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6. पूजा कैसे करें ?

इति मार्ग की साधना पद्धति

 

6. पूजा कैसे करें ?

 

हमारे महर्षियों ने हमें बताया कि चाहे आप गृहस्थी हैं या सन्यासी, कोई भी हों आधा घण्टा प्रातः काल संध्या-वन्दन अवश्य करना चाहिये और आधा घण्टा सायं काल। यह दो समय निश्चित कर दिये हैं हमारे महर्षियों ने। और हमारे देश में 99 प्रतिशत लोग परमात्मा को मानने वाले हैं, ईश्वर को मानने वाले हैं। और अपने किसी न किसी ढंग से पूजा करते हैं। बहुत लोग आधा घण्टे से ज्यादा करते हैं। यदि हम उनसे पूछें कि इस पूजा से क्या लाभ है तो दो-चार बातें बताने के बाद वह भी खामोश हो जायेंगे। पहली बात यह है कि भाई ईश्वर का नाम लेना अच्छी बात है। हमारे घर में मन्दिर है, हमारे दादाजी पूजा करते थे, हमारे पिताजी करते हैं, हम करते हैं, हमारी देखा-देखी हमारे बच्चे भी करते हैं। ईश्वर-परस्त (God fearing) हैं। अच्छा है, और आप इससे ज्यादा क्या चाहते हैं ? अगर हम यह पूछें कि इससे क्या कोई आन्तरिक लाभ हुआ तो बहुत कम ऐसे लोग हैं जो यह कहेंगे कि हाँ हुआ। तो इन सन्तों ने कहा कि हम एक तरीका बताते हैं। यदि आप इस तरीके से पूजा करेंगे तो आपको विशेष लाभ होगा और उन्होंने ऐसा तरीका बताया जो Universal (यूनीवर्सल) है। जिसे हर कोई अपना सकता है, चाहे किसी मजहब का मानने वाला हो, चाहे किसी धर्म का अनुयायी हो। अपने धर्म के मत पर चलते हुए कर सके, ऐसी बात बताई। वह method (तरीका) मैं आपके सामने रखूँगा ।

संसार में हर मजहब में दो तरह के व्यक्ति हैं। एक साकार पुजारी, दूसरे निराकार पुजारी। यह बहुत पुराने जमाने से चले आ रहे हैं, नयी बात नहीं है। इनमें आपस में झगड़े भी होते हैं, वाद-विवाद भी चलते हैं, लेकिन यह सब होते हुये भी आज तक दोनों कायम हैं। आज आपको साकार पुजारी भी नजर आते हैं और निराकार पुजारी भी नजर आते हैं। बात ऐसी है कि मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है। किसी को चेहरे से प्यार होता है, शक्ल से प्यार होता है, और कुछ ऐसे है जिन्हें शक्ल से प्यार नहीं होता। जिन्हें शक्ल से प्यार होता है वे साकार पुजारी हैं और जिन्हें शक्ल से प्यार नहीं होता, वे निराकार पुजारी हैं। इन सन्तों ने दोनों के लिए रास्ता बताया। जो साकार पुजारी हैं उनका सर्वप्रथम (Top most) कार्य है एक इष्ट का निश्चित करना और इसके लिए किसी गुरु की आवश्यकता नहीं है। आपकी आत्मा सबसे बड़ा गुरु है। अपनी आत्मा से पूछिये कि भगवान की कौन सी मूर्ति है जो आपको सबसे ज्यादा  प्यारी लगती है। जिसमें आप भगवान की सबसे ऊँची भावना डाल सकते हैं, उसे अपनाइये। उसे अपना इष्ट मानें, उसी की पूजा करें, उसी का ध्यान करें, उसी की याद करें हमेशा, और उसको कभी बदलें नहीं। ऐसा नहीं कि कभी आप राम की पूजा करें, कभी कृष्ण की करें, कभी माँ की करें। अगर रोज-रोज बदलेंगे तो इसका विशेष लाभ नहीं होगा। असल में पूजा का जो मकसद है, वह चित्त की एकाग्रता प्राप्त करना है। और उससे ऊपर उठें तो मैं यह कहूँगा कि विचार शून्यता (Thoughtlessness stage) प्राप्त करना है। ऐसी हालत कि जिसमें विचार-शून्यता आ जाये। वह तब ही हो सकता है जब आपका एक ही इष्ट हो। इसलिये आज तक जितने साकार उपासक हुए, वे सभी एक ही ईष्ट के उपासक थे। सन्त तुलसीदास भगवान राम के उपासक थे। और इतने भगवान राम के उपासक थे कि एक बार वे द्वारिकाधीश मन्दिर, मथुरा चले गये। जब मन्दिर के दरवाजे पर गये तो सबने प्रणाम किया, तुलसीदास जी ने नहीं किया। लोगों ने पकड़ लिया, कहने लगे कि आप तो भगवान के भक्त हैं आपने प्रणाम क्यों नहीं किया ? तुलसीदास जी ने भगवान की स्तुति की और भगवान की मूर्ति का बड़ा सुन्दर वर्णन किया और आखिर में रोकर कहने लगे कि ‘‘तुलसी मस्तक तब झुके, जब धनुष बाण हो हाथ।'' ऐसा कहते हैं कि भगवान के हाथ में धनुष बाण आ गया। तो तुलसीदास जी ने दण्डवत प्रणाम किया। ऐसे एक इष्ट के उपासक थे। ऐसे ही सूरदास थे, भगवान कृष्ण के उपासक थे। उन्हें हर जगह भगवान कृष्ण ही नजर आते थे और उनके साथ भगवान कृष्ण हरदम रहते थे।

