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मरना भी एक कला है


मरना भी एक कला है।
भग्गू मरा तो पता चला।जैसे वह खामख्वाह जी रहा था वैसे ही एक दिन खामख्वाह मर गया।वरना मैंने इस तरह से आदमी मरते देखें हैं मानो किसी कला की सरंचना हुई हो।लोग पचास साठ बरस की उम्र तक ठीक ठाक माने सेहतयाब रहेंगे।खायेंगे,पिएंगे घूमेंगे टहलेंगे।खास खास मित्रों-रिश्तेदारों की शादियों में जाएंगे।थक कर लौटेंगे।उन दिनों सर्दी जा रही होगी।बसंत लौट रहा होगा।बच्चों को मास्टर जी सुबह की प्रार्थना में समझा रहे होंगे,"जनवरी जा चुकी है।फरवरी आ गई है।अब ज्यादा ठंड भी नहीं है।मीठा सुहाना मौसम है।मार्च में वार्षिक परीक्षा है।पढ़ाई की तरफ ध्यान दो।जिनका सिलेबस अभी तक कम्पलीट नहीं हुआ है।वे सिलेबस कम्पलीट करें।जिनका कम्पलीट हो गया वे रिवीजन करें। लिखकर करें।रजाई में दुबककर जबानी याद न करें।पेंट कमीज स्वेटर जूता पहनकर कुर्सी मेज पर बैठें और लिखकर देखें।लिखने से स्पीड बनती है।याद जल्दी होता है और भूलता नहीं है।आत्मविश्वास आता है।
बच्चे ध्यान से सुनते।कुछ बच्चों को चिंता हो जाती।न जाने सिलेबस कहां धरा होगा।घर में कुर्सी मेज भी नहीं है।मास्टर जी का कहा कैसे पूरा होगा।
'फरवरी फर फर करते गुजर जाएगी।मार्च सिर पर आ खड़ा होगा।जैसे ही परीक्षा की डेटशीट हाथ आएगी चिंता सिर पर सवार होगी।अरे,साल भर कुछ किया ही नही!जाने साल कैसे कैसे निकल गया!
जाने जिंदगी कैसे कैसे निकल गई।मौत सिर पर आ खड़ी हुई।पचास -साठ की उम्र तक व्यस्त ही इतने रहे।एक दिन जनवरी के आखिरी हफ्ते या फरवरी के पहले हफ्ते में किसी निकट मित्र संबंधी की संतान की शादी से लौटकर आए।थकावट तारी थी।शरीर में हरारत थी।सोचा ,दो दिन आराम करें।नियमित स्नान ध्यान मालिश वर्जिश घूमना जो छूट गया था।उसे फिर से शुरू करेंगे।खाने में पथ्य परहेज करेंगे।आयुर्वेदिक दवा लेंगे।ठीक हो जायेंगे।
एक हफ्ता गुजर गया।बिस्तर जो पकड़ा तो न छूटा।गले में अजीब सा दर्द।टूटन, भूख भी खुल के न लग रही।आयुर्वेदिक दवा भी नकली मिलती इन दिनों।शहद के नाम पर चाशनी!अंग्रेजी डॉक्टर की शरण मे जाना पड़ा।
डॉक्टर पर जाते ही यह टेस्ट वह टेस्ट।खामख्वाह!!पैसे का उजाड़ा।
देखना कुछ न निकलेगा।
डॉक्टर बोलेगा,"थोड़ा इंफेक्शन है।फिर नई सी एंटीबायोटिक दवा लिख देगा।तीन गोली कैप्सूल दोपहर शाम!खिचड़ी दलिया लें।गरम पानी पीएं।ये गरारे की दवा।
तीन दिन बाद दिखाएं।
उन्नीस सौ पचास रुपये।
धत तेरे की
दो हजार का गुलाबी खत्म
ओम फट स्वाहा!
रिपोर्ट आ गई है।डॉक्टर साहब पढ़ते हुए गंभीर हो गए हैं।
"डॉक्टर साहब!सब ठीक है?"
डॉक्टर ने चिंता बढ़ा दी है।
"कुछ ब्लड सेल्स एब्नॉर्मल हैं।मल्टीप्ल मायलोमा हो सकता है और नहीं भी।कुछ और टेस्ट करवाने होंगे।वह मैं नहीं कर सकता।आपको स्पेशलिस्ट के पास जाना होगा।तब तक टेम्पररी रिलीफ के लिए कुछ दवाईयां लिख देता हूं।आप जल्दी से जल्दी डॉक्टर भटनागर को दिखा लें।उनका मोबाइल नम्बर लिख दिया है मैंने।मैं उनको ब्रीफ भी कर दूंगा।
वैसे आपचिंता न करें।डिजीज इज हंड्रेड परसेंट क्योरेबल!!
