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हर्ज़ाना - 3

हर्ज़ाना

अंजली देशपांडे

(3)

“सर, कल इधर थे, आज उधर हो गए, दोनों जहाँ लूट रहे हैं आप,” भोपाल के बार काउन्सिल के अध्यक्ष विकास गुप्ता ने कहा. उनका मन किया गुलदस्ता मसल दें. उसे उन्होंने टैक्सी में ही छोड़ दिया.

जहान्नुमा होटल में मैनेजर खुद उनके आवभगत के लिए दरवाज़े पर खड़े मिले. जितनी इज्ज़त से उन्हें होटल में कमरे तक पहुंचाया गया साफ़ था हवा में उनके ही नाम की फुसफुसाहट थी. कमरे में गुलदस्ता कुछ ज्यादा ही बड़ा था. दोपहर का खाना भी वे ठीक से कर नहीं पाए. कई पत्रकारों ने साक्षात्कार के लिए फ़ोन किये. कईयों को वे दिल्ली से ही अगले रोज़ का समय दे चुके थे.

“तुमने सुना, उस विकास ने क्या कहा?”

“आपको उससे बात करनी चाहिए थी. आपका जूनियर रह चुका है...”

“तुम्हे भी कुछ समझ में आता है कि नहीं? पहले पैर छूता था. आज कैसे तन के खडा था. कहने के अंदाज़ में तंज़ नहीं था क्या?”

“मुझे तो लगा कि जैसे उसे कुछ जलन मच रही है. खैर, कुछ देर सो लें,” पत्नी ने कहा. “रात में तो जाने कितने लोग घेर लेंगे. जाने कब लौट पायेंगे.”

“मैं सोच रहा हूँ, जो मैंने कार्बाइड के केस में कमाया वह सब इस संगठन को दे दूं,” उन्होंने पत्नी से कहा.

वह स्तंभित सी उन्हें ताकती रह गयी.

“मतलब करोड़ों दे दोगे? लाख, दस लाख तक ठीक है...अब तुम मूड ख़राब मत करो.” पत्नी कि भृकुटियाँ तन गयीं. उन्हें भी लगा उनका दिमाग फिर गया है. ऐसी भी क्या शर्मिंदगी? उन्होंने पेशे का धर्म निभाया है, कोई गुनाह थोड़े ही किया है?

पत्नी कुछ देर में सो गयीं. उनकी आँख नहीं लगी. शाम को क्या होगा, कितने लोग घेर लेंगे, क्या कहेंगे यही सोचते रहे. सबसे ज़्यादा बेचैनी यह सोच कर होती रही कि वहां जाने कितने गैस पीड़ित होंगे, उनका सामना वे कैसे कर पायेंगे? उनका दिल रह रह कर दिमाग पर हथोड़े बरसाने लगता.

तीन बजे से ही पत्नी तैयारी में लग गयी. उन्होंने बसरा मोतियों की दोलड़ी और केरल की सुनहरी ज़री की दूधिया साड़ी चुन रखी थी आज के मौके के लिए. यहाँ आकर मन किया मोगरे का एक गजरा जुड़े पर लपेट लें. यहाँ तो चलन ही है, अच्छा भी लगेगा. फ़ोन करने की देर थी, टैक्सी दौड़ गयी. पति को काला सूट पहनते देख वे हंस दीं.

“कभी तो वकीलपना छोड़ो. चलो कुरता पहनो!”

बांग्लादेश में पारंपरिक तरीके से बनाये जा रहे इंडिगो में रंगे शांत नीले पोखर सा कुरता उन्होंने पति को पकड़ाया.

“लगता है सोने की तैयारी कर रहा हूँ,” वे बडबड़ाये.

