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योगिनी - 14

योगिनी

14

योगी भुवन चंद्र आदि-कैलाश से वापस मानिला /मल्ला/ मंदिर आकर प्रसन्न है। योगिनी मीता के पिछली बार की तरह अमेरिका चले जाने की उसकी आशंका निर्मूल सिद्ध हुई है। एक तारों भरी रात्रि में योगिनी मीता के साथ एक दूसरे के हृदय में व्याप्त मिथ्या आशंकाओं एवं धारणाओं के विषय में खुली बात हो जाने से उन दोनों के मन में उद्भूत कलुष धुल गया है। इस कलुष से युगल के मन में उत्पन्न अवगुंठन द्वारा निर्मित बांध टूटकर बह गया है एवं वे प्रेमीद्वय हिम-शिखर से प्रवाहित उच्छंृखल जलधारा की भांति व्याकुल होकर एक दूसरे का संग पाने एवं अभिसाररत रहने में ऐसे व्यस्त रहते हैं जैसे इस बीच उत्पन्न हुई दूरियों की अवधि की क्षतिपूर्ति करना चाहते हों। मानिलावासी योगी एवं योगिनी के मध्य पुनः इतनी उद्भट निकटता को देखकर कुछ-कुछ आश्चर्यचकित हैं, और हेमंत चायवाला, जो उन दोनों के मघ्य नवांकुरित प्रेम के दिनों से आज तक उनके प्रेम-संसार के पल्लवित-पुष्पित होने का साक्षी रहा है, उनकी इस पुनस्र्थापित निकटता को भांपकर आजकल मन ही मन मगन रहता है।

पर्वतीय क्षेत्र में सरिता उच्छृंखल होकर कूलों कगारों को तोड़ती हुई आगे बढ़ती जाती है, परंतु किसी भी सरिता की यह व्याकुलता अक्षुण्ण नहीं होती है। समतल धरा से मिलन पर शनैः शनैः सरिता-प्रवाह भी सम होकर शांत एवं गम्भीरता से बहती धारा में परिवर्तित हो जाता है, और वह पूर्व की भांति अपने सामने पड़ने वाली प्रत्येक वस्तु को निरंकुश हस्ति सम तोड़ फोड़ देने को आकुल नहीं रहता है। शनैः शनैः मीता एवं भुवन की आकुलता भी शमन, शांति, एवं गाम्भीर्य की ओर अग्रसरित होने लगी। दोनों के सम्बंधों में विश्वासजनित धैर्य एवं गार्हत्य स्थापित हो गया। मानिला मंदिर के योगी एवं योगिनी के जीवन में आई संतुष्टि एवं शांति मंदिर की दिनचर्या में अप्रयत्न परिलक्षित होने लगी। मंदिर के वन में विचरण करने वाले पशु-पक्षियों की उछल-कूद एवं चहचहाहट में भी जैसे एक संतुष्टिजनित ठहराव आ गया। योगासन-प्राणायाम के लिये प्रातःकाल मंदिर में आने बाले साधकों, देश-विदेश से आने वाले दर्शनार्थियों एवं सायंकाल आरती-वंदन के लिये आने वाले भक्तों के मनोभावों को भीे यह शांति प्रभावित करने लगी।

किसने सोचा था कि प्रत्येक तूफ़ान के आनेेे के पहले वातावरण में सर्वत्र शांति व्याप्त हो जाना प्रकृति का नियम है। दोपहर का समय था- नवम्बर के महीने के प्रारम्भ की गुनगुनी घूप थी। दर्शनार्थी वापस जा चुके थे अथवा जो बाहर से आकर मंदिर पर रुके थे, वे भोजनोपरांत विश्राम हेतु अपने अपने कमरों में चले गये थे। सर्वत्र शांति छाई हुई थी। मीता अपने कमरे के सामने कुर्सी पर बैठी हुई तंद्रित हो रही थी। तभी डाकिये की आवाज़ सुनाई दी, ‘‘चिट्ठी दरवाजे़ पर रख दी है, ले लीजियेगा।’’

मीता अलसाई हुई कुर्सी से उठी, और पत्र उठा लाई। लिफाफे के उूपर भेजने वाले का पता नहीं लिखा था और मीता उसे किसी अनजाने भक्त का पत्र समझकर अनमने भाव से खोलकर पढ़ने लगी।

