Shahar me ghumta hua aaina books and stories free download online pdf in Hindi

शहर में घूमता हुआ आईना

चौक पर बस धीमे हुई और एक चौबीस वर्ष का नवयुवक कूदकर उतरा।उतरकर वह बाजार को जाती हुई सड़क के किनारे से तीन दुकान छोड़कर न्यूज़ पेपर एजेंट दीनबंधु एजेंसी में घुस गया।छोटे शहरों में ये गली गली दुकान दुकान अखबार सप्लाई करने वाले विक्रेता ही पत्रकार समझे जाते हैं।
दुआ सलाम हुई।
दीनबंधु ने कहा,"ललित पवन जी आपकी कविता आज के दैनिक जागरण में लगवा दी है।मिठाई खिलाओ।"
ललित पवन नाम के इस कवि का असली नाम लाला राम वर्मा था और पेशे से वह एडवोकेट था।रेवाड़ी जिला अदालत में वह बैठा करता था।उसकी प्रेक्टिस बस इतनी ही थी कि जेब खर्च चल जाता था।घर खर्च के लिए कृषि भूमि की आय पर निर्भरता थी।प्रेक्टिस नहीं थी इसलिए कविता करने के लिए पर्याप्त समय था।या कवि होने की वजह से उनकी वक़ालत के गंभीर पेशे में कद्र कम थी इस बारे में आलोचकों में मतभेद था।
वैसे भी चौबीस साल की उम्र खेलने खाने की होती है।वकालत कर लिए तो उम्र पड़ी है।लाला राम वर्मा एडवोकेट उर्फ कवि ललित पवन के लिए हाइकोर्ट में बहस करके केस जीतना इतनी खुशी न देता जितना दैनिक जागरण अखबार के किसी कोने में लेडीज अंडरवियर ब्रेजियर की वाहियात एड के नीचे अपनी कविता छपना खुशी देता था।
"कहां है।दिखाओ?"कहकर उसने दीनबंधु के हाथ से अखबार ले लिया और अपनी कविता छपी देखकर खुशी के आधिक्य से उसके हाथ कांपने लगे।
एकबारगी उसने पूरी कविता पढ़ी।कंपोजर की गलती से एक आध शब्द के हिज्जे गलत हो गए थे।लेकिन इतना तो चलता है,यह सोचकर उसने उन्हें अनदेखा कर दिया।
"कमाल कर दिया दीनबंधु जी आपने!आपने मेरे जीवन की साध पूरी कर दी।"वह कृतज्ञ सा होकर बार बार दीनबंधु जी,दीनबंधु जी कहकर हस रहा था और हाथ भी जोड़े जा रहा था।
दीनबंधु का असली नाम ओम प्रकाश था।उसके पिता चाचा मिट्टी के घड़े, दिए और गमले बनाने में सिद्धहस्त थे।ओमप्रकाश कॉलेज में पढ़ने के दौरान एक दिन लाइब्रेरी से दीनबंधु सर छोटू राम की जीवनी इशू करवा लाया था।उसे पढ़कर वह इतना प्रभावित हुआ कि अपना साहित्यिक नाम यानि तखल्लुस दीनबंधु रख लिया।अखबारों के कालम में छोटे छोटे मुक्तक और मेरे संग हँस लो में चुट्कुले भेजते भेजते उसने एक दिन अखबारों की एजेंसी ले ली।जहां वह अखबार सप्लाई करने के साथ उनका शहर संवाददाता और विज्ञापन एजेंट भी बन गया।साहित्यिक ,राजनैतिक व अपराध कथाओं की पत्रिकाओं के साथ ही वह धार्मिक गुटके,साम्प्रदायिक रिसाले और संघ का नफरत फैलाऊ साहित्य भी बेचता था।खुद वह कम्युनिस्ट स्वभाव का होने के बावजूद अपनी सभी से दोस्ती नहीं किसी से बैर की नीति पर चलता था।
पिता के घड़े बनाने के अध्य-व्यवसाय से लेकर खबरें बनाने के व्यवसाय तक ओमप्रकाश दीनबंधु ने काफी तरक्की कर ली थी।मगर वह यहीं तक न रुका था।इससे आगे बढ़कर वह लोगों को कवि भी बनाने लगा था।वैसे तो इस कस्बेनुमा शहर में राजा भोज की नगरी की तरह हर कोई कवि था लेकिन जो मजा दीनबंधु की छत्रछाया में था वह कहीं नहीं था।दीनबंधु की कृपादृष्टि होने पर आदमी महीने में एक बार तो छप ही सकता था।भाग्य बलवान हो तो दो बार भी छप जाए।भाग्य भी ऐसे बलवान नहीं होता था,लोग कानाफूसी में कहते थे उसके लिए एक अदद हाई क्वालिटी की अंग्रेजी बोतल शराब की भेंट देनी पड़ती थी।जो बात लोग बाग दबे स्वर में कहते थे सुरेश बंडलबाज नाम का आशुकवि सरे आम कहता था।हालांकि इस अक्षम्य अपराध की वजह से उसकी एक भी कविता किसी भी अखबार में नहीं छप सकी थी।बंडलबाज को इस बात की कोई खास परवाह भी नहीं थी।क्योंकि वह अपनी प्रतिभा के बल पर राजधानी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपता रहता था।राजधानी की एक सामाजिक संस्था से कोई अवार्ड भी ले आया था जिसका फोटो उसने अपने आयुर्वेदिक स्टोर में सबसे अच्छी जगह पर लगा रखा था ताकि दवा खरीदने आये प्रत्येक व्यक्ति को दिखाई दे।शहर का इकलौता आयुर्वेदिक स्टोर होने की वजह से हर कोई उसकी दुकान पर आता ही था।कोई उस फोटो के बारे में इतना भर पूछ ले कि वह फोटो किस अवसर का है,सुरेश भाई उसे विस्तार से बताता था।अगर सुनने वाला धैर्य से सुन ले तो उसे दवा पर पंद्रह प्रतिशत डिस्काउंट मिल सकता था।
लाला राम अपनी कविता वाला अखबार लेकर सुरेश बंडलबाज की दुकान पर गया।उसकी खुशी का कारण सुरेश को पहले से ही मालूम था।दीनबंधु के साथ लालाराम की नजदीकी बढ़ी हुई है,इससे परिचित होते हुए भी वह लाला का स्वागत ही करता।क्योंकि लाला उसे गुरु जी कहता था और उससे कविता सुधरवाने के लिए सलाह भी लेता रहता था।
सुरेश ने अखबार में छपी उस कविता को पढ़ा।कविता उसे सामान्य ही लगी।लेकिन उसका दिल न तोड़ने की कोशिश में वह इतना ही बोला,"उस कुम्हार के पास जाने की क्या जरूरत थी तुझे।कविता इतनी अच्छी है कि मुझे कहते तो मैं राजधानी की किसी बड़ी पत्रिका में छपवा देता।कादंबिनी के साहित्य संपादक से मेरी अच्छी पहचान है।मेरी सलाह वह अक्सर लेता रहता है।"
