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योगिनी - 13

योगिनी

13

योगी भुवन को आदि-कैलाश से अलमोड़ा जनपद के मानिला गांव में वापस आये हुए तीन दिन हो चुके हैं। माँ-अनिला (मल्ला) मंदिर में प्रवेश करते ही उसके पुनरागमन का समाचार मानिला ग्राम में फैल गया है एवं मानिलावासी उसके अकस्मात मंदिर छोड़कर चले जाने का कारण जानने हेतु मंदिर पर आने लगे हैं। उनके पूछने पर योगी अपनी आदि-कैलाश की यात्रा के विषय में बताने लगता है अथवा हेड़ाखान मंदिर, जागेश्वर मंदिर, पातालभुवनेश्वर की गुफा़, आदि-कैलाश पर्वत आदि की अद्भुत भव्यता एवं रहस्यमयता का वर्णन करने लगता है, परंतु मानिला मंदिर को चुपचाप छोड़कर चले जाने के विषय को टाल जाता है। ग्रामवासी यह सोचकर पुनप्र्रश्न नहीं करते हैं कि योगी जी की माया वही जाने। पर्वतीय ग्रामों में अभी भी सभी का जीवन इतना खुला हुआ एवं एक दूसरे पर निर्भर रहता है कि किसी भी व्यक्ति का अभाव सबको खलता है। पिछले दिनों मानिला मंदिर में जाने पर वहां योगी के न मिलने पर ग्रामवासियों के जीवन में जो रिक्तता की अनुभूति होने लगी थी, वह समाप्त हो गई है और वे योगी द्वारा बताये आदि-कैलाश यात्रा वर्णन से अभिभूत हैं।

योगी भुवन के लौट आने से योगिनी मीता के मुखमंडल पर प्रसन्नता स्पष्ट झलकने लगी है। भुवन को यह पता चल चुका है कि अमेरिका से आया हुआ माइक उसके मानिला मंदिर छोड़ने के दूसरे दिन ही मंदिर से चला गया था; और वह समझ गया है कि उसकी यह आशंका निर्मूल थी कि योगिनी मीता पुनः माइक के साथ अमेरिका चली जायेगी। भुवन अब आश्वस्त है, परंतु इन तीन दिनों में भुवन एवं मीता मंे किसी ने यह बात नही उठाई है कि भुवन अकस्मात मानिला छोड़कर क्यों चला गया था। यह बात अपने मुंह से पूछने के बजाय मीता इस प्रतीक्षा में है कि भुवन स्वयं अपने मन की बात स्पष्ट करेगा। वह इस तथ्य को अनदेखा नहीं कर पा रही है कि कुछ वर्ष पूर्व मीता द्वारा माइक के साथ अकस्मात अमेरिका चले जाने वाली घटना के विषय में भी भुवन ने कभी कोई बात नहीं उठाई है। अमेरिका से वापस आने के पश्चात मीता के मन में यह इच्छा होती रही थी कि भुवन उससे उसके माइक के साथ चले जाने का कारण पूछे, परंतु मन में बसी किसी गं्रंथि अथवा मन पर लगी किसी चोट के कारण भुवन ने कभी यह बात नहीं छेड़ी थी। अमेरिका से लौटने के समय भुवन के मुख पर उत्पन्न भाव को देखकर मीता अपनी ओर से बात छेड़ने का साहस नहीं कर पाई थी।

मीता उद्विग्नता से प्रतीक्षारत अवश्य रही है कि भुवन अपने अकस्मात चले जाने का कारण स्वयं बतायेगा, परंतु अब भुवन की इस विषय में चुप्पी असह्य हो रही थी। भुवन की चुप्पी से आतंकित मीता भी कुछ पूछने में सकुचाहट अनुभव करती थी। यह कुछ कुछ वैसा ही हो रहा था कि ‘सिलसिला बात का हमसे चलाया न गया, मुझसे पूछा न गया और उनसे बताया न गया।’ और मीता को अब इस दुराव की स्थिति में एक पल भी जी पाना असम्भव हो रहा है। आज मंदिर परिसर में बड़ी शांति है क्योंकि कोई बाहरी दर्शनार्थी वहां नहीं रुका है और मानिला गांव के एक परिवार में विवाहोत्सव होने के कारण मंदिर के सेवक भी सायंकाल की आरती के उपरांत छुट्टी लेकर चले गये हैं। मीता ने मन बना लिया है कि आज वह भुवन से इस विषय पर अवश्य बातचीत करेगी। रात्रि भोज के समय मीता इसी उधेड़बुन में रहने के कारण शांत रही और उसकी चुप्पी के परावर्तित प्रभाव से भुवन भी चुपचाप भोजन करता रहा। भोजन के उपरांत दोनों मंदिर के द्वार पर आकर सीढ़ियों पर बैठ गये। अपरान्ह में वर्षा हो गई थी परंतु अब आकाश निर्मल था एवं उसमें टिमटिमाते अनगिनत तारे निर्जन वन के एकांत में एक रहस्यलोक का ताना बाना बुन रहे थे। वातावरण में शीतलता बढ़ रही थी, परंतु मीता अपने मानस की व्यग्रता के कारण उसका आभास नहीं कर पा रही थी। कुछ समय उपरांत जब भुवन उठने लगा तो मीता ने उसे बांह पकड़कर बिठा लिया। भुवन मीता को प्रश्नवाचक दृष्टि से देखता हुआ पुनः सीढ़ी पर बैठ गया। मीता आज भुवन के मन के रहस्यलोक को उसी के द्वारा अनावरित करवाने का मन बना चुकी थी, अतः वह भुवन की आंखों में आंखें डालकर एक- एक शब्द को तौलते हुए बोली,

