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भई यह दुनिया है दुनिया

भई यह दुनिया है दुनिया

सुभान भाई के घर से अलस्सुबह सयास ही दहाड़ मारू रूदन का सोता फूट पड़ा तो मोहल्ले वाले जान छोड़ कर दौड़े-

‘‘...क्या हुआ...क्या हुआ....?‘‘

‘‘...सुभान भाई निकल लिए।‘‘ -किसी ने इत्तेलाअ दी।

‘‘...इन्नल्लिल्लाहू...‘‘- बड़े अदब से पढ़ा गया।

लकुआग्रस्त सुभान भाई करीब साल भर से अपाहिज होने की त्रासदी झेल रहे थे । साल भर पहले की बात है, वह मस्जिद जाने के लिय निकले तो दरवाजे पर ही लड़खड़ा कर गिर पड़े। बाहर आ जा रहे लोगों ने दौड़ कर उन्हें सम्भाल लिया। फिर घर में वापस पहुंचाया। कभी सीधे मुँह बात न करने वाली पत्नी रजिया बेग़म ने दौड़ कर उन्हें थाम लिया। लड़के भी आगे दौड़ आए। उन्हे पलंग पर लिटाया गया और तबसे वह लेटे ही रह गये। अब दवाओं का दौर शुरू हुआ। अपनी कुव्वत के मुताबिक बेटों ने इलाज पर अच्छा पैसा खर्च किया। किन्तु पैरालाईज का मरीज मुकम्मल स्वस्थ ही कहाँ होता है। फिर जब गरीबी और अभावों का मारा हो तो। हाँ इतना हुआ कि इतने दवा दारू के बाद वह गलबला के बोलने लगे थे। किन्तु साल भर दवा दारू के बाद अजिज आ कर बेटों नें इलाज को वहीं विराम दे दिया। कोई कब तक इलाज करे। फिर ठीक होने की कोई गुन्जाईश हो तब तो। यहाँ पेसा फेंको, वहाँ पैसा फेंको। उन्होंने कभी ये नहीं सोंचा कि उनके इन्ही पिता ने उनके लिये क्या -क्या नहीं किया होगा। इलाज तो इलाज उनके छोटे-छोटे शौक भी पूरा करने में सुभान भाई ने कोई कोर कसर बाकी न रखी। बड़े बेटे ने कहा-‘‘साईकिल नहीं है‘‘ उन्होंने अपनी साईकिल बेच कर कुछ पैसे और मिला कर उसे नई साईकिल दिलवा दी। खुद पैदल चलने लगे। बीबी ने कहा-‘‘घर में टी0वी0 नहीं है‘‘ वह कर्ज ले कर टी0वी0 ले आए। बेटियों ने उलाहा-‘‘ वाशिंगमशीन तो हो ...‘‘ उन्होंने वेतन पर लोन ले कर घर में वाशिगमशीन सजा दी। किन्तु आज....?

सुभान भाई तहसील के मुख्य डाकघर में बाबू थे। दो वर्ष पूर्व रिटायर हुए थे। चार बेटे तीन बेटियों का भरा पूरा परिवार। बेटियों को ग्रेजुएशन तक पढ़ा-पढ़ा के ब्याह दिया था। बेटे हल्के-फुल्के कामों से लग गए थे। हालांकि पढ़े लिखे बेटे भी थे। मगर ‘‘मुसलमान के लिए हिन्दोस्तान में नौकरी कहा?‘‘- ऐसा सुभान भाई का निजी ख्याल था। उनकी तनख्वाह कुल 12,000 थी। जिसमें स्वयं को मिला कर पेट से लेकर टेंट तक पलती थी। कभी-कभी वह हलकान हो जाते। लम्बे परिवार की गाड़ी अकेले चलाना आसान थोड़े ही है। इस पर भी खास कर उनकी बेग़म रजिया का मुँह तो बना ही रहता-

‘‘...हूँ...ह..ऐसा घर, न मुँह का कौर, न रहनेक ठौर...‘‘

-सुनते तो सुभान भाई का जी बैठने लगता। जेहन फटने लगता। जैसे किसी ने रिसते जख्म को बड़े-बड़े नाखूनों से कुरेद डाला हो। जैसे गर्म शोलों पे उंगली रख दी हो। चुप लगा जाते। किन्तु यही चुप भीतर दहाड़ें मार के रोती। बेटियाँ ढाल बन जातीं-