"जी!अब तो यह छप गई।मैंने एक अच्छी कविता स्त्रियों की दयनीय हालत पर कल ही लिखी है।आपसे सुधरवा कर उसे भेजूंगा।अगर आपकी अनुकम्पा हो जाए तो छप जाए।"
मन ही मन लाला जानता था कि कादंबिनी को यहाँ कोई नहीं पढ़ता।तीन रुपये का अखबार खरीदने में तो लोगों की जान जाती है।मैगजीन कौन खरीदेगा!मैगजीन पढ़ने के शौकीन यहां कल्याण पढ़ते हैं।वह भी मांगकर!!सब को मुफ्त का चाहिए।
ऐसी पत्रिका में छपने की उसकी कोई इच्छा नहीं थी।लेकिन गुरुजी को नाराज करने का कौन जोखिम मोल ले।
"स्त्री की दयनीय दशा पर सुकवि वर्षों से लिखते आए हैं।तुम्हारी कविता की उन महारथियों के सामने क्या बिसात।तुम मेरे शिष्य हो स्त्री की कमनीय काया, कटीले नैनों, लंबे सर्पिणी से केशों, वासनामयी आंखों और इंगितों पर लिखो।साम्प्रदायिक संदर्भ देकर उक्तियाँ गढ़ो।प्रेम में दग्ध हृदय की वेदना पर कालिदास सी रचना रचो।देखो तुम्हें कभी भी जीवन मे दीनबंधु जैसे छुटभैये की कृपादृष्टि की जरूरत ही न पड़ेगी।
"भैया स्वपनदोष की कोई पेटेंट औषधि दो न।बड़ा परेशान हूं।"
सुरेश बंडलबाज ने उसे ईशारा किया।मानो कह रहा हो,देखो लोगों की जरूरत क्या है।और तुम क्या बेचने में लगे हो।
दो सौ रुपये की औषधियों का छपा मूल्य पांच सौ रुपये वसूलकर जब तक सुरेश शिष्य की तरफ मुड़ा तब तक लाला राम सोच रहा था,गुरु जी के लिए ऐसी कविता करना आसान है क्योंकि इतनी सुंदर पत्नी के रहते उनका आजकल सामने वाली ललाइन के साथ आंख मटक्का है।एक विधवा भाभी के यहाँ तो दोपहर में आराम करने की अफवाह तो इस कस्बे में आम है।बदले में दुकान से मुफ्त दवा और गल्ले से जो नगदी जाती है उसके बाद श्रृंगार रस में पगी हुई टपकते शहद सी कविता रचने में कितना तो सुभीता है।यह सुविधा अगर लाला को भी सहज सुलभ रहती तो वह भी ऐसी कविता रच लेता।उसके पास तो अनुभव के नाम पर कम दहेज लाने और साधारण शक़्ल सूरत के कारण ससुराल से निकाल दी गई सगी बहन के अनुभव हैं।जैसी जिसकी परिस्थिति वैसी उसकी मति!
उसे वकालत करते हुए सिर्फ एक ही साल हुआ था।इतने ही समय इतनी दुखी और धोखा खाई हुई स्त्रियां देख ली थी कि उसका कवि मन उनकी दयनीय दशा देखकर द्रवित हो उठता है।उनकी कमनीय काया थी या नहीं?नेत्रों की भंगिमा कैसी थी?केशराशि कैसे बल खाये कि प्रेमियों के दिल में हौल उठे ऐसा कोई विचार उन्हें देखकर उसके मन में नहीं आता था।
कानून की नीरस धाराओं की अंतहीन बहस में उलझकर परिमाण पर पहुंचे बिना अगली तारीख पड़ जाना।जज,अहलमद,स्टेनो और अहलकारों का मशीन की तरह काम करते जाना उसे अखरता था।जज और वकील हत्या हुई है या बलात्कार हुआ है उसी भाव से बोलते थे जिस भाव से वे चाय लाना, फ़ाइल दिखाना बोलते थे।पुलिसकर्मी बुझे चेहरे वाले निरपराध अभियुक्तों को पकड़कर लाते थे और उनकी पीड़ा और भय को महसूस किए बगैर रिपोर्ट पर रिपोर्ट फ़ाइल किये जाते थे।
कोर्ट की हवालात में जेल वैन से उतारकर शाम तक बंद किये कैदियों का अपने सगे संबंधियों को देखकर हताशा से बिलखना और फूट फूट कर रोना देखकर उसके हृदय में जो भावज्वार उमड़ता था उसके चलते न वह ठीक से खा पी सकता था न उसे रात में नींद आती थी।इस नामुराद पेशे से वह जल्दी से जल्दी दूर चले जाने का इच्छुक था।जिस वैकल्पिक पेशे साहित्य का उसने सोचा था वह कोई कमाई देगा उसे भरोसा नहीं था।इसी वजह से वह वकालत को हाथों से फिसलते जाने के बावजूद दांतों से पकड़े हुए था।
लालाराम सुरेश बंडलबाज की दुकान से निकलकर मेहता क्लॉथ स्टोर पर जाना चाहता था।अखबार मोड़कर उसने काले कोट की अंदरूनी जेब में डाल लिया था।एक एक्स्ट्रा काले कोट पेंट की उसे दरकार थी।लगे हाथ दो तीन सियाराम की व्हाइट शर्ट्स भी खरीद लेगा।मेहता उसके बचपन का मित्र था।इसलिए उधार खाता चलता था।दूसरे मेहता एक अच्छा कहानीकार भी था।पंजाब केसरी के कहानियों के पेज पर कई बार छप चुका था।एक कहानी हँस पत्रिका में भी जगह पा गई थी।कविता उसे न करनी आती थी न समझ मे आती थी।फिर भी दोस्त होने के नाते दोनों एक दूसरे की खुशी में शामिल हो लेते थे।मेहता का पूरा नाम प्रकाश मेहतावासिया था उसने अपना साहित्यिक नाम आकाश मेहता कर लिया था।जाति से वह बनिया था और शहर के दौलतमंद लोगों में उसके परिवार की गिनती थी।ऐसे लोग साहित्य से कम ही सरोकार रखते हैं।मगर इस शहर की आबोहवा ही ऐसी थी कि हर कोई कवि लेखक हुआ पड़ा था।
मेहता की दुकान की तरफ जाते वक्त उसे एक बंद दुकान के चौंतरे पर बैठा हुआ कुम्भकर्ण चतुर्वेदी मिल गया।उसका असली नाम कर्ण चतुर्वेदी था लेकिन ज्यादा सोने की आदत के चलते वह कुम्भकर्ण कहलाता था।उसे कभी भी देखो उसकी आंखें नींद से भरी रहती थी।मानो उसे नींद से जबरन उठा दिया गया हो।वैसे उसका लगातार सोने का रिकॉर्ड छहदिन का था जिसे टांग खींचने वालों ने बढ़ाकर छह महीने कर दिया था।दीनबंधु का वह जानी दुश्मन और मेहता का वह जिगरी दोस्त था।मेहता कुम्भकर्ण चतुर्वेदी पर एक हास्य कथा लिखकर सुमन सौरभ में छपवा चुका था।इसके बावजूद वह मेहता से नाराज नहीं हुआ था।
कुम्भकर्ण ने उसे आवाज दी,"ललित पवन जी!"
