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हर्ज़ाना - 2

हर्ज़ाना

अंजली देशपांडे

(2)

“बड़ी ख़ुशी हुई सर, आपसे मिल कर. आपकी फोटो देखी थी न, अखबार में. आप को असल में देख लिया. बहुत इच्छा थी.”

वकील साहब गदगद हो गए.

“सर, जैसा कि आपको समीर ने बताया ही होगा, हम लोग भोपाल से आये हैं. गरीब मज़लूमों को इकठ्ठा करके रोज़गार के लिए और बेहतर वेतन के लिए संघर्ष करते हैं,” नीले कुरते वाली ने कहा. वह इनमें सबसे कम उम्र की लग रही थी.

“बहुत अच्छा काम है,” वकील साहब ने कहा.

“सर, हम सब गेस पीड़ितों के परिवार से हैं. मतलब बाद में पैदा हुये,” वह कहती रही. “हमा गेस पीड़ितों के घरों में इलाज की परचियां वगैरह संभाल के रखी रहती हैं. कई कई कॉपियाँ. जाने कब किस काम आ जाए. अदालत से कोई आदेश आता है कोम्पेंसेशन का तो दिखानी पड़ती है. अस्पताल में तो चाहिए ही. प्रेस वाले भी मांग ही लेते हैं. विरासत है. हमारी विरासत है. यह समीर है न, इसके तीन भाई बहन गेस लगने से मर गए थे. मेरी फॅमिली में सर, माँ पहले ही दिन मर गयी गेस खा के. अरे अपना नाम तो बताया ही नहीं, मैं रोहिणी सर, रोहिणी पासी.”

बाकी दोनों ने भी अपना परिचय दिया. सफ़ेद साड़ी में आरिफा खानम थी और उसने बताया कि उसके परिवार में दादाजी गैस खाने से मर गए थे. “और कोई तो मरा नहीं, सर, लेकिन कोई जिया भी नहीं. माने ठीक से नहीं जिया. कभी अस्पताल. कभी कचहरी. कभी कलेक्टर के दफ्तर. कभी कहीं, कभी कहीं. कभी धरना, कभी प्रदर्शन. शाहजहानी पार्क में हर हफ्ते हमने डेमोनस्ट्रेशन किया. हर शनिवार की दोपहर को अम्मी मुझे लेके जाती थी वहां. गैस पीड़ितों का धरना होता था. हर हफ्ते. पच्चीस साल तक किया. मेरेको नौकरी मिली तब छोड़ दी. बाद में भी चलता रहा, धरना.”

उसने अपने पर्स में से निकाल कर मुड़ा तुड़ा एक अखबारी कागज़ का पूरा पन्ना उन्हें पकड़ा दिया जिसपर उनकी और उनके पुस्तक के आवरण पृष्ठ की तस्वीर छपी थी.

“आह,” उन्होंने पन्ना हाथ में लेते हुये कहा, “थैंक यू. थैंक यू. मैं तो कहना भूल गया था कि लेके आयें. वापस नहीं करूँगा.”

“आपही के लिए है सर. हम तो आपकी किताब भी लाये हैं, साइन करायेंगे आपसे,” आरिफा ने चौड़ी मुस्कान उनपर फेंकी.

“अफ कोर्स,” उन्होंने कहा.

शर्ट पैंट में सांस की तकलीफ से पीड़ित आदमी इनमें सबसे बड़ा लग रहा था. अब तक उसकी सांस सम पर आ गयी थी.

वकील साहब ने उसे प्रश्नवाचक मुद्रा में देखा.

