Dhith Muskurahate - 2 - last part books and stories free download online pdf in Hindi

ढीठ मुस्कुराहटें... - 2 - अंतिम भाग

ढीठ मुस्कुराहटें...

ज़किया ज़ुबैरी

(2)

“अरे भाभी जी, आप!.. नमस्ते।” रानी को बैठक की ओर आते हुए देख कर इन्सपेक्टर खड़ा हो गया। “अच्छा सर जी मैं चला; रिपोर्ट देता रहूंगा।”

रानी ने चेहरे पर मुस्कुराहट लाए बिना नमस्ते का एक सपाट सा जवाब दिया और सर जी के हाथ में घर का फ़ोन थमाते हुए कहा, “लीजिये, आपके मैनेजर का फ़ोन है। ”

पति देव ने फ़ोन हाथ में लेते हुए अपना आदेश भी सुना दिया, “रानी, नाश्ता लगवा दो आज बैंक जल्दी जाना है। ”

“आपको तो रोज़ ही जल्दी जाना होता है और देर से वापिस आना होता है... वैसे यह इंस्पेक्टर रोज़ रोज़ क्यों आकर हमारे घर में बैठ जाता है। पुलिस वालों का इस तरह हमारे घर आना अच्छा नहीं लगता। आप इसे बैंक में ही बुलाकर मिल लिया कीजिये। मेरे घर को पवित्र ही रहने दीजिए।”

“तुम कहना क्या चाहती हो, कि बैंक अपवित्र होता है ?”

“होता नहीं, बना दिया जाता है। जैसे अधिकारी होते हैं वैसा ही वातावरण बनता है।... आप शायद भूल गये कि मैनेजर अभी भी फ़ोन लाइन पर मौजूद है। ”

“तुम बाहर जाओ तो बात करूं।” रानी ने पति की ओर शक़-भरी नज़रों से देखा और कमरे से बाहर निकल गई। ”

खाने के कमरे में मेज़ पर चीज़ें रखने की आवाज़ें आने लगीं। कबाब और गरम गरम ऑमलेट की ख़ुशबू फैल गई। “ सरजी, आ जाइए नहीं तो पराठे ठण्डे हो जाएंगे।”

सरजी अपने मैनेजर से बात ख़तम करने के बाद ही आए और आते ही बोले, “अरे भई, सूजी का हल्वा कहां है ?”

“आज पराठे बनवाए थे, इसलिये सूजी का हल्वा नहीं बनवाया। मीठी सिवइयां बनी हैं।”

“चलो ठीक है। आज इस समय तो चल जाएगा मगर रात के खाने पर बनवा लेना। हां भुने क़ीमे के साथ साथ बकरी के गोश्त का स्टू भी बनवाना। पूरी के साथ अच्छा लगेगा।”

रानी सुनती रही। हां हां करती रही और सोचती रही कि हार्ट अटैक के बाद से डॉक्टर ने सादा खाना खाने की हिदायत की थी; वज़न कम करने को कहा था; सिगरेट बिल्कुल बन्द करने को कहा था; वर्ज़िश और सैर करने की ताकीद की थी। मगर सरजी को तो अपनी मनमानी करनी होती है। किन्तु रानी हिम्मत नहीं जुटा पाई कि पति को याद दिला सके।

सरजी को तो यह भी पसन्द नहीं था कि उन्हें कोई नाम ले कर पुकारे। पहली बार ही रानी के ऐसा करने पर उन्होंने पत्नी को झिड़क दिया था। फिर रानी तो उम्र में भी अपने पति से दस बारह साल छोटी थी। कई बार तो लोगबाग़ उसे सरजी की बेटी ही समझ लेते थे।