‘‘अम्मी, कभी इन्सानी खुलूस के साथ भी जी लिया करो, अब्बू तुम्हें जबरन उठा के थोड़े ही लाए होंगे। नाना-नानी ने ही यहाँ ब्याहा होगा। शिकायत करना हो तो जा कर उनसे करो..‘‘

-ऐसे ऊल जलूल तप्त जवाबों या प्रहारों से बेगम के नथुनें फूलने लगते। घूरतीं बेटियों को।...ऐसी बद्जबानी। अलबत्ता बेटों को ज़रूर बेग़म ने कब्जे में कर रखा था और उन पर ही कूदती थीं। इस तरह एक समानान्तर कलह बनी रहती। व्यथित सुभान भाई जा कर मस्जिद में पनाह लेते और अल्लाह को उलाहते-

‘‘...तू ही कुछ कर...मगर तू कुछ नहीं करेगा‘‘

-किन्तु किया। अल्लाह ने इतना किया कि उनकी तीनों बेटियों को अच्छे-अच्छे घर दिखा दिए। बेटे रोजी-रसा से लग गए। मगर रजिया बेग़म ने पंख फटकारने बंद नहीं किए। आहत सुभान भाई बिल्कुल अकेले हो गए। अब कौन ढाल बन कर अएगा जब बेग़म तीर-कमान सम्भालेंगी। पहले बेटियाँ सम्भाल लेती थीं। बेटियों के ही आँचल में वह आश्रय लेते। मगर अब....? बेग़म चारों पहर लत्ते लिए रहतीं। तब उन्हें बेटियों की बहुत याद आती। कभी-कभी वह बेटियों से फोन पर शिकायत भी करते। तब बेटियाँ माँ को फोन करके खूब खबर लेतीं। बेग़म इन सबकी शिकायत बेटों से करतीं। मगर बेटे हँस कर टाल देते। मानों कह रहे हों-‘‘...हमें इस पचड़े में नहीं पड़ना भई।‘‘

बेटों की शादियां हुईं। घर में बहुएं आईं। अब सुभान भाई को बेग़म की छींटाकशी से मुक्ति मिली। अब वह बिन्दास रहते। बिन्दास जीते। रिटायरमेंट हुआ। आजाद हो गए। पेंशन उठाते, बेग़म को भिजवा देते। कुछ अपने लिए रख लेते। इस तरह अब उनको सुकून था। किन्तु अल्लाह की मर्जी देखो। ये राहत भी उससे बर्दाश्त न हुई। रिटायरमेंट के दूसरे ही साल वह पैरालाईज हो गए।...पतझड़ फिर लौट आया। अब पलंग पर ही पड़े-पड़े बीबी की जली कटी सुनते रहने को विवश हो गए।

‘‘....यह सब तुम्हारे अमाल...है..‘‘-वह ताना मारतीं, तो सुभान भाई दरक जाते। जी चाहता कहें-

‘‘...हाँ तुम हरामखोरों को पाला-पोसा इससे बुरे अमाल क्या हो सकते हैं...?‘‘- पर बोल पाएं तब ना..। मन ही मन हाथ मल के रह जाते। रक्तिम-आँखें भर आतीं।

बहरहाल, साल बीतते न बीतते बेटों ने हाथ खड़े कर दिए।-

‘‘अब हमारे पास बजट नहीं है।‘‘ -उनको उनके हाल पर छोड़ दिया गया। किसी को याद आता तो उन्हें दो निवाला खिला आता। वर्ना नहीं। कभी उन्हे कोई जरूरत पड़ती तो देर तक अस्पष्ट आवाज में गुहारते रहते। तब कहीं जा के वहाँ कोई नामुदार होता। बेग़म भी अब लापरवाह हो गई थीं। कुछ नहीं तो उन्होंने दो चार अरबी की ट्यूशनें पकड़ ली थीं मन बहलाव के लिए। दो बहुएं तो बेटों को ले कर उड़न छू हो र्गइं थीं। तीसरी वाली घर बनाए थी। चौथी आई तो उसने भी घर को घर समझा। दोनों बहुएं बारी बारी उन्हें खिलातीं पिलातीं या कभी भूल भी जातीं। कृशकाय सुभान भाई पलंग पर पड़े पड़े पलंग ही हो गए। फिर भी। शरीर भले ही पैरालाईज था। रूह थोड़े ही पैरालाईज थी। सोंच थोड़े कुंद हुई थी। वह जीवित-मुर्दा बने पड़े-पड़े सोंचते रहते कि-‘‘...ये इज्जत व क़द्र अपने अज़ीजों और अजदाद की। कहीं कोई अपना नहीं।‘‘