 

दर दीवार दर्पण भये, जित देखूं तित तोय,

काँकर पाथर ठीकरी भये आरसी मोय।

 

सूरदास थे, कंकड़ों, पत्थरों में उन्हें भगवान कृष्ण ही नजर आते थे। इस तरह जितने भी साकार भक्त हुए, सब एक ही इष्ट के उपासक थे। इसलिये साकार पुजारी अपना एक इष्ट निश्चित करें, ये बहुत आवश्यक है जिसे आपकी आत्मा कबूल करे, उसी का सच्चा ध्यान बनेगा और चित्त की एकाग्रता प्राप्त हो सकेगी और अगर बार-बार बदलेंगे, और बहुत सी मूर्तियों का ध्यान करेंगे तो पूजा का मकसद पूरा नहीं होगा।

पूजा करने के लिये कुशा या कम्बल का आसन हो, धूपबत्ती या अगरबत्ती जलायें, साफ-सुथरी चादर बिछी हो, सफाई के साथ। रात्रि के वस्त्र बदल लें, तब बैठें। यदि स्नान नहीं कर सकें तो कोई बात नहीं, मुँह हाथ धोकर सुख आसन में बैठें (पलौथी लगाकर)। फिर अपने इष्ट को सामने देखें कि आपका इष्ट सशरीर आपके सामने विद्यमान है, ऐसा विचार कीजिए। फिर भक्तिभाव से भरा कोई भजन (Devotional song) गाइये। तो क्या होगा कि जितने आपके बहिर्मुखी विचार हैं दुनियाँ के, उनसे हटकर मन ईश्वर की तरफ लग जायेगा। और इसके आद जब आप ध्यान करेंगे तो ध्यान बनेगा। पहले बाहर देखिये। जब ध्यान बाहर की तरफ बन जाये तो उस पवित्र मूर्ति को हृदय में उतारिये, बैठाइये। प्यार से बिठाइये, इतने प्यार से कि कोई दूसरा विचार न रह जाये, न दूसरा ख्याल रहे। हमारी आत्मा हमारे मन को देखती रहती है, बताती रहती है कि हम क्या सोच रहे हैं ? जब मन हट जाये तो फिर प्यार से उस पवित्र मूर्ति पर जमायें। फिर न कोई विचार रहेगा, न ख्याल और जब चेतन अवस्था में लौटेगे तो उसी ध्यान में लौटेंगे और उस समय आपको बड़ी सुन्दर अनुभूति होगी कि आपका हृदय, मस्तिष्क आनन्द से भर गया। जितना मस्तिष्क पर भार था, वह हल्का हो गया। यह है पूजा का तरीका, जो इन महात्माओं ने बताया, साकार भक्तों के लिए कि यदि ऐसी पूजा करेंगे तो उसका विशेष लाभ होगा। चित्त की एकाग्रता प्राप्त होगी, सुषुप्ति की अवस्था प्राप्त होगी। धीरे-धीरे सुषुप्ति से सहज समाधि में प्रवेश कर जायेंगे।