सरजी को इस बात का भी ख़ासा ग़ुरूर था कि उनकी पत्नी उनसे इतनी छोटी है। यार दोस्तों से मूंछों पर ताव देकर कहते, “मियां इतनी छोटी लड़की से शादी करने के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए। बेचारी छोटी लड़कियां, शादी के बाद बूढ़े पति में अपनI जीवन-साथी, अपना दोस्त ढूंढते ढूंढते अपनi पूरा जीवन होम कर देती है। उसका अपना अस्तित्व तो कुचला जाता है; किन्तु उसका जीवन अपने बूढ़े पति को कभी बाप की तरह तो कभी मालिक की तरह देखभाल में गुज़र जाता है। रानी घर की रानी तो बन गई, किन्तु कभी भी सर जी के सपनों की रानी नहीं बन पाई।

सरजी तो शायद सपने देखते ही नहीं थे। खड़ा खेल खेलते थे। रात को शराब के नशे में डूबे हुए जब आते तो रानी को अवश्य आवाज़ लगाते – जूता उतारने के लिये। बस फिर लुड़क जाते बिस्तर पर। सारा घर जैसे शेर की गरज से गूंजने लगता। उन धुआंधार ख़र्राटों में रानी को नींद ना जाने कैसे आती होगी।

ख़र्राटों से भी कहीं अधिक रानी शराब की बदबू से परेशान रहती। आवाज़ का इलाज तो हो सकता है – कान में रुई ठूंस कर। मगर नाक में रुई ठूंसने से तो दम घुटने का अंदेशा रहता है। हालांकि रानी का दम तो वैसे ही घुटता रहता था सरजी के सामने।

सुबह सवेरे दरवाज़े पर घन्टी बजी। रानी दौड़ी दरवाज़े की ओर ताकि घन्टी के शोर से सर जी की नींद में ख़लल ना पड़े। मगर उसके दरवाज़े तक पहुंचते पहुंचते सर जी की दहाड़ सुनाई दे गई, “रानी, मैनेजर होगा। उसको बैठक में बिठा दो और चाय भिजवा दो हम दोनों के लिए।”

“सर जी, बड़ा ग़ज़ब हो गया। इन्सपेक्टर तो दिन रात सलोनी के घर के चक्कर लगाता रहता है। ना मालूम क्या घुट रहा है दोनों में।”

“तुमको कैसे मालूम है कि इन्सपेक्टर रोज़ रोज़ चक्कर लगा रहा है? ”

मैनेजर हड़बड़ा गया, संभलते हुए बोला, “आते जाते लोग तो देखते हैं ना सरजी। वही बात को हर तरफ़ फैलाते हैं। ”

“यार मैनें तो सुना है कि तुम पैसा लाने के बजाए उल्टे उसे पैसे दे आए हो – उस मोटी भैंस को। ”

“सर जी ऐसी कोई ख़ास मोटी भी नहीं है... गद्दर अनार है ! ”

“तुम तो उसके प्रेम के जाल में फंसे हुए लगते हो। ”

“परेम वरेम क्या सरजी, दो चार बार दिल बहला लेने को प्रेम थोड़े ही कहते हैं। प्रेम तो मैं अपनी पत्नी से ही करता हूं। ”

“तभी पराई औरतों की चौखटें चाटते फिरते हो।”

“नहीं सरजी, ऐसा नहीं है। सलोनी जैसी मिले तो.... ”

“सुनो... उठो... और बाहर निकलो यहां से। यह शरीफ़ों का घर है। यहां ये गुण्डागर्दी की बातें नहीं होनी चाहियें। ” सरजी ने देख लिया था कि रानी क़रीब ही खड़ी गुलदान में फूल लगा रही थी। फट से बातों का रुख़ ही बदल दिया सर जी ने। बड़े उस्ताद हैं सर जी। मैनेजर और इन्स्पेक्टर तो उनके सामने कुछ भी नहीं।

मैनेजर के बाहर जाते ही सर जी ने आवाज़ दी, “रानी ज़रा घरवाला फ़ोन देना तो। ”

“घरवाले फ़ोन से तो आपको गंदे लोगों को फ़ोन भी नहीं करना चाहिये। फ़ोन भी अपवित्र हो जाता है। ”

