Seep me bandh ghutan - 2 - last part books and stories free download online pdf in Hindi

सीप में बंद घुटन.... - 2 - अंतिम भाग

सीप में बंद घुटन....

ज़किया ज़ुबैरी (ब्रिटेन)

(2)

“अब मेरा यही काम रह गया है कि मै तेरा जी बहलाऊं.....? मज़दूरी तू करेगा..?.तेरे पेट का नरख कौन भरेगा..?”

एयर कन्डीशन कमरे मे गदीले क़ालीन कि तह जूतों के नीचे दबाकर बैठे बैठे चाय और कॉफ़ी के साथ सिगरेट का धुआं उड़ाते और घंटी बजा बजा कर लम्बी गोरी सुनहरे बालों वाली और काली पतली कमर वाली.... आगे पीछे से गोल गोल शरीर वाली सेक्रेट्रियों को बार बार कमरे मे बुलाकर ख़िदमत करवाने को दामोदर मज़दूरी करना कहता था. पर बोलता ऐसे था जैसे...सीधा झोपड़पट्टी से उठ कर आया हो. शायद वो आख़िरी दिन था जब बेटे ने बाप से लाड़ में कुछ मांगा हो.... अब मिले हुए को ठुकराना ही उसकी आदत बन गयी थी. स्कूल से देर मे आने लगा वहीं खेलता रहता. आख़िरी बच्चा होता जो खेल के मैदान से विदा किया जाता. वैसे भी वो बड़ा सा बस्ता लाद कर बस ही से स्कूल भेजा जाता कि अय्याशी की आदत ना पड़े ...एक ही तो बेटा है बिगड़ ना जाए....!

शीला महसूस करती कि वो ना जाने कब से एक आदर्श इन्सान की छवि बनाये हुए थी. वह ना जाने कहां से और कैसे उसके जीवन मे बस चला आया और बिल्कुल ऐसे समाता जा रहा हे जैसे ‘जिग-सॉ पज़ल’ मे टेड़े-मेढ़े टुकड़े एक दूसरे मे फ़िट होते जाते हैं और चित्र अपनी सुन्दरता और पूर्णता के साथ आगे बढ़ता जाता है और अन्त में एक ऐसा चित्र तैयार होता है जिसके टुकड़े देखने से महसूस ही नहीं होता था कि एक दूसरे से जुड़कर ये ऐसी तस्वीर बनेगी। रवि और शीला ऐनि और श्याम की पार्टी को अपने लिये भाग्यवान मानकर चल रहे थे।

शीला कि देखभाल रवि ऐसे करता जैसे न जाने कब से तरसा हुआ हो। बच्चों की तरह उसके लिये खाना ख़ुद निकालकर परोसता और जब वह खा रही होती तो उसे एकटक निहारता... शरबती पुतलियों में चमक के दो सितारे नज़र आने लगते थे। कपड़े भी इस्त्री करने को खड़ा हो जाता था। शीला बिल्कुल चकराई रहती. उसने आज तक सपने में नहीं सोचा था कि पुरुष ऐसे भी देखभाल कर सकते हैं। वो समझती थी कि महीने मे एक बार पति ने हथेली पर पगार रख दी तो वही हो गयी मज़दूरी पूरे महीने की. अब पति देव ऐश करेंगे और पत्नी मज़दूरी... उसकी, घर की और बच्चों की देखभाल। रवि तो ऐसा नहीं था वह काम पर भी जाता और पत्नी को भी उत्साहित करता कि वो भी लिखे पढ़े, पेंटिंग करे या सोशल वर्क करे घर में बैठ कर समय न बरबाद करे। क्योंकि अकेलापन इन्सान का शत्रु होता है उलटे सीधे विचार जन्म लेने लगते है। ये कैसा इन्सान है...! कभी कभी डरने लगती कि ये सब कहीं ख़त्म न हो जाये, वह बदल न जाये !