‘‘प्रिये मीतू,

यह पत्र तुम्हें लिखने के लिये मैं कई दिनों से साहस जुटा रहा था। यदि मजबूरी न होती तो मैं ऐसा दुस्साहस करता भी नहीं, परंतु क्या करूं मुझे कोई अन्य उपाय भी नहीं दिखाई पड़ रहा है, अतः यह पत्र लिख रहा हूं। मेरा पत्र पाकर तुम्हें क्रोध तो अवश्य आयेगा, पर इसे एक बार पढ़ अवश्य लेना। अपनी वर्तमान दशा के लिये मैं स्वयं ही उत्तरदायी हूं, परंतु मैं आज इतना अकेला, निस्सहाय एवं असमर्थ हूं कि तुम्हारे अतिरिक्त कोई सहारा दिखाई नहीं पड़ रहा है। मैं गत माह इंडिया वापस आ गया था और पारो बिटिया को पत्र लिखा था, परंतु उसने कोई उत्तर नहीं दिया।

अमेरिका जाकर मैं एक धोखेबाज़ गोरी लड़की के जाल में फंस गया था, वह मेरी ‘लिव-इन’ लाइफ़ पार्टनर बन जाने का वादा कर मेरे साथ मेेरे कमरेे में ही रहने लगी थी। यह सच है कि इसमें केवल उसकी छलनामय प्रकृति मात्र दोषी नहीं थी, वरन् मेरा गोरी चमड़ी के प्रति आकर्षण भी बराबर का भागी था। उसके मोहपाश में मैं अपनी वीज़ा की अवधि से उूपर रुक गया था। मुझे अपने जाल में पूरी तरह फं़साकर वह लड़की एक दिन मेरे कमरे की सारी मूल्यवान वस्तुएं लेकर चम्पत हो गई थी- उन वस्तुओं में मेरा पासपोर्ट्र भी था। मैं पहले ही वीज़ा की अवधि के काफ़ी उूपर वहां रुक चुका था, अतः ऐसी स्थिति में आ गया था कि न तो वैध रूप से वहां रह सकता था और न वैध रूप से वापस आ सकता था। कोई ढंग का काम मिल पाने का तो कोई सवाल ही नहीं था, अतः शिकागो में एक इंडियन रेस्ट्ाॅ में लुके-छिपे थोड़े से वेतन पर बैरागीरी करने लगा था। अमेरिका में हज़ारों इंडियन, पाकिस्तानी, मेक्सिकन आदि इस आशा में अवैध घुसकर कि येन केन प्रकारेण वे एक दिन वहां के वैध नागरिक बन जायेंगे, लुक छिप कर कम वेतन पर काम करते रहते हैं। मुझे भी वेतन तो अधिक नहीं मिलता था, परंतु खाने पीने की कोई कमी नहीं थी। अवसाद के क्षणों में खाने पीने की यह प्रचुर उपलब्धता ही मुझे इस दशा को पहुंचा गई है- कुछ दिनों पश्चात ही मुझे उच्च रक्त-चाप रहने लगा था। अमेरिका में इलाज इतना मंहगा है कि मेरे जैसे अवैध रूप से रहकर काम करने वाले बैरा के लिये वहां इलाज करा पाना सम्भव नहीं था। इलाज के अभाव में मेरा रक्तचाप अनियंत्रित होता गया और एक रात सोने के पश्चात जब मैं जागा, तो दाहिने हाथ और दाहिने पैर को उठा पाने में अपने को असमर्थ पाया। पता चला कि लकवा मार गया है। मेरे बगल के कमरे वाले ने अस्पताल की इमरजेंसी को फोन कर दिया। एम्बुलेंस मुझे ले गई और मेरा प्रारम्भिक इलाज भी किया, परंतु मेरे पास इंश्योरेंस एवं अमेरिका में वैध निवास के कोई कागजा़त न होने के कारण उन्होंने वहां की इमिग्रेशन अथौरिटीज़ को फोन कर दिया, जिन्होने मुझे इंडिया को डिपोर्ट कर दिया। अपने घर पहुंचकर मुझे पता चला कि भूतों का डेरा क्या होता है। यहां न कोई मेरा संगी है और न कोई सहायता करने वाला। यहां असमर्थता में मैने घिसट घिसटकर जीवन बिताना प्रारम्भ किया था। ऐसी स्थिति में रक्तचाप घटने के बजाय और बढ़ रहा था। अतः पारो को पत्र लिखा, परंतु उसने कोई उत्तर नहीं दिया। तब तुम्हें यह पत्र लिख रहा हूं। अपने मुहल्ले के पंडित जी से तुम्हारा पता ज्ञात हुआ था, उन्होने किसी धार्मिक पत्रिका मंे मानिला आश्रम एवं वहां की योगिनी के विषय में पढ़ा था। तुम्हें पूरा अधिकार है कि पारो की तरह तुम भी मेरे पत्र का उत्तर न दो, परंतु मेरी प्रार्थना है कि हो सके तो मेरी असहाय स्थिति का ध्यान कर एक बार यहां आ जाओ। मैं चलने फिरने लायक हो जाउूं, तब जब चाहो, वापस चली जाना।