“अरे भई अगर तुम इतनी बड़ी सन्यासिन हो गई हो तो पहन लो भगवा चोला, चिमटा बजाती हुई चली जाओ हरिद्वार। ”

रानी चुप रही। वो समझदार है; पति से बहस में नहीं पड़ना चाहती। वह अपनी बात कहने से चूकती भी नहीं मगर लड़ाई भी नहीं करती। इसीलिये मन ही मन सर जी दिखाने को तो शेर बने रहते हैं मगर असल में रानी से रोब खाते हैं।

जैसे ही रानी कमरे से बाहर निकली, सरजी ने मोबाइल से इन्सेपक्टर को फ़ोन मिलाया। सिगनल कमज़ोर थे... भांय भांय की आवाज़ हो कर कॉल बन्द हो गई। “ये.... मोबाइल भी मनमानी करते हैं।” सर जी ने खींचकर मोबाइल दीवार पर दे मारा। सामने दीवार पर रानी और सरजी की बड़ी सी फ़ोटो लगी हुई थी। मोबाइल फ़ोन सीधा जा कर फ़ोटो में सरजी के मुंह से टकराया। शीशा मकड़ी के जाले की तरह चकनाचूर तो हुआ मगर वहीं चिपका रहा; नीचे नहीं गिरा। साथ में रानी की तस्वीर वैसे ही मुस्कुराती रही जैसे कह रही हो - ‘सरजी, अभी तो फ़ोटो पर अटैक हुआ है, आइन्दा क्या पता... !’

रानी सब समझती थी कि मैनेजर, इन्सपेक्टर और उसका अपना पति मिलकर कैसी कैसी बातें करते हैं। पति का संस्कार नाम की चिड़िया से कुछ भी लेना देना नहीं था। जंगली पौधों की तरह उसका जन्म हुआ था और वैसे ही जैसे तैसे बड़ा हो गया था। तिकड़मी था, इसलिये बी.ए. पास करते ही बैंक में किसी भी तरह नौकरी पा ली। अपने अफ़सरों को ख़ुश रखना आता था; इसलिये तरक्की हो जाती। अब ऐसे शहर में तबादला हो गया था जहां के लोग पैसे वाले थे। उनका ईमान भी पैसा ही था। पुलिस वालों के तो यहां मज़े थे।

मज़े तो सरजी के भी थे। बैंक से एडवांस देते और अपनी चुटकी अपने अकाउंट में जमा करा देते। करोड़ों के मालिक बन गए थे बैंक को चूस रहे थे पर सलोनी के ढाई लाख रूपए वसूलने के लिए जान लगाए दे रहे थे। कभी मैनेजर को और कभी इन्स्पेक्टर को बार बार उसके घर भेजते और मज़े ले लेकर उसकी पिंडलियों उसके बदन के रंग उसके उलझे हुए बालों के बारे में पूछते। गुलाबी शलवार के ज़िक्र से झुरझुरा जाते...

ये पूरी कोशिश करते की ये दोनों वहां ज़यादा देर तक रुकने न पाएं। टाइम का पूरा हिसाब मांगते...और ये भी कहते जब बेटा घर में हो तभी जाया करो...मगर पकड़ो उसे गर्दन से...हराम का पैसा नहीं है। बैंक को क्या हिसाब दिया जाएगा...

देखो भई इन्स्पेक्टर अगर ये केस तुमसे नहीं संभल रहा तो जवाब दे दो मैं किसी और को लगाऊं...

इंस्पेक्टर आया हुवा माल कैसे जाने देता. जल्दी से बोला सरजी आपका कहा मानता हूँ. लेजाता हूँ और भी सिपाही उसके घर और वही काम करता हूँ जो चूहे वाला आपका आइडिया है...

अरे इन्स्पेक्टर उस समय तो मैं भी वहां होना चाहूँगा...तमाशा देखूंगा..जब उसके शरीर का एक एक अंग अलग अलग कांपेगा...कुरते से जवानी बाहर निकल पड़ेगी.