दूसरे वे भाई हैं, जो निराकार भगवान के उपासक हैं, जो परमात्मा की मूर्ति नहीं मानते। वे भगवान के नाम को पकड़ें। और उस नाम को चुने जो उनकी आत्मा को सबसे प्यारा लगता है। किसी न किसी नाम से तो याद करते ही हैं। हिन्दू भाई ‘ओउम्‌' नाम, मुसलमान भाई ‘अल्लाह', सिक्ख भाई ‘वाहे गुरु', क्रिश्चियन भाई Christ या God जो उसकी आत्मा को अच्छा लगे, चुन सकते हैं। जो नाम आपकी आत्मा को प्यारा लगे, उसे पकड़ें। फिर आसन तो वही है सुख आसन में पलौथी लगाकर बैठें और हृदय की तरफ निगाह रहे। बड़ी आनन्दमयी अवस्था बनायें और यह ख्याल करें कि जब आपका हृदय धुक-धुक करता है, जो धुकधुकी (Heart Beat) होती है, उसमें से ‘ओउम्‌' नाम, या जो नाम चुना है, वह निकल रहा है। हृदय ‘ओउम्‌, ओउम्‌' कह रहा है। जुबान नहीं कह रही है, (Not by tongue but by thought)। शुरू-शुरू में दिक्कत होती है, तब आप मानसिक जाप कर सकते हैं- ‘ओउम्‌, ओउम्‌, ओउम्‌'। धीरे-धीरे ऐसी अवस्था आती है कि आपको बहुत स्पष्ट सुनाई देने लगता है कि हृदय से ओउम्‌ की आवाज निकल रही है। ऐसी हालत पैदा होती है कि न कोई दूसरा ख्याल रहता है, न विचार। ऐसे उसमें तल्लीन हो जाते हैं, और अपना होश नहीं रहता। अपने आपसे गायब हो जाते हैं, विचार शून्य (Thoughtless) अवस्था बन जाती है। फिर जब चेतन अवस्था में आते हैं, तो वही नाम सुनते होते हैं। फिर हमें अहसास होता है, (feelings) होती है बड़े आनन्द की कि हमारा मस्तिष्क अनुपम आनन्द से भर गया। बड़ी शान्ति मिली।

तो इन सन्तों ने यह तरीका पूजा का बताया। यदि हम ऐसे पूजा करेंगे तो हमें विशेष लाभ होगा। चित्त की एकाग्रता हमें प्राप्त होगी। धीरे-धीरे हम सुषुप्ति से सहज समाधि में प्रवेश कर जायेंगे। धीरे-धीरे हमें आत्म-दर्शन के साथ-साथ परमात्मा का अनुभव होने लगेगा और एक दिन ऐसा आयेगा कि हम उससे एकाकार हो जायेंगे और ज्योति में ज्योति मिल जायेगी।

