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कुबेर - 14

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

14

दादा कुछ कहें और उनकी बात डीपी का मन न छू पाए यह संभव ही नहीं था। वही हुआ। घावों पर मरहम लगे। इस समय तक दादा की इस पीड़ा से अनजान था डीपी। जब यह सुना तो लगा कि दादा ने भी कितना कुछ सहा है। उनके कंधे से सिर टिकाया तो रुका हुआ सैलाब बाहर आने लगा। आँसुओं के रेले बहने लगे। दादा की बाँहों में सिर टिका कर बहुत रोया डीपी। दहाड़े मारकर रोया। दादा ने भी उसके विलाप में सहारा दिया। एक दूसरे की व्यथा को जानते-पहचानते दो अजनबी एक-से दर्द को महसूस कर रहे थे। दादा और डीपी, दोनों और क़रीब आए। मानो उन दोनों का साथ एक संयोग नहीं था, नियति थी। हर रिश्ते से आगे, हर रिश्ते से ऊपर। अगर इसे कोई नाम दें तो वह रिश्ता छोटा लगने लगता, शायद इसीलिए इसे बेनाम रखना ही अच्छा था। वक़्त-वक़्त पर जब जिस रिश्ते की ज़रूरत हो तब उस रिश्ते को महसूस कर लो।

एक सप्ताह के बाद डीपी की वह टूटन जुड़ने लगी। गिरकर अचेत-सा हो गया था वह, फिर से खड़ा हुआ, रेंगते-रेंगते ही सही पर समय घावों को भरने लगा। नैन के साथ बिताए पलों की पूँजी को समेटे उसने वह सब करने का फैसला किया जो वह करना चाहती थी। शायद दादा के दिखाए रास्ते पर चलते हुए, उनके साथ रहते हुए और उनके राज़ का साथी बनते हुए वह स्वयं को उनकी प्रतिच्छाया के रूप में देखने लगा था।

इतना काम करता कि थक कर चूर हो जाता।

इतना थक जाता कि सोते ही नींद आ जाती।

इतना व्यस्त रहता कि दिमाग़ को कुछ और सोचने के लिए समय ही नहीं मिलता।

इतने लोगों की मदद करता कि उनके आशीर्वादों से उसकी झोली भर जाती।

इतनी दुआएँ मिलतीं कि उनके साए में डीपी का हर दिन एक नये सुकून और शांति के साथ व्यतीत होता।

मदद माँगते लोग जब जीवन-ज्योत में आते तो उसे लगता कि ये सब लोग जितने दु:खी हैं उस दु:ख और तकलीफ़ के सामने उसकी ख़ुद की तकलीफ़ तो कुछ भी नहीं है। अगर ये सारे लोग जी रहे हैं तो उसे कोई अफ़सोस नहीं होना चाहिए, कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए अपने जीवन से। जीवन-ज्योत का माहौल ही हर किसी को ऊर्जा देने के लिए पर्याप्त था फिर डीपी भला कैसे अछूता रह सकता था। वह भी उसी तरह अपने लिए ख़ुशियाँ ढूँढता रहा। जिजीविषा के लिए कहीं और जाने की ज़रूरत नहीं थी अपने आसपास ही इतना कुछ दिखाई देता था कि वह सब कुछ जीवन-ज्योत के नाम को सार्थक करता।

दादा के कई काम अब उसी के ज़िम्मे थे। डीपी के दर्द से वे भी बहुत व्यथित थे पर जीवन-मरण की सच्चाई को भी स्वीकारते थे। बड़ी राहत मिली थी उन्हें जब डीपी फिर से संस्था के कामों को उतनी ही लगन से संभालने लगा था। वे इतना ज़्यादा जुड़ गए थे उससे कि उन्हें जो कुछ भी आता था सब कुछ उसे सिखाना चाहते थे और हर दिन सिखा भी रहे थे। अपने मूलभूत विचार जो पहले दिन से ही उसके साथ थे वे अब और गहराई से मन के भीतर उतर चुके थे।

“विश्व हमारा परिवार है।”

“अपने परिवार की तरह सबकी चिन्ता करो।”

“कभी किसी के लिए ईर्ष्या, द्वेष या जलन जैसे भाव नहीं आने दो मन में।”

“सबकी प्रगति ख़ुशी दे, सबकी चिन्ताएँ दु:खी करें, यही हमारा सबसे बड़ा धर्म है।”

दादा के जीवन से सीखा तो बहुत पर यह सीख सबसे बड़ी थी - हर कोई उनका अपना था, उनका परिवार। इतना बड़ा परिवार कि कई लोग मिलते तो उन्हें दादा को अपना नाम याद दिलाना पड़ता। वे भूल जाते कि वह इंसान भी कभी जीवन-ज्योत में रहता था। यहीं से सीखा था उस इंसान ने अपना जीवन जीना। कई लोगों को रोज़गार भी मिला हुआ था। संस्था के स्तंभ सुखमनी ताई और बुधिया चाची के अलावा भी काम करने वाले कई लोग थे।