उसने मुड़कर देखा और चौंतरे पर बैठे पाकर उसकी तरफ मुड़ा।
"किधर भागे जा रहे हो महाकवि!इतनी तेजी में तो कभी तुलसीदास भी न रहे होंगे जब वे अपनी पत्नी रत्नावली से मिलने जाते होंगे।"
उस के स्वर में व्यंग्य का पुट इतना तीव्र था जैसे दाल में लहसुन का छौंक।अच्छा भी लगता है और तीखा भी।
"अरे चतुर्वेदी जी!कहां कांटों में घसीटते हो।कहां तुलसीदास जैसे चंद्रमा कहां मेरे जैसा जुगनू!मैं तो मेहता के पास जा रहा था।"
"चलो !मैं भी चलता हूँ।"यह कहकर उस पचास साल की वय के व्यक्ति ने उस की तरफ सहारे के लिए हाथ बढ़ाया।
लाला राम जानता था कि चतुर्वेदी ने उसे उठने में सहारा देने के लिए बुलाया है।अगर वह न दिखता तो किसी और को बुलाता।बिना सहारे तो उसने उठना नहीं था चाहे वहीं बैठे बैठे सुबह हो जाए।
दुकानों की बत्तियां जल चुकी थी।आजाद चौक के पास रेहड़ियों की कतार पर के आरजी बल्ब भी टिमटिमाने लगे थे।आजाद चौक बाजार के बीचों बीच चौराहे का नाम था जिसके चारों रास्तों पर बाजार थे।एक रास्ता हट्टा बाजार से होकर पी जी कॉलेज तक जाता था।उसके बिल्कुल विपरीत दिशा में माता मसानी का बाजार था जिससे होकर रेलवे स्टेशन पहुंचा जा सकता था।एक रास्ता वह था जिससे होकर बस स्टैंड की तरफ से लाला राम उर्फ ललित पवन आया था।उसी रास्ते के विपरीत दिशा की सड़क सूखी नदी और शिव मंदिर की तरफ गई थी।शिव मंदिर के बगल में शमशान भी था।
मेहता की दुकान ग्यारह हट्टा बाजार में चढ़ाई शुरू होते ही थी।वहां तक पहुंचते पहुंचते कुम्भकर्ण चतुर्वेदी ने दो गोलगप्पे चाट पकोड़ी वालों को मां बहन की गालियां देकर चाट पकोड़ी खाई।बदले में कोई पैसा नहीं दिया।फिर भी वे हंसते रहे।
एक छोटी परचून दुकान से इलायची का पैकेट लिया।वहां भी कोई पैसा नहीं देना पड़ा।उल्टा वहां दोनों को कुल्हड़ की गर्म चाय पीने को मिली।
तब जाकर वे मेहता की दुकान पर पहुंचे।
मेहता किसी अहीर की लंबी चौड़ी फैमिली को ठगने में बिजी था।इसलिए वे दुकान में न घुसकर बाहर बिछे बेंच पर बैठ गए।
एक मोची उधर से गुजरा तो चतुर्वेदी ने उससे जूती में कील ठुकवाये।पॉलिश करवाई।काम खत्म करके जब वह बालक उजरत की आशा में चुपचाप दीन भाव बनाकर खड़ा हो गया यो उसे घुड़ककर भगाने की चेष्टा की।जब वह नहीं भागा तो चतुर्वेदी परे देखने लगा।लाला राम को तरस आ गया तो उसने दस रुपये का नोट उसकी तरफ बढ़ाया।
दस रुपये पाकर भी वह लड़का खड़ा रहा।
"अब क्या चाहिए?"चतुर्वेदी गुस्से से बोला।
"पांच रुपये और दो!पोलिश के।"
"जाता है कि दूं तुझे बहन#####"चतुर्वेदी गुस्से में उफान पर आ गया था।उसके नथुने फूलने लगे थे।
गाली खाकर भी वह न टला, उल्टा आंखे लालकर बोला,"गाली मत दो सेठ।मेहनत का पैसा मांग रहे।भीख न मांग रहे।"
लड़के का दुबला पतला शरीर और उसके तेवर देखकर लाला को मन ही मन बहुत खुशी हुई।उसके हिसाब से अपने हक के लिए उठ खड़ा हुआ प्रत्येक व्यक्ति कवि के लिए हर्ष का विषय है।
उसने झगड़ा आगे न बढ़े इस नीयत से पांच का सिक्का उसे दिया।साथ में प्यार से उसके सिर पर हाथ रख दिया।
मेहनत का वाजिब दाम मिलने पर लड़का चुपचाप चला गया।
कुम्भकर्ण चतुर्वेदी उसे तब तक गालियां देता रहा जब तक मेहता ने उन्हें बुला न लिया।
"आज ब्राह्मण देवता के कोप से कौन अकिंचन भस्म होने वाला है।"मेहता हंसते हुए बोला।
"महाकवि ने दखल न दिया होता तो उस केंचुए को धरती में गाड़ देता।"कुम्भकर्ण अब तक शान्त हो गया था।
"गरीब की हाय लोहे को भी भस्म कर देती है चतुर्वेदी जी।गरीब की हाय न लिया करो।"लाला राम हँसकर बोला।
"अरे!कुम्भकर्ण नाम है मेरा।छह महीने सोता हूँ छह महीने जागता हूँ।कोई भुनगा नहीं हूं कि हाय से भस्म हो जाऊं।मेरी मौत तो भगवान राम के हाथों लिखी है।सुमित्रानंदन लक्ष्मण के तीरों से भी मेरा कुछ न बिगड़े।"यह बात उसने इतने गरूर से कही कि मेहता और लाला दोनों हंस पड़े।
हंसते हुए लाला बोला,"छह महीने सोने की बात तो दुश्मनों ने उड़ाई थी।आप भी सच मानने लगे।"
"अरे महाकवि!अतिश्योक्ति अलंकार होता है कि नहीं।वही समझो।"कहकर चतुर्वेदी ठठाकर हँस पड़ा।
दुकान पर तीनों मित्र काफी देर तक बैठे रहे।चर्चा का विषय शुरू में ललित पवन की कविता थी जो बाद में मेहता की कहानियों से होकर निर्देशक कुम्भकर्ण चतुर्वेदी के दिशा निर्देश के तले खेले जाने वाले नए नाटक पर केंद्रित हो गई।तय पाया गया कि वीर हकीकत राय पर एक नाटक खेला जाए जिसके लिए टिकट छपवाने का काम मेहता करेगा और बेचने का काम चतुर्वेदी सम्भाल लेगा।स्टेज पर उद्घोषणा ललित पवन के जिम्मे होगी और निर्देशन व पात्र चयन चतुर्वेदी करेगा।
अगली मीटिंग कुल दस सदस्य बनाकर होगी ताकि एक एक पहलू पर गौर किया जा सके।
अगली मीटिंग तक आठ सदस्य ही बन पाए।तीनों मित्र तो उसमें थे ही।पी जी कॉलेज के हिंदी के प्रोफेसर विनय कुमार यादव जी 'मूल पुस्तक' छात्रों को पढ़ाते वक्त कुंजी या गाइड छोड़कर मूल पुस्तक पढ़ने की सलाह इतनी बार दोहराते थे कि छात्रों ने उनका नाम ही मूल पुस्तक रख छोड़ा था,एक मेंबर बनाये गए थे।यादव जी के होने का यह फायदा था कि वे अभिनय के लिए छात्र छात्राओं को ला सकते थे।एक कीमती लाल लरोई 'नेता जी'थे जो किसी मंत्री या बड़े अफसर को उद्घाटन के लिए ले आने के काम आने वाले थे।सुरेश बंडलबाज व दीनबंधु जी भी मेम्बर बना लिए गए थे।उनके रहने में न रहने के मुकाबले सुभीता ज़्यादा था।
