Meri dus chuninda laghukathye books and stories free download online pdf in Hindi

मेरी दस चुनिंदा लघुकथाएं

#लोकतंत्र

बूढ़ा सोमर बड़ी कठिनाई से अपनी झोपड़ी के देहरी तक आ सका। एक मिनट की भी देर होने पर वह रास्ते में ही बेहोश हो सकता था। बाबू साहब के खेतों में कभी दिन-दिन भर काम करने वाले सोमर के जर्जर शरीर में अब चार कदम चलने की भी शक्ति नहीं बची थी।

आहट पाकर हुक्का गुड़गुड़ाती हुई बुढ़िया बाहर आयी। देहरी पर उसका मरद बैठा हाँफ रहा था। वह उसे सहारा देकर खाट पर सुलाती हुई बिगड़ने लगी-" मैं पहिले ही कहत रह्यो कि इ कलमुंहन के बात पर मत जाओ। भला देखौ तो कैसे बुढ़ऊ को अकेला छोड़ दिहिन नासपीटेन। लै जाए के टैम तो जीप लै आए, खुशामद करत रहे कि चलो बाबा भोट दै दो आऊ भोट पड़तै छोड़ दिहिन। का कहैं, अपना पैसा ही खोट तो परखैया के का दोस। बुढ़ऊ को कितना मना किया, दम्मे के रोगी हौ, कहाँ जात हौ? पै मेरी कौन सुनत है? झट जीप पर जाय बैठे।"

बूढ़े के पानी माँगने पर बुधनी का प्रलाप रुका। वह टीन के मग में पानी देती हुई बोली-" ठीक हौ न, ई धूप और गरमी मा परेसान होबे से का फायेदा रहा?"

पानी पीकर बुढा कुछ स्वस्थ हो गया था। बोला- " चुप ससुरी, तू का जाने फायदा नुकसान की बात?"

इस पर बुढ़िया किलस गई-" जा जा देख लिन्हि तोरी अकलमंदी। दुसमन के भोट दै के आयी गये। हम पूछत हैं, नरेंदर बबुआ कौन है? वही जमींदार के बिटवा न, जो तोहे
आऊ तोहरे बाप को उल्टा टंगवाय के पिटवाया करत रहा। बाँस से बाँसे न फूटी। अब ई खद्दड़ के धोती-कुर्ता पहिन के घूमत है। कल तक तो गुंडई करत फिरत रहा। औ ओ ही के तू वोट दिएवा। तोरे जाए के बाद बेचारा लाल झंडी वाला आया रहा। कहत रहा, वही गरीबन के राज दिलावे वाली पार्टी है। तोसे ओहका भोट देते न बना।"

अपनी जाति के उम्मीदवार को वोट न देने के कारण बेटे की डांट खा कर सोमर पहले से ही झुंझलाया था, पत्नी को लाल झंडी वाले की तरफदारी करता देख वह आपे से बाहर हो गया- " चुप रह हरामजादी, जवान लड़ाय रही है। तुम लोगन के कहे में रहतेब तो अबकिऊ कुछ हाथ न अउएतै। कुछ नहीं तो कम से कम महीनन से अंधेरी पड़ी झोपड़िया में कुछ दिन ढिबरी तो जली।" कहते हुए बूढ़े ने टेंट से दस का नोट निकाल कर पोते को दिया- " ले रे बिदेसिया, मिट्टी का तैल लै आ रे।"#


#पानी -पानी

रमरतिया बाल्टी में झाकी, गैलन पलट कर देखी, डेकची को भी खंघाल ली । वह सब बर्तन उलट पलट दी लेकिन घर में एक बूंद पानी नहीं। उसका मन सिसक उठा। आंख में पानी भर आया जिसे मैला अंचरा से पोछकर मियादी बुखार में सूखकर कांटा हुए घरवाले को देखा। जी में हूक सा उठ गया-' कितना गबरू जवान था मेरा मरद। मेरी छोटी से छोटी इच्छा पूरा करने के लिए दौड़ पड़ता था। आज कितना लाचार है! कब से पानी मांग रहा है। लेकिन इ कोलयरी में एक बूंद पानी के लिए भी तरसो। आग लगे अइसन कमाई में।'