जो भी जीवन-ज्योत से जुड़ा इंसान था सबके लिए खाना वहीं बनता। एक दाल एक सब्ज़ी, रोटी और चावल। कभी-कभी रोटी की जगह पूरी ले लेती बस इसके अलावा कोई ख़ास बदलाव नहीं होता। जो रोज़ का खाना बनता उसका भी अपना एक स्वाद था। बगैर अधिक मिर्च-मसाले के भी वह सादा भोजन हर व्यंजन से बढ़कर था। जीने के लिए जितना ज़रूरी था वह सुबह-शाम सब के लिए समान होता। कभी जीवन-ज्योत में किसी की शादी होती तो उसकी ओर से खाना होता। पकवान बनते। तब सुखमनी ताई की छुट्टी होती। उस दिन वे जीवन-ज्योत के अन्य कामों का हिस्सा होतीं।

डीपी ने इतना मसाले वाला, मलाई वाला और पनीर वाला खाना ढाबे में खाया था कि इस सादे खाने का स्वाद कुछ अलग ही था उसके लिए। शुद्ध सात्विक भोजन के मायने समझ आते। शब्द सात्विक ही इतना सात्विक लगता कि खाने की शुद्धता जबान परखे उसके पहले कान परख लेते।

पहले दिन ही उसने सुखमनी ताई के हाथों के जादू का लोहा मान लिया था - “सुखमनी ताई आपके हाथों में जादू है। मुझे लगता है कि एक जादू की छड़ी घुमाती हैं आप और सारा खाना बन जाता है।”

“बबुआ, बस यही आता है इन हाथों को। जादू-वादू तो बस दादा का नेह है जो सब करवा देता है।”

“पर ताई, हर सुबह आपको पता नहीं होता कि कितने लोगों का खाना बनाना है पर आपका अनुमान और दोबारा फटाफट बनाने की कला से कोई भूखा नहीं रहता। ज़रा यह छू-मंतर मेरे सिर पर भी तो कर दो।”

“यही तो दादा का कहना है कि इस रसोई से कोई कभी भूखा न जाए। मैं तो बस दादा के मन की बात पूरी करती हूँ। आओ इधर, छू-मंतर से तुम्हारे सब काम कर दूँ।” उसे पास बुला कर उसके सिर को चूमतीं तो वह ख़ुश हो जाता।

“क्या बात है ताई, मुझे इसी जादू की ज़रूरत है।”

पेट की भूख शांत हो तो इंसान का दिमाग़ अपना श्रेष्ठ दे सकता है। सुखमनी ताई का यह रोल सबकी क्षुधा को बहुत अच्छी तरह से शांत करता था। यूँ जीवन-ज्योत के कामों में मदद करने वाला हर व्यक्ति एक तरह से आपस में जुड़ा था। बुधिया चाची थोड़ी सख़्त थीं। उनका काम भी ऐसा ही था। कचरा इधर-उधर फेंकने वालों के लिए उनकी डाँट का डोज़ तैयार रहता। फिर चाहे वह कोई भी हो, कोई बड़ा हो या कोई बच्चा हो। कचरे से उनका पक्का बैर था। उनके साफ़ किए गए स्थानों पर कोई जूते से भी नहीं चल सकता था। भूले-भटके कोई उतारना भूल जाता तो शामत आ जाती उसकी। जूते तो उतरवातीं ही साथ में एक डाँट का तगड़ा डोज़ भी पिलातीं और फिर से साफ़ भी करवातीं।

“कचरा उठाओ यहाँ से, तुमने क्या बुधिया को मशीन समझ रखा है।”

“जब देखो तब कोई न कोई यहाँ कचरा डाल जाता है।”

“जिस दिन मैंने किसी को पकड़ा कचरा फेंकते हुए उस दिन दादा से शिकायत करूँगी।”

“मेरी कमर टूट गयी है कचरा उठाते-उठाते पर लोगों के हाथ नहीं दुखते कचरा फेंकते-फेंकते।”

उनके इस बड़बड़ाने के आदी थे सब। थक-हार कर चुप हो ही जाएँगी। सच्चाई तो यह थी कि उनकी सख़्ती की बदौलत ही इतने बड़े परिसर में गंदगी नहीं फैलती थी। जगह-जगह कचरा फेंकने के लिए ढक्कन वाले डिब्बे रखे थे ताकि किसी को भी रास्ते में कुछ दिखे तो कचरे के डिब्बे में फेंक दे।

