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हर्ज़ाना - 4 - अंतिम भाग

हर्ज़ाना

अंजली देशपांडे

(4)

“फिर भी ऐसा ही एक केस है जिसे लेने का मुझे अब बहुत ही अफ़सोस होता है. शायद अफ़सोस सही लफ्ज़ नहीं है. शायद मुझे पश्चाताप होता है. यह केस है भोपाल के गैस काण्ड का केस. जब उनपर चल रहा अपराधिक मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा तो मैं यूनियन कार्बाइड का प्रमुख वकील था. उनकी वकीलों की टीम का नेता. मैंने अपने ग्राहक को पूरी निष्ठा से अपनी सेवाएँ दीं. एक वकील की हैसियत से मैंने विधिशास्त्र के अपने समूचे ज्ञान को रचनात्मकता से उसके हित में इस्तेमाल किया. कम्पनी पर अपराधिक मानव वध का मुकदमा चल रहा था, जो हत्या तो नहीं होती पर उससे थोडा सा ही कम संगीन मामला होता है. मैंने आखिर उसे लापरवाही से हुई एक दुर्घटना के केस में तब्दील करवा ही लिया. निश्चित रूप से शक्तिसंपन्न लोगों में यह मेरी बड़ी उपलब्धियों में गिना जाता है. लेकिन मुझे आज यह अपनी उपलब्धि नहीं लगती.

“मैक्बेथ में शेक्सपियर कहते हैं, ‘थिंग्स विदाउट ऑल रेमेडी शुड बी विदाउट रिगार्ड. व्हाट इज डन, इज डन’. यानी जिन चीज़ों का कोई इलाज नहीं उनकी परवाह नहीं करनी चाहिए. जो हुआ सो हो चुका. काश यह शब्द मुझे सांत्वना दे पाते. मेरा मामला मैक्बेथ जैसा मामला तो नहीं है. मैक्बेथ ने राजवध किया था. राजा का क़त्ल किया था. मैंने ऐसा तो कुछ नहीं किया फिर भी यही बात मुझे रह रह कर याद आती रहती है. जानता हूँ कि कम्पनी कोई शख्स नहीं. लेकिन क़ानून में कम्पनियों को भी ‘शख्सियत’ बख्शी गयी है. और अब मैं सोचता हूँ कि उस शख्सियत का कोई मूर्त रूप होता तो क्या उसके हाथ खून में रंगे होते? मैंने उसका हाथ पकड़ा जिसपर मानव वध का इल्ज़ाम था. मैंने वह हाथ पकड़ा जिसपर शायद मानव रक्त लगा था. क्या उस खून के कुछ दाग़ मेरे हाथ पर नहीं लगे होंगे? यह सवाल मुझे आज परेशान करते हैं. इससे ज्यादा कुछ कहना अपने ग्राहक से गद्दारी होगी, अदालत में दी गयी अपनी ही दलीलों का प्रतिकार होगा.

“लेकिन इसीसे जुड़ा एक और सवाल ज़ेहन में सर उठाता रहता है, बार बार मुझे सताने लौट आता है. क्या एक लोकतंत्र में जनता मालिक नहीं होती? क्या आम नागरिकों की हत्या राजहत्या के समान नहीं होती? क्या ऐसा करने वालों पर वही इल्ज़ाम नहीं लगना चाहिए जो मैक्बेथ का गुनाह था.

“इन सवालों के कोई जवाब न मेरे पास हैं न शायद मुझे कभी मिलेंगे. मुझे संतोष है कि मैंने अपने पेशे की नैतिकता पूरी तरह निभाई फिर भी दुविधा है की पीछा छोडती नहीं.

“मुझे इसकी परवाह नहीं है कि इस केस से मेरा नाम हुआ या मैं बदनाम हुआ. आज अपने उस फैसले की नैतिकता पर मेरे ज़ेहन में सवाल उठते हैं. बहैसियत वकील ही नहीं, एक जिमेदार नागरिक के तौर पर भी मैं कभी नहीं कह सकता कि किसी भी आरोपी को वकील ना मिले. हर आरोपी को अपने बचाव का हक़ है. होना चाहिए. उसे वकील न मिले यह पूरी तरह से मुझे नामंजूर है.