-' अब चाहे जो हो अपना मरद को हम पेयासे तो मरने नहीं देंगे।' कहती हुई रमरतिया तसला लेकर निकल पड़ी बाहर।

लहलह दुपरिया। दूर तक कोयले की धूल, जमीन से निकलता धुआं और आग।आसमान से आग बरस रहा था सो अलग। नजर गई उस नलका पर जहां तीन बजे राते से नंबर लग जाता है तसला, डोलची, डराम का। पीनेवाला पानी का जरिया यही नलका है पूरे धौड़े* का। लेकिन चार पांच दिनों से एक बूंद पानी नहीं आया है। एक एक चुरूआ पानी बचाकर रमरतिया आजतक चलाई। अब क्या करे? कहां जाए? वह गरमी पसीने से लथपथ तसला माथे पर रखकर सामने उबड़ खाबड़ रस्ते पर चलती रही। चाहे जहां से हो, पानी जुगाड़ करेगी वो। ऐसे थोड़े ही पानी के बिना मरद को मरने देगी।

सामने गोकुल बाबू का फारम दिख गया। हां, यहां पानी मिल जाएगा। बोरिंग से पानी निकलता रहता है। एक ही डेकची पानी की जरूरत है। बबूआ मना थोड़े करेगा। वह गेट के भीतर घुस आई।

-' अरे अरे, कहां घुसी आ रही हो?' भारी खुरदरी आवाज सुनकर कर वह सहम कर खड़ी हो गई-'एक डेकची पानी चहिए भइ......।' रमरतिया अपनी बात भी पूरी नहीं कर पाई कि बीच में ही रोक दिया उस आदमी ने।

-'अच्छा तो तुमको पानी चाहिए।' रमरतिया नजर उठाकर देखी और हां में सिर हिला दी। आदमी मोटा सा लट्ठ लिए बड़ी बड़ी मूँछों पर ताव देते हुए ओठों में मुस्करा रहा था। उसकी नजर रमरतिया के फटी पुरान साड़ी में लिपटे बदन को बेध रही थी। वह सीकुड़ सी गई।

-' मिलेगा, जितना चाहो मिलेगा। लेकिन बदले में तुम क्या दोगी? बोलो।' उसके ओठों की कुटिल मुस्कान और गहरी हो गई।

-' मेरे पास क्या है भईया?'

-'खबरदार, भईया नहीं। आओ, जरा अड़ोत में चलो। बताते हैं, तुम्हारे पास क्या है।'

रमरतिया को काटो तो खून नहीं। गोकुल बाबू के बारे मेें सबकोई जानता था कि वह रंगरसिया है लेकिन उसका लठैत भी.... । रमरतिया को पानी चाहिए था। उसका मरद मरा जा रहा था। वह लाश बनी कदम बढ़ाने को हुई कि रौबदार आवाज कोठे की खिड़की से आई-' के है रे रमलोचना?'

-' मालिक, एगो औरत है। पानी लेने आई है।'

-' ठहरो मैं आ रहा हूं।' रमरतिया सिर से पैर तक कांप उठी। अब वह नहीं बचेगी- सोचकर घबड़ा गई वह।

गोकुल बाबू धड़धड़ाते हुए आ धमके। सिर से पैर तक रमरतिया को देखा-' इ दुपरिया में पानी लेने आई हो। का हुआ?'

रमरतिया डरते डरते अपना दुख बता दी। सुनकर गोकुल बाबू बोले-' तो जाके भर ले। खड़ी काहे है। जा।' उन्होंने लाल आंखों से रमलोचना को देखा-'अब एतना भी हम नहीं गिर गए रे कि पानी खातिर किसी का पानी उतारें।'😑

*कोयला मजदूरों के रहने के लिए छोटे छोटे घर।

#सार्थक सोच

पिछले चार दिनों से वह इस टापू में पड़ा था। हां, इस जगह को वह टापू ही कहेगा। जहां के रहवासियों के बोल- चाल, रहन' सहन , बात -विचार उसकी संस्कृति से बिल्कुल भिन्न हो वह उसके लिए टापू ही तो है। वह अजनबी बना फिरता है। न किसी से बात , न उससे कोई बतियाने वाला।