‘भुवन! तुम जानते हो कि मंै अपना स्व एवं अपना भूत भुलाकर तुम्हें अपना सर्वस्व मानकर तुम्हारे पास आई्र थी, परंतु मुझे लगता है कि मैं आज तक भी तुम्हें आश्वस्त करने में सफल नहीं हुई हूं कि मैं केवल तुम्हारी हूॅ।’

भुवन अनजान सा बनकर मीता की ओर देखने लगा, तो मीता बात को स्पष्ट करते हुए बोली,

‘यह सत्य है कि मैं तुमसे बिना पूछे माइक के साथ अमेरिका चली गई थी, परंतु तुम स्वयं अपने हृदय में झांककर अपने से पूछोे कि क्या तुमने अपने अंतर्मुखी एवं दुराव-छुपाव के व्यवहार से ऐसी परिस्थिति उत्पन्न नहीं कर दी थी जिसमें कुछ समय के लिये हम दोनों का अलग हो जाना ही श्रेयस्कर था? फिर भी मेरे माइक के साथ अमेरिका जाते समय यदि तुम मेरी आंखों में आंखें डालकर अधिकारपूर्वक कह देते ‘मीता तुम मेरे बिना कहीं नहीं जाओगी’, तो क्या मैं जा सकती थी? और फिर जब मैं छह माह पश्चात वापस आई थी, तो क्या तुम मुझसे झगड़ भी नहीं सकते थे? तुमने तो ऐसी चुप्पी साध ली थी जैसे मैं तुम्हारी कुछ भी रही ही नहीं हूं। फिर इस बार माइक के आने पर यदि मेरा उससे मिलना तुम्हें अच्छा नहीं लगता था, तो क्या तुम यह बात मुझसे कह नहीं सकते थे? तुमने हमारे प्रेम को इतना कमजो़र कैसे मान लिया कि इतनी सी बात से इतने व्यथित हो गये कि मेरा और माइक का रास्ता साफ़ करने की बात सोचकर चुपचाप मंदिर से चले गये; और अब जब वापस आ भी गये हो तो मुझसे दूर बिताये अपने दिनों के विषय में आज तक मुझसे बात ही नहीं की है। यह किस प्रकार का प्रेम है? क्या तुम्हें हमारे प्रेम की दृढ़ता पर लेशमात्र विश्वास नहीं है?’

मीता चुप हुई, तो भुवन तुरंत कुछ न बोला, वरन् मीता के नेत्रों की गहराई्र में देर तक झंाकता रहा। फिर धीर गम्भीर स्वर में कहना प्रारम्भ किया,

‘मीता! म्ुाझे तुम्हारे मेरे प्रति प्रेम पर अपने स्वयं के प्रेम से भी अधिक विश्वास है, और मैं जानता हूं चाहे तुम मेरे निकट रहो अथवा सहस्रों मील दूर तुम मेरी ही रहोगी। परंतु तुम्हारे इस अगाध प्रेम की अनुभूति ही तो मुझे तुम्हारी किसी अन्य के साथ अल्प-अवधि की निकटता को भी सहन नहीं करने देती है। मुझे जितना अधिक ऐसा लगता है कि तुम मेरी हो- केवल मेरी-, उतनी ही तुम्हारी निकटता की इच्छा होती है और उतनी ही तुम्हारी किसी अन्य से निकटता खलती है। मुझे नहीं पता कि यह मेरे प्रेम की तीक्ष्णता का परिणाम है अथवा मेरी चारित्रिक अदृढ़ता का, परंतु मैं तुम्हें माइक से धुलमिलकर बात करते देखकर एक गम्भीर अवसाद की स्थिति में समाहित होने लगता हूं।........’

