Aur kahaani marti hai - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

और कहानी मरती है - 2

और कहानी मरती है

(कहानी - पंकज सुबीर)

(2)

‘तुम्हारी निशा ....?’ मैंने माथे पर बल डालते हुए कहा ‘निशा तुम्हारी कब से हो गई ? वह मेरी पात्र है, उस पर मेरा अधिकार है। तुम उसे अपनी समझने की भूल मत करो, मेरी क़लम का एक इशारा उसे तुमसे हमेशा के लिये दूर कर सकता है।’

अनुज कुछ देर मुझे घूरता रहा, फ़िर बोला, ‘वह मेरी क्यों नहीं है ? मैंने उससे प्रेम किया है, मेरे बच्चे की मां है वो। मैंने अपने जीवन के कुछ बेहद सुखद क्षणों को उसके साथ जिया है, भले ही वह जीवन एक पात्र के रूप में था लेकिन पात्र के रूप में भी तो मैंने उससे वह सब कुछ पाया है जो एक पुरुष एक स्त्री से पाता है। ज़ाहिर है ऐसे में उससे मेरा लगाव तो होगा ही। मैं मानता हूं, आप चाहें तो एक क्षण में मुझे हमेशा के लिए उससे दूर कर सकते हो, पर ऐसा करके क्या आप खुश हो सकोगे ? मैं निशा को भुला नहीं पाऊंगा, कोई भी नहीं भूल सकता, आप ही शादी करने के बाद भी क्या मानसी को भूल पाए .....?’

‘मानसी....?’ मैं चौंक पड़ा, ‘तुम मानसी के बारे में कैसे जानते हो ?’

हल्के से हँसते हुए वह बोला, ‘लेखक महोदय हम पात्र आपके अवचेतन में ही निवास करते हैं, जहां हमें आपके बारे में सारी जानकारियां मिल जाती हैं। हमें सब पता रहता है आपने अपने अतीत से जुड़े किस व्यक्ति को उठाकर अपनी कहानी का पात्र बना दिया है। मानसी मुझे कई बार आपके अवचेतन में भटकते हुए मिली है, उसी ने मुझे आपके और अपने बारे में सब कुछ बताया है।’

‘सब कुछ ....?’ मैं कुछ हैरत में पड़ गया।

‘हां सब कुछ....!’ अनुज शब्दों को चबाते हुए बोला ‘पर मैं वह सब कुछ दोहराना नहीं चाहता, क्योंकि मैं जानता हूं इंसानों को पीड़ा होती है, पर इंसान ये भूल जाते हैं कि पात्रों को भी पीड़ा होती है। आपने भी तो मानसी के साथ वैसा ही कुछ जिया है, जो मैंने निशा के साथ जिया है। आप अपनी पीड़ा मेरे चरित्र में क्यों डाल रहे हो ? और फ़िर आपके और मानसी के संबंधों की परिणति वह बच्ची तो आज भी आपके साथ रहती है, जिसे आपने अपनी पत्नी को एक अनाथ बच्ची बताकर भ्रमित कर रखा है .....’

बरसात की ठंडक के बाद भी मेरे माथे पर पसीना चू गया, मेरे ही पात्र मेरे ही चरित्र की धज्जियां उड़ाने में लगे हैं, समझ नहीं आ रहा अनुज को क्या जवाब दूं ? कुछ परेशान होते हुए पूछा, ‘तुम बताओ तुम चाहते क्या हो ? क्या मैं इस कहानी को बंद कर दूं ?’

‘मैंने ऐसा कब कहा ?’ अनुज बोला, ‘मैं तो बस यह कह रहा हूं कि निशा को इस नए संबंध का जामा मत पहनाओ, उसे केवल मेरी ही रहने दो, मैं जानता हूं कि मैं केवल पात्र हूं, तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता, लेकिन तुम्हारे अवचेतन से बार बार बाहर आकर तुम्हें परेशान तो कर सकता हूं। ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दूंगा, कि तुम्हारे अवचेतन में जो मानसी है वह तुमसे घृणा करने लगे, कि तुमने उसे भी एक पात्र बना डाला, एक चरित्रहीन पात्र।’ अंतिम शब्दों पर ज़ोर दिया था अनुज ने।