आठवीं सदस्य पूर्व कांग्रेस एम एल ए की विधवा सरोजबाला थी जिनको इस बार टिकट मिलने की संभावना ज्यादा थी।सरोजबाला की दूसरी खासियत उनका सुंदर होना था जो सुरेश बंडलबाज और कुम्भकर्ण चतुर्वेदी की दृष्टि में सदस्य बनने के लिये पर्याप्त योग्यता था।
नाटक हुआ और पर्याप्त सफल हुआ।शहर में कुम्भकर्ण चतुर्वेदी की वाहवाही हो गई।इसमें सबसे ज्यादा योगदान दीनबंधु का रहा।उसकी वजह से अखबारों में जमकर चर्चा रही।ललित पवन उर्फ लाला राम वर्मा ने मंच संचालन करते हुए अपनी कविताओं का भरपूर उपयोग किया।इससे शहर में उसके कविरूप की जो ख्याति हुई सो हुई कॉलेज के छात्र छात्राओं में भी वह प्रसिद्ध हो गया।
सुरेश बंडलबाज ने शहर पर एक कविता सुनाई जिसका शीर्षक था,"शहर में घूमता हुआ आईना!"इस कविता के बहाने उसने शहर के आम और खास को खूब धोया।शहर की खासियत बयान करते हुए चौक बाजारों की तुलना शाहजहानाबाद के चौक चौराहों से कर डाली।"हां, एक कमी जरूर है,शहर में सब कुछ है जो दिल्ली में है,बस जी बी रोड नहीं है।"इतना कहते ही जनता अश अश कर उठी।
दबे स्वर में कुछ लोग कहते पाए गए,"क्यों नहीं है।है!उसका नियमित ग्राहक बंडलबाज ही है।
नाटक हो चुकने के कई दिन बाद तक नाटक की खुमारी तारी रही।
बहुत लोग नाटक देखकर उसी दिन या उससे अगले दिन भूल गए।कुछ लोगों को महीनों तक याद रहा।इन याद रखने वाले लोगों में विनय कुमार यादव'मूल पुस्तक' और उनकी बेटी ध्रुवस्वामिनी थी।हिंदी के प्राध्यापक के लिए अपनी पुत्री का नाम ध्रुवस्वामिनी रखना कोई अनोखी बात नहीं थी।आखिर यह इस पात्र का जिक्र एम ए या बी ए करते वक्त हर किसी के जीवन में आता है लेकिन उसके चरित्र की दृढ़ता से 'मूल पुस्तक' ऐसे प्रभावित हुए थे कि अपनी बेटी का नाम ही उस पर रख बैठे थे।
प्रोफेसर साहब अपनी बेटी को प्यार से ध्रुव कहते थे।वह अभी 19 वर्ष की थी और अत्यन्त सुंदरी थी।हल्दी से थोड़ा हल्का पीला रंग लिए वह चिर गंभीर मुद्रा में हमेशा कुछ न कुछ सोचती पाई जाती थी।
प्रोफेसर साहब और उनकी बेटी ध्रुव जितना नाटक से प्रभावित हुए उससे कहीं ज्यादा कुम्भकर्ण चतुर्वेदी के निर्देशन से प्रभावित हुए थे।कुम्भकर्ण को वे आदर से पंडित जी कहने लगे थे और मिलते वक्त उनके चरणों की तरफ हाथ बढ़ाने का अभिनय भी करने लगे थे।इसके उत्तर में कुम्भकर्ण भी उन्हें खुश रहो,प्रसन्न रहो, कहते थे।लेकिन मन ही मन उनका भर्त्सना भाव मौजूद रहता था,"अहीर के!पैर छूना है तो ढंग से छू।यह क्या नाटक है।"लेकिन अभी घनिष्ठता इतनी हुई नहीं थी इसलिए ये बेतकल्लुफ लफ्ज जुबान पर न आते थे।
एक दिन' मूल पुस्तक' जैसे ही कॉलेज पहुंचे प्रिंसिपल का बुलावा आ गया।
अभिवादन के आदान प्रदान के बाद प्रोफेसर साहब जैसे ही कुर्सी पर बैठे प्रिंसिपल साहब बोले,"एक दिक़्क़त आन पड़ी है।कॉलेज के एनुअल फंक्शन के लिए चीफ गेस्ट के तौर पर एम एल ए साहब से प्रार्थना की थी लेकिन उन्होंने साफ इंकार कर दिया।उन्होंने वजह तो नहीं बताई लेकिन मैं समझता हूँ कि उनके चहेते का एडमिशन न होने की वजह से वे नाराज हैं।अब विश्विद्यालय के भी तो नियम हैं,यह बात उन्हें कौन समझाए।"
"मैं क्या मदद कर सकता हूँ।"प्रोफेसर ने पूछा।
"देखिए मैं तो राजधानी से आया हूँ।मेरा यहां स्थानीय संपर्क नहीं है।आप किसी प्रसिद्व व्यक्ति, शिक्षाविद, खिलाड़ी या साहित्यिक को चीफ गेस्ट बना लाएं।इतना तो आप स्थानीय होने की वजह से कर ही सकते हैं।"
"मैं कोई साइंस,मैथेमेटिक्स या जियोग्राफी का टीचर तो हूँ नहीं कि किसी बड़े आदमी के बच्चे को पढ़ाया हो।हिंदी के अध्यापक को कौन पूछता है या जानता है,"मूल पुस्तक ने विवशता जताई,"फिर भी आप ने कहा है तो आपके कहे का मान तो रखना होगा।देखता हूँ क्या हो सकता है।"कहकर वे उठ गए।
प्रिंसिपल साहब अपनी जिम्मेदारी प्रोफेसर साहब के कंधे पर छोड़कर फारिग हो गए।
प्रोफेसर साहब किसी विशिष्ट व्यक्ति की तलाश में इधर उधर दिमाग़ के घोड़े दौड़ाने लगे।उनका ध्यान कुम्भकर्ण चतुर्वेदी की तरफ गया।जीवन में उन्होंने इतना प्रतिभाशाली उसके बावजूद जमीन से जुड़ा व्यक्ति उन्होंने नहीं देखा था।लिखाई पढ़ाई में जिस तरह से वे मूल पुस्तक की स्थापना किया करते थे जीवन मूल्यों में वे ज़मीन से जुड़े व्यक्ति की महत्ता को रेखांकित करते आए थे।
उन्होंने इस मामले में बेटी ध्रुवस्वामिनी से भी सलाह मशविरा किया।पत्नी उनकी निपट अनपढ़ गांव की गोरी थी।इसलिए उसकी राय को वे विशेष महत्व न देते थे।इसके बावजूद वे बेचारी अपनी बग़ैर मांगी राय देने आ जाती थी और बदले में' तुम चुप करो' सुनकर खामोश बैठ जाती थी।
बेटी ध्रुव का विचार था कि मां से प्राप्त हुए रंग रूप और पिता से प्राप्त हुई बुद्धि के बल पर वह भी एक्टिंग के क्षेत्र में कुछ कमाल दिखा सकती है बशर्ते कोई गुण ग्राहक गुरु मिल जाए।'वीर हकीकत राय'नाटक देखकर और उसके निर्देशक कुम्भकर्ण चतुर्वेदी से मिलकर ध्रुव को लगा कि उसे गुण ग्राहक गुरु मिल गया है।
पिता के प्रस्ताव की उसने इसलिए खुशी- खुशी सहमति दे दी।इसी बहाने गुरु जी के सान्निध्य का लाभ उठाकर मन की बात कह देगी।
पुत्री की सहमति मिलने के बाद प्रोफेसर साहब चतुर्वेदी की तलाश में निकले।वे उनके निवास का पटवन जानते थे।अक्सर वे चौक के आसपास किसी चोन्तरे पर विराजमान पाए जाते थे।बाजार का एक चक्कर लगाकर देखा।कहीं दिखाई न दिए।
दीनबंधु पत्रकार ने प्रोफेसर साहब को परेशान हाल इधर से उधर घूमते देखा तो आवाज लगा ली,"किसे ढूंढ रहे हैं,प्रोफेसर साहब?"
