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लुप्त होता इंद्रधनुष

लुप्त होता इंद्रधनुष

कैलाश बनवासी

...और सारी आठवीं कक्षा ठहाकों में जैसे नाचने लगी-हा-हा-हा! हो-हो-हो! ही-ही-ही...!

मैं भीतर ही भीतर चोट खाए साँप की तिलमिलाहट से भर गया। मन जाने कैसा होने लगा था। इच्छा हो रही थी, धँस जाऊँ इस कमरे के जमीन के भीतर...बहुत भीतर...जहाँ ये ठहाके मेरा पीछा न कर सके। पर महसूस हुआ, चाहे पाताल ही में क्यों न धँस जाऊँ, ये मेरा पीछा नहीं छोड़ेंगे। सब छात्र मुझी पर खिलखिला रहे हैं। मैं सोचता हूँ, क्या सच बोलने पर ऐसा ही अपमानित होना पड़ता है? मेरी गलती शायद यही है कि मैंने सच कहा। सोनू की तरह झूठ नहीं बोला। यह झूठ नहीं कहा कि मैं भी कई-कई बार कलकत्ता और कई कई बार आगरा देख चुका हूँ । उस सोनू के बच्चे को देखो, उसके बाप ने भी कभी नैनीताल देखा है? कहता है, सर, मैं नैनीताल घूम चुका हूँ। और उसके झूठ पर कोई नहीं हँसा। मैंने सच कहा तो सब हँस रहे हैं! बत्तीसी दिखा रहे हैं!

आज एक खाली पीरियड में चैधरी सर आ टपके। उनका पर्यटन की ओर विशेष झुकाव है। इसलिए अक्सर ही क्लास में पढ़ाना भूलकर दिल्ली के लाल किले या कश्मीर की पहाड़ियों में भटकने लगते हैं। और इसी शीतकालीन छुट्टियों में पचमढ़ी जाने का प्रोग्राम है छात्रों सहित। और इसकी बात चली, तो पूछने लगे बातों ही बातों में कि कौन कौन कहाँ-कहाँ घूमा है? किसने क्या-क्या देखा है?

लड़कों को अपना प्रभाव जताने का इससे बढ़िया अवसर फिर कब मिलता भला!थोड़ी ही देर में देश का कोना-कोना जैसे क्लासरूम की दीवारों के भीतर सिमट आया। सभी ने अपनी देखी जगहों का मिर्च-मसाला लगाकर वर्णन किया। राजेश बम्बई के जुहूतट में भेलपूरी खा चुका है तो विनीत झाँसी का किला देख चुका है। नितिन पिछले वर्ष कन्याकुमारी का मनोहारी सूर्योदय देख चुका है। संजय शिमला में घुड़सवारी कर चुका है। अनिल इसी साल गर्मियों में अपने अंकल के साथ कश्मीर गया था जहाँ बर्फ पर उसने स्केटिंग की थी। ...पर सोनू ने झूठ बोला कि वह नैनीताल गया था। और मैं..?मैं क्या बोलूँ ?तुरंत याद करना कठिन हो गया कि मैं भी कहीं घूमा हूँ। बरसों से इस शहर की बाहर सड़क तक नहीं देखा। हाँ, बहुत पहले गया था अपने दादाजी के गाँव...। मन में आया, मैं भी सोनू की तरह झूठ कह दूँ...किताबों में पढ़ी बातों को बता दूँ..।

सोचते-सोचते ही गला सूख गया...खड़ा हुआ...मेरी बारी आ चुकी थी...गले में कुछ फँस-सा गया हो...घबराकर मैंने सच्चाई उगल दी।

और जवाब में सारी क्लास हो हो कर हँसने लगी। मैं चुपचाप सर झुकाए अपनी सीट पर बैठ गया। जबरदस्ती सामने रखी अपनी किताब के पन्ने उलटने लगा था...यों ही...।

मन एकदम विचलित हो गया था। गले में कुछ भरा-सा। अपने हीन होने का कँटीला अहसास चुभने लगा था। इस चुभन से मेरी आँखों के सामने एक धुंध फैलने लगी थी...इस धुंध में कुछ चेहरे प्रकट होकर पल भर में खोते जा रहे हैं...एक प्राइवेट होटल में नौकर मेरे पिता...बीमार चिड़चिड़ी माँ...सूखी चमड़ी वाले दुबले-पतले पप्पू...पिंकी...और मिनी...।

चार-पाँच सौ की मामूली तनख्वाह में क्या होता है? बाबूजी अक्सर ओवर टाइम की चक्की में पिसते हैं और मैं भी सुबह शाम अखबार बाँटकर सौ रूपये कमाता हूँ। घर का बोझ कुछ कम करने की कोशिश...। लेकिन जरूरतों की थैली कभी छोटी होती नहीं देखी। अस्सी रूपये मकान मालिक की ही झोली में चले जाते हैं सीधे। बाकी रूपयों से छह लोगों की गृहस्थी खिंचनी होती है। एक एक दिन गिनकर महीने की आखिरी तारीख तक। घर के राशन का खर्च...हमारी पढ़ाई-लिखाई का खर्च...कपड़े-लत्ते ...दवाइयाँ...। एक के बाद दूसरा खर्च..।