बदलाव तो जीवन का एक अटूट सत्य है। अहसास भी नहीं होता है और चुपके से जैसे स्टेशन पर रेलगाड़ी फिसलती हुई दाख़िल हो जाती है और देखते ही देखते जगह बदल जाती है... साथी बदल जाते हैं मन्ज़िल आकर फिर खो जाती है वह इसी आंख मिचोली से डरा करती थी । वह चाहती थी रवि के साथ एक ही स्टेशन पर बैठी रहे और रेलगाड़ी कभी न आये।

उसे रवि के साथ नाव में सैर करना भला लगता। लहरों से खेलना, पानी के छींटे रवि के मुंह पर डालना, उसका सफ़ेद मलमल का कलफ़् लगा लखनवी कढ़ाई वाला कुर्ता जिससे उसकी मज़बूत बाहें झलक रही होतीं जब उसका कुर्ता भीग कर उसके शरीर से चिपक जाता तो भी वो हंसता रहता जैसे कह रहा हो शीला तुमको क्या मालूम तुम्हारे हाथों से बरसाया हुआ यह जल मेरे लिये नव-जीवन की ध्वनि है... अपनापन है... जीवन की सच्चाई है। यही तो जीना है!

सुबह से लेकर सूरज ढलने तक बड़ी बड़ी शीशों वाली बिल्डिंग में मेज़ पर सर झुकाए और कानों में टेलिफ़ोन लगाए समय बिता देना ही तो जीवन नहीं होता। हां पैसा तो होता है... मगर पैसा कमाने के चक्कर में दिल बहलाने का समय खो चुका होता है। उस समय को रोक लेने का मन नहीं करता पर इस समय को जो तुम पानी की बौछार कर रही हो तुम्हारे होंठ तुम्हारा एक एक अंग तुम्हारे उलझे हुए हवा मे लहराते बाल लहरों के साथ साथ मेरे मन मे हलचल मचा देते हैं... इस समय को जकड़ लेने का मन करता है।

जकड़ तो गई थी शीला और पकड़ लिया था उसको पूस माघ के सूखे जीवन ने सावन भादों बनकर रवि ने... रवि थोड़े समय के लिये जैसे ही घर पहुंचता फौरन फ़ोन कर के उदास आवाज़ मे कहता कि उसको अन्धेरा अच्छा नहीं लगता...उसको शीला से जुदा होना पड़ता है....घर पहुंचते ही सवेरे की पूरब से फूटती हुई लाली की राह देखने लगता. मुर्गे की अज़ान जिस से वो बहुत घबराया करता कि उसकी नींद टूट जाती थी....अब उसकी प्रतीक्ष करता कि जल्दी अज़ान की आवाज़ आये तो वह निकल पड़े शीला के द्वार...सर्दी की कड़कड़ाती सुबह को गाता हुआ प्यार के नशे मे मस्त शीला के पास होता.

दोनो को अपनी राहों का कोई पता नही था कि किधर को जा रही है... केवल ये अहसास था कि दो मतवाले जिनको कभी ख़ुशी नही मिली थी अब वो खुशियों पर सवार नाचते फिर रहे हैं हर हर बात पर जी भरकर हंसते दोनो. शीला की खनखनाती हंसी पर रवि झूम उठता. उसके अपने घर मे जैसे हंसी का काल पड़ा हो...

रवि इतना अच्छा बाप था कि अपनी बेटी के लिये हर दम शीला से बात करता कि वो कैसे उसके जीवन में भी ख़ुशियां भर दे... वहीं उसका पति दामोदर तो केवल शीला से यही शिकायत करता रहता कि शीला उसको देर तक आफिस मे बैठने पर नाराज़गी ज़ाहिर करती है... वह चाहता है कि शीला बच्चों को भी समझा दे कि उनको भी कोई शिकयात करने की आवश्यक्ता नहीं है.. इस बार वो पूरी तौर से प्रयत्न कर रहा है की उसे डबल प्रोमोशन मिल जाये इस से पगार भी डबल हो जायेगी. काम तो पेट के लिये करता था बच्चों को तो पैदा करवाने की उसकी ज़िम्मेदारी थी. बच्चे की हर कमज़ोरी शीला के कारण थी और हर अच्छी बात दामोदर से विरसे मे मिली थी. धन एकत्रित करता अपनी अय्याशी के लिये. शीला को कभी ना मालूम होने देता कि उसकी आमदनी कितनी है और पैसे कहां छुपाकर रख रहा है.