प्रोफेसर साहब ने शंकालु दृष्टि से दीनबंधु को देखा,'क्या इनसे पूछना ठीक रहेगा?"
"इसमें क्या दिक़्क़त है?"मस्तिष्क ने उनके शंकालु मन को झटक दिया।
अंदरूनी द्वंद्व उनके चेहरे पर साफ दिखता था।
"किस सोच में पड़ गए, प्रोफेसर साहब?"दीनबंधु ने पूछा,"पानी पीएंगे?"
"हां!प्लीज!"प्रोफेसर ने कहा तो दीनबंधु ने घड़े में से पानी का गिलास भरकर दिखाया।घड़े की पकी मिट्टी की खुश्बू में रचे बसे ठंडे पानी के एक गिलास ने उनकी आत्मा तक को तृप्त कर दिया।जमीन से जुड़ी चीजें अनुपम सुख देती हैं,"उन्होंने सोचा था।
"दीनबंधु जी!आपने कहीं कुम्भकर्ण चतुर्वेदी जी को देखा है?"प्रोफेसर साहब ने पूछा तो दीनबंधु का मुंह ऐसा बन गया जैसे कड़वा करेला खाकर बनता है।
"उससे क्या काम पड़ गया आपको?"दीनबंधु ने इस लहजे में पूछा कि प्रोफेसर साहब से कहते न बना।
"कुछ पैसा तो उधार नहीं ले लिया आपसे?"
"नहीं तो!"
"प्रोफेसर साहब!आप अपने आदमी हैं,इसलिए कहता हूं ऐसे चुगद से दूर रहें तो अच्छा!"
यह सुनने के बाद अपना मंतव्य कहने की रही सही हिम्मत भी जाती रही।
प्रोफेसर विनय कुमार यादव 'मूल पुस्तक' ने सोचा क्या उन्हें अत्यधिक प्रतिभाशाली और जमीन से जुड़े विद्वान निर्देशक पंडित कुम्भकर्ण चतुर्वेदी को चीफ गेस्ट बनाने का विचार त्याग देना चाहिए।
वे अभी ऐसा सोच ही रहे थे कि उन्हें कवि ललित पवन मिल गया।
"नमस्ते प्रोफेसर साहब!"ललित पवन उन्हें पहले दिन से ही पसंद आ गया था।सुदर्शन नवयुवक और एडवोकेट होने के बावजूद निर्धन, लाचार व्यक्ति और अबला स्त्रियों पर भावपूर्ण कविता लिखने वाला।
जरूर यह युवक एक दिन बड़ा कवि बनेगा।
"नमस्ते ललित पवन जी!कैसे हैं आप?"प्रोफेसर साहब ने हंसते हुए कहा।
"जी!आपकी कृपा है।"
दोनों व्यक्ति सद्भावना पूर्ण बातचीत करते हुए आगे बढ़ लिए।
सब्जी मंडी के पास मोदाश्रम के सामने एक छोले भटूरे वाले को गालियां देते हुए कुम्भकर्ण चतुर्वेदी दिख गए।
उन्हें देखते ही ललित पवन उधर ही लपक लिया।
प्रोफेसर साहब भी उसके साथ हो लिए।
चतुर्वेदी का ध्यान उस तरफ न था।वह गालियां देता हुआ छोले भटूरे वाले को मारने को उद्यत था।
छोले भटूरे वाला लड़का हंसता हुआ अपना बचाव कर रहा था।
"आज कैसे ब्राह्मण देवता कुपित कर दिए तूने?"ललित पवन हंसते हुए बोला।
उसकी आवाज सुनकर चतुर्वेदी पलटा और उन्हें देखकर बोला,"अरे भई महाकवि!इस लौंडे की करतूत सुनो!म्लेच्छ का जूठा चम्मच मुझे पकड़ा दिया!"
ललित पवन और प्रोफेसर दोनों की निगाह सामने हाथ जोड़कर कांपते हुए खड़े गरीब मुसलमान पर गई।अपनी रँगी हुई दाढ़ी और मुंडी हुई मूंछ से वह किस धर्म का है,तुरन्त पहचाना जा रहा था।वह अपनी झोटा बुग्गी पर किसी किसान की गोभी लादकर मंडी में लाया था।सुबह जल्दी चला था इसलिए जाहिरन उसे भूख लग आई थी।भाड़े का पैसा मिलने पर इस दुकान पर छोले भटूरे खाने आया था।वह लगभग खा ही चुका था कि यह ब्राह्मण देवता आ गए।
ब्राह्मण ने छोले भटूरे मांगे।दुकान के लड़के ने उन्हें धुली रखी प्लेटों में कपड़ा फेरकर छोले भटूरे दिए।ब्राह्मण खाने बैठ गया तब वह पैसे दे रहा था।
ब्राह्मण ने चम्मच मांगा तो लड़के ने उसकी जूठी प्लेट से चम्मच उठाकर पास रखे पानी के टब में से डुबाकर चम्मच निकाला और कपड़े से पोंछकर ब्राह्मण को पकड़ा दिया।लेकिन चम्मच के पिछले भाग पर चिकनाई लगी ही रह गई।चम्मच पूरी तरफ साफ नहीं हुआ था।यह बात ब्राह्मण ने नोट कर ली।क्रोधित होकर ब्राह्मण गालियां देने लगा।उसे भी और दुकान वाले लड़के को भी।
लड़का हँस रहा था।वह किसी अनहोनी की आशंका से कांपता हुआ खड़ा था।
उन दोनों के आने का फायदा यह हुआ कि वह मुसलमान चुपचाप वहां से खिसक लिया।
उनका झगड़ा शांत करवाकर ललित पवन और प्रोफेसर साहब कुम्भकर्ण चतुर्वेदी के साथ मोदाश्रम के भीतर बने लाल पत्थर के बेंच पर बैठ गए।
यहां पर प्रोफेसर साहब ने देर न करते हुए अपना मंतव्य जाहिर किया।
"अरे प्रोफेसर!मेरे को कहां आपने विशिष्ट व्यक्ति लगा लिया।किसी मंत्री को पकड़ो !"