उन्नीस सौ पचास रुपये।
दो हजार का गुलाबी नोट स्वाहा हो गया।
मुंह से धत तेरे की भी न निकला।
वापिसी में सवारी भांपकर टैक्सी वाले न भजन लगा दिया है,"यह तन राख की ढेरी!"
"बंद कर,बंद कर!"
"जी!"सकपका कर टैक्सी ड्राइवर ने गाना बंद कर दिया है।
मरने का उत्सव!मरने का गाना!!
क्या ये रास्ते!पेड़,नदी नाले,कॉलोनी ,बाजार सब छूट जाएंगे।
कितना कम जानता है आदमी
जिस बीमारी से मरने जा रहा उसका नाम ही पहली बार सुना।
इससे बढिया तो किसी मवाली के छुरे से मर जाता।एक बासंती सुबह कूड़े वाला उसकी सीना फ़टी लाश देखता और कहता,"बेचारा बदनसीब!मवाली के छुरे का निवाला बन गया।"
अब वह मरेगा तो बच्चे बता भी न पाएंगे कि उनके पापा किस बीमारी से गुजरे!
मरना कला ही नहीं विज्ञान भी है।पढ़ा लिखा बच्चा ही बता सकता है कि उनके पापा को क्या बीमारी हो गई थी।आठ पढ़े अर्ध धार्मिक दुकानदार टाइप बच्चे तो दरी पर बैठकर अफसोस करने आए लोगों को इतना ही कह सकते हैं,"बस जी बहाना बनना होता है।घल्ले आवे नानका सद्दे उठि जाई!!"
और ऐसे जमाने में भग्गू अचानक मर गया।उसका मरना न कला का दर्जा ले पाया न विज्ञान की परिधि में आ पाया।
जिस ने भी पूछा,इतना ही पूछा,"हैं?भग्गू मर गया?"
सुनिश्चित होने पर कि भग्गू सचमुच मर गया है,किसी ने इतना भी न पूछा कि भग्गू कैसे मरा या उसका अंतिम संस्कार कब है?
लोग उसके मर जाने की बात सुनकर संतुष्ट होकर चलते बने।
भग्गू,पंडित बिसेसर राज का पोता!पंडित बिसेसर राज सनातन धर्म के प्रकांड विद्वान,विवाह विधि कर्म कांड के ज्ञाता!भूत भविष्य के ज्ञाता!!त्रिकालदर्शी!!बड़ सा विशाल गात!सस्वर मंत्र पढ़ते तो लोग उनकी प्रतिभा देख दंग रह जाते!संस्कृत और संस्कृति पर एक सा अधिकार!खाट से लगे तो लगे ही रह गये!!यजमान आते तो ठेका पर रखे मथुरा के पंडित को भेज देते।गलत सलत उच्चारण करता!भोजन भट्ट!!दक्षिणा के लिए झगड़ा करता!लोगों ने उसे ले जाना ही छोड़ दिया।
"पंडित जी!भगवान दास को भेजो न!आपका पोता है।आपका अंश है!"
"कौन !वह अधर्मी भग्गू!निरामिष भोजी!!मदिरा व्यसनी!अमर्यादित!विवाहित होते हुए भी म्लेच्छ कन्या के बिस्तर पर पड़ा रहता है कुकर्मी, नीच!
यह सुनकर यजमानों ने आना ही छोड़ दिया।
ऐसा नहीं था कि भग्गू उर्फ भगवान दास शर्मा पढ़ा लिखा नहीं था।बी. एस. सी. बी एड था।एक मान्यता प्राप्त विद्यालय के आठवीं दसवीं के बच्चों को विज्ञान पढ़ा चुका था।कॉलेज में डिग्री हासिल करने के दौरान कम्युनिस्ट पार्टी के छात्र संगठनों में काम करके उसे पंडिताई के काम,सनातन धर्म जैसी संस्था में रुचि नहीं रही थी।प्रकांड कर्मकांडी ब्राह्मण का पौत्र था।इसलिए मंत्र वगैरह सब कंठस्थ थे।