“एक ही कहानी है, हम सबकी, क्या सुनाएँ,” वह कुछ हंस सा दिया. “दो साल का था जब सोते में गेस खा गया. तब से यही हाल है. बैठे बैठे सांस फूलती है. योग सीखा है. योग वाली टीचर ने बताया ऐसे सांस लिया, छोड़ा करो. कुछ आराम मिला है. मगर जो चीज़ अपन के पास नहीं वह कहाँ से मिलेगी? क्या है, अपन के पास सेहतमंद फेफड़े नहीं हैं. डॉक्टर कहते हैं कि फेफड़े पूरे बने ही नहीं. उनका कुछ हिस्सा मर ही गया शायद. मतलब काम ही नहीं करता,” उसने उंगलियाँ माथे से लगा कर बड़ी अदा से सर झुकाया मानो आदाब करके कोई शेर सुनाने जा रहा हो. “अकरम अली नाम है. लोग खाकसार को निष्कर्म कहते हैं! कोई काम किया ही नहीं जाता तो कहेंगे ही ना!” वह धीरे से हंस दिया. लगा ज़ोर की हंसी का बोझ उसके सीने पर भारी पड़ेगा. सभी उसकी हंसी में शामिल हो गए.

वकील साहब मगर हंसी में साथ नहीं दे पाए. जिनकी चर्चा सुनी थी, जिनके वकीलों के तर्कों पर उन्होंने अपने पैने दांत गड़ाए थे, लगा उनमें से कुछ किरदार यहाँ नमू हो गए थे. उन्हें महसूस हुआ कि अदालत के बाहर का सच उन्होंने आज देखा है.

नौकर अन्दर बाहर होता सोफों के बीच रखी छोटी छोटी टेबलों पर सबके लिए अलग प्लेट, चम्मच, कटोरे और टिश्यू रखने के बाद बीच के बड़े से टेबल पर समोसे, ढोकला, बिस्किट, काजू की कतलियाँ, गुलाब जामुन सजाने लगा. बड़े बड़े प्यालों में लबालब भरी चाय आई.

कुछ देर नाश्ता चला, बात कोई नहीं हुई. वकील साहब सिर्फ एक बिस्किट कुतरते रहे. चुप्पी समीर ने ही तोड़ी.

“सर आपकी किताब है ना, हमने नहीं पढ़ा. ईमान की कसम बिलकुल नहीं पढ़ा. अपनी अंग्रेजी तो बस ऐसी है कि क्या बताएं. लेकिन जो अखबार में छपा था, पढ़ा. कई बार पढ़ा. पढ़ के दिल भर आया, सर. क्या लिखते हैं आप. ख्वामख्वाह वकील बन गए. आपको तो लेखक होना चाहिए था. अपने भोपाल में भी बड़े बड़े हुये लिखने वाले लेकिन दम है, सर, आपकी कलम में. अलग ही दम है. मान गए!”

वकील साहब ने नकार में सर हिलाया.

“आपको तो मुझसे शिकायत होनी चाहिए. मेरी वजह से आपका बहुत नुक्सान...” कहते कहते वे चुप हो गए. उन्हें पहली बार लगा कि अब उनपर मुकदमा चलने वाला है!

उन्हें बरबस ऑटो रेने केस्टिलो की कविता याद आ गयी:

एक दिन, मेरे देश के

अ-राजनैतिक बुद्धिजीवियों से

हमारे सबसे साधारण लोग

पूछेंगे कुछ सवाल

“सर, एक बात पूछें?” समीर ने उनकी तरफ झुक कर पूछा.

वे सिहर उठे.

समीर कहता रहा, “सर एक बात जानने का बहुत ही मन है. हम लोग अक्सर यह बात आपस में करते ही रहते हैं कि उस काण्ड का सच क्या था. आपने साबित तो कर दिया कि कंपनी का कोई कसूर था ही नहीं. गेस निकली तो किसी मजदूर की लापरवाही का नतीजा थी. पर ऐसा नहीं था न? आप ज़रूर सच जानते होंगे.”