चतुर्वेदी ने कहा।वह स्वीकृति देने से पहले थोड़ी प्रशंसा सुनना चाहता था।
"मैं और मेरी पुत्री ध्रुव आपसे बहुत प्रभावित हैं।कॉलेज के बच्चों को मंत्री से क्या लेना।उन्हें तो आप जैसे विद्वान और धर्मरक्षक सिद्धांतों पर दृढ़ व्यक्ति के आशीर्वचन की अपेक्षा रहती है।"
इतना सुनने से गदगद हुए चतुर्वेदी ने थोड़ी ना नुकर के बाद अपनी सहमति दे दी।
खचाखच भरे हाल को देखकर कुम्भकर्ण चतुर्वेदी की छाती गर्व से फूल गई।आखिर नाटककार को अपना चिरप्रतीक्षित सम्मान मिल रहा था।वह इस दिन को यादगार बनाना चाहता था।
थोड़ी औपचारिकताओं के बाद उन्हें डायस पर बुलाया गया।
वे मंथर गति से चलते हुए पहुंचे और एकत्रित छात्र-छात्राओं और उनके अभिभावकों पर एक विहंगम दृष्टि डाली।उनमें कई लोग ऐसे थे जिन्होंने उन्हें सड़क पर बहसबाजी करते,बगैर कंबल या बिस्तर के किसी बंद दुकान के बाहर सोए देखा था।उन सब को उन्हें मुख्य अतिथि के तौर पर देखकर अजीब लगा हो सकता है।कुछ को कॉलेज प्रबंधन की नादानी और मूढमति पर क्रोध भी आया होगा।ये सब उनकी भाषण कला से प्रभावित हो कर जाएं ऐसी उनकी मंशा थी।
"देवियों और सज्जनों!मेरे प्रिय विद्यार्थियों! महाविद्यालय प्रबंधन के विद्वतजनों!आज आप सब इस वार्षिकोत्सव पर देखकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है।मित्रो,मैं छोटे शहर का छोटा आदमी जरूर हूँ लेकिन मेरी सोच,मेरा चिंतन प्रवाह बहुत विशाल है।आप इस अनुभूति जन्य और अनुभव-ज्ञात जगत को जिस प्रकार देखते हैं,मैं उस तरह नहीं देखता।मेरे लिए प्रति क्षण धर्म रक्षा,राष्ट्र विकास और संस्कृति के संरक्षण का क्षण है और सादगी का आडंबर रहित जीवन व्यतीत करते हुए भी मैं इस पवित्र कर्तव्य को भूलता नहीं हूं। आप धनवान हों या निर्धन!आप बलशाली हों या असमर्थ!सर्वशक्तिमान परमात्मा ने आप सब को एक विशेष उद्देश्य, एक अत्यधिक महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करने के लिए यहां,इस भारत भू पर भेजा है वरन तो देश और भी थे जहां आप जन्म लेकर संस्कृति को भूलकर,राष्ट्र गरिमा को बेकार की वस्तु को समझ कर उन सभ्यताओं का अंधानुकरण करते हुए जीवन व्यतीत कर सकते थे जो सभ्यताएं आधुनिकता के नाम पर नग्नता और अश्लीलता को प्रचारित प्रसारित कर रही हैं।उच्च कुल की स्त्रियां निम्न कुल के पुरुषों की शैय्या शायी होकर जारज और कायर संतानो की उत्त्पति कर रही हैं।इन संतानों को न तो अपने राष्ट्र का अभिमान है,न अपनी संस्कृति के पालन की कोई इच्छा।इसके विपरीत यह ह्मावर महान राष्ट्र भारत वर्ष है जो सैंकड़ों वर्षों तक विदेशी आक्रांताओं द्वारा पद दलित होने के पश्चात भी निज धर्म,निज सभ्यता,निज संस्कृति का सरंक्षण कर पाया। आप सबने हाल ही में वीर हकीकत राय नाटक देखा और उसकी भूरि भूरि प्रशंसा की।उसके लिए मैं हृदय की गहराइयों से आपका धन्यवाद करता हूं।
वीर हकीकत राय नाटक को प्रस्तुत करने के पीछे मेरी यही मंशा थी कि हमारी नई पीढ़ी हमारे धर्मवीर बलिदानियों के जीवन से परिचित हो।
चतुर्वेदी सचमुच भाव-विभोर हो गए थे।उनकी आंखों से आंसू बहने लगे थे,"मुझे दुख होता है।"उनकी आवाज भर्रा गई थी,"मुझे अत्यन्त पीड़ा होती है।मेरा अंतर्मन आलोड़ित जो उठता है जब मुझे ज्ञात होता है कि हमारी युवा पीढ़ी वीर हकीकत राय की जीवनी से परिचित नहीं हैं।हों भी कैसे,उनके माता -पिता,गुरु जनों ने उन्हें कभी बताया ही नहीं।उन्हें भगत सिंह के बलिदान के बारे में ज्ञात है क्योंकि गुरुजनों ने उनके बारे में बताया।देश के लिए जान देना अच्छी बात है,उस पर गर्व होना उससे भी अच्छा है।लेकिन देश बनता बिगड़ता रहता है।उसकी सीमाएं प्रत्येक युग में बदलती रहती हैं।लेकिन धर्म शाश्वत है।जो देश धर्म रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग करने वालों को स्मरण रखते हैं वे राष्ट्र में परिवर्तित हो जाते हैं।राष्ट्र ही वह जीवन निधि है जो धर्म को फलने फूलने के लिए राज्य सत्ता का आश्रय और संरक्षण प्रदान करती है।राज्य विधर्मी राजाओं के हाथ में चले जाने के पश्चात धर्म को पल्लवित होने और रक्षित होने के लिए संस्कृति का आश्रय लेना पड़ता है।"उनके भाषण को लोगों ने कितना समझा यह तो प्रोफेसर यादव और उनकी बेटी ध्रुवस्वामिनी को ज्ञात नहीं था लेकिन वे दोनों उनके एक एक शब्द को उन्होंने हृदयंगम कर रहे थे।इस चराचर जगत के अबूझ रहस्य उनके सामने प्रकट हो गए थे।उन्हें अपने जीवन का उद्देश्य मालूम चल गया था।प्रोफेसर को ऐसा लगा कि बाजार में साधारण सा दिखने वाला यह व्यक्ति वास्तव में गुणों की खान है।
आप अन्य धर्मों को देखिए ।सिख लोग अपने बलिदानियों को प्रति वर्ष याद करते हैं।उनकी नई पीढ़ी अपनी जड़ों को पहचानती है।इसी वजह से गुरु का सिख चढ़दी कलां में रहता है।शिया मुसलमानों को देखो।कर्बला में सैंकड़ों वर्ष पहले जो अत्याचार हुसैन के साथ हुआ उसकी स्मृति में मुहर्रम के महीने में रोजे आशूरा को शिया रो रोकर आँखे लाल कर लेते हैं।अपने शरीर को कोड़े मार मार ज़ख्मी कर लेते हैं।अंगारों पर चलते हैं।उस दुख को उन्होंने शाश्वत और अमर कर दिया है।हम हिंदू उनके मुकाबले कितने कृतघ्न हैं।"यह कहते समय
