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कुबेर - 16

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

16

न्यूयॉर्क में लैंड होने के बाद दादा पूरी तरह विश्राम ही कर रहे थे। आज सुबह से उन्हें थोड़ा दर्द था सीने में। ऐसा दर्द जो आभास दे रहा था किसी ख़ास यात्रा की तैयारी का। लेकिन वे आश्वस्त थे। डीपी के रहते वहाँ जो जबान दी हुई है उसे पूरा कर पाएँगे। इस बात का भी सुकून था कि भारत के अपने जीवन-ज्योत को संभालने वाले बहुत लोग हैं। उन्होंने वहाँ की सुचारु प्रबंधन व्यवस्था के लिए समर्पित सदस्यों की समिति बना रखी है। उनकी अनुपस्थिति में नेतृत्व की कोई समस्या नहीं है। सब जाँचे-परखे और विश्वासपात्र साथी उन्होंने अपनी टीम से जोड़ रखे हैं। एक सप्ताह पहले नैन के चाचा रिटायर हो गए हैं। नैन के जाने के बाद नैन के चाचा डॉ. एरिक पूरी तरह से जुड़ गए थे जीवन-ज्योत से। ऐके सर के नाम से जाने जाने वाले चाचा रिटायरमेंट के बाद की अपनी शेष ज़िंदगी अपनी भतीजी की याद में जीवन-ज्योत को समर्पित कर चुके थे।

जीवन-ज्योत में उन्हें सभी चाचाजी ही कहने लगे थे। नैन के चाचा सबके चाचा हो गए थे। डीपी और दादा को विदा करने गए चाचाजी के ज़िम्मे सब कुछ करके दादा जैसे चिन्ता रहित थे। एक डॉक्टर और एक कुशल प्रबंधक के रूप में जीवन-ज्योत को एक वरिष्ठ, प्रतिभावान व्यक्तित्व के हाथों सौंपकर उनकी तसल्ली से जाने की इच्छा को सहारा मिला था। डीपी को रत्ती भर भी अहसास नहीं था कि कुछ तकलीफ़ है दादा को। वे सभा में भाषण के लिए जाने को तैयार हुए तो ख़ुश थे। उन्हें ख़ुश देखकर डीपी को बहुत अच्छा लग रहा था यह सोच कर कि दादा अब ठीक हो रहे हैं। यह तो कल्पना से भी परे था कि वे किसी ऐसी यात्रा की तैयारी कर रहे हैं जहाँ से कभी लौट कर नहीं आएँगे। यह ख़ुशी तो क्षणिक थी एक बुझते दिए की तेज़ लौ की तरह।

जब वे समारोह स्थल पर पहुँचे तब दादा का भव्य स्वागत देखकर दंग रह गया डीपी। उसने महसूस किया कि वह एक अकेला ही दादा का भक्त नहीं है, वहाँ ऐसे कई नौजवान थे जो दादा के एक इशारे पर बहुत कुछ करने को तैयार थे। इस विदेशी धरती पर इतने लोग दादा के अपने थे कि डीपी उन सबके सामने अपने आपको दादा के सर्वाधिक क़रीब पाकर अति उत्साही था।

जब मुख्य स्पीच के लिए दादा का नाम पुकारा गया तो देर तक तालियों की ध्वनि समूचे वातावरण को गुंजाती रही। दादा अपना भाषण देने के लिए खड़े हुए सबका धन्यवाद करके अपने सीने पर हाथ रखे खड़े रहे। कुछ पल ऐसे ही बीते। बोलने की कोशिश कर रहे थे पर बोल नहीं पाए, उनकी आवाज़ गले में ही दब कर रह गयी। डीपी को अपने पास बुलाने का इशारा किया। उनके सीने में बहुत दर्द होने लगा, खड़ा रहना भी संभव नहीं हो पा रहा था। उनके आदेशानुसार सर डीपी ने उनका भाषण पूरा किया और उसके बाद ही उन्हें अस्पताल ले जाया गया। शाम होते न होते दादा की तबीयत अधिक बिगड़ती चली गयी। उन को दिल का दौरा पड़ा था। कुछ कह नहीं पाए वे, अनंत में विलीन हो गए। डॉक्टर कुछ नहीं कर पाए।