पौ फटने के पहले वह दूर तक चली गई लम्बी सपाट सड़क पर टहल कर चला आता है। फिर अकेला किताबों में खो जाता है। मन थका तो सो जाता है। सोये नहीं तो क्या करे। पोते पोती स्कूल चले जाते हैं । बहू बेटा अपने - अपने काम पर।

एक दिन सवेरे टहलने के क्रम में अपने सरीखा आदमी दिखा तो वह खुद को रोक न सका, खड़ा हो गया। उसके हाथ में एक बड़े से डॉग के गले में बंधे पट्टे का डोर था। वह उस डरावने डॉग को अपनी ओर खींचने का प्रयास कर रहा था। एक क्षण लगाया सोचने में कि उसे डरावने कुत्ते के साथ उस आदमी से बात करनी चहिए या नहीं और दूसरे ही पल वह उसके और समीप चला आया। वह उसे सम्बोधित करनेवाला था कि उसकी नजर उसकी तरफ उठ गई । वह भी पारखी निकला। उसकी नजर की मीठास चुगली कर गई । समझ गया कि यह शख्स भी अपने बीचवाला है। उसे कुछ कहने के पहले वह सलीके से नमस्कार कहते हुए बोला-'शायद आप नये- नये आये हैं, साहब। मैं दो तीन दिनों से आप को देख रहा हूं । बात करने का मन करता था मेरा लेकिन शायद आप बुरा मान जायेंगे इसलिए टोक-टाक नहीं किया।'

फिर तो उन दोनो के बीच बातचीत का सिलसिला चल निकला।

बात- बात में उसने बताया कि वह दसवीं तक पढ़ा है। घर पर बेकार बैठा था। उसके चाचा जो यहां सेक्युरिटी गार्ड हैं, एकदिन साथ लेते आए और एक धनी परिवार में उनके कुत्ते की देखभाल करने के लिए रखवा दिया। तब से वह यहीं है। परिवार घर पर है। साल में एक बार गांव जाता है।
जब उसने उससे पूछा कि क्या वह इस काम से संतुष्ट है? कैसे कह पाता है वह गांव जेबार में कि वह कुत्ते का देखभाल करता है? उसे शर्म नहीं आती?

उसके जवाब ने तब उसे लाजवाब कर दिया था।

उसने चेहरे पर निश्छल मुस्कान लाते हुए कहा था- शर्म काहे का साहब, इसमें बुराई क्या है। चाकरी करके पेट तो पालना ही था। धूर्त, बेईमान आदमी की चाकरी से तो बेहतर यह स्वामी भक्त ,निरपराध, सीधे-सादे जानवर की चाकरी है। फिर दोहरा लाभ भी तो है। सवेरे का घूमना टहलना भी हो जाता है,स्वास्थ्य बना रहता है और पैसे भी मिल जाते हैं ।

उस रात वह उसकी संतुष्टि और सार्थक बातों के बारे में देर तक सोचता रहा। वह कुत्ते की देखभाल करने वाला लड़का रोना- धोना भी तो कर सकता था कि कम पैसे मिलते हैं, कुत्ते के पीछे भागना पड़ता है, पढ़े-लिखे को यह निकृष्ट काम शोभा नहीं देता पर क्या करूं ,साहब किस्मत में यही लिखा है। आदि आदि। जैसा कि अक्सर लोग कहते हैं ।

सार्थक सोच संतुष्ट जीवन के लिए कितना जरूरी है! एक अदना सा आदमी ने उसे सिखा दिया था।##





# तीन रास्ते

वे तीन थे

गांधी मैदान में किसी बड़े नेता का जोरदार भाषण चल रहा था। उन दिनो चुनाव का मौसम था। आये दिन ऐसे दृश्य दिख जाते थे।

भाषण समाप्त होते ही तीनों चल दिये।

रास्ते में एक ने पूछा- " देखा, कितनी भीड़ थी। मानो जन सैलाब उतर आया हो।"

दूसरे ने कहा-" मैं कैसे देख सकता हूँ । मैं अंधा हूँ।

फिर वह कहने लगा-" कितना बड़ा वक्ता था। तुमने उस नेता का भाषण सुना। गजब का सम्मोहन था उसकी आवाज में!"

