Sumandar aur safed gulaab - 2 - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

समंदर और सफेद गुलाब - 2 - 3

समंदर और सफेद गुलाब

3

वह कल शाम से लगातार यही डायलॉग बोल रहा था। न जाने मैं कितनी बार सुन चुका था। मुझे लग रहा था कि सुनते-सुनते मेरे कान पक गए हैं। अभी मैं सोच ही रहा था कि निर्माता के कई चमचे मेरे इर्द-गिर्द इकट्ठे हो गए थे। जैसे मैं कोई अपराधी हूं और वे सब शिकारी कुत्ते जो मेरी बोटी-बोटी नोच लेंगे।

मैंने अपने मन को शांत किया। अपने अंदर के लेखक को जगाया और अपने गुस्से पर काबू रखा। एक चमचे ने कहा, ‘यह मूंछ आपको सूट नहीं करती है इसे कटवा देना।’

मैं कुछ नहीं बोला क्योंकि मूंछें नकली थीं। इसलिए कटवाने का सवाल ही कहां पैदा होता था। इसी बीच डायरेक्टर वहां आ गया और बोला, ‘अगर आप नहीं आ सकते तो कोई और रोल कर लो। बड़े रोल हैं हमारे पास।’

मैं समझ गया कि अब वह असली मुद्दे पर आ गया है। असल में वह खुद यह रोल करना चाहता था इसीलिए उसने सारा नाटक करवाया था। मुझे लगा कि अगर यही सब करना था तो मुझेे टैलीफोन पर ही बता देता।

खैर...! मूर्ख मैं भी निकला जो उसकी बातों को समझ न सका क्योंकि उसने इशारों में तो कई बार समझाया था लेकिन शायद... मेरी ही मति मारी गई थी। चूंकि निर्माता करनाल से था और अनिल का दोस्त था। उसी ने ही मेरी उससे जान-पहचान करवाई थी। जब तक फिल्म शुरू नहीं हुई थी डायरेक्टर के ऊपर निर्माता का प्रेशर था। जो निर्माता कहता, वह हां-हां कहे जा रहा था। क्योंकि डायरेक्टर ने फिल्म शुरू करने के लिए पैसे लेने थे। जब पैसे ले लिए तो बाजी बिल्कुल पलट गई थी। फिल्म शुरू होने के बाद डायरेक्टर के हाथ में पैसा आ गया था और पैसा पानी की तरह बह रहा था इसलिए परिस्थितियां बदल गई थीं अब निर्माता डायरेक्टर के चंगुल में था।

डायरेक्टर की बात सुनकर मैंने भी जवाब दे दिया, ‘नहीं-नहीं.. ऐसी कोई बात नहीं, मैं अगले शैड्यूल में फिर से छुट्टी लेकर आ जाऊंगा।’

मेरी बात सुनकर वह कमीना डायरेक्टर अपनी कमीनगी पर उतर आया और बोला, ‘वैसे भी आपके चेहरे पर पुलिस इंस्पैक्टर वाला रौब नहीं है और आपकी लुक बड़ी ही इनोसेंट है और शरीर भी ढीला-ढाला।’

उसकी बात सुनते ही मुझेे गुस्सा आ गया। मैंने भी तुरंत कह दिया, ‘आपने कभी देव आनंद को पुलिस इंस्पैक्टर के रोल में देखा है? क्या उसका चेहरा रफ-टफ था?... और रही बात स्टाइल की तो वह किसी डायरेक्टर ने ही बनाया होगा लेकिन आप जैसा झंडू डायरेक्टर होता तो पता नहीं बेचारे का क्या हश्र होता?

मेरी बात सुनते ही बोला, ‘तो क्या आप अपने आप को देवानंद समझते हैं? क्या मैं आपको झंडू नजर आता हूं?