एक वज्र गिरा था। एक आघात था। एक सदमा था।

यह जो भी हुआ था इतना बड़ा था कि शब्दों की सीमा से दूर था, अभिव्यक्ति से परे था। सर डीपी के लिए, दादा से जुड़े हर व्यक्ति के लिए। देश-विदेश में फैले उनके अनगिनत अनुयायियों के लिए, जीवन-ज्योत के लिए। कई लोग व्यथित थे, उदास थे मगर डीपी तो अभी किंकर्तव्यविमूढ़ था। कुछ समझ नहीं पा रहा था कि – “यह सचमुच हुआ है। दादा सचमुच छोड़ कर चले गए हैं। अब कभी वापस नहीं आएँगे। न जीवन-ज्योत में, न उसके पास, न उसे कुछ समझाने, न उसे कुछ सिखाने।”

वहाँ जीवन-ज्योत में क्या हो रहा होगा इस समय जब दादा के न रहने का समाचार सुना होगा उन सब लोगों ने। दादा जैसे विशाल वृक्ष की छाँव तले पले-बढ़े वे सारे बच्चे एक बार फिर से स्वयं को अनाथ महसूस करेंगे। जीवन-ज्योत की अधूरी योजनाएँ उसके दिमाग़ में घूमने लगीं। परिसर का माहौल घूमने लगा जहाँ ‘दादा’ ‘दादा’ की पुकार लगी रहती थी। वहाँ की हर ईंट इस समय अपने कारीगर को याद कर रही होगी, श्रद्धांजलि दे रही होगी जिसने मानवता की सेवा के लिए उस पवित्र स्थल में उसे प्रविष्टि दी थी। उनका साया हर उस जगह था जहाँ-जहाँ उनकी नज़र जा पाती थी। उनके बगैर जीवन-ज्योत में हवाएँ किस दिशा में बहेंगी यह तय करना भी नामुमकिन था।

वहाँ से पार्थिव शरीर को भारत नहीं जाना था। यह दादा का ही आदेश था कि जहाँ शरीर से प्राण निकले वहीं उसे अलविदा कहा जाए, पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार वहीं किया जाए। अनावश्यक समय और ख़र्च की बरबादी से दिवंगत आत्मा की मुक्ति में देर होती है। वैसा ही किया गया। भारत बातचीत हुई, मैरी से पूछा गया, चाचाजी से पूछा गया। यह दादा की इच्छा थी भला इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी।

चाचाजी ने दादा का पूरा मेडिकल चेक-अप करके ही उन्हें न्यूयॉर्क जाने के लिए हरी झंडी दी थी। उन्हें ऐसा अंदेशा बिल्कुल नहीं था कि दादा की तबीयत इतनी बिगड़ जाएगी। इस यात्रा के पहले दादा का उनको विस्तार से हर चीज़ समझाना भी उनके मन में कोई संदेह पैदा नहीं कर पाया था। होनी-अनहोनी का यह क्रम विधाता का रचा हुआ था जिसमें किसी का कोई उपक्रम सार्थक नहीं हो पाया।

दादा की पार्थिव देह अस्पताल के वातानुकूलित शवगृह में संरक्षित थी जिसे तमाम औपचारिकताओं के बाद मेज़बानों को सौंपा जाना था। डीपी के अलावा दादा के कई अपने थे न्यूयॉर्क में जो दादा के क़रीब थे। पिछले कुछ दिनों में वहाँ रहते हुए डीपी ने जाना था कि ऐसे कितने सारे नवयुवक हैं जो दादा की छत्रछाया में इस महानगर में उन्नति के पथ पर अग्रसर थे। वहीं से अपनी कमाई का एक हिस्सा दादा के जीवन-ज्योत को भारत में जाता था। तभी तो हर रोज़ बढ़ते सदस्यों के बावजूद कभी पैसों की कमी नहीं होती थी। हर कोई जीवन-ज्योत के प्रति कर्तव्यनिष्ठ था। वे सभी सहर्ष बगैर किसी बाध्यता के अपना योगदान देते थे, शायद उस फ़रिश्ते के उपकारों का ऋण चुकाने का प्रयत्न करते थे।