पहले वाले के तरफ से कोई रिएक्शन नहीं पाकर वह थोड़ा नाराज हुआ-" कुछ बोलता क्यों नहीं? बहरा है क्या?" उसने कान के तरफ इशारा भी किया।

-" हाँ, मैं बहरा हूँ।"

दोनों ने तीसरे की ओर देखा-" तुम तो न अंधे हो, न बहरे। बताओ हमें , वह बड़ा नेता भाषण में बड़ी-बडी बातें कर रहा था, आश्वासन दे रहा था।"

तीसरे ने हाथ के इशारे के साथ गले से गों-गों की आवाज निकालते हुए बोलना शुरु ही किया था कि दोनों ने रोक दिया-" रहने दो, रहने दो। तुम तो गूंगे हो।"

वे चुप हो गए।

दो दिनो बाद उन्हें वोट देना था। एक ने कहा-" तुम किसे वोट दोगे?"
दूसरे ने,जो अंधा था, जवाब दिया-" उसे, जो मुझे रोशनी देगा। और तुम?" उसने हाथ से इशारा किया।

-" मैं उसे वोट दूंगा, जो मुझे सुनने की शक्ति देगा।"

फिर दोनों ने तीसरे से पूछा-" तुम किसे वोट दोगे?"

-" जो मुझे आवाज देगा ।" उसने हाथ के इशारे से और गों-गों की आवाज के साथ समझाया।

आगे रास्ता तीन भागों में बंटा था। उनके सामने जाति,धर्म और राष्ट्रवाद के झंडे लहरा रहे थे। वे अपने-अपने रास्ते चल दिये।#




#सम्बंध

एक बुजुर्ग से रहा नहीं गया। वे छड़ी टेकते हुए उठे। रेल गाड़ी की तेज रफ्तार के कारण उन्हें चार कदम भी चलने में दिक्कत तो हुई फिर भी उस सिगरेट फूंकते व्यक्ति के पास पहुँच गए। हिलते-डुलते बदन को संभाला और छड़ी उठाकर एक छड़ी जड़ ही दी उस व्यक्ति को ।

चोट से तिलमिलाया व्यक्ति बौखला उठा- ' ऐ बुड्ढे, सनक गया है क्या? क्यों मारा मुझे?'

- ' सनका मैं नहीं, सनका है तू। ट्रेन में सिगरेट पीता है।'

गुस्से से तमतमाया चेहरा आपराध बोध का छींटा पड़ते ही बुझ गया। भय की परछाई के बीच अपेक्षाकृत धीमीआवाज में बोला-' आप मना भी कर सकते थे। एकदम से छड़ी क्यों चला दी?'

- ' तू भी तो अपने बेटे को दरवाजे पर खड़ा होने से मना कर सकता था। उसे पीट क्यों दिया?'

- ' वो मेरा बेटा है। गलती सुधारना एक पिता का कर्तव्य होता है। इसीलिए उसे.......।'

- ' मैं भी तो तेरा बाप हूँ ।' बीच में बुजुर्ग बोल पड़ा-' गलती सुधारने की जिम्मेदारी मेरी भी है।'





#सामना

खनिकों के लिए बने क्वार्टरो में से सबसे पीछे वाले एक किनारे के क्वार्टर , जहाँ कूड़ा-कर्कट का ढेर जमा होता है , अधेड़ और विधुर रामबरन रहता है। बस तीन ही बरस नौकरी शेष है उसकी।

आज उसके दरवाजे को धड़ाधड़ पीटा जा रहा था। पैतीस वर्षों तक निधड़क काम करनेवाले रामबरन का सीना जोर जोर से धड़क रहा था। वह सुध-बुध खो चुका था लेकिन बुधनी की बुद्धि जेट बनी हुई थी।

उधर लगातार दरवाजा पीटे जाने के साथ साथ भीड़ के आक्रोश की तेज आवाज दरवाज़े को चीर कर बुधनी के कानों में जैसे गर्म तेल उड़ेल रही थी। उसने एक नजर लुंज-पुंज से बैठे रामबरन को देखा।