मैंने कब कहा, ‘मैंने तो केवल एक उदाहरण दी है।’ कहते-कहते मेरे अंदर का लेखक हावी हो गया था और डायरेक्टर मुझेे एक छोटा-सा खटमल नजर आने लगा था, जो मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता था।

मैंने थोड़ा रुककर फिर कहा, ‘मैं तो यह कहने की कोशिश कर रहा हूं कि अमजद खान से ‘शोले’ फिल्म के डायरेक्टर रमेश सिप्पी ने इतना अच्छा काम लिया कि उसकी छाप आज भी कहीं न कहीं सुनाई देती है। ...और हां आपकी नॉलेज के लिए बता दूं कि ‘शोले’ अमजद खान की पहली फिल्म नहीं थी, लेकिन जो काम उससे पहले के घटिया डायरेक्टर नहीं ले सके, वो रमेश सिप्पी ने ‘शोले’ में ले लिया। ‘गब्बर सिंह’ दोबारा न कभी पैदा हुआ है और न होगा। डायरेक्टर साहब कलाकार तो हर आदमी के अंदर है उससे काम लेना डायरेक्टर के हाथ में हैं। अगर वह काम नहीं ले सकता तो बहुत बड़ा झंडू है।

मेरी बात सुनकर वह तैश में आ गया और बोला, ‘जुबान संभालकर बात करो।’ जैसे ही डायरेक्टर ने इतना कहा, उसके कई चमचे मेरी तरफ यूं लपके जैसे वे मुझे मार ही डालेंगे।

इससे पहले कि तल्खी और बढ़ती, राज बाबू बीच में कूद पड़े। कहने लगे, ‘यार समय खराब न करो। इस बिल्डिंग का किराया पड़ रहा है। लंच होने को है और अभी तक एक भी सीन नहीं कर पाए हैं।’

डायरेक्टर प्रेम बोला, ‘अरे राज बाबू, मैंने तो फोटो देखते ही बोल दिया था कि यह आदमी इस रोल के लायक नहीं है लेकिन आपने मेरी एक न मानी। यहां जितने भी लोग आए हैं, वे सब ऑडिशन पास करके आए हैं और एक आप है जो केवल फोटो देखकर रोल के लिए चुन लिए गए हैं।’

‘तो न चुनते।’ मैंने भी गुस्से में कह दिया।

खैर बात रफा-दफा हो गई। भीड़ छंट गई। सब लोग शूटिंग के लिए शाट्स देने के लिए निकल गए। कुछ लोग मेरा पास खड़े थे। अभी उनका सीन नहीं था। कहने लगे, ‘सर आपने डायलॉग्स तो कमाल के बोले लेकिन यह साला डायरेक्टर है ही हरामी। इस निर्माता के इतने पैसे लगवा देगा कि सारी जिंदगी भी कर्जा देता रहेगा तो नहीं उतरेगा।’

कई इधर-उधर की बातें हुईं। मैं वह जगह छोडक़र वहां से निकल आया और मेकअप रूम में आकर बैठ गया। वहां मैंने फेस क्लीनर लिया और उसे अपने मुंह पर लगाकर रुई से साफ करने लगा क्योंकि मेकअप बहुत गहरा था।

चेहरा साफ करते-करते मैंने अनिल और प्रोफैसर पांडेय को फोन करके कह दिया, ‘जल्द से जल्द यहां आ जाओ।’

उसने कहा, ‘बस अभी निकलता हूं। अगर जल्दी भी आया तो एक घंटा तो कम से कम लग ही जाएगा।’

फोन पर बात खत्म करके मैं फिर से मेकअप उतारने में लग गया। रूई के छोटे-छोटे टुकड़ों से मुंह पोंछ रहा था लेकिन उनको साफ करने में दिक्कत आ रही थी। मैं फिर कुर्सी से उठा तो सीधा वॉशरूम में गया और पानी से मुंह को साफ करने लगा। जेब से रुमाल निकाला और चेहरे को साफ कर दिया। अब मैं इत्मिनान से कुर्सी पर आकर बैठ गया और अनिल का इंतजार करने लगा। कुछ ही देर के बाद मैंने देखा कि निर्माता भी वहीं आकर बैठ गया था।

