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कुबेर - 15

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

15

पैसे भी आते जीवन-ज्योत में तो थोक में आते। कई बार गिनती के लिए बच्चों को बैठाया जाता। डोनेशन के रूप में कई लोग डाल जाते। अपनी इच्छाएँ पूरी होतीं तो दादा का शुक्रिया अदा करने का एक ही जरिया होता, दादा के लिए गुप्त दान कर देना। दादा कभी किसी से डोनेशन के लिए नहीं कहते, ना ही किसी डोनर के नाम का प्रचार प्रसार होता। अगर देना है तो गुप्त दान दे सकते हो वरना नहीं। क्योंकि यहाँ पैसे देकर कोई बड़ा नहीं बन सकता और जिसके पास पैसा नहीं वह छोटा नहीं हो सकता। उस नियम के तहत पैसा तो आता पर कभी किसी को पता नहीं चलता कि कौन दानवीर है और कभी किसी को छोटापन महसूस नहीं होता कि मेरे पास देने के लिए कुछ नहीं है। दादा वह सारा पैसा उन्हीं लोगों के लिए लगा देते जो उनसे मदद माँगने आते। कोई खाली हाथ नहीं जाता। कोई छोटा-बड़ा नहीं होता। सब समान थे। कोई भेदभाव नहीं कोई जाँत-पाँत नहीं। दुनिया के सारे समाजों से अलग एक ऐसा समाज जिसके लोग एक दूसरे के लिए थे।

ऐसा भी नहीं था कि दादा के लिए यह सब करना इतना सहज था। समय-समय पर कई परेशानियाँ आती रहतीं। बाहरी तत्व वहाँ रहने वाले बच्चों को भड़काने की कोशिश करते। टटपूँजिए नेता अपना वर्चस्व दिखाने जब-तब आकर धमकाने की कोशिश करते पर इन सबसे जिस तरह शांति से निपटते दादा वह उन सबको शांत कर देता। दादा के दरबार में सारे धुरंधर पानी भरने लगते थे। अपने बिछाए हुए जाल में खुद फँस जाते थे तब एक ही चारा बचता था, वे दादा के होकर रह जाते थे। अपनी ग़लतियों की माफ़ी माँगते, इसे अपनी नादानी समझकर कभी न दोहराने की कसम खाते।

बड़े अधिकारियों तक संस्था की रिपोर्ट जाती तो उनका भी कर्त्तव्य हो जाता वहाँ की परेशानियों से निपटना। जिले के जिलाधीश, पुलिस सुपरिंटेंडेट और उनके मातहत समय-समय पर जीवन-ज्योत के कार्यों का सम्मान करते, सराहना करते। पुलिस महकमा दादा की हर छोटी-बड़ी समस्याओं का समाधान ढूँढता। कई बार कोई सिरफिरा धमकी देकर जाता तो सादे कपड़ों में पुलिस वाले जीवन-ज्योत के आसपास रहते। किसी भी अनहोनी को होने से पहले संदेहास्पद गतिविधियों पर काबू पाने की पुरजोर कोशिश की जाती। अगर किसी इंसान ने अपना पूरा जीवन परोपकार के लिए समर्पित किया है तो कोई कैसे भी तंग करने की कोशिश करे, देर-सबेर उल्टे मुँह की खाता ही है।

धीरे-धीरे डीपी अनकहे और अघोषित छोटे दादा के रूप में अपनी जगह बनाता जा रहा था। उसका व्यक्तित्व, उसका काम करने का तरीका और उसके रविवार के भाषण सब मिलाकर दादा का ही प्रतिनिधित्व करते।

जैसे-जैसे यहाँ के बच्चे बाहर जाकर काम करते वैसे-वैसे जीवन-ज्योत की आमदनी बढ़ती जाती। ये बच्चे या तो ख़ुद आकर अपना शुक्रिया अदा करते या फिर जहाँ भी होते वहाँ से कुछ पैसे भेजकर अपने कर्तव्यों को पूरा करते। उन्हें इस बात का अहसास था कि किस तरह दादा यहाँ रहने वाले हर बच्चे की रुचि को ध्यान में रखकर उसे अच्छी से अच्छी शिक्षा देने की कोशिश करते हैं। बच्चों की पसंद-नापसंद का ध्यान रखने का सबसे बड़ा फ़ायदा यह होता था कि हर बच्चा अपनी पढ़ाई मेहनत और लगन से करता। कई बच्चे जो आगे की पढ़ाई नहीं करना चाहते वे अपनी पसंद का काम करके अपनी जीवनचर्या के लिए इतनी आमदनी ज़रूर कर लेते कि उन्हें किसी पर बोझ बन कर न जीना पड़े।