अकसर यह प्रश्न पूछा जाता है कि आप जो रास्ता बताते हैं वह ध्यान का बताते हैं, यह रास्ता ध्यान-योग का है और जहाँ तक ध्यान का ताल्लुक है, पतंजलि महाराज योग की सबसे अधिक प्रमाणिक एवं मान्य (highest authority) माने गये हैं। पतंजलि महाराज ने योग सूत्र में बतलाया कि ध्यान करने के लिए साधक पाँच अंगुल ऊँचे कुशा के आसन पर सिद्ध आसन में बैठें, नासिका के अग्रभाग को देखें और भौंहों के बीच (आज्ञाचक्र) में ध्यान लगायें, यह बताया। अक्सर प्रश्न यह होता है कि आप हृदय पर ध्यान लगाने को क्यों बताते हैं ? आपके बुजुर्गों ने सद्‌गुरुओं ने ऐसा क्यों बताया कि हृदय पर ध्यान लगायें। इससे एक नया साधक भ्रम में पड़ जाता है कि ऐसा क्यों बताते हैं ? बात ऐसी है कि जहाँ पतंजलि महाराज ने यह रास्ता बताया, उससे पहले उन्होंने इस बात पर बड़ा जोर दिया कि इस ध्यान को कौन कर सकता है ? वह कर सकता है जो बाल ब्रह्मचारी हो, ब्रह्मचर्य पर बड़ा जोर है। यम, नियम, ब्रह्मचर्य। भगवान कृष्ण ने भी यह बतलाया कि कौन अधिकारी है इस ध्यान को करने का, कि जो ब्रह्मचारी है और जिसके माता-पिता का गृहस्थ ब्रह्मचर्य काफी ऊँचा रहा हो, ऐसा व्यक्ति इस ध्यान को करे। अकसर किताबों में पढ़कर हम ध्यान करने लगते हैं लेकिन जो इसकी प्रारम्भिक आवश्यकताऍं (Pre-requisites)हैं, उस पर ध्यान नहीं देते और बड़ी-बड़ी परेशानियों (difficulties) में पड़ जाते हैं। ऐसे बहुत से Cases (वाकयात) इसके सामने आए। किताब पढ़कर या किसी सन्यासी से सीख कर करने लगते हैं। और परेशानी में पड़ जाते हैं। अगर आप ऐसे बैठकर देखें, सिद्ध आसन से बैठें, नासिका के अग्र भाग को देखें, भौं के बीच (आज्ञाचक्र पर) ध्यान लगाएँ, तो आपकी आँखों की जो काली पुतलियाँ हैं, उनकी direction (दिशा) ऊपर को हो जाती है और मस्तिष्क की नसों पर दवाब पड़ेगा। जो ब्रह्मचारी हैं, उनकी नसें तो इस दवाब को बर्दाश्त कर लेंगी, लेकिन जो ब्रह्मचारी नहीं हैं उनकी नसों में यह लोच (flexibility) नहीं हैं। तो क्या होता है, ऐसे व्यक्तियों को  स्नायु-रोग (nervous-break-down) हो जाता है। बाज-बाज की तो ऐसी दशा हो जाती है कि वे किसी काम के नहीं रह जाते हैं।

