Teen Aurton ka Ghar - 6 books and stories free download online pdf in Hindi

तीन औरतों का घर - 6

तीन औरतों का घर - भाग 6

हामिदा के निकाह के बाद साबिर का मन भी इस कस्बे से उचाट हो चला था! इस कस्बे में ही उसने जन्म लिया था! बचपन की शरारतें जवानी का अल्हड़पन सभी इस कस्बे में बीता था! उसकी आँखों ने युवावस्था के रंगीन प्रेम के सपने भी इसी कस्बे में बुने थे वह सब उधड़ कर उलझ गए थे और साबिर को यह लगने लगा था इस कस्बे में उसके लिए अब कुछ बाकी नहीं बचा हैं!

हामिदा ने उसकी मुहब्बत को आखिर क्यों ठुकरा दिया! उसका क्या कसूर था! वह यह समझ ही नहीं पा रहा था! उसकी हालत प्रेम के दीवाने मजनू जैसी हो गई थी! सेहत लगातार गिरती जा रही थी! आँखे जैसे कोटर में धंस गई हो और बदन सूख कर मछली के कांटे जैसे हो गया था!

उसकी अम्मी नित नए रिश्ते ढूंढें जा रही थी और इधर साबिर मियां के चेहरे की रौनक उड़ती जा रही थी! वह इस कस्बे से दूर भाग जाना चाहता था! हामिदा की यादों से वह निजात पाना चाहता था!

उसकी अम्मी की बड़बड़ाहट बदस्तूर जारी रहती! " आय ऐसा भी क्या था उस निगोड़ी में जो तू इस तरह बावला हुआ जाता हैं! चुड़ैल जादूगरनी ने न जाने कौन सा टोटका किया हैं! जब से गई हैं मेरे बेटे को दीन दुनिया की कुछ खबर ही नहीं हैं! " अपने माथा पीटते हुए अम्मी अक्सर बड़बड़ाने लगी थी! साबिर की निकाह के लिए बेरुखी अब उसकी अम्मी को चिड़चिड़ा बनाने लगी थी!

इस कस्बे में हामिदा की यादों से पीछा छुड़ाना साबिर के लिए बहुत मुश्किल हो चला था! उसने अपने भाई के पास शहर जाने का फैसला कर लिया! अम्मी ने भी ज्यादा न नुकुर नहीं की! उसकी हालत देखकर वह भी यही चाहती थी! एक दिन साबिर ने वह कस्बा हमेशा के लिए छोड़ दिया और शहर की और रुख कर लिया!

अपना गृहनगर छोड़े हुए साबिर को पच्चीस साल हो गए थे! जिसमें वह इस बीच कभी पलट कर अपने कस्बे में नहीं गया! इन् पच्चीस बरसों में साबिर ने अपनी कड़ी मेहनत और लगन से अपना सूट दुपट्टों का कारोबार अच्छी तरह जमा लिया! उस पर हर समय काम की धुन सवार रहती! दुपट्टों पर कशीदाकारी सूटों के डिज़ाइन यही उसके दिलों दिमाग पर छाए रहते! उसके लिए हामिदा को भूलने के लिए इससे आसान कोई रास्ता नहीं था!

कस्बा छोड़ा , काम में डूबा पर क्या वाकई साबिर हामिदा को भुला पाया! अम्मी की हजार मिन्नतों अरमानो का वास्ता देकर बड़े भाईजान के लाख समझाने पर भी साबिर मियां निकाह के लिए राजी नहीं हुए! साबिर ने जिंदगी अकेले ही गुजार लेने का फैसला कर लिया था! उसका काम ही उसकी दुनिया था! वक़्त ने भी अपनी रफ़्तार पकड़ ली थी! और देखते ही देखते पच्चीस बरस गुजर गए!

इन पच्चीस बरसों में बहुत कुछ बदल गया था! साबिर के काले बालों में नमक की तरह बुरकी हुई सफेदी छा गई थी! आँखो के किनारे झुर्रियों की महीन परत चढ़ गई थी! आँखों में ही नजर के मोटे चश्मे जड़ गए थे! कुल मिलाकर साबिर पर उम्र का असर दिखने लगा था! बुढ़ापे ने उसके जिस्म पर दस्तक दे दी थी! इस बीच साबिर की अम्मी का इंतकाल भी हो गया था!

"साबिर हम लोग शहर में ही बस चुके हैं! अम्मी भी अब रही नहीं ! मुझे लगता हैं हमें कस्बे वाला मकान बेच देना चाहिए!" एक दिन उसके भाईजान बोले!

"जैसे आप ठीक समझे भाईजान!" साबिर ने ख़ामोशी से जवाब दिया! साबिर कुशल और अमीर कारोबारी जरूर था लेकिन हामिदा की जुदाई ने उसे दिल से फ़क़ीर ही बना दिया था! रुपयों पैसो का उसे ज्यादा लालच न रहता था! सारी कमाई भी वह अपने बड़े भाईजान को ही दे देता! उसकी दौलत तो हामिदा का वह खत और फिरोजी रंग की चूड़ी थी जिसे वह अपने कमरे में रखे काले संदूक में रखता था! और रोज रात को सोने से पहले उसे पढता था!

"सुनो हम कल सुबह ही कस्बे के लिए निकल पड़ेंगे! मैंने पड़ोसवाले शकील मियां से बात कर ली हैं! वह हमारा मकान खरीदने को तैयार हैं! वह तो बहुत बार मकान बेचने को कह रहे थे! जिससे वह बीच की दीवार गिरा कर अपना मकान बढ़ा ले! हम कल ही चलेंगे! तुम भी तैयारी कर लो!

कस्बे में जाने की बात सुनकर जैसे साबिर के मन के बरसो से बेजान पड़े तारों में झंकार उठी हो और मकान से भी ज्यादा उसे हामिदा की यादों ने जकड लिया हो!

क्रमश :