गाँधी भवन पर वे उतरे तो हैरान रह गए. दिल्ली में कहाँ अब इतनी आवभगत होती है उन जैसे लोगों की. ओबी वैन तो चार ही थे लेकिन कैमरों की पूरी सेना ही तैनात थी. शहर की नामचीन हस्तियाँ मौजूद थीं. अवकाश प्राप्त जज, पुलिस अधिकारी, कलेक्टर, डॉक्टर, अनेक संपादक और कुछ कलाकार भी. वकीलों का पूरा हुजूम था. हॉल खचाखच भर गया था. आगे की कुछ कतारों में कुछ निम्न वर्ग के लोग भी थे, गैस पीड़ित होंगे. वकील साहब आगे की कुर्सियों को अनदेखा करने की भरसक कोशिश करते रहे. पर नज़र उधर को ही फिसलती थी.

उन्हें ख़ुशी तो हुई कि पत्नी की आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं. एक भी काला झंडा नहीं, एक नारा नहीं लगा, फिर भी उन्हें कोई कमी अखर रही थी. एकाएक लगा किसी भी तरह के विरोध का आभाव उन्हें खल रहा है. जो बात फ़साने में नहीं थी, वही नागवार गुज़र रहा है. आज समझ में आया कि क्यों सज़ा पाने पर गुनाहगारों को सकून मिलता है. ऐसा कैसे हो सकता है कि लाखों गैस पीड़ितों में मुट्ठी भर लोग भी उनसे नाराज़ न हों? हो सकता है कि उनको इस कार्यक्रम का पता ही न हो, उन्होंने खुद को समझाने की कोशिश की. सोचा समीर से पूछ लें पर वह कहीं दिखाई नहीं दिया. एक निराकार सी आशंका उनके आत्मविश्वास को कुतरने लगा. उन्होंने पत्नी को देखा. वह निश्चिन्त खड़ी लोगों से बतिया रही थी. कुछ राहत मिली. यहाँ सब सभ्य महत्वपूर्ण लोग बैठे हैं. अब इसमें क्या बुरा हो सकता है? फिर भी लगा कुछ होने वाला है.

वे आश्वस्त होकर मंच की तरफ बढ़े तो अकरम उर्फ़ निष्कर्म ने उनसे कदम मिलाते हुये धीमी आवाज़ में कहा, “सर, हम बुलाते तो एक दो मंत्री भी आ ही जाते. लेकिन हम नहीं चाहते थे...क्या है वो आते हैं तो उन्कीच पब्लिसिटी होती है.....”

वकील साहब को लगा इन पर शक करके उन्होंने अच्छा नहीं किया. उसकी पीठ पर हाथ फेर कर आश्वस्त सा किया कि उन्हें यही पसंद है. पत्नी नीचे ही पहली पांत में बैठने लगी तो आरिफा बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़ कर उन्हें मंच तक ले आई.

कई गणमान्य हस्तियों ने मंच पर आकर उन्हें मालाएं पहनाईं. उन्होंने दीपदान में नई रोशनी के लिए दीप जलाया, जिसमें, पत्नी के कोंचने पर, आरिफा को भी साथ रखा. गेंदों की महक से पूरा मंच खुशनुमा हो गया.

आखिर शोर थमा और माइक पर वह क्षण आया जिसका वे बेताबी से इंतज़ार कर रहे थे.

समीर ने उनका परिचय दिया. “आप इस देश के ही नहीं दुनिया के महान वकीलों में गिने जाते हैं इसीलिए जब एक अंतरराष्ट्रीय कम्पनी को ज़रुरत पडी तो वह इन्हीके दरवाज़े गयी. भोपाल में किसीको पूछना नहीं है कि वह अंतर्राष्ट्रीय कंपनी कौन सी कंपनी है. आप पूछेंगे कि इन वकील साहब ने कंपनी का काम किया तो फिर गेस पीड़ितों ने क्यों इनको अपना मेहमान बनाया. इसलिए कि इन्होंने जो किया है वह करना सबके बूते में नहीं होता. इन्होंने अपनी किताब में साफ़ साफ़ लिखा है कि कार्बाइड का केस लड़ना इनकी भूल थी. ऐसे महान शख्सियत के दीदार रोज़ नहीं होते और इनको भूल का एहसास हुआ इसमें भोपाल के अपन जैसे लोगों का भी योगदान होगा ही. हमारे नारों का कुछ शोर इन तक पहुंचा ही होगा. इसलिए हमको अपने पर, अपने संघर्ष पर, अपने भोपाल के हौसले पर गर्व है. और हमने वकील साहब को तहे दिल से शुक्रिया कहने के लिए अपना मेहमान बनाया है. इनकी शान में हो जाएँ कुछ तालियाँ.” करतलध्वनि से हॉल थर्रा उठा.