क्योंकि हम ब्रह्मचारी नहीं हैं, गृहस्थी हैं, हमारा रास्ता गृहस्थ का है, इसलिए हमारे सद्‌गुरुओं ने हृदय से ध्यान करने का रास्ता बताया। हृदय चक्र पर ध्यान करने का विशेष लाभ है। क्या है कि हृदय वह स्थान है, जहाँ से खून का दौरा हमारे शरीर में होता है, Blood (रक्त) का पम्पिंग स्टेशन है और यदि हृदय राम नाम से रंग जाये, तो हृदय से जो खून जायेगा, वह परमात्मा के नाम में रँगा हुआ होगा। शरीर की हर नस परमात्मा के नाम में रंग जायेगी। शरीर के हर भाग से परमात्मा की याद आना शुरू हो जायेगी। पहली बात तो यह है। और दूसरी बात क्या है कि हृदय भावनाओं का केन्द्र है (Heart is the centre of feelings) अच्छी-बुरी सारी भावनाएँ हृदय से पैदा होती हैं। अगर हृदय राम नाम से रंग जाए, तो इससे अच्छी और ऊँची भावनाएँ पैदा होंगी। परोपकार, विश्व प्रेम(Universal love), ऊँचे-ऊँचे भाव पैदा होंगे। और ऐसे सुन्दर गुण पैदा होंगे, जिनकी हमें इस दुनिया में बहुत जरूरत है। और अध्यात्म मार्ग में तो है ही। और तीसरी बात क्या है ? आत्मा का स्थान हमारी हृदय गुह्य में है (innermost recesses of the heart) तो कहीं से भी शुरू करें, जब तक हृदय चक्र जागृत नहीं होता, परमात्मा नहीं मिलता। जब तक हमें उस प्रभु की हृदय से याद नहीं आती, परमात्मा नहीं मिलता। परमात्मा हृदय की सच्ची याद से मिलता है। तो इसलिए इन सन्त-महात्माओं ने हृदय से ध्यान करने को बताया। चौथी बात यह है कि जब आप हृदय से ध्यान करते हैं तो आप आनन्दमयी अवस्था बनाते हैं और आपकी दृष्टि नीचे की तरफ होती है। मस्तिष्क पर कोई दवाब नहीं पड़ेगा (no pressure, no strain) कोई दवाब और तनाव नहीं। जब आप पूजा मे बैठें, तो आनन्दमयी अवस्था बनाइये, परमात्मा से प्रार्थना करें कि प्रभु आपके चरणों में विश्राम चाहता हूँ ध्यान नहीं चाहता हूँ। सच्चे विश्राम के माने ध्यान है। ऐसा सुन्दर विचार करके पूजा शुरू करें, तो आनन्द ही आनन्द रहेगा। विशेष बात है कि हमारे प्राणों का चित्त की एकाग्रता से बड़ा सम्बन्ध है। जैसे-जैसे चित्त एकाग्र होता चला जाता है, वैसे.वैसे हमारे प्राणों की गति ऊपर को होती चली जाती है, ऊर्ध्वगामी हो जाते हैं। जितना हम दुनियाँ का चिन्तन करते हैं, कामिनी-कांचन का चिन्तन करते हैं उतना ही हमारे प्राणों का जमाव (concentration) गुदा में, जंघा में होता है। जितना हम ईश्वर का चिन्तन करते हैं, हमारे प्राण ऊर्ध्वगामी होते चले जाते हैं। एक दिन ऐसा आता है कि ध्यान तो हम हृदय पर करते हैं, लेकिन गुलगुलाहट भौं के बीच में होती है और हमारे बुजुर्गों सत्गुरुओं की कृपा से वह हालत अपने सत्संग में बहुत लोगों को बहुत जल्दी प्राप्त हो जाती है। थोड़े से अभ्यास के बाद भौं के बीच गुलगुलाहट भी होती है और जब यह स्वतः ही (automatic) होने लगे तो हृदय से शुरू करके यही ध्यान आज्ञा-चक्र पर कीजिये, अब कोई खतरा नहीं। आज्ञा चक्र खुल चुका है, यहीं ध्यान कीजिए। तो हम शुरू हृदय से करते हैं, लेकिन धीरे-धीरे बहुत सरलता के साथ हम पहुँच वहीं जाते हैं, ‘आज्ञा चक्र पर'। साल दो साल सत्संग में जाने के बाद और सत्संग के प्रोग्राम, भण्डारे में सम्मिलित होने (attend) करने के बाद बहुत जल्द यह अवस्था साधक को मिल जाती है कि जब उसके आज्ञाचक्र पर स्पन्दन होने लगता है। कुछ लोगों को तो काम करते-करते भी ऐसा होने लगता है। आफिस का काम कर रहे होते हैं, और आज्ञाचक्र पर स्पन्दन होता रहता है, अब कोई खतरा नहीं है। इसलिए हमारे सत्गुरुओं ने ध्यान हृदय पर बताया, ताकि बड़ी सरलता से काम बन जाये और हमारे अन्दर ऐसे सुन्दर गुण पैदा हों जिनकी हमारे गृहस्थ जीवन में बड़ी आवश्यकता है।

तो इन सन्तों ने यह तरीका पूजा का बताया। यदि हम ऐसे पूजा करेंगे तो हमें विशेष लाभ होगा, चित्त की एकाग्रता हमें प्राप्त होगी। धीरे-धीरे हम सुषुप्ति से सहज समाधि में प्रवेश कर जायेंगे। धीरे-धीरे हमें आत्मा का और फिर उस परमात्मा का अनुभव होने लगेगा और एक दिन ऐसा आयेगा कि हम उससे एकाकार हो जायेंगे और ज्योति में ज्योति मिल जायेगी।