कॉलेज के बाद उसकी इच्छा सरकारी अध्यापक बनने की थी।पंडिताई करने का उसका कोई इरादा नहीं था।लेकिन बहुत धक्के खाने के बाद भी जब सरकारी नौकरी नहीं मिली तो उसने मान्यता प्राप्त विद्यालय में इसलिए नौकरी कर ली कि इसी बहाने चार पैसे घर में आयेंगे।जब सरकारी नौकरी मिल जायेगी तो इस नौकरीनुमा गुलामी से मुक्ति पा लेगा।स्कूल का मालिक कोई अरोड़ा था।वह बनता तो आदर्शवादी शिक्षाविद था लेकिन वास्तव में वह एक सूदखोर बनिये से भी काईंया और चतुर था।लोगों ने उसका नाम मीठा ठग रख छोड़ा था।
भग्गू उर्फ भगवानदास ने जब उसके यहां नौकरी पकड़ी तब उसका स्कूल कोई ज्यादा नहीं चलता था। जुबान की मिठास और दिमाग की चालाकी से उसने अपने स्कूल को एक इज्जतदार मुकाम दे दिया।इसके साथ ही उसकी गर्दन मुटा गई और गुद्दी पककर फूल गई।उसने इंसान को इंसान समझना बंद कर दिया।टीचरों को बहाने -बहाने से जलील करने लगा।महिला टीचर तो उसके कमरे से रोकर निकलती।
एक दिन स्टाफ रूम में बैठे हुए दो टीचरों ने सलाह मिलाई कि आते रविवार को किसी जगह पर सब टीचर मिलें और अरोड़ा के तानाशाही रवैये से छुटकारे का कोई उपाय सोचें।इन दो टीचरों में एक अपना भग्गू था।
उपाय तो कोई नहीं मिला अरोड़ा को खबर जरूर मिल गई।दोनों टीचरों की नौकरी चली गई।
नौकरी लोगों की चली जाती है।लोग मर नहीं जाते।भग्गू मर गया।मरा भी ऐसे कि कोई कहानी नहीं बनी।कोई कहानी बनती तो संतोष होता कि उसका मरना व्यर्थ नहीं गया।लोग देश धर्म के लिए मरते ही हैं।वह कला के लिए मर गया।भग्गू निहायत ही नाकाबिले जिक्र जीवन जीकर चला गया।अगर मैं अमेरिकी लेखक होता तो लिखता कि टीचर की नौकरी जाने के बाद उसने अपना स्कूल खोल लिया जो उसके पूर्व स्कूल से बेहतर और
बड़ा था।लेकिन मैं हिंदी का लेखक हूं हमारे यहां ऐसा नहीं हो पाता।हो सकता है असल जिंदगी में ऐसे कुछ लोग हों ऐसी कुछ कहानियां हो जहां लोग असफल होने के बाद दोगुनी -चौगुनी मेहनत करते हों।जिंदगी में कामयाब होते हों।ऐसे लोग हिंदी लेखक के संपर्क में नहीं आते।
भग्गू न तो बीमार हुआ।न उसका कोई एक्सीडेंट ही हुआ।उसने मरना खुद भी न चुना।जैसे एक दिन अचानक खेल खेल में नौकरी छूट गई वैसे ही जिंदगी छूट गई।
उसकी शादी हो गई थी।पत्नी भी पर्याप्त सुंदर थी।गरीब घर की लड़की थी।उसकी कोई लंबी- चौड़ी डिमांड भी नहीं थी।
पत्नी के आने से वह खुश भी बहुत था।एक दिन किसी विवाह- मंडप में,जहां कोई पूर्वी पुजारी दबंगई से गलत मंत्रोच्चार कर रहा था और किसी बुजुर्ग ने उसे टोक दिया था।नित्य प्रति मोटी दक्षिणा का भोग लगाते हुए उस पुजारी ब्राह्मण का दिमाग सातवें आसमान पर था।अपनी आलोचना और टोकने से उत्तेजित वह ब्राह्मण विवाह विधि बीच में ही छोड़कर उठ गया।उसकी इस हरकत से आग बबूला हुए बारातियों ने उसे धो डाला।अपमानित और पिटा हुआ वह ब्राह्मण वहां से भाग गया।उसके भागते ही ढूंढ हुई और चिंता चढ़ी कि अब सप्तपदी कौन संपूर्ण कराए?कौन पुरोहित लाया जाए कि विवाह विधि पूर्ण हो?