प्रतीक्षा में तुम्हारा.......,

अनुज

यद्यपि मीता को अनुज द्वारा लिखी बातों पर पूर्णतः विश्वास नहीं हुआ, तथापि पत्र पढ़कर वह भीतर से हिल गई - कैसा भी हो, आखिर वह उसका पति तो रहा ही था, मीता का कोमल हृदय अनुज की व्यथा से व्यथित हो गया। पत्र पढ़ते हुए उसे इस बात का ध्यान अवश्य आया कि अनुज ने अपने पत्र में यह महत्वपूर्ण तथ्य छिपा लिया था कि शिकागो में बेयरा की नौकरी करने के दौरान भी उसका किसी वेटे्स से घनिष्ठ सम्बंध था। इसे मीता ने अपने अमेरिका प्रवास के दौरान स्वयं अपनी आंखों से देखा था। उसे लगा कि पता नहीं किस-किस से अनुज के सम्बंध रहे होंगे और किन किन वैध-अवैध गतिविधियों मंे वह लिप्त रहा होगा। उस समय मीता ने उस पत्र को भूल जाने के योग्य मानकर अलग रख दिया, परंतु चाहते हुए भी वह उसे फाड़कर कूड़ेदान में नहीं फेंक सकी।

मानव मन की प्रकृति अनोखी है- प्रायः वह प्रेम की अपेक्षा वितृष्णा से अधिक प्रभावित होता है। यह अलग बात है कि प्रेम का आकर्षण उसे वांछनीय एवं प्रिय लगता है जबकि वितृष्णा का विकर्षण अवांछनीय एवं दुखदायी लगता है। मन का एक और अनोखा गुण है कि लम्बी अवधि बीत जाने पर हमें वे क्षण अधिक याद रहते हैं जो घोर कष्ट में बीते थे और सुख-शांति में बीते क्षण हम प्रायः भूल जाते हैं। मीता का मन भी अनुज द्वारा दिये गये छल के क्षणों को आज बार बार याद कर रहा था, परंतु वह चकित थी कि वे उसे उतने बुरे नहीं लग रहे थे जितनी कि उसे आशा थी। इसके बजाय लकवाग्रस्त अनुज के निस्सहाय होकर रहने की कल्पना बीच बीच में मन में आकर उसके प्रति सहानुभूति का भाव उत्पन्न कर रही थी और उसके पास जाने के निर्णय के विषय में उसे द्विविधाग्रस्त कर रही थी। उसने पत्र फिर उठा लिया और एक एक शब्द पुनः ध्यान से पढ़ने लगी। इसी बीच भुवन वहां आ गया और मीता को गम्भीरता से पत्र पढ़ते देखकर उससे पूछने लगा,

‘‘ किसका पत्र आया है? क्या कोई विशेष बात है?’’