सब उसके कारण हो रहा है। उस दिन कूड़ा-कर्कट से लोहा लक्कड़ चुनने के दौरान पीछे पड़े गुंडों से इज्ज़त बचाने के लिए भाग कर इसी घर के दरवाजे को खटखटाई थी। फिर अक्सर प्यास लगने पर आने लगी थी। बाबू अकेला रहता था। बड़ी गंदगी रहती थी घर में। कपड़े-बर्तन जहाँ-तहाँ पड़े रहते थे। वह झाड़ू-बुहारू कर दिया करती थी। बदले में बाबू बासी रोटी दे दिया करता था। बाबू के घर आने-जाने के कारण गुंडों से भी पीछा छुट गया था। आज भी आयी थी। आंगन बुहार ही रही थी कि पिछला दरवाजा भड़ाक् से बंद हो गया था। बाहर शोर होने लगा था तब बाबू ने अगला दरवाजा भी बंद कर दिया था और माथा पकड़कर बैठ गए थे। बुधनी को काठ मार गया था।

अचानक जोर से दरवाजा खटखटाने की आवाज आई तब उसकी तंद्रा भंग हुई -' नहीं, अब मुझे ही कुछ करना होगा।एक दिन बाबू ने मेरी इज्ज़त बचाई थी आज मुझे बाबू की इज्ज़त बचानी होगी।'

वह इधर उधर देखने लगी। अचानक उसकी निगाह एक कोने पर चली गई जहाँ काली जी की तस्वीर के सामने पूजा का सामान रखा था। ढूँढने के क्रम में उसे सिंदूर की पुड़िया मिल गयी। अब अधिक सोचने का समय नहीं था। दरवाजा अब किसी भी समय टूट सकता था। वह झट सिंदूर मांग में भर ली और बाहर खड़ी भीड़ का सामना करने के लिए तैयार हो गई। रामबरन जबतक कुछ समझता कि तबतक बुधनी दरवाजा खोलकर खड़ी हो गई।

बाहर चिल्ला रहे लोग अचानक रूक गए। फिर चार - पांच लोग बढ़ आए-' कहाँ है रामबरना?'

वह दरवाज़े पर चट्टान सी खड़ी हो गई-' क्या बात है?'

-' तुम कौन होती हो बात करनेवाली? हमें रामबरना से पूछना है। क्या रंडीबाजी कर रहा है कालोनी में। हमारा परिवार है, बच्चे हैं। हम इज्जतदार हैं। और वो हमारे बीच में रहकर वेश्यावृति करेगा? हम निकाल बाहर करेंगे उसको।'

-' देखिए, आपलोग एक भले आदमी पर झूठा इल्जाम लगा रहे हैं। बाबू भगवान हैं, भगवान।'

-' भगवान है तो तुम्हारे साथ दरवाजा बंद करके क्या कर रहा था? बोलो। कबाड़ बिननेवाली, तुम उसका रखैल बनी हो।'

-' आपलोग अपने औरत के साथ दरवाजा खोल के रहते हैं क्या? दरवाजा खोलके सोते हैं? और खबरदार कबाड़ बीनने वाली कहा तो। दिखता नहीं। आंख फूट गयी है क्या? मैं उसकी बीवी हूँ। '

अचानक सांप सूंघ गया हो जैसे। बोलती बंद हो गई सब की। उसके मांग में सिंदूर देखकर सब की आँखें फैल गयीं। एक उम्र दराज औरत आगे बढ़ आयी-' यही बूढ़ा मिला था तुमको। बाप की उमर का है। कुछ तो शरम करती।'

बुधनी का चेहरा गुस्से से तमतमा गया। उनसे भीड़ के आगे खड़े उन गुंडों की ओर अंगुली उठाते हुए बोली-' माना कि बाबू बाप की उमर का है और उन भाई जैसे गुंडे जब मेरी इज्ज़त लूटने जा रहे थे तो शरम नहीं आई थी आप लोगों को। इज्ज़त बचाने वाले की बीवी बन जाने पर कैसी शर्म? बोलो।'