मैंने कोई बात नहीं की। मुझेे चुप बैठा देखकर फिर से कहने लगा, ‘आप भी फिल्म की भलाई चाहते हैं और मैं भी। हम सब तो बेहतरी के लिए ही काम कर रहे हैं। आप चिंता न करें। अगर आप नहीं आ सकते, तो कल के शैड्यूल में आपका कोई और रोल रख देता हूं।’

मैं चुप रहा। वह फिर कुछ कहने लगा तो मैंने उसे वहीं टोकते हुए कहा, ‘प्लीज इस बात के बारे में कोई चर्चा नहीं होगी।’

वह मेरी शक्ल की तरफ गौर से देखने लगा। उसे शायद मुझसे ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी। फिर शर्मिंदा हुआ कहने लगा, ‘चलिए लंच तैयार है आप खाना खा लीजिए।’

मैंने तुरंत कहा, ‘मुझेे भूख नहीं है...वैसे भी मैं दोपहर को खाना नहीं खाता हूं।’

‘बिल्कुल सादा भोजन है थोड़ा-सा खा लीजिए।’ वह बोला।

‘मैंने कहा न सर, मुझेे भूख नहीं है।’ मैंने फिर कहा।

उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं। बोला, ‘मैं थोड़ी देर में खाना खाकर लौटता हूं।’ उसके साथ ही उसके साथी लोग भी चले गए।

अब मैं कमरे में अकेला ही बैठा था। अनिल का इंतजार कर रहा था। कुर्सी पर बैठे-बैठे मुझेे रात की बातें याद आ गईं, जब डायरेक्टर का बाप यानि मानव जी और डायरेक्टर आपस में झगड़ रहे थे। असल में इस फिल्म का लेखक जिसने स्क्रीनप्ले लिखा है वह डायरेक्टर का बाप ही है। दोनों की आपस में नहीं बनती और अलग-अलग रहते हैं। अनिल बता रहा था, दोनों दूध के धुले नहीं हैं। कमियां दोनों में ही हैं। जब कभी एक-दूसरे के प्रति प्यार उमड़ता है तो दोनों आपस में घी-खिचड़ी हो जाते हैं, पर जब जरा सी कोई बात होती है तो अलग-अलग हो जाते हैं। जब अलग-अलग होते हैं तो एक-दूसरे को जमकर कोसते हैं। कई बार तो मैं बीच में पडक़र समझौता करवाता हूं क्योंकि मेरे संबंध दोनों से हैं।

बेटा कहता है, ‘मेरे बाप ने सारी जिंदगी किया ही क्या है? मेरी मां को सारी जिंदगी तंग करता रहा। एक नफरत की दीवार शुरू से ही खिंच गई मन में। कई औरतों के पास जाता था। वो तो इत्तेफाक है कि, मां मर गई और मैं फिल्म इंडस्ट्री में आ गया क्योंकि मुझेे फिल्म इंडस्ट्री के प्रति क्रेज था। बाप को लिखने का शौक था। वह भी बोरिया-बिस्तर बाध कर मुंबई चला आया लेकिन यहां आकर क्या-क्या नहीं किया? अपनी जमीन-जायदाद भी बेचकर खा गया और यहां पर जब सस्ते फ्लैट मिल जाते थे, तब भी नहीं लिया और आज भी किराए के फ्लैट में ही रह रहा है। अरे! उस सस्ते समय में तो उन लोगों ने भी फ्लैट ले लिए जो लोग दो वक्त की रोटी मुश्किल से कमाते थे। यह किसी राइटर के अंडर राइटर था तो अच्छा-खासा पैसा भी मिलता था। यह मेरा बाप चाहता तो कितने ही फ्लैट ले सकता था लेकिन नहीं....। सुरा-सुंदरी ने इसे बर्बाद कर दिया। अब आलम यह है कि उम्र बीत गई, घुटने चलने से जवाब दे गए, दो कदम ढंग से चला नहीं जाता, फिर भी हर दूसरे दिन किसी सीरियल के लिए ऑडिशन देने जाता है ताकि रोटी-रोजी चल सके। मेरे मन में इसकी हालत देखकर प्यार कम और दया ज्यादा उमड़ती है और मैं फिर इसके साथ रहने लगता हूं। लेकिन साथ रहते-रहते जब मैं इसका चेहरा देखता हूं तो मुझेे मेरी मां याद आ जाती है.. और जब मां याद आती है तो मुझेे मेरी मां का कातिल मेरे इसी बाप में नजर आता है। मैं यह तो नहीं कहता कि मेरी मां को इसने मारा लेकिन पता नहीं क्यों मुझेे लगता है कि कहीं न कहीं इसका भी कुसूर रहा होगा। जब मेरा मन विषाद से भर जाता है तो मैं अलग होने की कोशिश करता हूं, और हो भी जाता हूं।’