उनकी वाणी में इतना ओज समा गया था कि हाल में उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति को खुद पर शर्म आने लगी।ग्लानि होने लगी।
उनका भाषण आधा घंटा और चला।इस भाषण के माध्यम से अधिकांश व्यक्तियों को उन्होंने धर्म और राष्ट्र के प्रति एक उत्तरदायित्व की भावना से ओत प्रोत कर दिया।जब उनका भाषण समाप्त हुआ हाल बहुत देर तक तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजता रहा।इस समय हाल में सामने की कुर्सियों पर एक व्यक्ति मौजूद था जिसने तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मुंह बिचकाकर हौले से कहा,"पाखंडी!लंपट!!हरामी!!"जो किसी ने न सुना।
उस भाषण के बाद कुंभकर्ण चतुर्वेदी और प्रोफेसर साहब में घनिष्ठता बढ़ गई।उनकी पुत्री ध्रुवस्वामिनी उनकी शिष्या बन गई और उनसे अभिनय कला सीखने लगी।
ज्यादातर अभ्यास उनके घर पर ही होता।प्रोफेसर साहब भी मौजूद रहते।जैसे जैसे प्रशिक्षण आगे बढ़ा, प्रोफेसर साहब की अनुपस्थिति बढ़ने लगी।ध्रुवस्वामिनी की माँ जिसे अनपढ़ समझ कर उसकी राय को कभी महत्ता नहीं दी गई इस नित्य प्रति घटित हो रहे घटनाक्रम को शंकालु दृष्टि से देखती लेकिन बोलती कुछ नहीं।
उसे इन पिता पुत्री के क्रिया कलाप कभी पसंद नहीं आते थे।पिता पुत्री जिसे अनपढ़ समझ कर खारिज कर देते थे वह उन दोनों को निरा बौड़म समझती थी।"चार किताब पढ़ लेने से क्या होता है।प्रोफेसर साहब इतना नहीं समझते कि बेटी जवान हो गई है।उसे किसी गैर मर्द के साथ अकेला कमरे में छोडने का क्या मतलब है।कुछ कहो तो डांट कर चुप करा देंगे।यह नहीं देखते कि एक्टिंग सिखाने के नाम पर बूढ़ा कहां कहां हाथ लगा रहा है।बाप तो बाप, लड़की भी निरी भौंदू है।"
सारा दिन चिढ़ी रहती मां को देखकर ध्रुव भी चिंता में पड़ जाती।इधर कुछ दिनों से गुरु जी भी ज्यादा लिबर्टी लेने लगे थे।कभी नाड़ा ढीला बांधने के नाम पर घाघरे में हाथ डालना चाहते।कभी एक्टिंग सिखाते हुए आलिंगन में लेने की कोशिश करते।
वह सकुचाती तो कहते,"अभिनय में संकोच शर्म सब त्याग देना होता है।देखती नहीं सभी बड़ी अभिनेत्रियां कैसे अभिनय में डूबकर संकोचरहित होकर पर्दे पर आती हैं।
यह सही भी था।उसे गुरु जी पर विश्वास था।लेकिन कई बार शंका होती थी कि क्या गुरु जी का इधर उधर छूना असावधानी वश है?
उधर कुम्भकर्ण चतुर्वेदी की दिनचर्या में कुछ उल्लेखनीय परिवर्तन दृष्टिगोचर हो रहा था।कुछ भी पहन लेने वाला,कहीं भी बैठ सो लेने वाला,सर्वभक्षी चतुर्वेदी आजकल फैशन के हिसाब से पहन रहा था,स्वास्थ्य के हिसाब से खा रहा था और जगह देखकर बैठ रहा था।इसके पीछे क्या वजह थी कोई जानता हो या न हो मेहता जरूर जानता था।क्योंकि क्या सही है,क्या गलत इस मामले में मेहता ही चतुर्वेदी का सलाहकार था।
चतुर्वेदी इतना चालाक बन रहा था कि उसने यह सब परिवर्तन किसको इम्प्रेस करने के लिए किया जा रहा है,यह बात मेहता को भी न बताई थी।
छोटा शहर था।लोग एक दूसरे के फटे में टांग डालने को उतावले बने रहते थे।उनकी निगाहों से यह परिवर्तन छुपा न रह सका।
एक दिन जब ललित पवन सुरेश बंडलबाज की दुकान पर बैठा था कुम्भकर्ण चतुर्वेदी सामने से गुजरा।बढिया टेरीकॉट के सफेद कुर्ते और चुस्त पायजामे के ऊपर काली जैकेट में संवरी हुई दाढ़ी और लहराते हुए काले बाल जो शायद हेयर कलर कर लिए गए थे,उसकी वेशभूषा को देखकर बंडलबाज ललित पवन से बोला,"यह आदमी जो गया है अपने फटीचर कुम्भकर्ण जैसा नहीं लग रहा?"
"वही तो है।"ललित पवन हंसते हुए बोला।
"इसकी ओवरहालिंग किसने की!हौंडा के सर्विस सेंटर से होकर आया है क्या?"बंडलबाज हैरानी प्रकट करते हुए बोला।
"हौंडा नहीं?प्रोफेसर साहब के शो रूम की सेवाएं ले रहा है आजकल!"यह बात ललित पवन नहीं एक ग्राहक बोला जो प्रोफेसर का पड़ोसी था।
"अच्छा?"उधर अपनी जूठन गिरा रहे हैं महान राष्ट्रवादी चितंक और निर्देशक महोदय।वहां अपनी महान भारतीय सभ्यता का गुणगान करते हुए कौनसी नई सभ्यता रच रहे हैं।और अगर रच भी रहे हैं तो वसंत कुसुमाकर रस और कामिनी विद्रावन रस कहां से खरीद रहे हैं।इस शहर में तो मैं ही बैद्यनाथ का अकेला अधिकृत विक्रेता हूँ।"बंडलबाज अभी भी हंस रहा था।
"अभी शायद बात वहां तक नहीं पहुंची।और पहुंच गई हो तो भी शायद इन औषधियों की जरूरत न पड़े।आपको शायद मालूम न हो इन चतुर्वेदी जी की पत्नी शादी के बाद एक ही रात इनके साथ गुजार कर हस्पताल में भर्ती करवानी पड़ी थी।इतनी पाशविकता की थी इन महोदय ने कि लड़की मायके गई वापिस ही न लौटी।"उस ग्राहक ने इस तरह कहा कि बंडलबाज के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच गई।फिर भी मुस्कराते हुए बोला,"देखना!हमारे ललित पवन जी इस कहानी पर बहुत अच्छी कविता लिखेंगे देखना?"