#चाँद पर रोटी

बाबू साहब की दलानी में शाम की महफ़िल सज चुकी है। रिटायर इंजीनयर साहब, स्कूल के हेडमास्टर साहब, मंदिर के पुजारी जी, दो एक खेतिहर किसान, रोज की तरह सब जमे हुए हैं। हंसी -ठठ्ठा और बतकही से माहौल गुंजायमान है। बाबू साहब पलंग पर उठगे हुए हुक्का गुड़गुड़ा रहे हैं।

ठीक उसी समय करमा आया। रोज की तरह पलंग के पैताने बैठ कर बाबू साहब का पैर दबाने लगा। करमा बाबू साहब का मुंहलगा कारिंदा है।

बात बात में देश की तरक्की की बात होने लगी। चाँद पर पहुंचने की चर्चा छिड़ते ही बाबू साहब बोले- "अरे, थोड़ी कसर रह गई, भैया वरना हम चाँद पर पहुँच ही गए थे।"

-"चलो इस बार न सही, अगली बार तो पहुँच ही जाना है।"
रिटायर इंजीनियर साहब आश्वत दिखे।

प्रवेश बाबू ने जिज्ञासा दिखायी-" चाँद पर खेती -बाड़ी भी होगी जी?" प्रवेश बाबू गांव के जमींदार हैं।

बाबूसाहब का पैर दबाता करमा बतकही सुन तो रहा था लेकिन कुछ समझ नहीं पा रहा था।

अचानक उसके मुंह से निकल गया-" मालिक, उहाँ रोटिओ(रोटी भी) मिलेगा का?"

अभी उसकी बात निकली ही थी कि बाबू साहब का एक जबरदस्त लात उसके मुँह पर पड़ा। वह जमीन पर लोट गया।

-"साला भूखड़, सब जगह इसको रोटी ही दिखता है। भाग नही तो लगाएं दो चार लात और।

गाल सहलाता करमा सोच रहा था- उससे गलती कहाँ हुई?#





//गुम फाइल//

आफिस परिसर में ही बने टी कार्नर के पास किसन राम,महाप्रबंधक कार्यालय का सबसे बुजुर्ग आदेश पाल, की नजर एक कोने में अन्यमनस्क से खड़े ठेकेदार भोले सिंह पर चली गई।

-' का ठिकेदार साहेब, बड़ा उदास लग रहे हैं। सुना है, आप का कोई फाइल गुम हो गया है। मिल गया?'

-' नहीं किसन भाई, सभी जगह खोजवा लिया। नहीं मिली फाइल। डूब गयी मेरी रकम। डेढ़ लाख का काम किया था मौखिक आदेश पर। अनुमोदन के लिए क्षेत्रीय असैनिक अभियंता द्वारा महाप्रबंधक के पास फाइल भेजी जानी थी कि अचानक से पता नहीं कैसे फाइल ही गुम हो गई।'

-' ऐसा तो नहीं होना चाहिए। आप ठीक से दिखवाइए। फाइल इसी आफिस में होना चाहिए। इधर-उधर दब-दूब गया होगा।

- ' नहीं भाई, मैंने, साहब ने, पिउन के साथ मिलकर कोना कोना छान मारा लेकिन फाइल नहीं मिली। भगवान जाने कहाँ गुम हो गई ? धरती निगल गई या आसमान खा गया।'

ठेकेदार की उदास नजरें किसन पर टिक गईं। किसन ठेकेदार के करीब आकर धीमी आवाज में बोला-' सब को खुश कर दिया था न भोले बाबू।'

-' आशय समझकर ठेकेदार झुंझला गया। दीवार से टिकते हुए बोला-' हाँ , हाँ भाई। जेई से लेकर फाईनान्स तक, सब को हाथ गरम करने के बाद भी.....। अब क्या बताएं। ऐसा पहली बार हुआ है मेरे साथ।'

कहने को तो कह दिया ठेकेदार ने लेकिन 'वह महाप्रबंधक का पहचान वाला है' -का रौब दिखाकर काम निकलवा लिया था। असैनिक अभियंता के कार्यालय के पिऊन हरि राम पर भी रौब झाड़ दिया था। वह गहरी सोंच में डूबता चला गया-' कहीं हरि राम का कारनामा तो नहीं।' फिर खुद ही सिर हिलाने लगा-' नहीं, नहीं। मेरे सामने ही तो उसने एक एक अलमारी छान मारी थी।'