मीता ने कोई उत्तर नहीं दिया वरन् अनुज का पत्र भुवन की ओर बढ़ा दिया। भुवन द्वारा पत्र पढ़ने के दौरान मीता उसके मुख को देखती रही- उसके चेहरे पर अनेक भाव परिलक्षित होते रहे। उस समय भुवन कुछ भी बोला नहीं, वरन् पत्र पढ़कर चुपचाप मीता को वापस कर दिया।

मीता और भुवन का वह दिन आपस में बिना बोले ही बीत गया।

यद्यपि उस दिन मंदिर में अत्यधिक शांति रही थी, तथापि वह शांति उस सागर की शांति जैसी थी जिसके तल पर ज्वालामृखी विस्फोटित होने को व्याकुल हो रहा हो। मीता और भुवन दोनों ही उद्विग्न थे, परंतु किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में कुछ भी बोलने से बच रहे थे। मीता अनुज के प्रकरण को जितना ही मन से निकालने का प्रयत्न कर रही थी, उतना ही उसके मन में बार बार यह विचार आता था कि चाहे जैसा भी हो अनुज कभी तो उसका अपना रहा ही है और ऐसी दयनीय परिस्थिति में तो सामान्य जान-पहिचान वाले लोग भी सहायता को आ जाते हैं। भुवन अपने मन को जैसे ही समझाता कि मानवता के नाते ऐसी स्थिति में मीता को अनुज के पास जाना चाहिये, वैसे ही मस्तिष्क के किसी छुपे-मुंदे कोने से उभरकर असुरक्षा की एक भावना मूर्त रूप लेने लगती- अनुज की सेवा-सुश्रूशा के दौरान उसके प्रति स्वाभाविक रूप से उमड़ी सहानुभूति कहीं मीता के मन में पुराने प्यार को जाग्रत न कर दे।

प्रखर पे्रम के प्रकरणों में मन पर पता नहीं किस प्रेरणा का प्रभाव होता है कि हमारा विवेक प्रायः अपने को दुख पहुंचाने वाले प्रसंगों को उठाने एवं उनके अनुकूल कार्य करने को बाध्य करने लगता है। अतः रात्रि में जब दोनेां बिस्तर पर आ गये तो भुवन ने बात छेड़ दी,

‘क्या सोचा मीता?’

मीता भुवन की ओर देर तक देखती रही, फिर बोली,

‘कुछ नहीं।’

मीता की बात सुनकर भुवन के मन में मीता के अनुज के पास चले जाने की आशंका का ज्वार कुछ शांत हुआ, तथापि उसके मुख से बरबस निकल पड़ा,

‘पर अनुज बहुत बीमार है और अपने को सम्हालने में असमर्थ है?’

अपना कर्तव्य निर्धारित कर पाने के असमंजस के कारण मीता से कोई उचित उत्तर न बन सका और उसने बोल दिया,

‘तो मैं क्या करूं?’

उस समय भुवन पता नहीं अपना बड़प्पन साबित करने की भावना से प्रेरित हो रहा था अथवा अपने मन को चोट पहुंचाने मात्र की नियंत्रणविहीन इच्छा से, कि उसने उत्तर दिया,

‘ऐसे में सहायता मांगनें पर तो कोई भी आगे आ जाता है?’

इस वाक्य में सलाह देने एवं प्रश्न करने दोनों के मंतव्य छिपे हुए प्रतीत हो रहे थे।

मीता अपने अंदर उफ़न रहे ज्वार-भाटे को बाहर आने से रोकने के प्रयत्न में उस समय चुप हो गई, परंतु उस रात्रि देर तक अपना कर्तव्य निर्धारित करने के प्रयत्न में सो न सकी। वह न तो अनुज जैसे धोखेबाज़ के लिये अपने शांत एवं संतुश्ट जीवन में जानबूझकर तूफ़ान लाना चाहती थी और न अनुज के साथ की पुरानी स्मृतियों से पूर्णतः छुटकारा पा रही थी। उसे निरुत्तर पाकर भुवन भी चुप हो गया; उसे भी देर रात तक नींद नहीं आई। वह न तो मीता के अनुज के पास चले जाने के लिये अपने को मन से तैयार कर पा रहा था और न खुलकर मीता को रोक पा रहा था।

प्रातः होने तक मीता ने अपना कर्तव्य निर्धारित कर लिया था और योगासन-प्राणायाम के उपरांत वह भुवन से बोली,

‘तुम ठीक कहते हो भुवन। मुझे जाना ही चाहिये। मैं कल पहली बस से जाउूंगी। अनुज के अपने सम्हालने लायक होते ही शीघ्र वापस लौट आउूंगी।’

यह सुनकर भुवन ने मीता को एक निगाह भर देखा और प्रातःकालीन पूजा का प्रबंध करने लगा।

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