अपने स्वभावानुसार मीता बीच में ही भुवन को टोककर एक मनोवैज्ञानिक तक्र्र देते हुई कहने लगी,

‘पर क्या यह मन में बसी किसी असुरक्षा की ग्रंथि का द्योतक नहीं है?’

‘हो सकता है कि मेरी ईष्र्या असुरक्षा-ग्रंथि से जनित हो, परंतु यह असुरक्षा कुछ उसी प्रकार की भी तो हो सकती है जैसी एक माँ अपने बच्चे के प्रति अनुभव करती हैः वह उसे उतना अधिक अपने से चिपटाये रखना चाहती है जितना अधिक उसे असुरक्षित समझती है।’

भुवन द्वारा इस प्रकार अपने मानस के अंतद्र्वंद्व को स्पष्ट कर देने से मीता को बड़ी सांत्वना मिली। भुवन संकोची स्वभाव का था एवं मीता के प्रति अपने प्रेम का इतना स्पष्ट वर्णन उसने प्रथम बार किया था। इससे मीता का मन बल्लियों उछल रहा था। जिस प्रकार बाढ़ आने पर तटबंध को तोड़कर प्रवाहित होने को सरिता उत्सुक हो जाती है, उसी प्रकार मीता वाचाल हो गई एवं अपने अमेरिका जाने के कारण एवं वहां घटित घटनाओं को बताने लगी,

‘‘भुवन! दर्शनार्थियों द्वारा मुझे अधिक महत्व देने से उत्पन्न तुम्हारी हीनभावनाजनित ईष्र्या मेरे मानस को बहुत कचोटती थी। माइक द्वारा उसके साथ शिकागो चलने का प्रस्ताव रखने पर मुझे उस अनुचित ईष्र्या के प्रति विरोध प्रदर्शित करने का अवसर मिल गया था। फिर शिकागो जाने की बात बताने पर तुम्हारे द्वारा ओढ़ी हुई तटस्थता ने उसमें अग्नि में घृत डालने का कार्य किया था। हां, शिकागो पहुंचने पर माइक द्वारा एक अप्रत्याशित पहल अवश्य कर दी गई थी- उसने मेरे प्रति अपनी मांसल अभिरुचि प्रदर्शित की थी; परंतु इस विषय में उसकी प्रशंसा करनी होगी कि मेरी दृढ़ अस्वीकारोक्ति देखकर वह बिना ग्लानि अथवा क्षोभ का भाव लाये चुप हो गया था और आगे भी सामान्य मित्र सम व्यवहार करता रहा था। अपने सम्पर्कों का उपयोग कर उसने मुझे पहले दिन ही वीमेन्स होस्टल में रहने हेतु कमरा दिला दिया था और विमेंस लिबरेशन मूवमेंट के मुख्यालय में काम भी दिला दिया था। मीठे पानी की तीन सौ मील लम्बी मिशिगन झील के किनारे स्थित शिकागो नगर अत्यंत मनोहारी है। मेरे होस्टल से झील दिखती थी एवं मेरा कार्यालय तो झील के किनारे ही स्थित था। यद्यपि विभिन्न समयों एवं मौसमों में यह झील अपनी छटा विभिन्न रूपों में बिखेरती थी, परंतु उसके तीन रूप तो ऐसे थे जिन्हें एक बार देखकर बिरला ही भुला सकता है - ग्रीष्म ऋतु की रात्रि में झील के किनारे स्थित प्रकाश स्तम्भों के परावर्तित प्रकाश की श्रंखला, वर्षा ऋतु में मेघों द्वारा झील पर छोड़ी जाने वाली परछाइयों से पानी की सतह पर उभरने वाली रंग-बिरंगी आभा एवं शरत ऋतु में झील पर बिछी बर्फ़ की चादर की श्वेत-शांत चादर। शिकागो में एक डीवन मार्केट है जिस पर हिंदुस्तानियों एवं पाकिस्तानियों का पूर्ण आधिपत्य हो जाने के कारण अब उसका नाम दीवान मार्केट पड़ गया है। मेेरे छुट्टी के दिन प्रायः वहीं कटते थे। मेरे दिन अमेरिका में ठीक ही कट रहे थे, परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि मुझे वहां किसी दिन तुम्हारी याद न आई हो और तुमसे सात समुंदर की दूरी सताती न हो। अमेरिका से अकस्मात मेरी वापसी का कारण विमेंस लिबरेशन के नाम पर इस मूवमेंट के सदस्यों द्वारा मेरे प्रति की गई उच्छ्ंखलता बनी थी।’’