वह चिंता में इस कदर डूब गया था कि किसन की मौजूदगी भी भूल गया था। किसन ठेकेदार की ओर चेहरे पर मुस्कान लिये घूरे जा रहा था।

-' भेले बाबू, निकालिए पांच का पत्ता और खेल देखिए। चुटकी में आप का फाइल होगा आप के हाथ में।'

-' मजाक मत करो किसन। वैसे ही मेरा माथा गरम है।'

-' आप निकालिए तो। फिर देखिए तमाशा। आइए मेरे साथ।'

दोनों असैनिक अभियंता कार्यालय आ गए। लंच समय था। केवल हरि राम दरवाजे पर झपकी ले रहा था। किसन और ठेकेदार को देखते ही उठकर खड़ा हो गया।

-' ऐ हरि, भोले बाबू का फाइल आफिस से कैसे गायब हो गया? खोजकर निकालो। नहीं तो.....।' कहते हुए किसन ने इशारा किया जिसे ठेकेदार देख नहीं पाया।

-' भइया, सभे जगह तो खोज लिया। पूछो बाबू से। अब तो एके जगह बाकी है। कहते हो तो उ भी देख ही लेते हैं।' कहते हुए हरि राम साहब की कुर्सी पर पड़े भारी गद्दे को उठाया। फाइल वहाँ सिकुड़ी पड़ी थी। देखते ही भोले सिंह ठेकेदारे ने झपटकर फाइल उठा ली।

किसन गम्भीर आवाज में बोला-' फाइल मिल गया न बाबू। एतना याद रखिएगा, खाली हाथिये बलमान नहीं होता है, बखत पड़ने पर चुटीओ हाथी के जान ले सकता है।'#



लघुकथा//धारणा//

पचपन वर्ष के गठे शरीर और खिले चेहरे के कारण जवान से दिखने वाले विसेसर बाबू के गम्भीर चेहरे पर सबसे पहले नजर गई सिन्हा जी की।

-' आज विसेसर बाबू को क्या हो गया? न हंसी, न मजाक , आते ही फाइल खोलकर बैठ गए।'

पाऊच निकालकर पान पराग की एक चुटकी मुँह में लेने के बाद सिन्हा जी आखिर पूछ ही बैठे-' का हुआ बड़ा बाबू, आप की तबियत तो ठीक है?'

-' हाँ भाई, क्या हुआ मेरी तबियत को?' फाइल से नजर उठाकर विसेसर बाबू ने कहा।

-' आज एकबार भी ठहाका नहीं गूँजा इसीलिए पूछ दिया। उदास दिख रहे हैं आप आज।'

-' बस ऐसे ही, कोई विशेष बात नहीं।' विसेसर बाबू ने टालना चाहा। सिन्हा जी तो चुप लगा गए लेकिन राम जीवन से चुप नहीं रहा गया-' बड़ा बाबू, पाँच बरस हो गए आपसबो की सेवा करते लेकिन आप का चेहरा एक दिन भी उदास नहीं देखा। जरूर कोई खास वजह होगी। कोई समस्या है तो बताइए, आखिर हमलोग किसलिए हैं?'

अपने मुंह लगे पिउन की बात विसेसर बाबू टाल नहीं सके। बोले-' राम जीवन, बात है कि मेरा बेटा और बहू.......'

बगल की कुर्सी पर उकड़ू बैठे झा जी ने बात बीच में ही लोक ली-' अरे, पिछले साल ही तो आप ने अपने बेटे की शादी की थी। साल भी नहीं बीता और परिणाम यहाँ तक पहुँच गया' वे संजिदा हो उठे-' बड़ा बाबू पिछले तीन वर्षों से मैं बहू-बेटे द्वारा तिरस्कृत होकर जी रहा हूँ। मेरी तो घर में कोई कद्र ही नहीं अब तो। आप भी........।

विसेसर बाबू कुछ बोलना चाहता रहे थे कि लाला जी लिखना छोड़ कर कलम बंद करते हुए झा जी ओर बढ़ आये।