सिर्फ यही नहीं अनिल ने डायरेक्टर के बाप के बारे में भी बताया, ‘इसका बाप अलग ही कहानी बयान करता है। वो तो यह कहता है कि ऐसा बेटा भगवान किसी को न दे। अब इस उम्र में मैं अपने साथ-साथ इसका भी बोझ ढोता हूं। माना कि मैंने शराब पी... माना कि मैंने परस्त्री गमन भी किया...लेकिन इसे तो कोई तकलीफ नहीं दी। इसने मेरी गलतियों से कोई सीख तो नहीं ली बल्कि मुझसे कई कदम आगे है...पीछे नहीं। क्या नहीं करता यह..? जितना कमाता है...सारा का सारा शराब में और लड़कियों पर ही तो उजाड़ता है। मैं फ्लैट नहीं ले सका, तो खुद खरीद लेता। इसके पास तो बेशुमार काम है। इतने बड़े प्रोडक्शन हाऊस के साथ जुड़ा है। अरे..वहां के स्पॉट ब्वाय तक किश्तों पर फ्लैट ले रहे हैं...लेकिन यह महानुभाव कहते हैं कि नहीं...हम तो किराए पर ही रहेंगे। यह मायानगरी है। यहां तो भ्रमित करने की चीजें पग-पग पर मुंह बाय खड़ी हैं लेकिन बचना तो खुद ही है। हुंह...खुद को साधु बताता है। जिसके साथ बचपन से प्यार करता था उससे इसकी शादी की। एक ही स्कूल में पढ़ते थे दोनों। शादी करके उसे भी साथ मुंबई ले आया। लेकिन वो कहते हैं न कि..‘वारिस शाह न आदतां जांदियां ने, चाहे कटिए बोटी-बोटी।’ कुछ महीने तो सब कुछ ठीक-ठाक चला। फिर किसी के साथ लिव इन में रहने लगा। पत्नी ने बहुत विरोध भी किया। कभी प्यार से समझाया तो कभी अपने पेट में पल रहे बच्चे का वास्ता भी दिया लेकिन नहीं माना। आखिर इसकी पत्नी ने एक बेटे को जन्म दिया। पोते के जन्म के बाद मैं तो खुशी से गद्गद् हो उठा लेकिन उस खुशी को सेलीब्रेट भी नहीं कर सका क्योंकि इसने पहले ही फरमान सुना दिया कि ‘मेरे घर में आना मना है।’ जीवनयापन करने के लिए बहू ने भी कोई नौकरी ढूंढ ली। दो-तीन साल उसने इसका इंतजार किया। जब यह उसके पास नहीं लौटा तो उसने कोर्ट में तलाक का केस फाइल कर दिया और बच्चे के खर्चे के लिए अर्जी भी दे दी। बस उसी में फंस गया। डाइवोर्स का केस चलता रहा लेकिन अदालत ने बच्चे के लिए 15000 रुपये प्रति महीना खर्च देने का हुक्म दे दिया। इस बीच यह एक बार अपने बच्चे से मिलने के लिए गया तो उसने यह कहकर दुत्कार दिया कि ‘इस बार तो छोड़ रही हूं, अगर अगली बार आए तो पुलिस थाने में शिकायत कर दूंगी। मैंने सोच लिया है इस मायानगरी के सफेद खून के साथ मैं जिंदगी बसर नहीं कर सकती। जिसका खून सफेद हो जाए उसका कुछ नहीं हो सकता।’