भुवन टकटकी लगाकर मीता की एक एक बात को आत्मसात करता रहा। फिर उसने भी अपने मानिला से अकस्मात चले जाने एवं वैरागियों के साथ आदि-कैलाश की यात्रा का वर्णन किया,

‘‘मीता! तुम्हारे मंदिर में आने से पूर्व मैं अकेला सभी दर्शनार्थियों की श्रद्धा का केंद्र हुआ करता था। यह सत्य है कि तुम्हारे आने के पश्चात तुम्हारे व्यक्तित्व एवं विस्तृत ज्ञान के आलोक में जब अधिकतर दर्शनार्थियों के आकर्षण का केन्द्र केवल तुम बनने लगीं, तो मेरे पुरुषत्व को ठेस लगी थी और मुझे हीनता का आभास हुआ था। पिछली बार माइक के आने पर उसकी तुम्हारे प्रति विशेष अभिरुचि देखकर मेरे मन में असुरक्षा की भावना व्याप्त हो गई थी - और क्यों न होती, जब तुमने मुझसे पूछे बिना उसके साथ अमेरिका जाने का कार्यक्रम तक बना लिया था? इसी कारण मैंने तुम्हें जाने से नहीे रोका था एवं तुम्हारे लौटने पर तुम्हारे चले जाने का कारण नहीं पूछ सका था। माइक के इस बार आने पर और उसके साथ तुम्हारे उन्मुक्त व्यवहार को देखकर मुझे लगने लगा था कि अब तुम पुनः माइक की निकटता चाहने लगी हो, और मैं कबाब में हड्डी मात्र हूं। इस स्थिति को सह न पाने के कारण मैने अज्ञातवास में चला जाना ही अच्छा समझा। इसी उद्विग्नता के वशीभूत मैं अचानक रात्रि में यहां से चला गया था, बिना यह सोचे कि मुझे कहां जाना है और वहां क्या करना है। मुझे लगता था कि अच्छा हो रास्ते में कोई शेर- चीता ही मुझे खा जाये और इसीलिये रात्रि भर वनमार्ग से चलता रहा था। अनवरत चलते रहने के पश्चात रानीखेत के हेड़ाखान मंदिर पहुंचा था जहां एक साधु ने पहचानकर आश्रय दिया था। वहां से अल्मोड़ा चला था और जब थककर चूर हो गया था तो एक ढाबे के किनारे लुढ़क गया था। दयावान ढाबे वाले ने भोजन पानी कराया था। फिर रात्रि भर चलकर जागेश्वर मंदिर में पहुंच गया था। आत्मग्लानि का भूत तब तक कुछ उतर गया था, अतः वहां कुछ दिन रुक गया था। पर तभी वैरागियों का एक दल, जो आदि-कैलाश जा रहा था, वहां आया और मैं तुमसे और अधिक दूर चले जाने की चाह लिये हुए उसके साथ हो लिया। इस दल के साथ मैने दुर्लभ गुफ़ा में स्थित पाताल-भुवनेश्वर /विष्णु भगवान/ के दर्शन किये। उसके पश्चात कठिन यात्रा करके हम लोग आदि-कैलाश पहुंचे। मैं सोचने लगा था कि मैं वहीं रह जाउूं, जिससे तुम्हें मेरी कोई सूचना मिलने की सम्भावना भी न रहे। परंतु एक रात्रि उसी दल की एक सन्यासिनी द्वारा मेरे प्रति उद्दाम कामना के प्रदर्शन एवं मेेरे द्वारा अस्वीकृति पर उसके ग़ायब हो जाने की घटना ने मुझे ऐसा विचलित कर दिया था जैसे आकाश में उड़ने वाले पक्षी को घरती पर पटक दिया गया हो। तब मैं वायुवेग से मानिला-मंदिर को लौट पड़ा था और तुम्हें यहां पाकर सहज हो गया था। मेरे जाने के तुंरत पश्चात ही माइक के चले जाने की बात जानकर मैं और आश्वस्त हो गया था- और अब मैं जैसा भी हूं, तुम्हारे समक्ष हूं।’’

मीता एवं भुवन के मन उसी प्रकार निर्मल हो रहे थे जैसे वर्षा के उपरांत का पर्वतीय आकाश निर्मल था। वे देर तक उस निर्मलता की अनुभूति में खोये रहे। जब रात्रि घहराने के साथ शीत बदन में चुभने लगी, तो दोनों शयनकक्ष में चले गये। बड़े दिनों बाद उनके तन और मन एक हो रहे थे।

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