बाबूजी कितनी ही कोशिश क्यों न करें, बीस-बाइस तारीख तक आते-आते बार-बार अपनी जेब के रूपयों को गिनने लगते हैं और हम सब पर यों चिड़चिड़ाने लगते है जैसे इसके जिम्मेदार हमीं हों!दुबले -पतले बाबू तेज आवाज में हमको गालियाँ बकने लगते हैं जिसे हम सब सहमे-सहमे चुपचाप चुनते रहते हैं। लेकिन डाँटते वक्त उनका हंड़ियल चेहरा भले ही गुस्से से कितना ही तमतमाया हो, एक निरीहता मुझे वहाँ साफ नजर आती है..जैसे उन्हें समझ नहीं आ रहा हो कि वह गुस्सा किन पर हैं..। तब समझ आता है कि यह दरअसल उनका गुस्सा नहीं, बल्कि उनकी असहायता है...स्थायी असहायता...रूपयों की तंगी से उपजी...। , तब पता नहीं क्यों, मेरा मन बहुत-बहुत भीग जाता है। माँ भी चुपचाप रोने लगती है।

--पिछला कब देगा जो फिर लेने आ गया?

--ये दुकान मैं क्या खाली उधारी देने के लिए खोल के रक्खा हूँ!

उधारी और झिड़कियाँ हमेशा साथ मिलती हैं। मुझे अब मोहल्ले के दुकानदार की झिड़कियाँ नयी नहीं लगतीं। मैं इन्हें हँसकर सह लेता हूँ..डाक्टर की सुई की चुभन की तरह, उसकी दी हुई कड़वी गोली की तरह। उस चिड़चिड़ाते और गरियाते दुकानदार से मीठा बोलता हूँ ताकि उसका गुस्सा कम हो। बाबूजी और माँ कहते हैं, बड़ों की डांट का बुरा नहीं मानना चाहिए। वे हमारे भले के लिए ही डांटते हैं। होटल में बाबू मालिक की डांट खाते हैं, मैं दुकानदार से...या किसी सहपाठी से भी, जिसकी कोई किताब मुझे चाहिये होती है। क्लास के अमीर लड़के कई बार मेरी थिगड़े लगे कमीज-पैंट या मेरी घिसी हुई चप्पल का मजाक उड़ाते हैं, तो गुस्सा और शर्म दोनों आती है, लेकिन मैं सह जाता हूँ। शायद सहना ही हमारी नियति है। ...मैं चुपचाप सर झुकाए सोच रहा हूँ। मैं सोचना बंद करना चाहता हूँ, पर बंद नहीं होता। सब कहते हैं कि तू सोचता बहुत है...बोलता कम...।

आखिर मैं इतना सोचता क्यों हूँ?सहसा मुझे खुद की इस आदत पर ही गुस्सा आ जाता है। और इसी गुस्से में तय करता हूँ, चाहे जो हो, मैं इस बार पचमढ़ी जरूर जाऊँगा!जरूर जरूर जरूर जाऊँगा!!मेरी मुट्ठी सहसा संकल्प के आवेश से भिंच उठती है और अपना मुक्का मैं डेस्क पर बजाता हूँ। टूर पर बहुत सारे लड़के जा रहे हैं...रंजन...अनिल...प्रभात...चंद्रकांत...कितने सारे दोस्त!कितना मजा आएगा!हाँ बहुत ही मजा आएगा! कल ही ग्यारह तारीख है...टूर की फीस जमा करने का आखिरी दिन। और आज शाम को ही मुझे मेरे अखबार एजेंट मालिक से इस महीने का वेतन लेना है, जो हर दस तारीख को देते हैं। सौ रूपये। पूरे सौ रूपये! कल ही लाकर यहाँ जमा कर दूँगा। और बाकी तैयारी भी हो जाएगी। टूर पंद्रह को निकलना है। ...हाँ, जमा कर दूँगा, पक्का!...वो इंजीनियर का बदमाश बेटा लोकेश कैसे मुस्कुरा रहा है चश्में के भीतर से। कल बता दूँगा साले को, देख बेटा, मैं भी जा रहा हूँ पचमढ़ी! बच्चू, इतराना हमको भी आता है!

