धुए से भरा हुआ है। बडी मुश्कील से कोई चीझ दीखाई दे रही थी।
तभी आवाज आयी खाना वही टेबल पर रखो और चले जाओ। (वह ऋषभ था।)
वीलाशने देखा टेबल पर लगभग ७ खाने की थालीया भरी पडी थी। और उस पर भीनभीनाती मंखीया बता रही थी की वह बीगड चुका है। अपनी आँखो पर जोर देते हुए, वह मानो कोई धुंध को चीरता हो, इस तरह आगे बढा। और पाया एक लकडी के सोफा पर ऋषभ अपने दौनो पैर उपर की तरफ उलटे रखे है और सर नीचेकी तरफ रख कर लेटा पडा है। और हाथमे एक चीलम सुलगी पडी है। इसी चीलम की दीव्यता के कारण पुरा तंबु छुए मय हो रखा था।
वीलाश-( आवाज मे दम भरते हुए, जरा जोरसे) ऋषभ। ये सब क्या है ?
ऋषभ-( खुदको संभालते हुए, पैर सोफासे नीचे रख) अरे वीलाश तुम !
वीलाश- हा मै। और दुसरे किसीको तुम अंदर घुसने कहा देते हो।
ऋषभ- क्या हुआ ? कैसे आना हुआ।
वीलाश- क्या हुआ ! ये तो मै तुमसे पुछना चाहता हु। ऋषभ तुम मुझे सचसच बताओ आखीर माजरा क्या है ? तुम जिस दीनसे बाजार से आये हो, तंबुसे बहार तक नही नीकले हो। आज उस दीनको ५ दिन हो गये है। और तुमने खाना पीना क्यू छोड रखा है ?
ऋषभ- कहा, मै खा तो रहा हु।
वीलाश- हा, मुझे पता है। तुम कैसै खा रहे हो। वहा पडी थालीयो से मै बता सकता हु की तुमने लगभग तीन दीनसे कुछ नही खाया। बस ये चीलम फूके जा रहे हो।
ऋषभ- नही। वैसी बात नही है।
वीलाश- वैसी ही बात है। पता है तुम्हारा रवैया हमारे साथीयो पर असर डाल रहा है। तेरे बारे मे बाते कर रहे है। उन्है लगता है हम अपने मकसद से भटक रहे है। तुम बताओ तुम्हारा ध्यान कहा पर है।
ऋषभ- मै अभी कुछ उलझन मै हु। पता ही नही चल रहा है क्या करु।
वीलाश- मै हु ना, तुम मुझे बीलकुल बता सकते हो ऋषभ। हमारे इतने सालो मै इतनी अच्छी दोस्ती तो हो चुकी है की तुम मुझसे अपने दील की बात कर सको। मेरे खयाल से, मुझे लगता है की तुम प्यारमे पड रहे हो। मगर तुम्हे ये बिलकुल ध्मानमे रखना चाहिए कि, हमारी गीरोह को प्यारकी इजाजत नही है। और उपर से तुम काफी लोगोको मोत की सजाभी सुना चुके हो।
फिर अपने लिए तुम अपने बनाए कानुन नही बदल सकते।
ऋषभ- प्यार! नही नही।
ये बात तो बिलकुल नही है। शायद तुम उस दीन मंदीर वाली घटना देखकर ये कह रहे हो। जो कि मै उस लडकी के पीछे भागा था।
वीलाश- हा, बिलकुल यही बात है।
ऋषभ- पता है ? वीलाश, जब हम पहली बार मीले थे। मेरी हालत फटेहाल कपडे, भुख से मर रहा था मै। जैसे कोई भीखारी, पुलीस भी पीछे थी। तब तुमने मेरी मदद की थी। लेकीन उससे पहले मेरी जींदगी वैसी नही थी। वैसे तो मै बचपनसे अनाथ था, और अनाथ आश्रममे ही पला बढा था। नाम मीत पटेल, अब ये सवाल आयेगा। एक अनाथ का सरनेम होता है क्या ? तो जलाब ये है की हक्षारे