सख़्त और पारदर्शी काम करने की शैली से धीरे-धीरे जीवन-ज्योत का नाम दूर-दूर तक फैलने लगा। अपने जीवन की ज्योति को जलाए रखने के इच्छुक लोग किसी न किसी रूप में जुड़ने लगे। कोई तन से, कोई मन से तो कोई धन से। जीवन-ज्योत के नाम से खुली थी यह संस्था लेकिन एक ऐसे एनजीओ के रूप में ख़्याति प्राप्त करने लगी जिससे कई मशहूर हस्तियाँ जुड़ना चाहती थीं। कला के क्षेत्र से, उद्योग के क्षेत्र से, अभिनय के क्षेत्र से। इन नामी-गिरामी नामों के जुड़ने से और उनके द्वारा दिए जा रहे योगदान से वहाँ कमरे बढ़ने लगे, सुविधाएँ बढ़ने लगीं, अधिक से अधिक बच्चों के भविष्य सँवरने लगे और साथ ही अधिक से अधिक बेसहारा लोगों को सहारा मिलने लगा।

जीवन-ज्योत से बाहर रहने वाले भी समय-समय पर वहाँ आते और अपना श्रमदान करके जाते। फिर चाहे वह किसी असहाय की मदद हो या फिर किचन में सब्ज़ियाँ काटना हो या फिर रोटियाँ बनाने में मदद करने का काम हो।

आज दादा को न्यूयॉर्क की उड़ान भरनी थी लेकिन उनकी तबीयत ख़राब थी। बहुत कमज़ोरी थी। दादा का मुरझाया हुआ चेहरा कह रहा था कि उन्हें आराम की ज़रूरत है। डीपी की चिन्ता बढ़ती जा रही थी। ऐसे में दादा अकेले कैसे जा सकते थे कभी भी रास्ते में कोई परेशानी हुई तो उन्हें कौन सम्हालेगा। उसने उन्हें अकेले जाने से साफ़ मना कर दिया। लंबा सफ़र और लंबे कार्यक्रमों की फेहरिस्त को देखते हुए दादा का स्वास्थ्य और ख़राब हो सकता था।

“आप अकेले नहीं जा सकते दादा, आपकी तबीयत ख़राब है।”

“अकेले नहीं तो और कौन है जो मेरे साथ जाएगा।” दादा के मन में शायद उसे साथ ले जाने का विचार था। अगर उनकी तबीयत ठीक नहीं हुई तो कम से कम उनके भाषण को लोग मिस नहीं करेंगे।

“मना कर दीजिए दादा, इतने लंबे सफ़र में कभी भी तबीयत और बिगड़ सकती है।” डीपी के स्वर में मजबूती थी।

“मना नहीं कर सकता डीपी, एक बार किसी को जबान दे दी तो उससे पीछे हटना अच्छी बात नहीं। इतनी बड़ी कॉन्फ्रेंस है उनकी, उन्होंने मुझे विशेष वक्ता के रूप में बुलाया है।” दादा को अपनी तबीयत से अधिक चिन्ता अपने वादे की थी, उस आयोजन की थी जहाँ सारी तैयारियाँ हो चुकी थीं।

यह तर्क डीपी के गले बिल्कुल नहीं उतर रहा था - “अभी तो दो सप्ताह बचे हैं दादा, वे और कोई व्यवस्था कर सकते हैं। आप इतनी चिन्ता क्यों करते हैं। कुछ और प्रबंध करने का समय है उनके पास।”

“तुम साथ चलने को हाँ कर दो तो शायद मैं चिन्ता न करूँ और ठीक भी हो जाऊँ।” दादा उसका मुँह देखने लगे।

“मैं.... लेकिन मेरे कागज़ात...., पासपोर्ट तो है पर वीज़ा...” वह चौंक गया था इस प्रस्ताव से।