“कार्बाइड को भी कोई न कोई वकील तो मिलता ही. मैंने जब केस लिया तब भी कईयों ने कहा था, मत लो. पर मैंने लिया. क्यों? क्योंकि यह मेरे लिए बड़ी चुनौती थी? इसमें बहुत पैसा मिलने वाला था? यह सब तो था ही. पर इससे भी ज्यादा कुछ था. उसे ठीक ठीक बता पाना मुश्किल है. इतिहास में इस तरह के इने गिने ही केस हैं. उनमें एक से जुड़ने का एक मौका था यह. पर कार्बाइड की ही तरफ से क्यों? मैं दूसरी तरफ से भी तो जुड़ सकता था. मैं नहीं जानता कि किस चीज़ ने मुझे ऐसे खींचा. शायद मैं उस वक्त सिर्फ एक वकील रह गया था, एक पेशा रह गया था, और उस ज़माने के तमाम उथल पुथल के बीच भी यह मेरे लिए महज़ एक केस रह गया था.

“इतने साल गुज़र गए हैं इसको. फिर क्यों यह खलिश अभी तक है? मेरे पास कोई जवाब नहीं है. बस इतना लगता है कि पेशे की नैतिकता और अपनी निजी नैतिकता के बीच क्या कभी कोई संतुलन बन पायेगा? क्या हमेशा इनमें टकराव ही रहेगा? शायद एक असमान समाज में यह नैतिकताएं अलग ही रहेंगीं. क्या इनमें दूरी बनी ही रहेगी?

“क्या लेडी मैक्बेथ की राय ही हमारे नैतिक संसार का सूत्रवाक्य है?

“जवाब नहीं हैं मेरे पास...पर मेरे जैसा अदना इंसान शेक्सपियर की लेडी मेक्बेथ की यह बात मानने को मजबूर है कि जो हो चुका वह हो चुका, अब कुछ हो नहीं सकता. फिर भी मैं निश्चिन्त नहीं हो पाता. हाँ मुझे लगता है कि जो मैंने किया उसका अब कुछ रेमेडी नहीं है, कोई उपचार नहीं है. बस इतना मैं जानता हूँ, मुझे कार्बाइड के खिलाफ केस लेना नहीं चाहिए था.”

रोहिणी की आवाज़ थर्रा उठी. उसने अखबार का पन्ना मोड़ कर सामने रख दिया. कुछ देर ख़ामोशी छाई रही.

“इमानदारी इसे कहते हैं. जब इमानदारी के दर्शन हों तो उसका स्वागत करना चाहिए,” समीर के लफ़्ज़ों ने ख़ामोशी को तोड़ा.

लगा जैसे कोई बाँध टूट गया. भावावेश में लोग खड़े हो गए और तालियों की गडगडाहट का सैलाब सा आ गया. आगे की पांत में लोग बैठे ही रहे, वकील साहब ने नोट किया.

समीर ने लिफाफे में से एक प्रशस्तिपत्र निकाला, पढ़ कर सुनाया और वकील साहब को आदर से पेश किया. तालियाँ बजती ही रहीं.

“हम, भोपाल के गैस पीड़ित, एक इमानदार वकील का सम्मान करते हैं कि हमारे प्रति उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी कबूल की और हमें यह एहसास दिलाया कि हमारी आवाज़ इतनी मज़बूत थी कि आखिर उनके कानों तक पहुँच ही गयी,” प्रशस्ति पत्र का मुख्य अंश था.

सारी आशंकाएं निर्मूल निकलीं. इतना सुन्दर, इतना सादा समारोह, कोई वैमनस्य नहीं. वकील साहब का कंठ अवरुद्ध हो आया. उनसे धन्यवाद भी कहते नहीं बन रहा था. तस्वीरें खिंचती रहीं.

सबसे शांति से बैठ जाने का आग्रह करते हुये रोहिणी ने कहा, “अब इस कार्यक्रम का अंतिम भाग है. वकील साहब हमारे संगठन ‘आस्क’ को डोनेशन देंगे ऐसा उन्होंने इच्छा ज़ाहिर की है. हम उनकी इस इच्छा का भी सम्मान करते हैं. इससे पहले कि वे चेक पर हस्ताक्षर करें हम एक दो बातें कह देना चाहते हैं.”