भव्य शवयात्रा थी दादा की। भारत की तरह कोई पैदल नहीं चल रहा था। एक गाड़ी में दादा का पार्थिव शरीर था और बाकी सारी गाड़ियाँ एक के बाद एक पीछे चल रही थीं। सब गाड़ियों के आगे एक छोटा-सा झंडा था जो इस बात का संकेत देता था कि वह शव यात्रा है। सड़क के व्यस्ततम मार्ग पर यातायात वालों को कुछ कहने की ज़रूरत नहीं थी। सड़क की आखिरी दाँयी लेन अंतिम यात्रा में शामिल कारों के लिए आरक्षित थी। मार्ग के सभी प्रमुख चौराहों पर पुलिस की गाड़ियाँ खड़ी थीं और सारा यातायात अनुशासित और सामान्य ढंग से चल रहा था।

एक बड़े हाल में दादा के पार्थिव शरीर के दर्शन के बाद कई लोगों ने अपनी श्रद्धांजलि दी। इतनी बड़ी शोक सभा में डीपी के अलावा भी कई लोगों ने अपनी भावांजलि दी। जिस किसी ने भी डीपी का भाषण सुना आँखें गीली हो आईं। दादा उसे अकेला छोड़ कर चले गए, उसका साथ छोड़ कर चले गए लेकिन स्वयं को उसमें छोड़ कर गए थे, अपनी विचारधारा और कर्मठता को डीपी में हस्तांतरित करके गए थे।

यह डीपी के लिए एक ऐसा समय था जो बार-बार यह सोचने पर मज़बूर कर रहा था कि दादा एक फ़रिश्ता बन कर आए उसके जीवन में, उसे सम्हाला, सँवारा, क़ाबिल बनाया और चले गए। न्यूयॉर्क जैसे महानगर को चुना उन्होंने अपनी जीवन यात्रा ख़त्म करने के लिए। अंतिम समय में डीपी का साथ रहना भी एक सोची-समझी यात्रा थी, दादा के लिए भी व डीपी के लिए भी।

डीपी के लिए बहुत मुश्किल होता ख़ुद को सम्हाल पाना अगर वह भारत में होता और दादा न्यूयॉर्क से कभी वापस ही नहीं आते। कैसे सम्हालता स्वयं को। यहाँ कम से कम आख़िरी के हर पल में वह उनके साथ था। दूर से किसी अपने को अलविदा कहना लम्बा विलाप दे कर जाता है। अंतिम समय में उनके साथ रहने से वह वो सब कर पाया जो एक अपना अपने को विदा करके करता है। माँ-बाबू को जिस तरह उसने अपनी अनुपस्थिति में खोया था, आज भी उसे बेचैन बना देता है। अपने घर जाने में जो देरी की थी, वह उसके जीवन की सबसे बड़ी भूल थी।

अश्रुपूरित निगाहें एकटक वहीं देख रही थीं जहाँ दादा सो रहे थे, अनंत में लीन होते। उन्हीं में कभी माँ दिखतीं, कभी बाबू दिखते, कभी नैन दिखती और कभी स्वयं दादा दिखाई देते। उसे ढाढस बंधाते, उसका हौसला बढ़ाते, उसको रास्ता बताते।

अपने श्वेत कपड़ों में कॉफिन में रखा दादा का पार्थिव शरीर ऐसे लग रहा था जैसे देवदूत सो रहे हों। इतनी विशाल और इतनी अनुशासित स्मृति सभा उसने कभी नहीं देखी थी। सुमधुर मद्धम संगीत के बाद दादा पर बनी बीस मिनट की छोटी-सी फिल्म जब वहाँ प्रदर्शित हुई तो वह विस्मित रह गया। दादा की युवावस्था के कई ऐसे कार्य थे जिनके बारे में उसे जानकारी ही नहीं थी। उसके अंतर्मन में तो जब से दादा को पहली बार देखा था बस वही व्यक्तित्व था। नवयुवक दादा की यह छवि देखकर अभिभूत था वह।