‘नहीं नहीं’ मैं घबरा गया, ‘अभी ज़रा ठहरो, मुझे ज़रा सोचने का समय तो दो, मैं कुछ मध्यमार्ग निकालने का प्रयास करता हूं,तुम्हारे और निशा के बीच की परिस्थितियां यथारूप ही बनी रहें, ऐसा कुछ करता हूं। तुम मानसी से कुछ मत कहना।’

‘क्यों...?’ कुछ उपहास भरे स्वर में बोला अनुज, ‘पात्रों की परिस्थितियां जब अपने पर आईं तो पसीने छूट गए ! लेखक महोदय स्याही से क़ाग़ज़ पर शब्दों का मायाजाल रचना ठीक है, पर अपने ही पात्रों को अपने ही हाथों से अभिशप्त बना देना ग़लत है, क्योंकि अतीत तो हर चीज़ का होता है, केवल पात्रों का ही नहीं होता। अपने अतीत की कमज़ोरियों को पात्रों के चरित्र में ढाल देना कोई बहादुरी का काम नहीं है। ख़ैर मैं आपको समय देता हूं, सोचिए और न्याय कीजिए, मेरे साथ भी, निशा के साथ भी। वरना कहीं ऐसा न हो, आगे से आप अपने अतीत से कोई भी पात्र उठाने की हिम्मत भी नहीं कर पाएं।’ अनुज चेतावनी भरे स्वर में बोला, और टेबल पर ज़ोर से हाथ मारता हुआ उठकर चला गया। बाहर वर्षा उसी प्रकार गिर रही है, मैं टेबल लैंप बंद कर सिगरेट सुलगाकर खिड़की के पास आकर खड़ा हो गया।

मानसी, जिसे मैं तब छोड़कर चला आया था जब वह मेरे बच्चे की मां बनने वाली थी, शायद वो मेरी कायरता थी जो मैं इस बात से डर गया था, कि जब मानसी के पेट के बच्चे का इल्ज़ाम मुझ पर लगेगा, तो क्या करूंगा....? मानसी जिसका मैंने जी भरकर उपभोग किया, उसे ही छोड़कर भाग आया था। हालांकि उससे तो यही कह कर आया था, नौकरी के लिए जाना पड़ रहा है, पर मैं जो आया तो फ़िर नहीं लौटा, लौटा तो चार वर्ष बाद जब मेरी शादी हो चुकी थी। पता चला मानसी तो कब की जा चुकी है, मेरी निशानी एक बेटी को छोड़कर। बेटी को लेकर लौटा, तो सविता ने पल्लवी को देखते ही प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिये थे, हालांकि मैंने अपनी तरफ़ से एक कहानी बताकर कि इसके मां बाप दोनों मर गए थे, मैं अनाथालय एक कार्यक्रम में गया था मुझे यह पंसद आ गई तो गोद ले आया, सविता को संतुष्ट करने का प्रयास किया था। सविता ने ऊपर से मेरी कहानी पर विश्वास कर लिया था, पर मेरा ख़ुद का मानना है कि पुरुष स्त्री को जितना नासमझ समझता है, वस्तुतः वह उतनी होती नहीं है वह सब कुछ समझती है, पर प्रकटतः कुछ नहीं कहती।

आज अनुज ने फ़िर मुझे मानसी की याद दिला दी, वैसे तो पल्लवी ने मानसी को कभी विस्मृत होने ही नहीं दिया। हां पल्लवी को देखकर एक टीस अवश्य उभरती है कि यह मेरे प्रणय की नहीं बल्कि गुनाहों की निशानी है, और मुझे हमेशा यही अपराध बोध बना रहता है कि पल्लवी के जन्म की कहानी कहीं खुल न जाए। आज अनुज के सामने जिस तरह मैं झुका उसकी भी तो शायद यही वजह थी। वह मेरी सबसे कमज़ोर नस को दबाने में सफल हो गया था, और अब मुझे निर्णय लेना है कि इस कहानी का क्या किया जाए ? इसे उस तरह से चलाया जाए जिस तरह से पात्र चाह रहे हैं या फ़िर उस तरह से जिस तरह से मैं स्वयं चाहता हूं।