ऐसे कई लोग थे जो किसी न किसी रूप में जीवन-ज्योत में सहयोग करते थे। उनका जीवनयापन हो रहा था। ये सभी तो अपने जीवन से निराश होकर यहाँ आए थे और अब एक नया जीवन जी रहे थे। अगर उन सबमें इतनी हिम्मत है तो डीपी तो युवा है, उसे सम्हलना होगा। यों निराशा और हताशा में ख़ुद को ख़त्म नहीं करेगा। इन सबके चंद दिनों के साथ ने बहुत कुछ दिया था उसे। वह सब कुछ पा लिया था उसने जिसके बलबूते पर इंसान एक घर बसाने की सोचने लगता है।

घर जो सिर्फ़ एक शब्द नहीं होता, कोई संस्था भी नहीं होती, वह एक ऐसी चहारदीवारी होती है जहाँ पर मन की ज़रुरतें, तन की ज़रुरतें मिलकर एक दुनिया बनाती हैं। ऐसी दुनिया जो जल-थल-नभ की उस अनंत सीमा को नाप लेती है जहाँ पर आकर सुकून और चैन की बाँसुरी बजती है।

जीवन के हर बदलाव ने डीपी को मजबूत बनाया था। नैन की अनुपस्थिति एक ऐसा बदलाव थी जिसे स्वीकार करने में मन आज भी दगा दे देता था। इस नये बदलाव ने उसके मूलभूत स्वभाव को भी बदला। उसका गुस्सा कहीं मन के किसी कोने में ऐसा दुबक गया था कि बाहर ही नहीं आता। अब कोई परेशानी उसे परेशान नहीं करती क्योंकि जो झेला था उससे ज़्यादा तो कुछ हो ही नहीं सकता था। उस दर्द ने जीवन की परिभाषा बदल दी थी। इससे उबरते हुए एक ऐसा व्यक्तित्व निखरने लगा जिसके लिए समस्या या परेशानी शब्द छोटा होने लगा। वह इन सबको पीछे छोड़ता जा रहा था।

दादा के हर काम में हाथ बँटाना बढ़ गया था। कई ऐसे काम जो जीवन-ज्योत के कामों की वजह से दादा नहीं कर पाते थे, अब ऐसे कामों के लिए उन्हें काफी समय मिलने लगा। आसपास के हर अस्पताल में मुफ़्त दवाइयों की व्यवस्था करना। नैन के चाचा डॉ. एरिक के नेतृत्व में आई कैंप लगवाना, हर महीने एक गाँव जाकर बच्चों को पोलियो की दवाई देने की व्यवस्था करना, छुट्टी के दिन एक डॉक्टर और एक नर्स के साथ लोगों के घरों में जाकर डायबीटीज़ की जानकारी देना। ये सारे स्वास्थ्य से संबंधित काम डॉ. चाचा की वजह से करने बहुत आसान हो गए थे। शायद यही कारण था कि पहले के मुकाबले ऐसे सारे काम कई गुना अधिक व कई गुना बेहतर तरीके से संपन्न हो रहे थे।

नैन के जाने के बाद डॉ. चाचा जीवन-ज्योत से जुड़ना चाहते थे। वहाँ आकर वे अपनी बच्ची नैन की यादों में खो जाते। वहाँ रहते तो उन्हें लगता कि वे नैन के घर आए हैं। उनका यह जुड़ाव देखकर दादा ने उन्हें प्रबंधन कमेटी का मुखिया बना दिया था। कुछ ही दिनों में वे रिटायर होने वाले थे और उनके जैसा अनुभवी चिकित्सक और प्रबंधक जीवन-ज्योत से जुड़े, इससे अच्छी बात तो कोई हो ही नहीं सकती थी।

अब यहाँ के लिए एक प्रबंधन कमेटी बनाकर दादा विदेशों की यात्राओं की योजनाओं पर अमल करना चाहते थे ताकि जीवन-ज्योत के लिए अधिक से अधिक फंड की व्यवस्था की जा सके। उसके लिए आई कैम्प, पोलियो कैम्प आदि की डाक्यूमेंटरी तैयार करना ताकि उन्हें कुछ कहना न पड़े, लोग देखें और दान के लिए उत्साहित हों, प्रोत्साहित हों। इन विदेश यात्राओं के बाद जब दादा वापस लौटते तो अपने हर दिन का विस्तृत ब्यौरा देते डीपी को। वे सारी बातें सुनना और दादा की दूरदर्शिता का अनुमान लगाना उसके लिए बहुत रोमांचक था। इन सुनियोजित दौरों से डीपी इस क़दर प्रभावित होता कि दादा से कहता – “दादा, मुझे क्यों ऐसी सारी योजनाएँ बनाने की अकल नहीं आती।”

“जब तक मैं हूँ तुम बिल्कुल चिन्ता मत करो, बस देखो और सीखो कि योजनाएँ बन तो जाती हैं पर उनके कार्यान्वयन में कितनी परेशानियाँ खड़ी हो सकती हैं।”

“जी दादा।”

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