वकील साहब का आक्रांत ह्रदय कुछ शांत हुआ. वे कुछ देर विचारमग्न रहे. फिर धीरे से बोले, “मामला इतना सिम्पल भी नहीं है. दरअसल क्या है, किसीसे भी लापरवाही हो सकती है यह तो सबको मालूम होता है. इसीलिए फैक्ट्री के डिजाईन में इससे बचने के उपाय होते हैं. इसके लिए ही तो सुरक्षा के उपकरण बनते हैं. देखिये, जैसे क़ानून बनता है उसी तरह से यह होता है. क़ानून यही सोच कर बनता है कि इंसान के खिलाफ, और जानवरों के खिलाफ भी, गुनाह किये ही जायेंगे. इसीकी सज़ा देने के लिए क़ानून बनाते हैं. इसी तरह लापरवाही होगी यह मान कर ही फैक्ट्री का डिजाईन बनता है. उसको रोकने का पूरा इंतजाम होता है डिजाईन में. हमने इस पर ज़ोर दिया. हमने तो किसी मजदूर को दोषी नहीं ठहराया. आपको ग़लतफ़हमी है. हमने किसी मजदूर को दोष नहीं दिया. नो. नॉट एट ऑल. हाँ कंपनी से कुछ लापरवाही हुई थी.”

“ओह...यह तो अदालत में आपने साबित किया. हम कुछ और पूछ रहे हैं,” रोहिणी ने बात का सिरा पकड़ा. “हमारे यहाँ कहते हैं कि दाई से पेट क्या छिपाना. आप तो कार्बाइड के वकील थे, सर. आपने कहा भी है कि ऐसे केस में बड़े बड़े लोगों के बड़े बड़े राज़ पता चलते हैं. तो आपको भी तो कार्बाइड ने अंदर की बात बताई ही होगी.”

“वकीलों को बहुत कुछ पता चलता है. यह तो सच है.”

“मगर सर आपने अपनी किताब में यह सब नहीं लिखा,” आरिफा ने कहा. “मैंने बहुत मेहनत की और उतना हिस्सा तो किताब में पढ़ा ही जो आपने इस इशू पर लिखा है.” उसका स्वर कुछ रूखा सा था.

“ऐसा कुछ हम नहीं लिख सकते. हमारे प्रोफेशन के कुछ नियम होते हैं. वकीलों और ग्राहक के बीच जो भी बात होती है उसे सीक्रेट रखना होता है. मैं आपसे यह सब शेयर नहीं कर सकता. यह उनकी प्राइवेट बात होती है.”

“क्या बात है सर! क्या बात है. हमारे तो घर भी प्राइवेट नहीं हैं. कोई दरवाज़े पे खडा हो जाए बस सब सामने दिख जाता है. यह गोपनीयता भी क्या ख़ास चीज़ है सर, इनको, माने बड़े पूंजीवादियों को अल्लाऊ है सर? अपनी सब बातें राज़ बनाये रखें? अपने डिजाईन, अपने उपकरण, अपने इरादे, अपने व्यापार बढाने की पालिसी, सब कुछ. कमाल है ना सर?” अकरम ने कहा.

वकील साहब फिर से कुछ असहज महसूस करने लगे थे. चुप रहे.

“हम लोग आन्दोलन करते हैं न, उसका भी कुछ भी गोपनीय नहीं रख सकते. कुछ भावना का ही उद्गार कभी कहीं लिख देते हैं तो हम राष्ट्रद्रोही हो जाते हैं. खुले में अपनी बात कह ही नहीं सकते सर. प्रदर्शन तो खुले में होता है. सड़क पर. किया था, परसों. यहीं दिल्ली में. रोज़गार मांगने के लिए. दे दनादन पुलिस की लाठी पड़ी,” रोहिणी ने कहा. “लेकिन आपको कैसे पता चलेगा. मीडिया में तो दिखाया ही नहीं.”

“फ़ालतू की बात लेके बैठे हो,” समीर ने उन्हें झिड़का. “जो बात करने आये हैं वह तो रह ही गया.”

वकील साहब ने धीरज भरी मुस्कान उनपर फेंकी.

“कोई बात नहीं. आपकी जगह मैं होता तो मेरेको भी गुस्सा आता.” समीर के दखल से उन्हें राहत महसूस हुई. वे खुल कर मुस्कुराए.

“आता ना सर,” आरिफा ने बात लपक ली. “मैंने कहा था न इनकी बातों में इमानदारी है. कितनी इमानदारी से कहा है, इनको भी गुस्सा आता. सर इसीलिए, इसीलिए तो हम आपका सम्मान करना चाहते हैं.”

“लेकिन क्या है...” कहते कहते समीर एकदम चुप हो गया.