रात भर स्टडी में ही बैठा सिगरेट फूंकता रहा। सविता एक दो बार आकर झांक गई कुछ बोली नहीं। जानती है जब भी किसी विषय को लेकर उलझ जाता हूं तो ऐसा ही होता है। स्टडी में कब सोफ़े पर नींद आ गई, पता ही नहीं चला। सुबह जब सविता चाय लेकर आई तब नींद खुली। बाथरूम में शावर पूरी स्पीड से चलाकर उसके नीचे खड़ा हो गया, शावर के नीचे खड़े-खड़े ही फ़ैसला लिया कि कहानी को अपने हिसाब से ही आगे बढ़ाऊंगा, पात्रों का दबाव अब सहन नहीं करूंगा।

नहाकर जब स्टडी में पहुंचा तो काफी तनावमुक्त सा लगा, कल कहानी को जहां माही के साथ कार में छोड़ा था, वहीं से शुरू किया। माही कार से उतरा और निशा के साथ उसके फ़्लैट में चला गया, काफ़ी पीने के बाद दोनों बैठकर बातें करने लगे। बातों का विषय मैंने जान बूझकर अनुज और निशा के बीच के संबंधों पर ही केन्द्रित रखा। मैं माही के माध्यम से अनुज और निशा के अंतरंग संबंधों के बारे में खोद-खोदकर प्रश्न पूछने लगा, शायद आने वाले दृष्य की भूमिका बांध रहा था। पार्टी में पी गई शराब माही पर धीरे-धीरे असर दिखाने लगी, उसने धीरे से निशा का हाथ पकड़ लिया। निशा ने कोई विशेष विरोध नहीं किया। करती भी कैसे ? वह तो मेरी पात्र है, और मैं तो यही चाहता हूं कि निशा को कोई विरोध नहीं करे। कहानी में मेरी मनपसंद विषयवस्तु प्रारंभ हो गई है। स्त्री पुरुष के संबंधों का जब भी कहानी में ज़िक़्र आता है मैं शब्दों को लेकर कोई कंजूसी नहीं बरतता। यहां भी मैंने ऐसा ही किया। माही और निशा के बीच बन रहे संबंधों को पूरी तफ़सील के साथ लिखा। छोटी-छोटी घटना को भी नहीं छोड़ा। मेरी क़लम के इशारे पर माही ओर निशा कठपुतलियों की तरह नाच रहे हैं, मेरी इच्छा पूरी हो रही है।

जब क़लम रुकी तो क़ाग़ज़ पर घटना घट चुकी थी, मैं अपने मन की करने में कामयाब हो गया। मैंने पाया कि मेरी धड़कनें तेज़ चल रही हैं, मेरे रोम-रोम से पसीना छूट रहा है, सांसें तेज़ हो गईं हैं। मुझे समझ नहीं आ रहा ऐसा क्यों हो रहा है ? क्या निशा सच कह रही थी कि मैं वास्तव में माही को माध्यम बनाकर अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति करना चाहता हूं। सांसों को नियंत्रित करके टेबल पर रखा पानी का ग्लास उठाया, अचानक हाथ कांप गया, गिलास छूटते छूटते बचा। सामने माही खड़ा है, शरीर पर केवल एक टावेल लिपटा है, सांसें उखड़ रहीं हैं, रोम-रोम से पसीना चू रहा है। वैसा ही गठा-गठाया सजीला बदन, जैसा मैंने कहानी में उसे दिया है। शायद ठीक उसी स्थान से उठकर आया है, जहां मैंने कहानी को छोड़ा है। आंखों में गहरा दर्द नज़र आ रहा है। कुर्सी पर बैठकर दोनों हाथ टेबल पर रख सर को हाथों पर टिका दिया। शायद उखड़ी सांसों को वश में कर रहा है। कमरे में सन्नाटा माथा फोड़ने लगा। मैं फ़िर एक और बहस के लिए स्वयं को मानसिक रूप से तैयार करने लगा।