अनिल ने आगे बताया, ‘यहीं नहीं... इसका बाप तो यह भी बताता है कि जिसके साथ रिलेशनशिप में रहता था वह टैलीविजन पर आने वाले एक बहुत पॉपुलर शो में काम कर रही थी। वह भी अच्छा-खासा पैसा कमाती थी। बस फिर क्या था एक दिन नौकरी छोडक़र घर आ गया और उसके पैसे से ही ऐश करने लगा। सारा दिन शराब पीकर पड़ा रहता था। हालांकि नौकरी में तो इसे भी अच्छी सैलरी मिलती थी। फिल्म इंडस्ट्री में इसके नाम की तूती बोलती थी लेकिन छोड़ आया नौकरी। इस बात को लेकर उस लडक़ी से भी झगड़ा हुआ और उसने कहा भी कि ‘नौकरी छोडऩे की क्या जरूरत है, आप काम पर जाएं। सारा दिन घर में पड़ा रहना अच्छी बात नहीं।’ लेकिन इसने किसी की नहीं सुनी। कोढ़ पर खुजली वाली उस दिन हुई जिस दिन इसने उससे अपने बेटे को देने के लिए उससे 15000 रुपये मांगे। वह तिलमिला गई और बोली ‘इस बार तो दे रही हूं...लेकिन अगली बार यह उम्मीद मुझसे मत रखना।’

अनिल बता रहा था कि यह सब बातें बताते-बताते इसके बाप ने लंबी सांस भरी और कहने लगा, ‘इसकी लिव इन पार्टनर को और बड़ा प्रोड्यूसर मिल गया जिसने उसे फिल्मों में काम दिलाने का झांसा दिया। वह इसे छोडक़र उसके साथ रहने लगी। इसने गम में और शराब पीनी शुरू कर दी। जान-पहचान अच्छी थी तो लोगों से पैसे उधार लेकर भी पीने लगा। लेकिन कहावत है कि ‘घर बैठे-बैठे तो कुएं भी खाली हो जाते हैं’ वही हुआ इसके साथ भी। काम पर जाता नहीं था। कुछ लोगों से ब्याज पर पैसा उधार लिया था। वे लोग घर पर चक्कर मारने लगे तो इसको होश आया। जब ऐसी स्थिति आती है तो भागकर मेरे पास चला आता है। बाप हूं, गले से लगा लेता हूं। आकर कोई काम नहीं करता। बस... सारा दिन पड़ा रहता है। इसके जूठे बर्तन साफ करता हूं, इसके लिए खाना बनाता हूं लेकिन इसे कोई शर्म ही नहीं है। जब नौकरी करने के लिए कहो, तो आंखें दिखाता है, अनाप-शनाप बकता है। जब कर्जा देने वाले लोगों ने पैसे न लौटाने पर धमकाना शुरू कर दिया तो फिर पता नहीं मन में क्या ख्याल आया और इसने नौकरी ढूंढ ली। ऐसे ही समय गुजरता रहा।