इन सन्तों ने इस बात का विशेष ध्यान रखा कि हमारे काम का समय न लिया जाये। पहली सीढ़ी का दूसरा Sub step (उपविभाग) क्या है? हर मनुष्य भोजन करता है और भोजन करने में आधा घण्टा दोपहर और आधा घण्टा रात्रि को लगाता है। यह समय ऐसा है कि खाली है। दुनिया के व्यवहार का आप कोई काम नहीं कर रहे हैं। इस भोजन करने के तरीके में परिवर्तन लाना पड़ेगा और वास्तव में हमारा पुराना तरीका यही था जो आपके सामने रखूँगा ।  पश्चिमी सभ्यता (western culture) की हमारे ऊपर छाप पड़ी और हमारा स्टैन्डर्ड (Standard) ढ़ाई फुट ऊँचा हो गया। पहले जमीन पर बैठकर भोजन करते थे। अब मेज कुर्सी पर बैठकर भोजन करते हैं। इस बात में कोई हर्ज नहीं, विशेष हर्ज यह है कि जितने दुनियावी वार्तालाप (Material Discussion) होते हैं, वह खाने की मेज पर होते हैं, क्योंकि हमने अपने को Westernised कर लिया है, पश्चिमी सभ्यता को अपना लिया है। इस तरीके में तबदीली (परिवर्तन) लानी होगी यदि आप आध्यात्मिक जिन्दगी (Spiritual Life) चाहते हैं और वह परिवर्तन क्या है कि जब भोजन आपके सामने आ जाये, तो भगवान को अर्पण कर दीजिये और हर ग्रास (कौर) भगवान की, अपने इष्ट की याद में खायें। न कोई ग्रास बिना परमात्मा की याद के पेट में जाये और न कोई चीज बिना परमात्मा की याद में पियें। यह है अभ्यास। भोजन की एक विशेषता है। भोजन जिन विचारों में डूब कर किया जाता है, खून जो बनता है उन्हीं विचारों का रंगा हुआ बनता है। अगर आप भोजन भगवान की याद मे करेंगे तो दिन में जब भी खाली होंगे, ईश्वर की याद स्वतः ही (automatically) आयेगी। भक्ति के लिये जब तक आपका खून नहीं बदल जाता (Unless blood changes) भक्ति नहीं आती। भगवान कृष्ण ने गीता में साधन की दृष्टि ये चार विशेष बातें बताई हैं।

 

1) पहली है आहार की शुद्धि,

2) दूसरी है विहार की शुद्धि,

3) तीसरा अभ्यास और

4) चौथा है वैराग्य।

 

तो यह है आहार की शुद्धि जो हमें करनी है। इन सन्तों ने यह आसान तरीका बताया कि कैसे यह सहूलियत से हो जाये। यदि इस तरीके से भोजन करेंगे तो जो खून बनेगा, तो वह परमात्मा की याद में रंगा हुआ बनेगा। जब भी आप खाली होंगे तो ईश्वर की याद स्वतः ही आयेगी, दूसरी तरफ मन नहीं जाएगा। चूँकि आप भोजन परमात्मा की याद में कर रहे हैं और पूजा में भी परमात्मा की याद करते हैं तो यह आधा घण्टा दोपहर का, आधा घण्टा रात्रि का भोजन करने का समय पूजा में बदल जायेगा। और तीसरी क्या बात है कि सन्तों ने बड़ा भारी जोर दिया है, स्वादेन्द्रिय निग्रह पर। जब तक स्वाद पर कन्ट्रोल नहीं हो पाता तब तक आत्मा का सारी इन्द्रियों पर कन्ट्रोल नहीं हो पाता। महात्मा गाँधी जी ने भी अपनी पुस्तक ‘‘ब्रह्मचर्य'' में इस पर बड़ा जोर दिया है। स्वाद पर कन्ट्रोल करने का बड़ा सभ्य और सुन्दर (Rational) तरीका इन सन्तों ने बताया। बहुत से महात्मा तो बड़ा कष्ट उठाते हैं स्वाद पर कन्ट्रोल करने के लिये। कोई फीका खाता है, तो कोई मीठा छोड़ता है, कोई सारी चीजें मिलाकर खाता है, बड़ी तपस्या करते हैं, कोई महात्मा तो घास घोटकर पीते हैं। हमारे सद्‌गुरुओं ने बड़ा रेशनल (Rational) तरीका बताया कि आप परमात्मा की याद में भोजन कीजिये तो स्वतः ही (Automatically) स्वादेन्द्रिय निग्रह हो जायेगा। स्वादों से आप ऊपर उठ जायेंगे।

आपके अब पूजा के दो घण्टे हो गये जैसे कि (आधा घण्टा सुबह पूजा का, आधा घण्टा सायं पूजा का, आधा घण्टा दोपहर भोजन का, आधा घण्टा रात्रि के भोजन का) दो घण्टे पूरे हो गये।

तीसरा Sub step (उप विभाग) उन्होंने यह बताया कि हर मनुष्य सोता है और सोने में औसतन 6 (छः) घण्टे लगाता है, 6 घण्टे सब सोते हैं। उन्होंने बताया कि सोने से पहले 20 मिनट परमात्मा को दें। ज्यादा नहीं सिर्फ 20 मिनट, बहुत बड़ी बात हो जायेगी, विहार की शुद्धि हो जायेगी भगवान कृष्ण ने विहार की शुद्धि पर बड़ा जोर दिया है। कैसे होगी इसका तरीका इन सन्तों ने बताया।