आज तक कटूक्तियों ने जिस सर को झुकने नहीं दिया था वकील साहब का वह गर्वोन्मत्त सर इस स्नेहयुक्त सम्मान के सामने ऐसे झुका कि लगा इतना भारी हो गया है वे इसे कभी उठा नहीं पायेंगे.

समीर अब उनकी ओर मुड़ा. अपने सीने पर दायाँ हाथ रखे उसने बड़े अदब से कहा, “पहले एक गुजारिश है सर. छोटी सी. आप यह हिस्सा पढ़ के सुना दीजिये जिसने हम भोपालवासियों को बताया है कि हमारा अथक संघर्ष नाकाम नहीं रहा.”

रोहिणी उनके पीछे से आकर उन्हें एक कागज़ पकड़ा रही थी. उसके हाथ में उसी अखबार का वही पन्ना था जो वह उनके घर लेकर आई थी. अंश के अनुवादक उप सम्पादक और मुख्य सम्पादक अगली पांतों में बैठे थे, जिनसे उनका परिचय कराया जा चुका था, और जिन्होंने अब सबसे पहले ताली बजाई. फिर से तालियों की गडगडाहट से हॉल गूँज उठा. वकील साहब ने बड़ी मुश्किल से सर हिलाया और कुछ बुदबुदाए. रोहिणी के पूछने पर उनकी पत्नी ने बताया कि वे क्या कहना चाह रहे थे. वे हिंदी बोल तो लेते थे. पढना कहाँ उनके बस का था? फेसबुक पर जो आया था वह भी नौकर से पढवाया था. पति की हालत देख कर वे चकित थीं. उन्होंने धीरे से पति के हाथ को छुआ और आँखों से सांत्वना दी.

“कोई बात नहीं सर, आप अपनी किताब में जो यह हिस्सा है अंग्रेजी में पढ़ दीजिये, फिर हममें से कोई आपको हिंदी में सुना देगा!” समीर ने कहा.

“इसकी क्या ज़रुरत है....” उन्होंने इन्कार के भाव से कहा.

“आप उठिए मत, यहीं से पढ़ दीजिये,” रोहिणी ने कहा.

अब कई लोग ज़ोर देने लगे. हॉल में से भी ‘प्लीज़ प्लीज़’ की पुकारें आने लगीं. इतनी बार यह लफ्ज़ सुना वकील साहब ने कि सिर्फ उससे छुटकारा पाने के लिए उन्होंने हथियार डाल दिए. देखा जाए तो ज़रा सा तो था वह हिस्सा. आरिफा ने खुली किताब उन्हें पकड़ा दी. उन्होंने चश्मा लगाया, और टेबल पर रखे माइक को अपनी ओर खींच कर अंग्रेजी में कहा,

“मैं कुछ और ही कहने की तैयारी करके आया था. मुझे कहना था कि अपनी लम्बी अदालती पारी में यहाँ आके मुझे आज जो ख़ुशी मिली है वह पहले कभी नहीं मिली. लेकिन यह भी सच है कि यहाँ आकर मुझे बहुत ही झेंप सी लग रही है. बुरा लग रहा है. मुझे आज पता चला कि हमारे देश के लोगों के दिल कितने बड़े हैं. गैस पीड़ितों ने मुझे माफ़ कर दिया होता तो एक बात थी. पर इन्होंने मेरी इमानदारी को ऐसे सर माथे लिया इससे बढ़कर मुझे कुछ नहीं चाहिए. एक तरह से आपका अनुरोध भी ठीक ही है. जो मैंने किताब में कहा है मेरे भावों की इससे बेहतर अभिव्यक्ति नहीं हो सकती. मैं वही अंश पढ़ रहा हूँ.” और उन्होंने किताब का वह अंश पढ़ दिया जिसका अनुवाद हाथ में लिए रोहिणी दूसरे माइक के पास खडी थी.