इस बीच कोर्ट का फैसला आ गया और तलाक मंजूर हो गया लेकिन 15000 रुपये महीने के देना इसे गूंगी फांस की तरह चुभता था। एक दिन बड़ा अचम्भा हुआ...जब इसकी पत्नी सुबह ही घर आ गई। जब उसने बार-बार बैल दी..तो दरवाजा मैंने ही खोला। मैं उसे देखकर हैरान रह गया। उसके साथ मेरा पोता भी था। उसे देखकर मुझेे बेटे का बचपन याद आ गया...बिल्कुल इसके जैसा ही था। मैंने अंदर आने के लिए कहा तो बहू अंदर आकर बैठ गई। यह भी उठ गया और उसकी तरफ हैरानी से देखने लगा। मैं चाय बनाने लगा। ये आपस में बात करने लगे। इसकी पत्नी ने कहा, ‘तुमने कई लोगों के हाथ यह संदेश पहुंचाया है कि 15000 रुपये महीने का न लिया करूं.. क्योंकि तुम्हारे लिए पैसा देना मुश्किल होता है। कुछ दिन पहले यह संदेश लेकर अनिल भी आया था। अब मुझेे भी लगने लगा है कि तुम पर यह फालतू का बोझ है। इस शहर में तो अपना बोझ नहीं ढोया जाता फिर किसी और का ढोना तो सच में मुश्किल है।’

मैंने सुना इसने कहा, ‘किसी और का तो नहीं है लेकिन मेरी असमर्थता यह है कि इतना मैं दे नहीं पाता क्योंकि बहुत लोगों से कर्जा लिया हुआ है...उसका ब्याज भी देना होता है। मेरे लिए बहुत मुश्किल हो रहा है।’

बहू ने इसकी बात सुनकर बड़े प्यार से कहा, ‘ठीक है... मैं भी यही सोचती हूं कि आपके बोझ को कम कर दूं। लेकिन मेरी एक शर्त है।’

‘क्या?’

उसने कहा, ‘कुछ खास नहीं..तुम्हें बच्चे के नाम के पीछे से हसीजा हटाना होगा। तुम्हारा नाम मेरे बेटे के नाम के साथ नहीं लगेगा, इसके लिए मैं वकील से बनवाकर कागजात लाई हूं। न ही बच्चे पर तुम्हारा कोई अधिकार होगा और न ही उसके नाम के पीछे हसीजा लगेगा। कमरे में सन्नाटा पसर गया। मैं चाय लेकर उनके पास आ गया। मैं सब देख रहा था, मगर बोला कुछ नहीं। उसने फिर अपनी बात दोहरा दी और कहा कि यह पहला और आखिरी मौका है, अगर आपने साइन नहीं किए तो यह पंद्रह हजार रुपये हर महीने का खर्च तो आपको देना ही पड़ेगा। वह ऐसे बात कर रही थी, जैसे उसका इसके साथ कभी कोई रिश्ता-नाता रहा ही न हो। जैसे उसका खून सफेद हो गया हो। हम सब चाय पीते रहे लेकिन कोई भी एक-दूसरे से बोला नहीं। सन्नाटे को किसी ने नहीं चीरा। आखिर इसके मन में पता नहीं क्या आया। बहू के हाथ से कागज पकड़े और जहां-जहां दस्तखत करने थे, कर दिए। कागज पर्स में डालकर वह उठ गई और बेटे को कहने लगी, ‘यह अंकल हैं इन्हें बाय-बाय करो।’

बेटे ने भी कहा, ‘बाय-बाय अंकल।’ कहते-कहते वह हवा के झोंके की तरह कमरे से बाहर निकल गई।

उसके जाने के बाद यह तिलमिलाया और मुंह में ही बुदबुदाया ...‘अंकल’। गुस्से से दांत पीसने लगा...टेबुल पर पड़ा कप उठाकर उसने जमीन दे मारा।

मैंने इसे समझाया तो मेरे साथ ही उलझ पड़ा।

बूढ़े ने लंबी सांस ली और कहा, ‘उलझने से क्या होता है। कभी-कभी हम अपने इर्द-गिर्द इतने धागे लपेट लेते हैं जिनमें हम खुद ही उलझकर रह जाते हैं। धागों का चक्रव्यूह ऐसा होता है कि उनमें से निकलने के लिए हमें धागों को तोडऩा पड़ता है या वह खुद ही टूट जाते हैं। मेरे बेटे के साथ भी ऐसा ही हुआ....क्योंकि कई दिनों के बाद पता चला कि जिस आफिस में बहू काम करती थी..वहीं उसे किसी लडक़े से प्यार हो गया और उसी से कोर्ट में विवाह भी कर लिया था। पता चला है कि अच्छी प्राइवेट फर्म है। उस लडक़े की ट्रांसफर हो गई है और वह उसके साथ हैदराबाद चली जाएगी। उसकी दूसरी शादी हो गई थी इसलिए कानूनी तौर पर वह पैसे तो ले ही नहीं सकती थी लेकिन इसे मूर्ख बना गई और जाते-जाते बाप से अंकल बना गई।’