जी सरजी तो रख लेते हैं ये प्रोग्राम आज से दो दिन के बाद. सब अफ़सरों की छुट्टी होगी...कोई सुनने वाला भी नहीं होगा..

उन दो दिनों के बीच इन्स्पेक्टर दो बार उसके घर हो आया बेटे को बाहर भेजकर... यही लालच देता की तेरे पैसे माफ़ करवा दूंगा सरजी से कह कर..

और आज दो दिन बाद सरजी को भी साथ देखकर खुश हो गई सलोनी की सरजी पैसे माफ़ करने आए हैं...

मगर साथ में तो दो लेडी कॉन्स्टेबल भी थीं। उन लोगों ने पहुँचते ही एक गन्दी सी गाली देकर कहा की सरजी के पैसे खाकर बैठी है देख कैसी जवानी फूट रही ह। अभी निकलवाते हैं तुझसे पैसे...

सलोनी भयभीत हो गई. हाथ पैर जोड़ने लगी की थोडा और टेम दे दिया जाए. एक लाख उसने जोड़ लिए हैं..बेटा गया हुआ है कहीं से उधार मांगने। सरजी तो खुश हो गए चलो अच्छा हुआ बेटा नहीं है यहाँ... सरजी उसको उसकी काली कोठरी में ले गए...

“सरजी यह आप क्या कर रहे हैं... दया करो सर जी... मैं तो इंस्पेक्टर और मैनेजर को आपके नाम से डराया करती थी। वो दोनों हरामी ठठ्ठा मार मार कर हंसा करते थे। एक दूजे को आंख भी मारा करते थे।.... नहीं नहीं सरजी आप तो मेरे बाप जैसे हैं।... कैसी गुलाबी शलवार?... सरजी यह तो लाल थी... रंग उड़ गया है... ”

“रंग तो अब तेरा उड़ेगा, ऐसे थोड़े ही छोड़ दूंगा।”

“नहीं, नहीं... नहीं... सरजी... सरजी.... ”

सलोनी की हाय हाय का शोर बाहर लाइन में लगे सब सुनते रहे... ढीठ मुस्कुराहटें उनके चेहरों पर दिखाई दे रही थीं... अपनी अपनी बारी की राह देख रहे थे....

सर जी सीना फुला कर निकले ही थे कि दोनों भैंस जैसी मोटी पुलिस वालियां लाइन तोड़कर अन्दर घुस गईं और अपनी ड्यूटी बजाने लगीं। उसकी गुलाबी शलवार को खींचकर दोनों पाएंचे नीचे से बांध दिए और ऊपर से नेफ़े के पास से हाथ अन्दर डालकर चूहा अन्दर छोड़ दिया और शलवार ऊपर से कसकर बाँध दी. सलोनी को उस वक़्त तक कुछ समझ में नहीं आया जब तक चूहे ने उसकी शलवार में हर ओर दौड़ना नहीं शुरू किया। वहां सलोनी की चीख पुकार सुनने वाला कोई नहीं था सब एक आवाज़ यही कह रहे थे 'अब निकाल पैसे कहाँ छुपाकर रखे हैं'... वो तड़प रही थी और सब हंस रहे थे... उसकी आवाज़ आकाश से टकराती धरती पर फैल कर गुम हो जातीI हाथ उसके बंधे हुए थे...औरतों को औरत होने का वास्ता देती पर वहां तो सब दरिन्दे थे... तमाशा देखने आए थे पैसा निकलवाने के नाम पर...

सरजी घबराकर उठकर बैठने लगे इधर उधर टटोलने लगे की कहीं चूहा उनके पायजामे के अन्दर तो नहीं घुस गया... सर्दी लग कर बुख़ार चढ़ना शुरू हो गया था। एड़ी दर्द और जलन से फटी जा रही थी और सूज भी गई थी... डाक्टर बुलाओ, डाक्टर बुलाओ ! पागलों की तरह चीख़ रहे थे सरजी.... अरे रानी मेरे पायंचे का ख़्याल रखना कोई नीचे से बान्ध ना दे...

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