कुछ देर बाद उसने हाथों पर से चेहरा उठाया, काफी परेशान लग रहा है, आंखें हलकी-हल्की भीगी हुई हैं मेरी आंखों में आंखें डालता हुआ बोला, ‘आपने ऐसा क्यों किया...?’ मैं संभवतः इसी प्रश्न की उम्मीद में था, बोला, ‘माही तुम इस घटना को कुछ ज़्यादा ही गंभीरता से ले रहे हो, तुम पुरुष पात्र हो, और पुरुषों के जीवन में इस तरह की घटनाएं आम होती हैं।’

‘आम घटना....?’ माही कुछ हैरत से बोला ‘आप इसे आम घटना कह रहे हैं, इस एक घटना से मेरा पूरा चरित्र ख़राब हो गया, मैं तो केवल मालती के प्रति ही वफ़ादार था, फ़िर निशा तो मालती की बड़ी बहन है।’

‘वफ़ादार ....?’ मैंने कुछ डांटने के अंदाज़ में कहा, ‘माही तुम मेरी कहानी के केन्द्रीय पात्र हो कोई पालतू कुत्ते नहीं हो जो वफ़ादारी की बात रहे हो। और ये बड़ी बहन छोटी बहन क्या होता है ? शरीर तो शरीर होता है, जब वह वस्त्रों से बाहर आता है, तो सारे संबोधन ख़त्म हो जाते हैं, फ़िर वह केवल शरीर होता है। संबोधनों का गणित वस्त्रों के आवरण तक ही चलता है। तुमने वही तो किया है जो इस तरह के आवरणों के परे होता है।

‘अच्छा’ माही शब्द को चबाते हुए बोला, ‘वस्त्रों के आवरण के परे संबोधन केवल शरीर बन जाते हैं ? ये अपनी तथाकथित आधुनिक परिभाषाएं मुझे मत सिखाइये। बताइये भला आप स्वयं अभी तक अपने कितने संबोधनों को शरीर बना चुके हैं ?’ माही मुझे घूरने लगा।

इस आकस्मिक प्रश्न के लिए मैं तैयार नहीं था मेरी सारी आक्रामकता एक ही प्रश्न में काफ़ूर हो गई, सोच रहा था अपने निर्णय को आक्रामकता के द्वारा सही साबित करने का प्रयास करूंगा, पर लग रहा है कि वापस सुरक्षात्मक पद्धति को अपनाना पड़ेगा। स्वर को नरम करता हुआ बोला, ‘माही मैं पुराने युग का हूूं, और तुम्हारा जो चित्रण मैंने किया है वह आधुनिक है, इसलिए तुम्हारी और मेरी कोई तुलना नहीं हो सकती। और फ़िर तुम यह क्यों भूल रहे हो कि तुम एक पात्र हो, व्यक्ति भले ही घटनाओं में उलझ जाए, पात्र नहीं उलझ सकता, इससे कथ्य के प्रवाह में बाधा आती है।

‘आप पुराने युग के हैं?’ माही सवालिया अंदाज़ में बोला ‘तभी शायद बिना शादी के बाप बनने का साहस कर लिया था आपने। हां यह सही कहा आपने कि आपकी और मेरी कोई तुलना नहीं हो सकती, मैं आपके समान नपुंसक नहीं हूं, कि किसी के शरीर का उपयोग करने के लिए क़लम का सहारा लूं। मैं तो पात्र होकर घटना में उलझ रहा हूं पर आप तो व्यक्ति होकर भी नहीं उलझे।’

‘मतलब....?’ मैं फिर हैरत में पड़ गया ‘क्या कहना चाह रहे हो तुम?’

‘मतलब आप अच्छी तरह समझते हैं, क्यों मेरे से सुनना चाह रहे हैं’ माही बोला।

मैंने कहा ‘नहीं नहीं तुम कहो, तुम्हें जो कुछ भी कहना है। मैं भी तो जानूं आख़िर क्या समझाने वाले हो तुम?’