अनाथालय के सभी बच्चोको पटेल सरनेम दी हुई थी। मुझे पढने का बहुत सोख था। मैने खुब महेनत करके १२वी पास की और भारत की प्रख्यात और टोप कोलेजो मे से एक IIT rurki मे एडमीसन पा लीया था। मै उस वक्त अच्छाई मे मानने वाला ईन्सान था। दीखने मे काफी गुड लुकीन्ग, गांधीगीरी मे वीश्वास रखता था और प्यारकी पुजा करता था। उसी वक्त सेमीस्टर ३ मै ही मेरी एक गल्डफ्रेन्ड थी। नाम पांखी, नाम की तरह पंख फेलाए उडने के सपने देखा करती थी, मेरी पांखी।
उसके बारेमे क्या बताऊ, वीलाश तुम्है। आजभी जब उसका नाम होठो पर आता है। मुस्कान छुट जाती है। पता है उसके मुह के आगे के तीन दात थोडे अंदरकी तरफ थै। तो जबभी वो मुस्कुराती थी। माँ कसम दील खीचके ले जाती थी। उसके मुलायम हाथ, मेने उसे इतनी किश कही परभी नही की जीतनी उसके हाथोको चुमकर की। वो थी ही ऐसी। सब जैसी फिरभी नायाब। बैठे-बैठे जब हम एक-दुसरे पर अपना सर रखते थे। तब उसके बालोकी खुशबु के क्या कहने। मै हरबार पुछता था की तुम अपने बालो मे क्या लगाती हो, पर वो हर बार ताल देती थी। मुझे आज तक नही पता चलाकी वो अपने बालो मे क्या लगाती थी। मैने उसके लिए एक मोरकी छवी वाला नायाब बंध भी लाकर दीया था। ताकी कामके वखत बाल उसे परेसान न करे। वैसे तो उसके खुले बाल ही अच्छे लगते थै।
वो मुझ पर दीवानी थी 'मीरा की तरह' और मै उस पर कायल था 'मजनु की तरह'।
मेरी जींदगी बेस्ट चल रही थी। बेस्ट कोलेज,बेस्ट स्टडी, बेस्ट टाइम, बेस्ट गर्ल। Every thing is perfect.
वक्त था सेम ७ के प्लेसमैन्ट टाईम का। मै सोच रहा था की कोई अच्छी सी नौकरी लै लुगा। जीससे मै जल्द से जल्द पांखीके घर वालो से शादीकी बात कर सकु। वैसेभी मुझे कोईभी इन्स्टीट्युट नौकरी दे देगा। क्योकि मे था इतना काबील।
लेकीन वो मनहुश दीन, मै जैसे ही इंटरव्यु देकर नीकला, मै बहोत खुश था। क्योकि मुझे नोकरी मील गयी थी। लेकीन बाहीर खडी एक लडकी आयेशा, मुझे पसंद करती थी। आकर सीधे उसने मेरे होठोको चुम लीया। अभी मै कुछ समझ पाता। उससे पहले वक्तने अपनी सुई घुमाई और सामने पांखी खडी है।
मै जबतक आयेशा से बचकर पांखी के तरफ जाता। वो जा चुकी थी। वो शायद ये देखकर गई थी की मै और आयेशा किश कर रहे थै। मुझेभी लगा की वो बीलकुल ये समझकर गई। मगर मैने ज्यादा प्रयास नही किया उसे रोकने का। क्योकि मुझै भरोसा था हमारे प्यार पर, हमारे विश्वास पर की वो मुझे समझेगी। भले उसने कुछ भी देखा हो पर वो मुझे जानती है, ये वीश्वास था मुझे।