“पहले हाँ तो करो फिर सोचते हैं” दादा के इस आग्रह में उनकी तबीयत की मजबूरी तो थी ही, साथ ही अपने दिए गए वचन का भी मान रखना था।

डीपी को कोई एतराज़ नहीं था। दादा का कहा सिर आँखों पर था उसके लिए। अपनी दूरदर्शिता के कारण दादा कई महीने पहले ही उसका पासपोर्ट बनवा चुके थे। उनके संस्थान को किसी भी देश के वीज़ा के लिए कभी कोई तकलीफ़ नहीं होती थी, न ही आज तक जीवन-ज्योत के किसी भी व्यक्ति के पासपोर्ट के बनने में कोई दिक्कत आयी थी क्योंकि दादा का एनजीओ एक जाने-माने संस्थान के रूप में ख़्याति प्राप्त कर चुका था। उन्हें विश्वास था कि एक सप्ताह में डीपी का वीज़ा बन जाएगा और हुआ भी यही डीपी का वीज़ा जल्दी ही मिल गया।

दिक्कत आती भी कैसे, हर कोई तो जानता था उसे सर डीपी के नाम से। दादा ने पासपोर्ट पर भी उसका नाम सर डीपी ही लिखवाया था। यही उसकी पहचान थी अब। दादा के बाद दूसरा नंबर उसी का था जीवन-ज्योत में। उनकी अनुपस्थिति में सारे दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर करना, मरम्मत के कार्य सही समय पर पूरे करना। ऐसे अन्य कई कार्य निपटाने के अलावा बच्चे-बुजुर्ग सभी की सेहत और ज़रूरत की दवाइयों के साथ उनकी देखरेख की भी पूरी व्यवस्था करना। इतने लोगों की राशन की व्यवस्था कर पैसों का भुगतान करना आदि सारे काम अब उसी के ज़िम्मे थे। और नियत समय पर अपनी पढ़ाई जारी रखना अपने भाषणों में निरंतर नये प्रयोग करके उन्हें रुचिकर बनाना।

दादा बहुत ख़ुश थे। इतने दिनों में डीपी को भाषण देने में महारथ हासिल हो गयी थी। अगर उनकी तबीयत ठीक नहीं हुई तो डीपी तो है ही, संभाल लेगा। उन्हें आयोजकों को निराश नहीं करना पड़ेगा। साथ ही विदेश का दौरा डीपी को एक नया विश्वास देगा, नये लोगों से मिलकर कई नयी चीज़ें सीखने का मौका भी मिलेगा।

डीपी स्वयं भी बेहद उत्साहित था। इस संभावित दौरे का रोमांच उसे बेहद उत्साहित कर रहा था। कई चीज़ें अनुभव करने की ललक थी, उत्सुकता थी, उमंग थी। हवाई जहाज में बैठना कैसा लगता होगा, ऊपर से देखने पर भारत कैसा दिखेगा, विदेश की धरती कैसी होती होगी, लोग कैसे होंगे, ऐसे कौतुहल भरे विचार आना स्वाभाविक भी था क्योंकि ऐसी कई नयी इच्छाओं को, नयी उमंगों को एक नयी अनुभूति मिलने वाली थी।

आख़िर वह दिन आ ही गया जब दादा और डीपी ने न्यूयॉर्क की उड़ान भरी। पहली बार हवाई जहाज में बैठकर न्यूयॉर्क जैसे शहर की अट्टालिकाओं के बीच अपनी उपस्थिति को दर्ज़ करना डीपी के लिए बेहद रोमांचक था। जब विमान ने महानगर न्यूयॉर्क की धरती को छुआ तो वह क्षण अमूल्य था। ऐसा लगा जैसे माँ और नैन दोनों के द्वारा मुस्कुराकर उसका स्वागत किया जा रहा हो, उसके फैलते पंखों को देखकर ख़ुशियों की बारिश की जा रही हो। शायद हवाओं से मिलकर संदेश भेजा जा रहा हो – “तुम कहीं भी जाओ हम हमेशा तुम्हारे साथ हैं।” मन वह देख लेता है जो वह देखना चाहता है, सुन लेता है जो वह सुनना चाहता है। वही स्थिति डीपी के मन की भी थी। अपनों से अपनी बात कह-सुन कर वापस लौट आता।