ललित पवन सोचने लगा।क्या इस व्यक्ति की बात में कहीं कोई अतिश्योक्ति तो नहीं!
उन्नीस साल की वह लड़की जो अपने चढ़ते हुए यौवन को अपने वस्त्रों में न छिपा पा रही थी अपने गुरु कुम्भकर्ण चतुर्वेदी की नित नई प्रशंसा को सुनकर और उसके मर्दाने हाथों का स्पर्श पाकर असहज होना भूल चुकी थी।उसके इंगितों को नजर अंदाज करती हुई अभिनय कला की बारीकियां सीखने को उद्यत वह चतुर्वेदी की छोटी मोटी छेड़छाड़ को बर्दाश्त करती आ रही थी।इसके साथ ही एक बात उसके मन में घर कर गई थी।कुछ भी हो,किसी भी उम्र का हो,रिश्ते में कुछ भी लगता हो पुरुष मूलतः एक जानवर ही होता है उसके लिए किसी भी उम्र की लड़की जो उसके रिश्ते में कुछ भी लगती हो,कितना भी सम्मान करती हो,उसके लिए एक नग मादा ही होती है।मादा की योनि को कैसे भी पाने की उत्कट इच्छा में वह हर रिश्ते, हर सम्मान,उम्र और पद के लिहाज को तिलांजलि दे देगा लेकिन अपनी आदिम इच्छा की पूर्ति जरूर करेगा।
"क्या उसे अभिनय के प्रशिक्षण को यहीं रोक देना चाहिए?उसने कई बार सोचा था।जीवन में ऐसा अवसर बार बार नहीं आता।यह सोचकर वह अपने कठोर निर्णय को रोके हुए थी।फिर उसे आत्मविश्वास था कि ऐसी परिस्थिति आने पर वह आत्मरक्षा कर सकती है।
"अब तुम्हारे अभिनय का प्रशिक्षण मेरी क्षमता भर का हो चुका है।यदि तुम इससे आगे सीखना चाहती हो तुम्हें किसी बड़े प्रशिक्षण संस्थान में जाना होगा।मुंबई,दिल्ली में काफी ऐसे संस्थान हैं जहां तुम सीख सकती हो।"एक दिन चतुर्वेदी ने कहा तो ध्रुव ने सीधे उनकी आंखों में देखते हुए पूछा,"क्या पता मेरे पिता मुझे बाहर भेजने के लिए राजी होंगे या नहीं!अब क्या आप मुझे कुछ भी नहीं सिखा सकते?"
"नहीं!ऐसी बात नहीं है।लेकिन अकेडमी में सीखने से जीवन में आगे बढ़ने के अवसर अधिक मिलेंगे!यहां छोटे शहर में अवसरों की उपलब्धता नहीं के बराबर है।यहाँ सब काम शौकिया है,प्रोफेशनल नहीं है।शौक को शौक ही रखने से जीवन में ऊर्जा तो बनी रहती है लेकिन अगर कैरियर बनाना हो तो ज्यादा गंभीर कोशिश करनी होगी।अब तुम इतना प्रशिक्षण प्राप्त कर चुकी हो कि नोएडा के स्टूडियो में नित्य प्रति शूट होने वाले टेलीविजन नाटकों में छोटे मोटे रोल तुम कर सकती हो।बड़े रोल पाने के लिए या तो संपर्क होने चाहिएं या अवसर?"
चतुर्वेदी उसके मन के आलोडन को भांप रहा था।एक चतुर बहेलिए की भांति वह पक्षी को जाल में फंसाने की तरकीब लड़ा रहा था।
"आपके संपर्क तो होंगे ऐसी जगहों पर!अगर आप मुझमें प्रतिभा देखते हैं तो आप क्यों नहीं ऐसे संपर्कों का इस्तेमाल करते?"
लड़की से जो वह कहलवाना चाहता है लड़की ने आसानी से कह दिया था।
"हां!एक दो मेरे मित्र हैं जो मेरे कहे का आदर करते हैं।उन्हें ज्ञात है कि मैं किसी गलत पात्र को रिकमेंड नहीं करूंगा।यह तो तुम समझ ही गई होगी कि ऐसी जगहों में बड़े लोगों की अनुकंपा प्राप्त करने के लिए समझौते करने पड़ते हैं।"चतुर्वेदी ने ऐसा कहते हुए उससे निगाहें नहीं चुराई।
"हां!मैं नए जमाने की लड़की हूं।इंगितों के निहितार्थ खूब समझती हूं।आप निश्चिंत रहिए मैं सब संभाल लूंगी।"
"फिर ठीक है।यही एक शंका मेरे मन में थी।अब क्योंकि तुम्हारा प्रशिक्षण पूरा हो चुका है।मुझे गुरुदक्षिणा में क्या दोगी?"चतुर्वेदी ने कहा तो ध्रुव ने उनका इंगित खूब समझा।
"आपको क्या चाहिए?"उसने सीधे सवाल किया तो चतुर्वेदी की हिम्मत बढ़ी।
"तुम जानती हो कि मेरे जीवन में प्रेम का अभाव रहा है।क्या तुम इस कमी को पूरा कर सकती हो?"चतुर्वेदी ने यथासंभव शब्दों के साथ संकेत करके अपना मंतव्य स्पष्ट किया।
"गुरु तो पितृतुल्य होता है।एक पुत्री का पिता के प्रति जो प्रेम होता है।वह प्रेम मैं आपको दे सकती हूँ।"ध्रुव ने इस दृढ़ता से कहा कि चतुर्वेदी से कुछ कहते न बना।
"ठीक है यही बात है तो मैं चलता हूं।"चतुर्वेदी उठ खड़ा होने को उद्यत हुआ।
"रुकिए गुरु जी!कभी द्रोणाचार्य नाम का एक गुरु हुआ था जिसने गुरुदक्षिणा में एकलव्य से उसका अंगूठा मांग लिया था।आपने तो अपनी शिष्या का शरीर ही मांग लिया।एकलव्य ने इनकार नहीं किया था।एक क्षण में अंगूठा काटकर भेंट कर दिया था। मैं भी इंकार नहीं करूंगी।मां भी घर पर नहीं है।आप दरवाजा बंद कीजिए।तब तक मैं कपड़े उतारती हूँ।"
यह बात सुनकर चतुर्वेदी को उल्लास से भर जाना चाहिए था।इसकी बजाय उसकी नजरें झुक गयी।वह अपनी इस अद्भुत शिष्या से आंखें मिलाने का साहस नहीं कर पा रहा था।
वह उठा और दरवाजे से बाहर निकल गया।
गली के नुक्कड़ पर ध्रुव की माँ मिली।ध्रुव की मां ने अभिवादन में हाथ जोड़े। वह उनकी तरफ बगैर देखे निकल गया।
ध्रुव अपने गुरु जी को तेज गति से जाते हुए देखती रही।