उसके बाद वो मुझे ५ दीन बाद मीली जब हमारी परीक्षा थी। वो मुझसे मीले बीना परीक्षा कक्षमे चली गई। ये तो छोडो मुझसे आँखे तक ना मीलाई। मै बैचेन हो गया। पेपर मे क्या लीखना भान ही ना रहा और बस उसी का खयाल। कही वो चली ना जाए, इस डरसे खाली पेपर देकर मै बाहर नीकल आया। पेपर खत्म होने पर वो फिरसे नझरे चुरा कर जाना चाहती थी पर मैने उसका रास्ता रोका। कहा- देखा पांखी you know me. तुम मुझे जानती हो। मै वैसा नही हु। मेरी उसमे कोई गलती नही थी। यार, अगर तुम्हेभी मुझे समझाना पडे तो इससे बुरी बात क्या होगी। you know that, that I love you. मै तुमसे प्यार करता हु। मगर मेरी बातो का उस पर कोई असर ना हुआ।
हुआ तो ये, उसकी लाल जुकी हुई आँखे बडी मुश्किल से उपर की तरफ उठी। इससे ये साफ पता चल रहा था की पीछले पाच दीनोसे उसने अपने आँसु रोकने के प्रयास के अलावा कुछ ना किया होगा। यह देखकर मेरी भी हिम्मत जवाब दे गई।
मगर वो कहा से मांग लाई थी पता नही। उसने नजरोसे नजरे मीलाई फिर मेरे सरको पकडकर अपने सर से लगाकर खुब रोई और बोल दीया। मीस्टर मीत पटेल It's over. फिर वो वहा से नीकली है। पलकर एक बार तक न देखा। मै चीखता रहा पांखी पांखी पर वो एक कदम ना रुकी। शायद रुकती, तो रुक जाती, इसी डरसे नही रुकी होगी। उसके बाद मैने उससे मीलने के बहोत प्रयास किए मगर वो गल्स होस्टेल से नीकलती ही नही थी। वो अपने रुममे अकेली रहती थी। तो कोई रुममेट भी नही था। कोलेज आना एकदम बंध हो चुका था।
तो मैने एकदीन हिम्मत जुटाई और रातको नीकल पडा। गल्स होस्टेल, पांखीका रुम दुजे माले पर था। सबकी तरह मै भी पाईपसे चढा और खीडकी तक पहुचा। प्यारकी एक जलक, जींलगी की एक जलक पाने के लिए मेने जटसे खीडकी खोली और क्या देखता हु। पंखे से बंधी पांखी लटक रही है। शायद वो इतना दर्द शह ना सकी। मुझसे दुर रहेना का दर्द। और पास ना आसकी एक गलत फहमी की वजह से।
मै समझ नही पा रहा था, क्या हो रहा है। दीमाग किस तरह काम कर रहा था पता नही। तभी पेटने अपना सारा कचरा मुहसे होते हुए बाहीर नीकाल दीया। इसी दौरान पैरोने साथ छोडा और दुसरी मंजीलसे सीधा नीचे जा गीरा।
जब होस आया तबतक उसके घर वाले उसे लेजा चुके थे। डोक्टसे पता चला था की उसकी मोत एक दीन पहले हो चुकी थी। इसलिए मुझ पर कोई केस नही हुआ। पर मै हार चुका था। मेरी महोब्बत पांखी जा चुकी थी।
उसके बाद मुझे होश आया की कुछ प्यार नही होता। अगर प्यार सचमे होता तो पांखी मुझे समझती। मुझ पर विश्वास करती। भले उसने मुझे किश करते देखा मगर उसे समझना चाहीए था, कि क्या हमारा प्यार मुझे ऐसा करने देता। अगर प्यार होता तो ये सबकुछ होता। मगर ये तो सीर्फ एक ढौग है। उसी दीन जाकर मैने अपना काम और नाम बदल दीया, मैने आयेशा का खुन कर दीया पुलीस मेरे पीछे थी और फिर तुम मील गए। मेरे भाई।
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- जारी