युवा दादा की कई विशाल परियोजनाओं से वह अनभिज्ञ था। इसमें जीवन-ज्योत की सफलताओं की विशाल गाथा थी। विश्वभर में फैले उनके प्रिय शिष्यों द्वारा की जा रही मानवसेवा की अन्य गाथाएँ जिन्हें शुरू करवाने में दादा अग्रणी रहे थे। एक दिन के अल्प समय में इतने सारे स्रोतों से सामग्री जुटाकर श्रद्धालुओं की ऐसी सुसंपादित डॉक्यूमेंटरी बनाने में शायद उसे महीनों लग जाते। सहसा जब उसने मैरी और चाचाजी को जीवन-ज्योत से दादा के बिछोह पर जनसभा के साथ प्रार्थनारत देखा तो उसकी आँखें पुन: बह उठी थीं फिर संतुलित होकर दादा के बारे में जो कुछ बोल पाया था वह हृदयविदारक था।

स्थानीय बैंड ने दादा को समर्पित रॉक गीत के साथ जब अंतिम विदा दी थी तो उसे लगा था कि विदा का क्षण कितना भी कठिन हो, अंतिम विदाई ऐसी ही होनी चाहिए। स्मित, श्रद्धावनत आँखों से अगली यात्रा के लिए शुभकामनाओं के साथ। जानेवाला तो लौट कर आने से रहा पर उसकी अंतिम विदाई उत्सव हो जाए। ऐसा जीवन जिसने जीया उसे रोते-रोते नहीं इस विश्वास के साथ विदा किया जाए कि – “जो मार्ग दिखा कर गए हो, अगर कुछ क़दम भी चल सके तो जीवन सार्थक हो जाएगा।”

दादा के कई बेटे और बेटियाँ वहाँ थे, न्यूयॉर्क में। सारे वे ही थे जो कभी भारत में जीवन-ज्योत में आए थे सहारा ढूँढते। जिनका वहाँ अपना कोई नहीं था, भटक रहे थे भूखे-प्यासे। या तो ख़ुद ही घूमते-भटकते आ गए थे या फिर दादा की नज़रों ने उन्हें ढूँढ लिया था। आज वे इतने क़ाबिल थे कि इस महानगर में रहकर अपने जीवन को सार्थक कर रहे थे। अपना योगदान दे रहे थे।

ख़ासतौर से छोटे बच्चों के लिए वे भगवान ही थे। उनके बच्चे कहाँ नहीं थे। न्यूयॉर्क ही नहीं कई अन्य महानगरों में भी दादा के पढ़ाए हुए बच्चे बहुत आगे बढ़ गए थे। अंतिम विदाई के सारे कार्यक्रम होने के बाद जब सबने डीपी को बेहद ग़मगीन देखा तो कुछ दिन अपने साथ रहने का प्रस्ताव रखा। किसी औपचारिकता के लिए नहीं बल्कि दिल से, उसके मन की पीड़ा को कम करने के उद्देश्य से, जो दादा के विछोह को स्वीकार ही नहीं कर पा रही थी। सभी जानते थे कि इन दिनों डीपी ही दादा का ख़ास शिष्य था। दादा के लिए अगर वे कुछ कर सकें तो डीपी की मदद करना भी एक अच्छा विचार था।

एक विश्वस्त आदमी जो दादा के इतना क़रीब था, अगर वह यहाँ रह जाए तो इससे अच्छी बात तो कोई हो ही नहीं सकती। प्रस्ताव रखे जाने लगे। जॉन दादा का सबसे पहला, होशियार और अनुभवी शिष्य था जिसने न्यूयॉर्क में अपना काम जमाया था। उसके बाद एक के बाद एक कई और लोग आए, जॉन के साथ काम सीखा, आगे पढ़ाई भी की और अपने पैर जमाए। शुरू में वे जॉन के साथ काम सीखते और फिर अपना ख़ुद का काम आगे बढ़ाने लगते।

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