-' ठीक कहते हैं झा जी, पता नहीं आजकल के लौंडो को क्या हो गया है? पत्नी आते ही दिमाग फिर जाता है। मेरे बेटे को देखिए, हमेशा अपनी बीवी को सिर पर बिठाया रहता है। मैं बहू की गलती की ओर इशारा भी करता हूँ तो मुझ पर ही बरस पड़ता है।'

इस पर विसेसर बाबू ने फिर कुछ कहना चाहा कि इस बार वर्मा जी ने सहानुभूति दिखाना शुरू कर दी-' क्या कीजिएगा बड़ा बाबू जमाना ही ऐसा है। बेटे-बहू की मार तो सहनी ही पड़ती है। घायल अंग को काट कर फेंक भी तो नहीं सकते हैं। मेरी बहू तो गाली-गलौज पर उतर आती है। सब बर्दाश्त करना पड़ता है। आदत सी पड़ गयी है।'

इस बार विसेसर बाबू लगभग चीख ही उठे-' भाई, मेरी बात तो सुनिए। खामखाह आप लोग बात का बतंगड़ बनाये जा रहे हैं। मैं इसलिए नहीं उदास बैठा हूँ कि बेटे ने मेरा अपमान किया है या कोई दुख दिया है। बल्कि मैं इसलिए उदास हूं कि कल वे दोनों एक महीने के लिए मेरी आंखों से ओझल होने जा रहे हैं। मुझे भी साथ ले जाने की ज़िद कर रहे थे लेकिन मैंने मना कर दिया। जवान पति-पत्नी के बीच मुझ बुड्ढे का क्या काम।'

विसेसर बाबू ने यह देखने की कोशिश नहीं की कि उनकी बातों की प्रतिक्रिया उनके सहकर्मियों पर क्या हुई। वे फाइल में मुँह गड़ाये बड़बड़ाते रहे-'गलत धारणा पाल कर पता नहीं ये लोग क्यों बेटे-बहू के प्रति दुराग्रहों से पीड़ित रहते हैं।#





#चल_भाग

- नमस्ते साहब!
उसने आश्चर्य से देखा, उस दस वर्ष के बालक को जिसके चेहरे पर बुजुर्गियत स्थाई निवास बना चुकी थी।

- क्या है?
- साहब, आप दिन भर सिगरेट पीते हो। सैकड़ों रुपये फूंक देते हो।
- हाँ पीता हूँ तो?
- तो इस पत्रिका को खरीद लो साहब, केवल बीस रुपये की है। उसने बगल में लटक रहे झोले से पत्रिका निकाल कर उसके आगे कर दी।
उसने एक लम्बा सा कस लिया और धुयें का छल्ला उस लड़के के मुँह पर दे मारी-"चल भाग।"

- नमस्ते साहब।
- क्या है?
शराब पीते हुए व्यक्ति ने बोझिल आंखें लड़के के चेहरे पर गड़ा दीं।
- साहब, आप रोज रोज मंहगे शराब पीते हो। बहुत पैसे लगते होंगे न?
- तो?
-तो साहब, यह पत्रिका खरीद लो। बहुत कम पैसे लगेंगे और मुझे अच्छा कमीशन मिल जाएगा।
पैग में बची हुई शराब उस लड़के के मुँह पर झोकते हुए लड़खड़ाती आवाज में वह बोला- " चल भाग सा....।

बारी- बारी से वह दोस्तों के साथ चाय पीते, पान चबाते लोगों के पास गया। हर बार उसे सुनने को मिला- चल भाग ।

शाम होते ही वह भूखा प्यास मेरे पास आकर झोला पटक दिया-"साहब , रखो अपना यह सामान। मैं कूड़ाकचरा में लोहा-लक्कड बीन कर दो रोटी कमा लेता था। आप ने गंदा काम करने से मना किया और पत्रिका बेचने पर कमीशन देने की बात कही लेकिन साहब दिनभर मगजमारी करने के बाद भी एक धेला तक नहीं मिला। समाज के इन कूड़े-कचरे लोगों से बेहतर तो सड़क के किनारे पड़ा वह कूड़ा है साहब जहाँ से कुछ न कुछ तो मिल ही जाता है।"

मैं जाते हुए लड़के की पीठ देखता रहा।#

@कृष्ण मनु
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