हम दो जन थे।फिर एक छोटी सी टीन्डसी आ गई।रिश्तेदारी इतनी तल्ख हो गई थी कि न किसी के आना न जाना।बेटी आ गई थी दिन भर मुहल्ले में मां को डुलाए रहती।दिन छोटे होते और रातें लंबी।बेटी सो रहती तब हम एक कंबल में स्निग्ध प्रेम में लिपटे रतजगा किये पड़े रहते।प्रेम जिसमें से कामुकता का अंत तिरोहित हो चुका था।प्रेम जिसमें इच्छा कामना में बदल गई थी।वास्तविकता के झीने आवरण तले उष्ण प्रेम की गरमाहट थी और हल्की फुल्की छेड़छाड़ भरी चूमा चाटी।
बेटी दो साल की हो गई थी।दीदी के घर जाना नहीं हुआ था।दीदी से बिटिया के जन्म के वक्त जो थोड़ी सी लेंग- थेंग हो गई थी उसने एक चुप्पा सा खिंचाव पैदा कर दिया था।
मां ने कई बार कहा कि दीदी के यहां हो आओ!ना नुच बहानेबाजी करते दो साल बीत गए।अब जाकर प्रोग्राम बना।
लखनऊ शताब्दी प्लेटफॉर्म पर आ गई थी।मीतू यानी मेरी पत्नी ने जींस टॉप पहना था।पापा का फोन आया था कि वे स्टेशन पर कुछ सामान देने आयेंगे।
मीतू नाराज हुई कि उसे क्यों न बताया।वह जींस टॉप तो न पहनती।अब इस पर दुपट्टा लेकर चरण स्पर्श करना कितना ऑकवर्ड लगेगा।
"अभी उनके आने में वक़्त है।ट्रैन के टॉयलेट में जाकर सलवार सूट पहन लूं।"पत्नी इजाजत चाहती थी।लेकिन वक़्त कहां था।ट्रैन छूटने ही वाली थी।पापा किसी वक़्त भी आ सकते थे।
पापा आकर चले गए थे।बिटिया को किशमिश दे गए थे।वह उसी को चिथकर फेंक रही थी।पत्नी ने दुपट्टा उतारकर तह करके बैग में रख दिया था।लखनऊ शताब्दी चल चुकी थी।
लखनऊ स्टेशन पर जीजा जी आये थे। रिक्शा पर मैं, मेरी पत्नी और बिटिया सामान समेत बड़ी मुश्किल से टंगे थे।फिसलने वाली सीट थी।बार बार गिरने को हो रहे थे।मेरी
पत्नी मीतू पहली बार ननद के घर आई थी।
एक सौ गज के लंबे से मकान में दीदी के हिस्से डेढ़ कमरा आया था।पहली मंजिल को जाती बाबा आदम के जमाने की लाल पत्थर की संकरी सी सीढ़ियां थी।सीढ़ियों के बाद सामने एक छोटा कमरा था जो ड्राईंग रुम के तौर पर इस्तेमाल होता था।उस कमरे में से होकर बेडरूम का रास्ता था।बेडरूम तीन सीढ़ी और चढ़कर था।
हमने अपना सामान रख दिया था।
दीदी चाय बना लाई थी।पत्नी इधर उधर देख रही थी।
'मीतू भाभी!चाय ले लो।'दीदी की आवाज़ इन दो सालों में मेरे लिए अपरिचित सी हो गई थी।दीदी की आवाज मीना कुमारी जैसी हो गई थी।लगता है उनके सीने में कुछ बैठ गया है।कफ या गम पता नहीं।
मीतू पूछती है,"दीदी!बाथरूम किधर है?"
दीदी कुछ नहीं बोलती मगर जीजा जी की तरफ देखती है।
जीजा जी परे देखने लगते हैं।
मीतू असमंजस में भरकर चाय का कप उठाकर मुंह के लगा लेती है।
मैं चाय पीकर कप रख चुका हूं।
"आओ!मैं दिखाता हूं बाथरूम!'मैं कहता हुआ उठ खड़ा हुआ था।
जितनी सीढियां चढकर आए थे उतनी ही उतरकर मैं मीतू के साथ नीचे आ गया हूं।
दीदी की देवरानी गली में कपड़े धो रही थी।
मुझे देख उठ खड़ी हुई।
"भैया!प्रणाम!"वह मुझे कह रही थी।
"प्रणाम बिट्टो कैसी हो!"