बूढ़ा बात करते करते उदास हो गया और कहने लगा, ‘लडक़ी बुरी नहीं थी मैं उसे बचपन से जानता था। कच्ची उम्र के प्रेम को वह सचमुच बाय-बाय कहकर अलविदा हो गई। मुंबई में समंदर का पानी है...लेकिन खारा है। जिसे यह लग जाता है, उसका खून सफेद होने लगता है। जो लोग यहां रहते हैं, उनके तो संस्कार हैं। वह ठीक हैं लेकिन जो लोग बाहर से आते हैं वे लोग इसे पचा नहीं पाते।’ कहते-कहते वह खामोश हो गया और उसकी आंखों में आंसू आ गए थे।

मैंने कहा, ‘आप दिल हल्का मत कीजिए..वक्त सारे घाव भर देता है।’

यह सारा वाक्या सुनकर सोचते-सोचते मेरे मन में जो छवि उन बाप-बेटे की बनी थी वह कम न थी। तिस पर रात को जो घटना घटी उसने तो रही-सही कसर भी पूरी कर दी थी। कल शाम जब मैं फ्लाइट से मुम्बई पहुंचा तो मुझेे एयरपोर्ट पर अनिल लेने आ गया था। उसने टैक्सी में बैठते ही बताया था कि ‘आप बाप-बेटे और प्रोड्यूसर के मामले में मत पडऩा।’

मैंने झट से कहा था, ‘मतलब...?’

उसने भी तुरंत कहा, ‘मतलब यह कि अब ये लोग फिल्म के टाइटल को बदलने की बात कर रहे हैं। कोई कुछ कह रहा है तो कोई कुछ। बाप ने स्क्रिप्ट लिखी है, वह बिल्कुल राजी नहीं कि नाम बदला जाए। इसी बात को लेकर यहां झगड़ा चल रहा है। केवल इतना ही नहीं... यहां वर्कशाप हुई थी। आज सुबह ही हुई थी..वो शायद अब भी चल रही होगी। यहां कुछ डायलॉग्स भी बदल दिए गए हैं।

मानव जी भी इस बात को लेकर खफा हैं। आपस में काफी तू-तू मैं-मैं हुई लेकिन गुत्थमगुत्थी होने से बच गई। बस अब आपसे पूछें तो आप ख्याल रखना। हां...एक बात और मानव जी ने कहा है कि डाक्टर आकाश को मैं अपने पास ही रखूंगा। उन्होंने ही तो कहा है कि आकाश को लेकर सीधे उन्हीं के पास लेकर आना। बातों ही बातों में टैक्सी वाले ने हमारा वार्तालाप भंग किया और पूछा, ‘साहब इस प्वांइट से अब किधर को जाना है?’

अनिल ने समझा दिया, ‘बस अगली गली से दाईं दुकान के सामने उतार देना।’

कुछ ही पलों में हम लोग कृष्ण जी के पास थे। वह देखकर खुश हुए और मुझसे बातें करने लगे। बातों ही बातों में उन्होंने बताया, ‘अभी तो आप भी वर्कशाप अटैंड कर लें और रात का खाना भी यहां और रहना भी यहां। वे लोग पूछें तो बता देना कि आपने यहीं रहना है।’