घण्टों गिड़बिड़ाते रहते तब कोई उधर से गुजरता हुआ उनके पास हो लेता। जिस ओसारे में उनका पलंग पड़ा था, उसी में दूसरी तरफ बकरियाँ बांधी जाती थीं। उनके मेमने खुब उदल-कूद करते। बकरियाँ देर रात तक उनके कान खातीं। इतना कि अब उनके कानों में बकरियों की में...में....के सिवा कुछ ठहरता ही नहीं। किन्तु जब गई रात को मेमने उनके बिस्तर पर गुड़मुड़ हो के उनसे चिमट कर सो जाते तो उन्हें बड़ी राहत मिलती। उनकी गर्माहट महसूस कर वह जीवन से भर जाते। स्मरण हो आता कि कभी उनके नन्हें गुलगुले से बच्चे भी ऐसे ही उनके इर्द-गिर्द चिमट कर सो जाते थे। मन उस वक्त उल्लास से भर जाता। सोंचते-सोंचते सो जाते। अलबत्ता सुबह बेग़म अवश्य हल्ला मचातीं-

‘‘...ओफ्फ, इस बुड्ढे को तो जरा भी अक़्ल नहीं है। बौरा गया है। खुद तो पड़ा-पड़ा हग-मूत रहा है, उपर से जानवरों का मूत भी हमसे धुलवाता है।‘‘

एक रोज सुभान भाई ने लड़बड़ाती आवाज में बेगम से इसरार किया था-‘‘...बेग़म खीर बना दो बहुत जी चाह रहा है खीर खाने का‘‘-वह तमक कर बोलीं-‘‘..हुं...ह...वह दिन गए जब खलीलशाह फाख़्ते उड़ाते थे। बुड्ढे को जायका सूझ रहा है। जो मिले चुपचाप खा लो।....हाँ...नहीं तो...‘‘

उनके भीतर का इन्सान चकनाचूर हो जाता। मन ही मन गुहारते-

‘‘..या...अल्लाह...उठा ले अब...‘‘

और अल्लाह ने सुन ली। मुनकन्नकीर ने उन्हें दोनों बाँहों से थाम लिया। वह जन्नतनशीं हो गए। अब बेग़म पछाड़ें खा रही थीं। सीना पीट रही थीं-

‘‘...हय..हय..कहाँ चले गए हमें छोड़ कर। हमें बेसहारा कर दिया‘‘

-कि बड़ी बेटी आँसू पोंछती समीप आई और उनके कान में फुसफुसाई-‘‘..ऐ अम्मा, ई मक्कारी वाले आँसू मत गिराओ। जो खून के आंसू अब्बू को तुमने रूलाए हैं वह हम भूले नहीं हैं। दोबारा सीना पीट के कारन किया तो ये बात चार के सामने कहूंगी।‘‘ बेग़म को जैसे सांप सूंघ गया। दोबारा चूं तक न निकली। न ही आंसू। बेटे जो़र शोर से उनके कफन दफन की तैयारी करते रहे। हर जगह मिट्टी हा कहला दिया गया। भीड़ बढ़ रही थी। मंझले बेटे का साला आबिद सउदी अरब में टैक्सी चलाता था। वहाॅ भी खबर कर दी गई। और कुछ ही पलों में पूरे घर में खबर फेल गई-

‘‘...आबिद भाई को फोन गया है, वह सुभान भाई के नाम पर उमरा करेंगे।‘‘

‘‘....ओह...क्या किस्मत पाई है सुभान भाई ने। सीधे जन्नत में जाएंगे। उमरा सबको कहाँ नसीब होता है‘‘

‘‘...नसीब की तो बात ही है‘‘- और सुभान भाई की छोटी बेटी तप गई। तपाक से बोली-‘‘...हुं...ह...दोजख़ तो अब्बू झेल ही चुके हैं। अब जन्नत तो उन्हें मिलनी ही चाहिए।‘‘- बड़े भाई ने उसे घूर कर देखा। पर बोला कुछ नहीं। उधर कुछ बुजुर्ग महिलाएं बेग़म को पट्टी पढ़ाए थीं-‘‘...दुल्हन, अब तुम्हारा सुहाग रहा नहीं ,अब चुदियाँ तोड़ दो।‘‘

-हताश बेग़म दीवार पर दोनों हाथ मारने चलीं कि बड़ी बेटी ने हाथ थाम लिए-

‘‘...नहीं, वह चूड़ियाँ नहीं तोड़ेंगी। तुम लोगों का दिमाग खराब हो गया है। सिर्फ तकलीफें बढ़ाने पर ही आमादा हो। जरूरी है कि उन्हे इस बात का एहसास दिलाओ‘?