"भैया कृपा है आप लोगों की!'
"मीतू भाभी नमस्ते!'वह पत्नी से मुखातिब है।
पत्नी अनजाना सा सिर हिलाकर जवाब देती है।उसे बाथरूम जाना है।
"इसे बाथरूम जाना है।"मैं संकोच से कहता हूं।
"जाइए न!"बिट्टो थोड़ा साइड हट गई है।
पत्नी गलियारे में बिखरे कपड़ों,बिछी हुई पटिया और फैले हुए साबुन के पानी में संभलकर पैर रखती हुई बाथरूम में घुस गई है।
"तुम लोगों का झगड़ा सुल्टा नहीं अभी तक?"
"कैसे सुलटे?जब आपके जीजा जिद पर अड़े हैं।आपको पता है न कितने जिद्दी हैं वे!इन लोगों के पीछे हम लोगों की चोटियाँ उखड़ रही हैं।"
बिट्टो मुस्कराती है।
मीतू बाहर आ गई है।हम दोनों सीढियां चढ़कर उपर पहुंचे हैं।दीदी जीजा तनावपूर्ण चेहरे लिए सीढियों के मुहाने पर खड़े हैं।
"क्या कहती है कल्लो!"दीदी तंज भरी आवाज में मुझसे पूछती है।
मैं कुछ नहीं बोलता।
"क्या कहेगी!"ये जीजा थे,"सच्ची बनकर दिखा रही होगी।इनका काम ही है नाले चोर नाले चतुर!"
तनाव आसमान तक पसर गया है।यह अलग बात है कि डेढ़ कमरे के मकान में हिस्से आया आसमान कितना है।
"जीजा जी!मेरी बहन कोमल मन की है।"मैं स्वर में भरसक दुःख भरकर कहता हूं,"उसे छोटी छोटी बातों से बड़ी गहरी ठेस लगती है।आप मेरी बहन को आसान जिंदगी देते।आपने मेरी बहन को बड़ी कठिन जिंदगी दी है।"
दुःख के अतिरेक से मेरा स्वर भर्रा आ गया है।
बहन कभी आतंकित आंखों से
कभी अपराधी भाव से मेरी तरफ देख रही है।
जीजा जी कौर पर कौर चबा रहे हैं।हर कौर के साथ आलू पनीर की रसेदार सब्ज़ी करीने से लपेटी जा रही है।
क्या इस आदमी को कुछ फर्क पड़ता है।
जीजा जी अपने काम पर चले गए हैं।मीतू बिटिया को लेकर बेडरूम में सो गई है।
हम भाई बहन भयानक शांति के दरम्यान ड्राईंग रूम में कुछ न करते हुए बैठे हैं।
बाबू,दीदी और जीजा की बेटी,इकलौती संतान अभी स्कूल से नहीं आई है।
बाबू आ गई है।मीतू और बिटिया के साथ खेल रही है।दीदी पड़ोस में गई है।कंधे पर तौलिया और हाथ में कपड़ों भरी बाल्टी है।दीदी को नहाना और कपड़े धोना है।यह काम वह पड़ोस की नंदा चाची के यहां करती है।
मैं सोफे पर अधलेटा एक पत्रिका के पन्ने पलट रहा हूं।
मीतू और बाबू की बातचीत के स्वर कानों में पड़ते हैं।
"बाबू!तुम लोग बाथरूम वगैरह कहां जाते हो?"
"मैं तो नीचे जाती हूं।पापा दादा दादी के घर जाते हैं।मां नंदा चाची के यहां!"