“जी कहिये, वह कहिये जो कहने के लिए आप आये हैं.”

“सर बात यह है कि आपकी बात ने दिल को छू लिया,” रोहिणी ने कहा.

“थैंक यू,” वकील साहब इतने हौले से बोले कि उसका बस आभास ही चारों को हुआ. इस धीमी आवाज़ से उन्हें भान हुआ कि वे उस आदमी के घर में हैं जो इसी तरह सर को ज़रा सा झुकाए देश के नयामुर्तियों के सामने धाराप्रवाह तर्क पेश करता रहा है, बिना आवाज़ ऊंची किये अपनी बात मनवाता रहा है. वे कुछ अस्थिर से हो गए.

“आप कहिये तो क्या कहने आये हैं...” वकील साहब की आँखें उनके चेहरों को टटोलने लगीं.

आरिफा उन्हें ताक रही थी. उनकी विचलन ने जैसे उसे शर्मिंदा कर दिया हो.

“सर, आप भोपाल आयेंगे ना? माफ़ कीजिये, हम आपके रहने लायक जगह का इंतजाम तो नहीं कर पायेंगे...”

“उसकी फ़िक्र आप ना करें. हम अपना खर्चा खुद देंगे. और अगर आप बुरा ना मानें तो आपके संस्था को कुछ डोनेशन...”

“सर...आप अपना चेक बुक ले आयें सर. वहीँ सबके सामने देंगे तो कोई यह तो नहीं कहेगा कि हमने डोनेशन लिया इसलिए...आप समझ रहे हैं न?”

वकील साहब सब समझ रहे थे. उन्हें ऐतराज़ नहीं था. वे जानते थे कि यह इल्ज़ाम तो लगेगा ही भले वे चेक वहां दे या पहले दें पर इन युवाओं के पसीने से धुले देदीप्यमान चेहरों को देख लग रहा था आज वे इनके किसी भी आग्रह को टाल नहीं पायेंगे.

आरिफा ने धीरे से उनकी किताब की प्रति उनकी ओर बढ़ा दी. “सर ‘आस्क’ के लिए साइन कर दीजिये.”

“अरे, आपने खरीदी क्यों, हम आपको दे देते,” वकील साहब ने कहा.

उन्होंने प्रति पर ‘आस्क’ को शुभकामनाओं के साथ दस्तखत करके किताब टेबल पर रख दी और उठ कर ‘एक्सक्यूज़ मी,” कहते हुये बाहर निकल गए. लौटे तो नौकर पीछे पीछे चार किताबें और उतने ही लिफाफे लेकर आया. हर एक के नाम एक प्रति पर अपनी शुभेच्छाओं के साथ दस्तखत करके लिफ़ाफ़े में बंद करके उन्होंने सबको पकडाई.

चारों ने दिन तारीख तय करके उनको सूचित करने की कह कर विदा ली.

दस दिन बाद समीर ने फोन किया. दो हफ़्तों बाद शनिवार को कार्यक्रम कर सकते हैं. गाँधी भवन के ऑडिटोरियम का भाड़ा देना था सो वे पहले उनसे कन्फर्म करना चाह रहे थे. वकील साहब को अचरज हुआ. इतनी जल्दी हॉल मिल रहा है?

“गर्मी है ना...ज्यादा बुकिंग नहीं होती,” समीर ने कहा. वकील साहब ने हाँ कर दी. और ट्रेवल एजेंट को खबर कर दी.

सब तय था. गाँधी भवन में शाम साढ़े चार बजे पहुंचना था. वे भोपाल के हवाई अड्डे पर उतरे तो टैक्सी तैयार खड़ी थी, और स्वागत के लिए गुलदस्ते लिए खड़े वरिष्ठ वकीलों का झुण्ड नाराज़ कि उनके रहते पहले से टैक्सी क्यों बुक की? समीर और रोहिणी ने लपक कर उनका और पत्नी का सामान उनके हाथों से ले लिया. हमपेशाओं के चेहरे पर मुस्कान तो थी पर निश्छल नहीं लगी. वे कुछ पशेमां से हो गए.

क्रमश...

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