वकील साहब निर्विकार से बैठे थे. अपने में गुम. इस तरफ उनका ध्यान नहीं था.

रोहिणी माइक पर बोले जा रही थी, “उन्होंने कार्बाइड का केस लिया इसका उनको पश्चाताप होता है. रिग्रेट! है न सर! जो हो चुका वह तो हो ही चुका. फिर भी, अभी भी उसकी कुछ रेमेडी, कुछ उपचार हम सुझा सकते हैं.

“जहाँ तक हमें मालूम है जिस ज़माने में आपने कार्बाइड की वकालत की उस ज़माने में सुप्रीम कोर्ट में एक दिन की हाज़िरी की आपकी फीस दस लाख थी. क्या यह सच है वकील साहब?”

वकील साहब की पत्नी ने पर्स में से उनका चेक बुक निकाल कर उन्हें पकडाया ही था और वे अपने कुरते के उपरी जेब से पेन निकाल रहे थे. रोहिणी का सवाल उन्होंने सुना नहीं था.

मुस्कुरा कर बोले, “क्या पूछ रही हैं.”

“क्या उस ज़माने में आप एक बार अदालत में पेश होने के दस लाख रुपये लेते थे?”

वकील साहब ने अपनी हथेली लहरा कर सवाल विनम्रता से दरकिनार कर दिया. पर उनकी सलज्ज हंसी ने जतला दिया था कि इन गरीबों की कल्पना में भी उन ऊंचाइयों को छूने की कूवत नहीं है जो उनकी वित्तीय अवस्था की थी. दस लाख? इतना तो उनके चैम्बर की दहलीज के भीतर कदम रखने के लगते थे.

“सॉरी सर, शायद मुझसे गलती हुई. एक पेशी के आप 1996 में दस लाख रुपये लेते थे. मगर आप तो इतने लम्बे केस में कई कई बार कई कई कारणों से कार्बाइड की तरफ से पेश हुये. हमने गिना सर. पूरी 28 पेशियों में आप सुप्रीम कोर्ट में उनकी तरफ से खड़े हुये. पूरे दो करोड़ अस्सी लाख तो सिर्फ पेश होने की फीस हुई!”

“सिर्फ पांच मिनट और सर. बस कार्यक्रम ख़त्म होने ही वाला है. प्लीज़ सब लोग शांत हो जाएँ. हमको देखिये ना सर, गेस पीड़ितों को ही देखिये. हमको मुआवज़ा मिलता है तो ऐसे ही फुर्र हो जाता है. मकान बनवा लिया, छप्पर छवा लिया, बेटी की शादी कर दी, दादी की आँख बनवा ली. हमको पैसों का मेनेजमेंट नहीं आता. आपको तो आता ही है. आपके यह दो करोड़ अस्सी लाख तो अब तक दस गुना बढ़ गए होंगे. ज़मीन जायदाद की शक्ल में होंगे. स्टॉक मार्किट से मुनाफ़ा कमाया होगा आपने. जो भी हो सर, हम यह हिसाब नहीं करना चाहते. अपनी ज़िंदगी का हिसाब तो हम करवा नहीं सके आपके पेशे की कमाई का हिसाब क्यों करे. सिर्फ मूलधन और उसके मामूली से ब्याज की बात करते हैं.

“अगर आपने सिर्फ इसे फिक्स डिपाजिट में रखा होता तो भी एक साल में आपको दस फीसद के हिसाब से दो करोड़ के दस लाख मिले होते. अस्सी लाख के तो और भी मिलते पर चलिए हम मोटा मोटा हिसाब ही करते हैं. और पिछले 27 सालों में हर साल के सिर्फ दस लाख भी जोड़ लें तो दो करोड़ सत्तर लाख हो जाते हैं. सर हम तो सिंपल ब्याज गिन रहे हैं. हमने तो अस्सी लाख को इसमें गिना भी नहीं. हमने तो ब्याज पर ब्याज तो गिना ही नहीं. हम क्या करें, हमारा हिसाब किताब यूँ ही कमज़ोर है, तब भी हम समझते हैं कि आपके धन में हम लोगों की मौत की वजह से कम से कम पांच करोड़ का इज़ाफा हुआ. सर इतना रूपया तो यहाँ किसी ऐसे परिवार को भी नहीं मिला जिसके कई कई सदस्य गेस खा के जवानी में ही मर गए.”