"तुम लोग अपना बाथरूम क्यों नहीं बनवाते?"यह मीतू का स्वर था।
"पापा नहीं बनवाते!मां पहले कहती थी,रोज झगड़ा होता था।फिर एक दिन पापा ने सिर में ईंट मार ली।उस दिन से मां कुछ नहीं कहती।"बाबू इतनी बड़ी बात आराम से कहे जा रही थी।
मैं अभी भी पत्रिका के पन्ने पलट रहा था।
दीदी आ गई थी।
"तुम लोग कहीं घूम आते?मीतू घर में पड़ी बोर होती रहेगी।इमामबाड़ा वगरैह बहुत सी जगह हैं देखने को!"दीदी मुझसे कह रही है।
"आप चलो तो चलें!"मैं कहता हूं।
"हम लोग तो यहीं रहते हैं।देखते रहते हैं।"दीदी झूठ बोलते समय हमेशा परे देखती है।
"क्यों झूठ बोलती हो दीदी!मुझे एक बार में ही पता चल जाता है।कैसी घुटन भरी जिंदगी जी रही हो तुम!"मैं कहता हूं तो दीदी बहुत देर तक मेरी तरफ देखती है।
"करवाने वाला तो तू ही था न!क्यों नहीं देखा अपनी दीदी के लिए अच्छा घर बार!"दीदी अब सीधे मेरी आंखों में देख रही है।
दीदी का इस तरह देखना मुझे अंदर तक भेद जाता है।मां उन दिनों दीदी के रिश्ते के लिए बड़ी जल्दी मचा रही थी।कई बार मुझसे कहा था।
"नरेश!बहन के लिए कोई रिश्ता देख!पच्चीस की हो गई है।फिर रिश्ता मिलना और मुश्किल हो जाएगा।"
मुझे जैसा समझ में आया मैंने घर बताया।मां पिताजी को पसंद आया उन्होंने किया।अब किसी के पेट के अंदर घुसकर तो नहीं देखा जा सकता न।जीजा और
भाईयों में पिता के गुजर जाने के बाद इतनी अधिक फूट पड़ेगी यह कौन जानता था।औरतें चाहकर भी एक दूसरे से बोल नहीं सकती।एक अदृश्य खिंचाव हमेशा बना रहता है।
छोटी छोटी बात को चलता नहीं किया जाता।पूरी तंद खींची जाती है।पूरा हिसाब बैठाया जाता है,फलाने ऐसा क्यों?धिमकाने ऐसा क्यों?यह बात वर लोग करते हैं जिनकी कोई औकात नहीं है।कोई वजूद नहीं है।
दूर बैठे बैठे मैं दीदी के घर के बिगड़ते हालात सुनता था।लेकिन यहां आकर देखा तो हालात ज्यादा संगीन थे।दीदी घुट घुट कर जी रही थी या घुट घुट कर मर रही थी।इनमें से कौन सी बात ज्यादा सही थी यह मैं देखकर अनुभव कर रहा था लेकिन शब्दों में बयान करना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर था।
अगले दिन दीदी स्कूल चली गई थी।एक शासकीय विद्यालय में एड हॉक टीचर मेरी बहन थोड़ी सी तनख्वाह और कुछ ट्यूशन करके पैसा पैसा जोड़कर अपने घर का सपना देख रही थी।अपना घर जिसमें अपना टॉयलेट बाथरूम हो जिसमें वह जब जी करे तब जा सके।सपने के साथ साथ एक चिंता भी उसके मन को घेरे रहती थी।पता नहीं उसके पति नया घर लेने की इजाजत देंगे भी या नहीं।जीजा और उनके भाइयों में झगड़ा 7 फुट बाई 12 फुट की जगह को लेकर था जिस पर एक पुराना खंडहर बाथरूम खड़ा था।उसके आधे हिस्से से भी कम जगह में आधी दीवार उठाकर एक अस्थाई डब्ल्यू सी बनाई गई थी जो भाईयों के बीच स्थाई झगड़े का कारण बन गई थी।उस जगह पर दावा मजबूत रहे इसलिए जीजा अपना अलग बाथरूम टॉयलेट बाथरूम बनवाते नहीं थे।और भाई बदले में उन्हें उस टॉयलेट बाथरूम में घुसने नहीं देते थे।जीजा जी थोड़ी दूरी पर स्थित अपने एक और मकान जिसमें उनकी बूढ़ी मां रहती थी,में बने हुए बाथरूम लैट्रिन को इस्तेमाल करते थे।बाबू वहीँ नीचे ही चली जाती थी।बाबू को वे लोग नहीं रोकते थे।हम लोग भी जितने दिन वहां रहे उसमें ही जाते रहे।हमें भी किसी ने न रोका।असली मुसीबत दीदी को थी वह बहुत जरूरत पड़ने पर पड़ोस में जाती थी।वरना जरूरत को दबाए रखती थी।इस अमानवीय स्थिति में लगातार जीते रहने के हालात ने उसके चेहरे पर विवशता मिश्रित खीझ के स्थायी भाव बन गए थे।दीदी ने कभी शानदार रहन-सहन का सपना नहीं देखा था ।वह अपना सादा सा छोटा घर चाहती थी।इस डेढ़ कमरे के मकान में सब था सिवाय एक अदद टॉयलेट बाथरूम के जो उसे कैसे भी हासिल न हो सकता था।