दादा के कार्यक्रम से पहले दो दिन का आराम का समय था उनके लिए। अपने अनुयायियों से कहकर डीपी को शहर दिखाने के लिए व्यवस्थाएँ कीं दादा ने। मैनहटन की लंबी-ऊँची गगनचुम्बी इमारतों को देखकर सुना हुआ यह कथन सच लग रहा था कि – “यहाँ की धरती सोना उगलती है।”

एक ऐसा शहर जो सपनों की दुनिया से भी बहुत आगे था, अपनी भव्यता और विशालता से, देखने वालों के मुँह से ‘आह’ और ‘वाह’ ही निकलता था। विश्व के व्यावसायिक टायकूनों के निवेश के लिए एक गढ़ था न्यूयॉर्क शहर जहाँ के डाउनटाउन में घूमते हुए जब उसने एक सौ दो मंजिला एम्पायर स्टेट बिल्डिंग की छटा देखी तो उसे लगा इस बिल्डिंग के जरिए वह वाकई आकाश को छू सकता है। एकतरफ़ा चौड़ी सड़कों पर दौड़ती उसकी कार जब वॉल स्ट्रीट के सामने रुकी तो रोमांच से भर गया वह – “अच्छा! तो यह वह जगह है जहाँ से दुनिया का सारा अर्थतंत्र धड़कता है।” सोचा किसी दिन ज़रूर वह स्टॉक एक्सचेंज के अंदर जाकर सक्रिय ट्रेडिंग रिंग देखेगा।

स्वर्ग की जो कल्पना उसके दिमाग़ में थी फाइनेंशियल डिस्ट्रिक्ट के भव्यतम भवनों का भीतरी परिवेश उससे भी कहीं दिव्य था। मेज़बानों ने उसके लिए फाइनेंशियल डिस्ट्रिक्ट के एक रेस्तरां में डिनर आयोजित किया था। मद्धम रौशनी में हल्का-सा संगीत बज रहा था। कई लोग बैठे बातें कर रहे थे मगर शोर नहीं था। काली वर्दी में सुसज्जित वेटर, लड़के और लड़कियाँ विनम्र होकर अपने-अपने ग्राहकों की सेवा मे लगे थे। उन्हें देखकर डीपी को अनायास ही अपनी वही भूमिका याद आ गयी, अपने ढाबे के दिन याद आ गए जहाँ वह स्वयं एक वेटर था। यहाँ के वेटर की तरह कोई यूनिफार्म नहीं थी उसके ढाबे में मगर सलीक़ा तो वैसा ही था। कोई अलग-अलग कोर्स नहीं थे, सारा खाना एक साथ ही आता फिर चाहे वह एपेटाइज़र्स हों या मैन कोर्स हो या डेज़र्ट हों। मैन्यू तीनों लड़कों को इस तरह रटे हुए थे कि ग्राहक के आते ही उनकी रिकॉर्डिंग शुरू हो जाती थी। किसी आईपैड वाले मैन्यू की ज़रूरत नहीं थी वहाँ।

वहाँ बाहर खुली हवा में अधिकतर मेज़ें लगी होती थीं खाने की लेकिन यहाँ तो अंदर की भव्य सजावट के साथ बैठना शाही लग रहा था। ऐसी अभूतपूर्व जगमगाहट, साज-सज्जा और बड़ी-बड़ी कलाकृतियों के साथ फर्श पर रखा फर्नीचर व उस पर सजे मेज़पोश, अपने ऊपर चमकती सफ़ेद क्राकरी के साथ एक अद्भुत नज़ारा पेश कर रहे थे। इससे काफी दूर एक आधी दीवार के पीछे लाइन से सफ़ेद कपड़े पहने, सिर पर सफ़ेद टोपी लगाए रसोइयों की कतार थी जिनके एक हाथ में कड़छी और दूसरे में कड़ाही दिखाई दे रही थी।

उनकी शक्ल में एकाएक एक साथ कई ढाबे वाले महाराज जी दिखे तो मुस्कुरा दिया डीपी। खाने की ख़ुशबू भी आ रही थी, भूख भी लग रही थी। हालांकि यह बात अलग थी कि खाना उससे ठीक से खाया नहीं गया। इतने औपचारिक माहौल में भूख की तीव्रता भी कहीं दब कर रह गयी थी। उसके साथ आए हुए लोग अपना-अपना खाना खाकर लौटने के लिए खड़े हो गए थे।

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