कुछ ही मिनट लगे. अदालतों में एक ही सांस में लम्बे लम्बे वाक्य बेहिचक धाराप्रवाह बोल जाने में पारंगत वकील साहब को कितनी देर लगनी थी. फिर भी दो जगह वे कुछ अटके, कुछ रुके. ऐसा लग रहा था कि आत्मस्वीकृति के वे बोल आज ही सार्थक हुये हैं और अपने ही शब्दों के गहन होते जाते मायनों ने उन्हें विस्मित कर दिया. लगा जैसे कठघरे में खड़े हों. नज़र उठा कर उन्होंने आगे की पांतों में बैठे उन लोगों को देखा जो शायद गैस पीड़ित थे और जो टकटकी बांधे उन्हीको देख रहे थे, हॉल में सन्नाटा था.

पढना ख़त्म होते ही रोहिणी ने कहा. “मैं पढ़ती हूँ.”

“हर इंसान अपने पेशे में कभी न कभी कुछ ऐसा करता ही है जिसका उसे अफ़सोस होता है,” रोहिणी ने माइक पर पढना शुरू किया. “पेशा कोई भी हो, उसे अपनाने वाला कभी पूर्णतः निष्कलंक नहीं रह सकता. पेशे की मजबूरी तो होती ही है, हमपेशाओं का एक अलग समाज सा होता है. आपस में होड़ लगी रहती है. उसमें अपने गौरव की लौ औरों की आँखों में ईर्ष्या बन के चमकती है और जब आप उसकी रोशनी में नहा उठते हैं तो रात में नींद नहीं आती, ख़ुशी दिल में कुलांचे भरती है और चेहरे पर बेवजह मुस्कुराहट आती रहती है. इस माहौल का भी दबाव रहता है.

“वकील को जितना बड़ा ग्राहक मिले उसके लिए चुनौती उतनी ही बड़ी होती है, क्यूंकि केस तो जो होता है सो होता है, उसके इर्द गिर्द भी बहुत कुछ होता है. ग्राहक की प्रतिष्ठा, उसका मान, सम्मान उसके वकील से आ जुड़ता है मानो नौकर मालिक की हैसियत का अंशधारक हो जाता है. ग्राहक के व्यवसाय की बारीकियां, उनकी गोपनीयता, व्यावसायिक के साथ साथ निजी संबंधों के राज़, उनको एक धागे में पिरोती राजनीति की धारा, ऐसे कितने ही स्थूल और सूक्ष्म कारक केस में गुंथे रहते हैं. एक सघन विश्व सा निर्मित हो जाता है, स्वायत्त सा. इस दुनिया का होकर भी इससे अलग उसका एक अस्तित्व होता है. दृष्टि उसी कंटी छंटी दुनिया के आकाश में विचरती है. यह सब हर बड़ा वकील जानता है.

“ऐसे केस उसको देश दुनिया के हुक्मरानों का राज़दार बनाते हैं. ऐसे केस उसको उस अल्पसंख्या में शामिल कर लेते हैं जो दुनिया पर शासन करते हैं, जो लाखों ज़िन्दगियों का फैसला करते हैं. यह उसे सत्तधारी होने का नहीं तो सत्ताधारियों की दुनिया के एक कोने में खड़े होने का अनिर्वचनीय सुख देता है. यह उसको इस एहसास से भर देता है कि इतने सबल, समर्थ लोग भी आज उसकी बुद्धि पर निर्भर हैं, उसकी सुनेंगे, उसकी मानेंगे. इसका नशा जिसने भोगा है इसका लती हो जाता है. ऐसे केस मिलने पर वकील सिर्फ इतराते नहीं हैं. वे अपने महत्व के बोध से भर जाते हैं. उनका स्व इतना भारी हो जाता है खुद से ही ढोया नहीं जाता.

क्रमश...

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