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चाँद से गुफ्तगू

" चाँद से गुफ्तगू "

कल पूनम के चांद पर मन जा अटका। बड़ी सी गोल बिंदी जैसा... प्रकृति मानो सितारों से भरी चुनरी पहने,बड़ी सी बिंदी लगाए मुझे मेरी खिड़की से निहार रही थी।मैंने घड़ी देखी रात के दो बज रहे थे।नींद आँखों से लगभग गायब हो चुकी थी।कई पलों तक हम दोनों एक दूसरे में उलझे रहे... चाँद मुझ में और मैं चाँद में।
चाँद ने मुझसे पूछा- "कैसी हो ?"
मैंने कहा- "कैसी रहूँगी, ठीक ही हूँ...तुम तो स्वतंत्र विचरण कर रहे हो,हम यहाँ बँधे पड़े हैं..घर में... न कहीं आना, न जाना, न किसी से मिलना-जुलना.."
सुनकर चाँद बहुत जोर से हँस पड़ा।उसे हँसता देख मेरा मन बहुत क्षुब्ध हो उठा,लगभग खीज गई मैं-"इसमें हँसने जैसा क्या है ? हम सभी लोग बंधन में रहने पर मजबूर हुए जा रहे हैं और तुम हमें देख कर हँस रहे हो...?"
चाँद और बड़ा सा मुँह खोल कर हँसने लगा। रात के राजा को इस कदर हँसते देख सारे सितारे भी मुस्कुराने लगे।अपना परिहास होते देख मैं आग बबूला हो उठी- "देख चंदा, तू खुद स्वतंत्र है तो बँधे लोगों का मजाक न बना.. स्वतंत्रता हर जीव का मौलिक अधिकार है....जरा सोच, जब तुझे राहु-केतु जैसे ग्रह बाँध लेते हैं और तू बेबस सा छटपटाता है, तब कैसा लगता है तुझे...?हम भी तो एक महामारी से पीड़ित हैं आजकल...मुरझा सा गया है मानव... बेबस है,लाचार है बेचारा.. हमारी हँसी न उड़ा।"
अबकी क्रोध करने की बारी चाँद की थी।वह लगभग गुस्से में तंज करता हुआ बोला -"अच्छा...यह महामारी क्या यूँही आई है..?जरा खुद को टटोल कर देख तो...मनुष्य ने प्रकृति के साथ कैसा खिलवाड़ किया है ?बरसों शोषण करते रहे हैं...हरियाली का, नदियों का, पहाड़ों का, स्वच्छ हवाओं का...चंद कागज के रुपयों के लिए , जमीन के टुकड़े पर अपना वर्चस्व बताने के लिए...? क्या यह सब हास्यास्पद नहीं है? अरे क्या लेकर जाओगे तुम सब अपने साथ..? हँसी आती है मनुष्यों की इस मूर्खता पर... युगों से विचरता रहा हूँ, देखता रहा हूँ सब कुछ...मनुष्य जब स्वार्थी हो जाएगा और अपने सिवा उसे किसी की फिक्र नहीं होगी तो यही परिस्थिति बनेगी न... ?प्रकृति सब कुछ मुफ्त में देती है तो क्या बर्बाद करते रहोगे..? और अब जब दुष्परिणाम दिख रहा है तो स्वतंत्रता को रो रहे हो..?अभी दो महीने ही तुम सब घरों में बंद रहे हो पर प्रकृति में कैसे-कैसे सकारात्मक बदलाव आ रहे हैं,देखो जाकर... स्वच्छ साँसे ले पा रही है चारों तरफ की प्राकृतिक धरोहर...नदी का जल निर्मल होने लगा है... पेड़ पौधे हरे पत्तों से भर गए हैं...आसमान स्वच्छ है...दिन-रात रौंदी जाने वाली सड़कें थोड़ा आराम कर पा रही हैं..शोरगुल से डरे छिपे जानवर अब खुशी से घूम रहे हैं... चारों तरफ हवाएँ झूम रही हैं.. बादल अठखेलियाँ कर रहे हैं...क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं कि मनुष्य ही प्रकृति का दुश्मन बना हुआ है...? मनुष्य के स्वार्थ और दहशत से कैसे डरे सहमे से थे सब के सब।अपनी अस्थायी खुशी के लिए कितना बुरा बर्ताव करते थे प्रकृति से तुम सब...अब पता चला दहशत क्या होती है...डरना सहम कर रहना किसे कहते हैं...?"
मैं क्या जवाब देती चाँद सच ही तो कह रहा था।मनुष्य ने प्रकृति के साथ जो दुर्व्यवहार किया है उसकी सजा तो उसे मिलनी ही चाहिए ।ईश्वर सब के पिता हैं... वह किसी के साथ अन्याय थोड़े ही होने देंगे..आज वह अपने बेजुबान बच्चों के साथ हैं और मानव के लिए उन्होंने अपने द्वार ही बंद कर रखे हैं।मेरी आँखें झुक गयीं। मैंने कहा-"तुमने मुझे आईना दिखा दिया है दोस्त...मैं तुमसे वादा करती हूँ, अब आजादी का गलत फायदा कभी नहीं उठाऊँगी.. न अपने आसपास किसी को ऐसा करने दूँगी...सब ठीक हो जाए फिर प्रकृति की हर धरोहर से उतनी ही प्रेम करूँगी और उन सभी का उतना ही ख्याल रखूँगी जितनी अपने आप से प्रेम करती हूँ या अपनों का ख्याल रखती हूँ ।"
मेरी बात सुनकर चाँद मुस्कुराने लगा। एक प्यारी सी किरण मेरे गालों पर आ पड़ी मानो वह मुझे अपने हाथों से सहला रहा हो...फिर अचानक मुझे लगा कि जगह बदल कर वह मेरी खिड़की की तिरछी तरफ पहुँच गया है ।
मैंने पूछा-"कहाँ जा रहे हो...अब नींद उड़ा ही दी है तो बातें करो।"
चाँद मुस्कुरा उठा- "अब चलता हूँ...तुम्हारी तरह और दोस्तों से भी तो मिलना है। कल फिर आऊँगा मिलने तुमसे..."
हाथ हिलाता चाँद आगे बढ़ गया। मेरे चेहरे पर भी मुस्कुराहट फैल गयी और मैं उसकी कही महत्वपूर्ण बातों को सोचते-सोचते न जाने कब सो गयी।
अर्चना अनुप्रिया।