भरपूर उपेक्षा की नजर से मैं उसे देखता हूँ। मुझमें सहसा जाने कहाँ से साहस आ गया है, और अब मुझे कोई संशय नहीं है। मैं अपने बाजू बैठे अनूप से हँस-हँस के खूब बातें करने लगा हूँ। हाँ-हाँ देखो, मुझे भी आता है मुस्कुराना...।

शाम को छुट्टी हुई। मैं बस्ता लेकर घर आ गया।

घर में इस समय एक शांति है जो मुझे बहुत भली लग रही है। असल में पिंकी और मिनी बाहर गली में पड़ोसी बच्चों के संग ‘नदी-पहाड़’ खेल रहे हैं, और पप्पू अपने दोस्त बंटी के साथ उसकी छत पर पतंग उड़ाने में मस्त है। अभी ये तीनों घर में होते तो उनकी चखचख मची रहती, एक-दूसरे से लड़ना-झगड़ना -तूने मेरी पेंसिल क्यों ली, चोट्टी ? वाह! उस दिन तूने मेरी रिबन क्यों बांधी थी, छेपकी?चल तू मेरी पेंसिल वापस कर...। माँऽऽऽ! ओ माँऽऽऽऽ!!उनमें छीना झपटी होती और थेड़ी देर में उन दोनों में से किसी का रोना शुरू हो जाता। और माँ आकर फिर उन दोनों की कुटाई करती...एक मिनट चैन से नहीं बैठ सकते ??

माँ अभी भीतर रसोई में जुटी है। चाय बना रही हैं। बाबूजी के आने का समय हो रहा है।

मैं भी बहुत बेसब्री से बाबू की राह देख रहा हूँ, कुछ ऐसे मानो मेरी गाड़ी छूटने वाली है। बाबू की साइकिल लेकर ही तो मैं अखबार के एजेंट अग्रवाल जी के घर जाऊँगा। आते ही अपने पचमढ़ी जाने की बात कहूंगा। बाबू मना थोड़ी करेंगे। वो तो मुझसे खुश रहते हैं कि मैं उनका कमाऊ पूत हूँ!बाबू तो खुद मूड अच्छा होने पर जब-तब किसी न किसी से कहते रहते हैं, अरे चेतन तो मेरा बहुत समझदार बेटा है!

फिर भी मेरे भीतर एक डर है, कहीं मना कर दिए तो...?नहीं. नहीं। भला ऐसा कैसे हो सकता है?मैं तो उनकी हर बात मानता ही हूँ..। भला क्यों मना करेंगे वो..? और कितने दिन बाद तो मैं उनसे कोई फरमाइश करूँगा!मैं इसी उधेड़बुन में था कि बाहर उनकी खड़खड़िया साइकिल रखने की खड़खड़ाहट हुई। न जाने क्यों आज मेरा जी एकदम घबरा रहा है...जिस दिन परीक्षा का रिजल्ट निकलता है न, वैसे ही।

बाबूजी कमरे में आए। थके हारे से, रोज के जैसे ही। मेरा उत्साह कुछ ढीला पड़ गया। मैं उनसे उनके थैला लेकर उससे सामान निकालने लगा। घर के लिए सौदा-सुलुफ के साथ अक्सर होटल के रद्दी अखबार या पत्रिकाएं उठा लाते हैं, या किसी ग्राहक के द्वारा छोड़ी गई पेन, डायरी, पेंसिल, साबुन...।

मैं ठीक मौके की तलाश में था।

कहना ही चाह रहा था कि बाबू को सहसा याद आ गया, और कहने लगे, ‘‘अरे चेतन!’’उनकी आँखों में खुशी की हल्की चमक उभरी, ‘‘आज तो तेरे को तेरी पेमेंट मिलेंगी न...?’’ कुछ मुस्कुराए, फिर बोले, ‘‘अभी रास्ते में तेरे अग्रवाल जी मिले थे। देख, वे तुझको सत्तर रूपये देंगे...तीस रूपये मैंने बीच में उनसे उधार ले लिये थे। ...आते-आते चैक के रामू सब्जीवाले को पचीस रूपये दे देना...चार दिनों से साला पीछे ही पड़ा है। और हाँ, रास्ते के मेडिकल स्टोर से अपनी माँ की दवाई भी लेते आ जाना...। डाक्टर ने बहुत जरूरी है कहा है। और हाँ भई, कमाई तो तुम्हारी है...आज तो कुछ पार्टी-शार्टी होनी चाहिये! ऐसा करना , अब्दुल के यहाँ से दालमोठ ले आना...वो कुछ सस्ता बेचता है बेचारा...। ’’

मैं सारी बातें सुन रहा था, फिर भी लगा, मैं सुन नहीं पा रहा हूँ । जी में आया, सब बता दूँ। पर भीतर कुछ अटक सा गया। आँखों के आगे घर के लागों के चेहरे घूमने लगे...माँ, बाबूजी, पिंकी, मिनी, पप्पू...फिर पचमढ़ी की पहाड़ियाँ...हरे-भरे जंगल...नयी आभा से दमकता सूरज...हँसी मजाक करते हम दोस्त...खुलकर खिलखिलाते...ठहाके लगाते...। फिर सब गड्ड-मड्ड होने लगा। इसी पल सोचा कि कहूँ, लेकिन मेरा उत्साह अपनेआप ठंडा हो चुका था। वह इंद्रधनुष, जो थोड़े समय के लिए मेरे आकाश में बन आया था, अब लुप्त हो चुका था।

मैं बाबूजी की साइकिल उठाकर बाहर निकल आया।

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कैलाश बनवासी

41, मुखर्जी नगर, सिकोला भाठा

दुर्ग (छ.ग.)

मो. 98279 93920