जब दुनियाँ के सारे काम समाप्त हो जायें, आप अपनी चारपाई पर बैठिये। आसन लगाने की जरूरत नहीं है। बैठकर दो काम कीजिये। पहला आत्म निरीक्षण (self-introspection) वह कैसे करें ? अपनी आत्मा से पूछिये कि आज आपसे कोई अच्छा काम बना क्या, ऐसा काम जिससे किसी दूसरे की आत्मा को प्रसन्नता प्राप्त हुई हो। अगर ऐसा कोई परोपकार का काम आपसे बना है तो उसे भगवान को अर्पण कर दीजिये कि हे प्रभु ! आपकी दया-कृपा से बना है, इस सेवक में कहाँ शक्ति है कि इससे कोई ऐसा काम बने। आपने अवसर प्रदान किया और हो गया। O Lord ! You created circumstances. इस अच्छाई को भगवान्‌ के अर्पण कर दीजिये कि आपकी दया-कृपा से हुआ आपको अर्पण है। फिर सोचिये कि आपमें कोई कमी तो नहीं है, खराबी तो नहीं है। अपनी आत्मा से पूछिये, इसके लिए किसी गाइड (Guide) की आवश्यकता नहीं है आपकी आत्मा सबसे बड़ा (Guide) है - Your Soul is your guide. अगर आत्मा कहती है कि नहीं है, तो बड़ी अच्छी बात है। अगर कहती हैं कि झूठ है, कपट है, अपनी जिन्दगी में काम है, क्रोध है, लोभ है, मोह है, अहंकार है। अगर ऐसी कोई चीज नजर आती है तो इसके लिए प्रायश्चित करना बड़ा आवश्यक है और हम भगवान के सामने प्रायश्चित करें कि परमात्मा हमें इन कमियों से मुक्त करें। प्रार्थना बहुत बड़ी चीज है। परमात्मा के सामने अगर ऐसा करते हैं तो भगवान हमारी आत्मा को बहुत ऊँचा उठाता चला जाता है। और प्रार्थना करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि हम अपनी आत्मा से पूछें कि हमसे ये जो काम हो जाते हैं, बड़ी गड़बड़ है तो उनमें से जो सबसे छोटी बात हो उसको पकड़ें, बड़ी को न पकड़ें। आदत वश हो जाते हैं, जैसे गप्प लड़ाने की आदत पड़ गई, इसमें झूठ बोल जाते हैं, इससे कोई फायदा नहीं, झूठ तो झूठ ही है। बिना मतलब झूठ क्यों बोलें ? अगर आपकी आत्मा कुढ़ती है। तो ऐसी छोटी-छोटी बातों को पकड़िये, परमात्मा से प्रार्थना कीजिये कि प्रभो ! हमें ऐसी शक्ति प्रदान करो कि कल से यह जो छोटी सी खराबी है, यह न हो। परमात्मा से वायदा कीजिये और अगले रोज से उस छोटे से दुगुर्ण को छोड़ दीजिये। अगर आप छोड़ते चले जायेंगे तो आपकी इच्छा शक्ति (Will Power) बढ़ती चली जायेगी। धीरे-धीरे बड़ी से बड़ी कमियाँ, खराबियाँ जो आप में हैं, जिन्हें आप सोचते थे, नहीं जा सकेंगी, उनमें भी परिवर्तन होता नजर आयेगा, वह भी छूटती नजर आयेंगी। शर्त यह है कि जिस बात का भगवान से वायदा करें उसे फिर पूरा अवश्य करें, अगर वायदा करके पूरा न करेंगे तो आपकी इच्छा शक्ति (Will Power) घटेगी। वायदा न करना अच्छा है लेकिन वायदा करके फिर पूरा न करना खराब है। जो वायदा करें, पूरा करें। इच्छा शक्ति (Will Power) बढ़ती चली जाएगी।