रवि तो अपनी पूरी पगार अपनी पत्नी को दे देता था कभी ना पूछ्ता कि वो उन पैसों से क्या कर रही है. उसका मानना था कि पत्नी तो घर की लक्ष्मी होती है...अपने उसूलों को अपनी आपस की खट पट मे ना आने देता.... शीला अक्सर सोचती अगर उसके पति के भी कुछ उसूल होते तो आज वह रवि के पीछे क्यों पागल होती.

वो छोड़ देगी उसको... चौबीस वर्ष तो निभा लिये... क्या उसने अपने पूरे जीवन की बलि देने का ठेका ले रखा है...!

ठेकेदार तो दामोदर था अपने परिवार के जीवन को अपने तौर से जीने के लिये मजबूर करने का ठेकेदार ----कोई अधिकार नही दे रखा था... दिशाओं की पहचान वो कराता था... पूरब को पश्चिम और पश्चिम को पूरब कह दे तो वही सही होता... और रवि को अगर शीला कह दे आज उसका रवि उत्तर से निकलेगा तो रवि अपने आने की दिशा बदल देता. ना जाने कैसा अजनबी था...! जो पहले दिन से अपना सा ही लगता...था.....

दोनो के जीवन का एक हिस्सा बीता जा रहा था इसी उधेड़ बुन मे कि साथ कैसे रह सकेंगे..! कोई राह नज़र ना आती...कोई उपाय समझ नहीं आता. साथ रहने की चाह ज़ोर पकड़ती जाती. जी चाहता सांझ की बेला जब पशु भी पैरों की मिट्टी झाड़ एक जगह हो जाते है एक दूसरे के साथ रात बिताते है....पंछी भी चूं चूं कर परिवार को इकठ्ठा कर लेते है. जब तक उनका जोड़ा नही आ जाता घोंसले से हल्की हल्की हलचल सी सुनाई देती रहती है. किन्तु शीला और रवि चाह्ते हुए भी ऐसा नही कर पा रहे थे. उनको थोड़ा सा समय भी अलग काटना कठिन होता जा रहा था. अन्धेरी रातें नोचने को दौड़तीं.... रातें कम लम्बी होती है पर उनकी लम्बाई मीलों लम्बी लगने लगतीं जब वो अंधियारा अपने साथी से अलग काटना पड़े. लोग चलते चलते थक जाते है पर रवि और शीला जैसे हार मानने को तैयार नही थे.

समाज की हार से कौन बच सका है..?

‘’ रवि अगर तुम समय पर घर नही आये तो मै पुलिस को बता दूंगी कि तुम शीला के साथ समय बिताते हो. तुम्हरा जी घर मे नही लगता. तुमको किस बात की कमी महसूस होती है. मुझे बताओ मैं पूरी करुंगी... उस कुतिया से पीछा छुड़ाओ उसका तो पति बेचारा भी नही संतुष्ट है उस से. कितना व्याकुल था अपनी पत्नी के लिये जब वो तुम्हारे साथ गुलछर्रे उड़ा रही थी. कितना भला मानुस है कि उसको बाल पकड़ कर बाहर नहीं निकाल दिया. तुम्हारे लिखी कविताओं की कापियां बना ली है मैने. मै तुम्हें कोर्ट ले जाउंगी. छोड़ूंगी नहीं. ऐसा समझाऊंगी कि याद रखोगे.....!

रवि बिल्कुल चुप खड़ा सुनता रहा. उस से लड़ा नही जाता था. आवाज़ भी ऊंची नहीं कर पाता. पत्नी चिल्लाए जा रही थी... जितना वो चिल्ला रही थी उतना ही वो घुटता जा रहा था..

नाव मे बैठा हिचकोले खा रहा था...शीला अपनी लम्बी लम्बी गुलाबी उंगलियों के मदिरा के प्याले से उसके ऊपर दरिया के शीतल चान्दी जैसे चमकते जल का छिड़काव कर रही थी पर वह दूर कही अंगारों पर बैढा था. वो भिगाये जा रही थी---रवि की हंसी जैसे पथरा गयी थी...उसकी शरबती आंखो का रंग हल्का पड़ गया था... आंखो मे दो चमकते हुए सितारे भी डूब गए थे...!!

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