-बुजुर्ग महिलाएं कानाफूसी करने लगीं। कुछ अकड़ गईं। मगर बहू और बेटियों ने बेग़म को चूड़ियाँ नहीं तोड़ने दीं। बड़ी बहू बोली-‘‘...नहीं अम्मी कुछ मत करना तुम्हें बेटों की कसम। किसी के होने न होने का दर्द हमेशा औरत ही क्यूं भोगे?‘‘

अन्ततः उन महिलाओं ने हार मान ली। खैर कफन दफन हो गया। मिट्टी घर से उठने लगी तो मंझली बेटी की सास और बड़े बेटे की सास ने मशवरा दिया-

‘‘...मिट्टी के साथ ही रजिया आपा को भी दहलीज नंघा दो। आखिर ये ट्यूशन पढ़ाती हैं। बाहर कैसे जाएंगी...तरीका तो यही है?‘‘

-कहना था कि कुछ महिलाओं की लाल मिर्च में सनी आवाजें झनझनाईं-‘‘...नहीं बगैर इद्दत के दिन पूरे किए बाहर कैसे निकल सकती हैं?‘‘

-मर्दों ने भी हाँ में मिलाई। बड़े बेटे की सास ने समझाया-‘‘...कुछेक मौकों पर ऐसा करने की रिवायत है इस्लाम में। अगर बीबी कारोबारी है, नौकरी पेशा है या ऐसा कुछ मसला है कि उसका बाहर निकलना ज़रूरी होता है तो उसे शौहर की मिट्टी के साथ ही बाहर निकाल दिया जाता है। उसके पांव खुल जाते हैं। बाक़ी इद्दत चलती रहती है।‘‘

‘‘...जी नहीं, हमारे यहाँ यह तरीका नहीं है।‘‘ -सुभान भाई के छोटे भाई झल्ला के बोले कि बहुएं फिर आगे आ गईं-

‘‘... नहीं चचा जान, अम्मी को बाहर जाने दें। वर्ना इतने दिनों तक घर में बंद बंद परेशान हो जाएंगी बेचारी‘‘

‘‘...परेशान क्या हो जाएंगी, घर में बैठ कर इबादत करें। नमाजें पढ़ें...।‘‘- सुभान भाई के भतीजे ने उंची आवाज में मशवरा दिया तो छोटी बेटी नूरा तपाक से बोली-‘‘...क्यूँ बैठें घर में, जब बीबियाँ मरती हैं तब तो तुम लोग हफ्ते भर में ही दूसरा निकाह पढ़वा लेते हो और औरत घर में बैठ कर सोग़ मनाए...? तुम लोग घर से बाहर क्यूँ निकलते हो जब बीबियाँ नहीं रह जातीं। क्यूँ घर में बैठ कर नफ़लें नहीं पढ़ते?‘‘

‘‘अ..अजब वाहियाद सवाल है‘‘- कोई मर्द पीछे से बोला कि बड़ी बहन नबीला ने नूरा को परे ढकेल दिया-

‘‘....अब मैय्यत घर में रखी है और यहाँ जंग छिड़ी है।‘‘- तभी बाहर से आवाज आई-

‘‘भई मिट्टी का वक्त निकल जाएगा। जल्द कोई फैसला करिए‘‘

-भीड़ दो समूहों में बंट गई थी। एक समूह चाहता था रजिया बेग़म को दहलीज लंघवा दी जाए। उन्हे घर की उमस से मुक्ति दिला दी जाए जिसमें उनकी बहू और बेटियां भी शामिल थीं। दूसरा समूह उनके सुसराली खानदान वालों का था जो उन्हें इद्दत के दिन पूरे होने तक घर में कैद रखने के पक्ष में था।

अंततः बेटियों और बहुओं के जोर से उन्हे बाहर निकाल दिया गया। अब जो इस रिवायत के खिलाफ थीं वे बड़बड़ा रही थीं।-