उस समय उस घर में बिजली का कुछ काम करने आया भग्गू नहाकर पुरोहित के आसन पर आ बैठा।इतनी सुंदर और सुमधुर विवाह विधि संपन्न करवाई की कि उपस्थित जन वाह वाह कर उठे।
इस घटना के बाद लोगों ने बहुतेरा कहा कि वह अपनी पंडिताई का पारिवारिक व्यवसाय अपना ले।उनके दादा का देहावसान हुए भी काफी समय बीत चुका है।लोगों को एक अच्छे पुरोहित की कमी खलती है।
भग्गू ने इनकार कर दिया।वह बोला था,"मुझे अपना बिजली का रोजगार दो रोटी दे देता है।मैं इसमें खुश हूँ।"
टीचर की नौकरी छोड़ने के बाद इन दिनों वह बिजली ठीक करने और मिक्सी,मोटर,प्रेस वगैरह सुधारने का काम करने लगा था।
काम इतना अच्छा तो नहीं था।मिस्त्री,कामगारी का छोटा मोटा काम छोटी छोटी बेईमानी मांगता है।भग्गू बेईमानी से नफरत करता था।इसलिए इस रोजगार में भी उसका दाल रोटी का गुजारा ही रहा।
बाद में जैसे होता है बेईमानी ईमानदारी के मुकाबले में बेईमानी जीत जाती है,न्याय और अन्याय में हमेशा अन्याय विजयी होता है।सच झूठ के दरम्यां झूठ का बोलबाला होता है भग्गू का वह रोजगार भी छिन गया।
जिन दिनों भग्गू की मौत हुई उन दिनों वह कविता संग्रह लिख रहा था।कविताएँ वेद,पुराण,गीता और रामायण पर उद्धृत थी,साथ ही साथ दुनियादारी की मुश्किलातों का भी जिक्र था।
भग्गू दुनियादारी के मामले में अनाड़ी था।पोथी-पत्रा पढ़ने,पैर पुजवाने और दक्षिणा पाने के साधारण से काम को अगर वह करता तो उसका जीवन सही से गुजरता।यह बात भी नहीं थी कि उसे ऐसा काम पसंद नहीं था।उसे लगता था कि उसके दादा ने उसे यह काम नहीं सौंपा है।पुरोहित की गद्दी से उसे न देकर उसकी चचेरी बहन मोहिनी को दी है।इसलिए उस पर उसका ही हक है।वह कहता,"देखो!हम ब्राह्मणों की पुश्तैनी जायदाद ये पोथी पत्रा ही तो हैं।यह जायदाद दादा ने मुझे नहीं दी।मैं उनकी नजर में आवारा और बदचलन था।मोहिनी को पुरोहिताई मिली है मोहिनी करे!मैं क्यों नाहक उसके अधिकार में दखल दूं।"
यह अलहदा बात थी कि यजमान मोहिनी को नहीं बुलाते थे।विवाह विधि वह आधी अधूरी ही जानती थी।नामकरण और छटी संस्कार में भयंकर गलतियां करती थी।पुरोहिताई उसके बस की नहीं थी।जीभ -चटोरी और दक्षिणा की लोभी मोहिनी का यजमान सम्मान नहीं करते थे।चिढ़ कर वह उनको गालियां देती थी।जवाब में हँस देते थे।आखिर वह उनकी गुरु- बहन थी।जैसी भी थी उनकी अपनी थी।संक्रांति-अमावस्या पर उसका हंदा उसके घर पहुंच जाता था।सूखा आटा, फल-मिठाई,देसी घी का हलवा, देसी घी और शक्कर बुरके हुए चावल,सेवईयां, जवे और दस-बीस रुपये!यजमानों की पत्नियां उसकी भाभियाँ थी और वे अपनी दुखियारी ननद का खूब ख्याल रखती थी।हर वार त्योहार, खुशी के मौके पर उसको याद कर लेती।सनातन गृहिणी का काम बगैर पुरोहित के वैसे भी नहीं चलता है।अगर पुरोहित उनकी प्यारी ननद हो तो वे अपने पतियों की राय के खिलाफ खड़ी होकर ननद का पक्ष लेती।
मोहिनी विवाहित थी।उसकी पति से नहीं बनी।विवाह के कुछ दिनों बाद ही मायके लौट आई थी।फिर उसने पति या ससुराल की कोई खबर न ली।यह एक ऐसा विषय था जिसके बारे में कभी कोई शायद ही बात करता।
भग्गू और मोहिनी चचेरे भाई बहन थे।दोनों दादा के स्नेह की छांव में पले।मोहिनी दादा की ज्यादा लाडली थी।भग्गू को दादा अवज्ञाकारी, हठी और व्यसनी कहते थे।इसके बावजूद भग्गू दादा का सम्मान करता।छड़ी की मार खाकर भी उनके सामने न बोलता।छड़ी की मार का आयोजन मोहिनी करती।भाई बहन में लगती रास थी जिसमें जीवन भर मोहिनी का पलड़ा भारी रहा।
मोहिनी के खान- पान या उसके कर्मों का नतीजा हुआ कि मोहिनी को गठियावात हो गई।उसके घुटने मुड़े तो मुड़े ही रह गए।अब उसके लिए कहीं भी आना जाना मुश्किल हो गया।यजमान चाहते थे कि अब पुरोहिताई भग्गू संभाल ले।भग्गू संभालता तो तब जब मोहिनी छोड़ती।कभी कभी किसी के इसरार करने पर भग्गू चला जाता तो मोहिनी हंगामा खड़ा कर देती।
एक दिन ऐसे ही एक हंगामे के बीच भग्गू ने अपने शरीर पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आग लगा ली।भग्गू ज्यादा झुलसा भी नहीं था फिर भी मर गया।
भग्गू मरा तो पता चला।जैसे वह खामख्वाह जी रहा था वैसे ही एक दिन खामख्वाह मर गया।
मरना भी एक कला है।