इसके बाद ईश्वर का (अपने इष्ट का) ध्यान कीजिये और जब ध्यान अच्छा लग जाये तो उसी ध्यान में सो जायें। यह है अभ्यास। अगर यह अभ्यास करेंगे तो इसके बहुत विशेष लाभ आपको मालूम होंगे। जो ऐसे भाई-बहिन हैं जिन्हें ऊटपटांग सपने आते हैं, ऐसे सपने आने बन्द हो जायेंगे और फिर अच्छी नींद sound sleep आयेगी, बेखबर होकर सोयेंगे। फिर जब यह अभ्यास और बढे़गा तो आपके सपने बदल जायेंगे। सुन्दर-सुन्दर सपने आयेंगे, देखेंगे आप पूजा कर रहे हैं। You are sitting in concentration कभी-कभी देखेंगे कि आप अपने इष्ट के मन्दिर में बैठे हैं, पूजा कर रहे हैं। अपने इष्ट का दर्शन, अपने गुरु का दर्शन, कभी सत्संग में बैठे हैं। फिर साधक जब और तरक्की करता है तो बड़े सुन्दर अनुभव खुलते हैं। सोते-सोते अनन्त सूर्यों का प्रकाश नजर आयेगा, सारा शरीर विद्युत से ओत-प्रोत (Electrified) महसूस होगा। जब ऐसा साधक सोकर उठता है तो वास्तव में उसके शरीर में बिजली दौड़ रही होती है, तो बड़ा अचम्भा होता है, बड़ी हैरत होती है। ऐसा साधक जिस ध्यान में सोता है, जब उठता है तो वही ध्यान बना होता है। उसके मुख से परमात्मा का नाम निकलता है। अपने अन्दर ध्यान की सुन्दर अवस्था पाता है। जिस ध्यान की अवस्था में सोया था, उससे अच्छी ध्यान की अवस्था में उठा। जो अच्छे साधक है जिनके आज्ञाचक्र पर स्पन्दन होता है, जब उठेंगे तो वह स्पन्दन और तेज होता मिलेगा। आत्मा यह कहती है कि मैं जिस ध्यान में सोया, रात भर उसी ध्यान में बना रहा। तो छः घण्टे जो सोने के हैं वास्तव में पूजा में बदल जाते हैं।

बात क्या है कि मन का एक विशेष गुण है। मन रात को जिन विचारों में डूबकर सोता है, उन्हीं विचारों में रात भर पड़ा रहता है। हम लोग गृहस्थी हैं, कभी कोई मुसीबत आ पड़ी तो सोने से पहले उसी मुसीबत की चिन्ता होती है, उसी चिन्ता में सो जाते हैं, स्वप्न में उसी मुसीबत को देखते हैं, सुबह उठते हैं, तो उसी चिन्ता में उठते हैं। एक बच्चा है, माँ का दूध पीते.पीते सो जाता है, रात भर चप.चप करता रहता है, मानसिक रूप से (Mentally) दूध पीता होता है। यह मन का विशेष गुण है कि मन जिन विचारों में गहरा डूब कर सोता है, उन्हीं विचारों में पड़ा रहता है। अगर आप ईश्वर की याद में सोयेंगे परमात्मा की प्रार्थना करके सोयेंगे तो रात भर आपका ध्यान बना रहेगा और 6 घण्टे जो सोने के हैं, वह पूजा में बदल जायेंगे।

यह है विहार की शुद्धि जिस पर भगवान श्रीकृष्ण ने बड़ा जोर दिया है। विहार-शय्या ही सच्चा योगक्षेम का क्षेत्र  है जहां साधक को सच्ची प्रगति मिलती है । यह तरीका इन सन्तों ने प्रेक्टीकल बताया कि कैसे सच्चा विहार हमसे बने। इस तरह आधा घण्टा सुबह पूजा का, आधा घण्टा शाम पूजा का, आधा घण्टा दोपहर भोजन का, आधा घण्टा रात्री भोजन का और 6 घण्टे सोने के, यदि हर व्यक्ति चाहे, चाहे कितना ही व्यस्त जीवन (Busy life) क्यों न हों, अपने बना सकता है। 24 घण्टे में से 8 घण्टे अपना जीवन ईश्वरमय बना सकता है। चाहे कितना ही व्यस्त (Busy) क्यों न हों । और  दुनिया के काम करने के लिये सारा समय आपके पास है उसमें से एक भी सैकेण्ड (Second) नहीं लिया गया। सारा समय संसार के व्यवहार व व्यवसाय का आपके पास मौजूद है। यह है साधना का पहला स्टेप पहली सीढ़ी (प्रथम सोपान)।

 

परमात्मा तू ही है, तेरी इच्छा पूर्ण हो।