मैंने भी संक्षिप्त सा उत्तर दिया, ‘ठीक है सर। जब हम एक-दूसरे को जानते हैं, तो यहीं रहेंगे। फेसबुक पर तो कई बार मिले हैं..लेकिन आमना-सामना पहली बार हुआ है।’ मानव जी ने बात जारी रखते हुए कहा, ‘फेसबुक पर जितने आप खूबसूरत दिखते थे, देेखने में उससे भी कहीं ज्यादा दिखते हैं।’

‘शुक्रिया मानव जी...वैसे उम्र के जिस पड़ाव पर हम पहुंच गए हैं, वहां खूबसूरती के मायने बदल जाते हैं। अब सौ बीमारियां साथ लेकर चलते हैं। एक उम्र होती है, जब आदमी अपनी बारे में सब कुछ बताना चाहता है कि मैं यह हूं...मैंने फलां काम करके आसमान पर तीर मार दिया.... और फिर एक उम्र ऐसी होती है, जब आदमी बहुत कुछ छुपाना चाहता है क्योंकि समय सबको लील लेता है। उसकी लकीरें चेहरे से भले ही नजर न आएं लेकिन शरीर को तो एहसास हो ही जाता है। वैसे भी चढ़ते सूरज और ढलते सूरज में अंतर तो होता ही है।’

मानव जी मेरी बात सुनते ही बोले, ‘बात तो आपकी सही है, डाक्टर आकाश। अब देखिए न... आपकी बातों से ही झलक रहा है कि आप एक लेखक हैं...और यहां तो भांडों की मंडी है। कोई किसी की भावनाओं को समझता ही नहीं और न ही समझना चाहता है। और तो और बेटा अपने बाप को नहीं समझता, बाकियों की तो बात ही छोड़ो।’

‘क्यों...क्या हो गया? आप इतने दुखी क्यों हैं?’ मैंने पूछा।

‘कुछ नहीं डाक्टर आकाश... मैं भी एक लेखक हूं और लेखक होने के नाते आप मेरी व्यथा समझ पाएंगे। एक तो यह फिल्म का नाम चेंज करने की बात कर रहे हैं। ऊपर से कई डायलॉग्स चेंज कर दिए हैं। जब मैं कहता हूं, तो कहते हैं कि आपने पुराने किस्म के डायलाग्स लिखे हैं। हम उन्हें क्रिस्पी ढंग से लोगों को परोसना चाहते हैं। भला इनसे कोई पूछे कि कोर्ट की भाषा भी कभी बदलती है। जो सदियों से चली आ रही है वही रहती है। अभी तक काला कोट तक तो बदला नहीं और यह भाषा बदलने चले हैं। कल के छोकरे मुझेे समझाएंगे कि लिखा कैसे जाता है? उम्र बीत गई लिखते-लिखते। यह पहली फिल्म नहीं, जिसकी कहानी मैंने लिखी है। कुछ डिब्बे में बंद पड़ी हैं तो कुछ डायरेक्टरों ने साइनिंग अमाऊंट लेकर अपने पास रख लीं लेकिन फिल्म आज तक नहीं बनी।’

अभी हम बातें ही कर रहे थे कि मानव जी के साथ रहने वाले प्रो. अजय पांडे चाय बनाकर ले आए। हम लोग चाय पीने में बि•ाी हो गए लेकिन मानव जी को चाय कहां सूझ रही थी। वह तो उबल रहे थे और सोच रहे थे कि चाय खत्म हो और प्रोड्यूसर-डायरेक्टर के पास जाया जाए।

हुआ भी वही। चाय खत्म हुई, हम लोग निर्माता और निर्देशक की तरफ बढ़ चले। उन्होंने बताया कि ‘यहां पर दो फ्लैट किराए पर लिए हुए हैं। वहीं पर सारा तामझाम रचा रखा है। कल से शूटिंग शुरू हो जाएगी। यह पहला शैड्यूल है लेकिन आपका रोल तो इसी में खत्म हो जाएगा। दोबारा मुंबई आने की जरूरत आपको नहीं पड़ेगी।’

मैंने भी कहा था, ‘सही है...अब नौकरी से छुट्टी लेकर आना बड़ा ही मुश्किल है।’

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