वकील साहब सन्नाटे में थे. यह तो प्रशंसा के बाद जूता पड़ रहा था. सभागृह में बैठे लोगों में खुसर फुसर शुरू हो चुकी थी. जो लोग सुबह उनके लिए गुलदस्ते लिए हवाई अड्डे पर खड़े थे अब उनके चेहरों पर विद्रूप भरी मुस्कान तैर रही होगी वे जानते थे. अपने सबसे नज़दीकी दोस्त के भी दुर्भाग्य में ऐसा तो कुछ होता ही है जो आपको नापसंद नहीं होता, यह किसी कवि ने कहा था. यह लोग तो दोस्त भी नहीं थे.... वकील साहब की कलम खुली चेकबुक पर मंडराती हुई रुक गयी.

“वो पैसा मैं आपको दे दूंगा......डोनेशन,” वकील साहब ने कहा. पर उनकी आवाज़ बहुत ही हलकी थी, बमुश्किल मंच पर उपस्थितों को सुनाई दी.

“वकील साहब कह रहे हैं कि वे उस इस केस की सारी कमाई हमको डोनेट कर देंगे. यह उनका प्रायश्चित है,” माइक पर रोहिणी ने उनका कहा कह सुनाया.

हॉल में खलबली मच गयी. कुछ तालियाँ बजते बजते चुप हो गयीं. लोगों के बोलने की आवाजें आने लगीं.

“शांत हो जाइए. हमारी बात भी सुन लीजिये,” रोहिणी ने जोर से माइक पर कहा.

कुछ देर लगी पर शोर कुछ थमा.

“हमें यह धन नहीं चाहिए. आप समझते हैं कि जो आपने कमाया वो आप हमें आज दे देंगे तो आपका प्रायश्चित हो जाएगा? हो सकता है कि आपको ऐसा करके अच्छा लगे. लेकिन आपको क्या अच्छा लगेगा इसकी हम परवाह क्यों करें?

“यह धन हमें दान में नहीं चाहिए. कार्बाइड से जो मिलता वह न्याय के अंग के रूप में मिलता. आप जैसे वकीलों ने वह रकम भी कम करवा दी. उनको जो सज़ा मिलनी चाहिए थी वह भी नहीं मिलने दी. आप जान लीजिये कि आपको जो फीस मिली उसे हम किस नज़र से देखते हैं. हमारी नज़र में वह आपका कमिशन है. नाइंसाफी में आपने जो मदद की उसके लिए मिली रिश्वत है, वह हमें नहीं चाहिए. हमें आपसे डोनेशन नहीं चाहिए.”

वकील साहब चेक बुक को घूर रहे थे. कैमरे उन्हें घूर रहे थे. सामने बैठे शहर के गणमान्य लोग उनपर निगाहें गडाए थे. अभी अभी मिला प्रशस्ति पत्र...वे उसके योग्य हैं या नहीं? उनकी इज्ज़त दांव पर लग गयी थी इस अदालत में. नहीं, दांव पर नहीं लगी, लुट गयी. रूपया कितना भी दे दें अब खोई प्रतिष्ठा हासिल नहीं होगी वे जान गए थे. जनता की अदालत का निर्णय उनके दिल ने सुन लिया था.

पत्नी ने जल्दी से खड़े होते हुये कहा, “इनकी तबियत ठीक नहीं है. प्लीज़, गेट मी अ डॉक्टर. कॉल ऐन एम्बुलेंस”.

विकल से होकर वे भी उठ खड़े हुये. उनका गला सूख गया था. उन्होंने मुंह खोला पर एक शब्द भी मुंह से नहीं निकला. हाथ से मो ब्लाँ का पेन खिसक कर नीचे जा गिरा.

समीर ने झट से वकील साहब को थाम लिया. आरिफा ने झुक कर कलम उठाई और उनकी जेब में खिसका दी और उन्हें आराम से बिठाते हुये कहा, “परेशान न होइए सर. पानी पीजिये.”

वकील साहब का नीला कुरता पसीने में गीला हो गया था.

मंच पर पड़ा खुला चेक बुक फड़फड़ा रहा था.

समाप्त