‘‘...हुं...ह...सब पढ़ाई लिखाई का नतीजा है कि ये सारी ऐसी जुबान बोल रही हैं और अल्लाह रसूल को ताक़ पर रख दिया है। बस्स इसी लिए हमने बेटियों को नहीं पढ़ाया। भला खूंटे से बंधी तो हैं। दूसरी औरतों ने उनकी हाँ में हाँ मिलाई और बुर्का-चद्दर डाल-डाल नौ-दो-ग्यारह हो लीं।

दूसरे दिन संयूम था। घर में एक अलग तरह की रौनक थी। जैसे बहुत दिनों से कोई चीज़ इस रौनक को बाधित किए हुए थी। और उसके जाते-जाते रास्ता आम हो गया। रजिया बेगम पानदान सम्भाले बैठी सरौते से सुपारी कुतर रही थीं। पास ही तीनों बेटियां घेरे बैठी थीं। सयास वह किसी मारक अनुभूति से सन कर बोलीं-

‘‘...मुझे पता ही नहीं था, तुम लोग मेरे लिए इतना भी सोंच सकती हो‘‘- नबीला पानदान की थाली से डली की छोटी किरची उठा कर मुँह में डालती हुई बोली-

‘‘...ऐसी बात नहीं है। हमने सोंचा, जो इन्सान अब्बू की जिन्दगी में उनसे बंध कर न रह सका, उसे उनकी मौत के बाद उनसे बांध कर क्यूँ रखा जाए।‘‘

‘‘...हाँ अम्मी, हम एक माँ की नहीं एक औरत की हिमायत कर रहे थे। अपकी जगह कोई और औरत होती, तो भी हम ऐसा ही करते।‘‘

-इस एक क्षण में जैसे लरज गईं वह। बेटियों के चेहरे देखती रह गईं।-

‘‘....इत्ता ज़हर...‘‘

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चलीस दिन पूरे होने पर चालसी मनाई गई। जैसे कि हर मुसलमान के घर में मौत के बाद की रस्म है। हर कहीं न्योता गया। उस दिन घर मेहमानों से भर गयां देगें खनकने लगीं। मदरसे से सैा बच्चे बुलवा लिए गए। उन्होंने कुरआन पाक पढ़ कर सुभान भाई को बख्शा फिर दावतें उड़ाईं और चले गए। घर में बकिया शादी का सा माहौल था। मेहमान भी दावतें उड़ा रहे थे। गोश्त, पुलाव, नान चाप, शीरमाल, कबाब...जर्दा। जिन पकवानों को सुभान भाई ने अपनी जिन्दगी में कभी चखा तक नहीं था।

खैर फिर गुजरे हुए सुभान भाई को भी रस्मी तौर पर खाना खिलाने के लिए फातिहा पढ़वाने का इन्तजाम किया गया। खाने की सीनी सजाई गई। छोटे बेटे ने अम्मी के कान में मशवरा दिया-‘‘...अम्मी, अब्बू को बीड़ी बहुत पसंद थी। बहुत शौक़ से पीते थे। क्यूँ न उनकी सीनी में एक बंडल बीड़ी भी.....‘‘-कि अम्मी ने जोर से कान ऐंठा-

‘‘..चुप्प...नासपीटे...जरा भी अक़्ल नहीं है।‘‘- और आगे बढ़ गईं।

-खैर मौलवी साहब आए। खाने पर फातिहा पढ़ी। और खाने की सीनी मोहताज को भेज दी गई। शाम को बड़ा बेटा अम्मी के पास पलंग पर बैठते हुए बोला-

‘‘...अम्मी, अब अब्बू को जन्नत जाने से कोई नहीं रोक सकता। करीब डेढ़ सौ कुरआन शरीफ अब्बू को मिले हैं। आबिद भाई ने उनके नाम से उमरा भी कर लिया है। नसीब की बात है भई।‘‘

उधर खलअ मे अब्बू रूहानी पैरहन से झांकते हुए टीस रहे थे। जैसे कह रहे हों-

‘‘....कमबख्तों! मेरी रूह तो आज भी भूखी-प्यासी है। छटपटा रही है। जीते जी तो मुझे एक बूंद पानी के लिए भी तरसा दिया। अब मरने के बाद मुतंजन खिला रहे हो।‘‘

-दूसरी रूह खिलखिलाई-

‘‘...तुम भी मियाँ, कहाँ हो...ये तुम्हें थोड़े ही खिला रहे हैं। तुम्हें खिलाने का ढोंग करके अपनी मौज मना रहे हैं।...भई,...यह दुनिया है...दुनिया...‘‘

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