माही मेरी तरफ ग़ौर से देखने लगा। हलकी सी हँसी थी उसके होंठों पर, बोला, ‘आप सुनना ही चाहते हो तो सुनो, चौदह वर्ष की उम्र में पड़ोस की उस छोटी सी बच्ची को घर में रोककर आपने जो कुछ किया था, उस पर कभी भी शर्मसार हुए आप ? घटनाओं में उलझने की बात करते हैं, मैं तो पात्र होते हुए भी, और आपके द्वारा वह कार्य करवाए जाने के बाद भी परेशान हूं। आप तो उस घटना को लेकर कभी थोड़ा भी परेशान नहीं हुए।’

‘कौन लड़की ....?’ मैं अपनी घबराहट पर काबू पाते हुए बोला ‘किस लड़की की बात कर रहे हो तुम ? मैंने ऐसा कुछ नहीं किया तुम फ़िज़ूल की कहानी गढ़ रहे हो।’

‘अच्छा’ माही व्यंग्य भरी मुस्कराहट के साथ बोला ‘आपने कुछ नहीं किया ? लाऊँ अभी उस बच्ची को हाथ पकड़कर आपके सामने ? बोल सकेंगे यही बात उसके सामने भी ? बताइये लाऊं ? मैं आपकी तरह कहानीकार नही हूं जो कहानी गढूंगा।’

‘कहां से लाओगे उसे ?’ मैं परेशानी भरे स्वर में बोला।

‘चलो आपने यह तो स्वीकार किया कि ऐसी कोई लड़की है।’ माही उपहास भरे स्वर में बोला ‘लेखक महोदय हम पात्र आप ही के अंदर रहते हैं, जहां हमारे साथ आपके अतीत के असली पात्र भी रहते हैं जो हमें बताते हैं आपकी कहानी। वो लड़की वहीं भटकती हुई मिली थी मुझे, फटे कपड़े और बिखरे बाल लिए। उसी ने सुनाई थी मुझे कहानी आपकी चरित्रहीनता की।’

मैं एक बार फिर संकट में घिर गया, इस कहानी के चक्कर में मेरा अतीत नए-नए रूप रखकर सामने आ रहा है, और मैं उसे नकार भी नहीं पा रहा हूं। सन्नाटा एक बार फ़िर हम दोनों के बीच पसर गया है।

‘माही’ हिम्मत जुटाकर बोला मैं, ‘तुम उस घटना को अपनी और निशा के साथ वाली घटना के साथ क्यों जोड़ रहे हो ? वह घटना तब की है जब मेरी उम्र ही ऐसी थी। उस घटना में और तुम्हारी वाली घटना में काफी अंतर है, आख़िर तुम्हें एतराज़ क्या है इस बात से ?’

‘लेखक महोदय’ माही बोला, ‘उम्र का चरित्रहीनता से कोई संबंध नहीं होता। तुम अपने आपको यह कहकर नहीं बचा सकते, कि तुमने जो कुछ किया वो कम उम्र की नादानी थी, और मेरा एतराज़ तो इसी बात का है, कि तुमने अपनी चरित्रहीनता मुझ मैं क्यों डाली ? मुझे क्यों माध्यम बनाया अपनी इच्छाएं पूरी करने का ? और वो भी एक ऐसी स्त्री के साथ जो न केवल मुझसे उम्र में बड़ी है, बल्कि मेरी होने वाली पत्नी की बड़ी बहन भी है।’

‘तुम ग़लत समझ रहे हो माही’ मेरा स्वर कमज़ोर हो गया ‘मैं अपनी चरित्रहीनता तुममें नहीं डाल रहा, और यह चरित्रहीनता है कहां ? एक छोटी सी ग़लती ही तो है, मेरी कहानी के लिए यह आवश्यक है, इसीलिए मैंने इसे डाला। और रही बात संबंध की, कि निशा तुम्हारी मंगेतर की बहन है, तो मैं पहले भी कह चुका हूं, संबंध और संबोधन वस्त्रों के आवरण तक ही होते हैं, वस्त्रों से मुक्त होने के बाद केवल शरीर होता है, केवल और केवल शरीर, उसे कोई संबोधन दिया ही नहीं जा सकता।’

क्रमश....