Sumandar aur safed gulaab - 2 - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

समंदर और सफेद गुलाब - 2 - 2

समंदर और सफेद गुलाब

2

पता नहीं क्यों मुम्बई मेरे दिलो-दिमाग से निकलती ही नहीं थी। मुम्बई नगरी का कीड़ा मेरे दिमाग में घुसा हुआ था। हालांकि मैं रेडियो स्टेशन और टी.वी. पर कार्यक्रम करता ही रहता था। ऑल इंडिया रेडियो पर कई नाटक भी किए थे। वैसे तो मैं थिएटर भी करता था लेकिन समय के अभाव के चलते स्टेज पर नाटक करने बंद कर दिए थे। दिमाग में घुसे मुम्बई के इस कीड़े के चलते शादी के कुछ समय बाद ही मुम्बई जाने की तीव्र इच्छा ने मुझे फिर से जकड़ लिया था। मुझे लगता था, मुंबई मेरी हड्डियों में बसा हुआ था, किसी इश्क की तरह, किसी जुनून की तरह।

...यह बात उन दिनों की है, जब शादी हुए अभी कुछ साल मुश्किल से गुजरे थे। मेरा मन मुंबई की मायानगरी में जाने के लिए फिर से उड़ान भरने लगा था।

मैंने पत्नी से कहा तो कहने लगी, ‘कुछ नहीं पड़ा मुंबई में। यहां आपकी अच्छी-खासी क्लीनिक चलती है और मैं भी कमाती हूं। सबसे बड़ी बात यह है कि आप लिखते हैं और आपका नाम भी है। उस पराये शहर में कैसेे रहेंगे आप? वह शहर तो उनके लिए है, जिनके पास कोई काम-धाम नहीं है।’

मैंने पत्नी की बातों पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा था, ‘मैं उस शहर में पैसा कमाने नहीं बल्कि नाम कमाने के लिए जाना चाहता हूं और वैसे भी जब से होश संभाला है, तब से लेकर जवानी तक मैंने जो सपना देखा है, वह यही है। और हां... एक बात तुम भूली नहीं होगी, मैंने पहली ही रात तुमसे कहा था कि मुंबई जाना मेरा सपना है। तुम उसमें मेरी मदद भले ही मत करना लेकिन मेरा रास्ता कभी मत रोकना क्योंकि आज तक सारी कोशिशें मेरा रास्ता रोकने के लिए ही की गई हैं। मैं अपने पिता को आज तक कोसता हूं और तुम भी वही कर रही हो जो मेरे घरवालों ने किया। तुम बताओ, ऐसे में मेरे घरवालों में और तुममें क्या अंतर है?’

वह निरुत्तर हो गई और उसकी आंखों से गंगा-जमुना बहने लगी। शायद वह जानती थी कि इस गंगा-जमुना को मैं कभी पार नहीं कर पाऊंगा। मैंने बहुत बार कहा लेकिन वह नहीं मानी। हालांकि किसी बात को लेकर हमारा कभी झगड़ा नहीं हुआ लेकिन यह बात जैसे हिंद-पाक में कश्मीर समस्या से कम नहीं थी। शायद, वह अपनी जगह पर ठीक भी थी।

वह अक्सर कहती, ‘आप तो चले जाएंगे और मुझेे दोहरे मोर्चे पर लडऩा है। मैं लोगों को क्या जवाब दूंगी?’

मैं कई बार जवाब में कहता, ‘यह हमारे घर का मसला है। इसमें किसी दूसरे को भला क्या आपत्ति हो सकती है?’

वह चिंगारी मेरे अंदर हमेशा ही सुलगती रहती।

मुझेे याद है, मैंने एक बार कहा था, ‘चलो एक काम करो। तुम मुझेे दस दिन दे दो। इन दस दिनों में मैं देख-भालकर वापस आ जाऊंगा।’

इस बात पर भी वह तरह-तरह के तर्क रखती कभी-कभी कुतर्क भी।

वह जब नहीं मानी, तो मैंने कहा, ‘मुझेे भीख में मेरी जिंदगी के दस दिन दे दो।’

लेकिन चिकने घड़े की भांति उसने फिर तर्क दिया, ‘जी वहां पर तो लोग कई-कई सालों के पड़े हुए हैं। आज तक उनका कुछ नहीं हुआ। फिर आप दस दिन में क्या कर लोगे?’

मैंने भी पलटकर कहा था, ‘वही तो मैं भी कह रहा हूं कि मैं केवल दस दिन तक अपने मन की भड़ास निकाल कर वापस लौट आऊंगा।’

उसने फिर रोते हुए जवाब दिया, ‘वहां से दस दिन में लौटकर कभी कोई वापस आया है? जो एक बार वहां जाता है, वहीं का होकर रह जाता है। अखबारों में ऐसी खबरें रोज आती हैं।’

‘तुम विश्वास रखो, मैं लौट आऊंगा। वैसे भी तुम जानती हो कि मैं झूठ नहीं बोलता।’ मैंने जवाब दिया।

बस फिर गंगा-जमुना बीच में मेरा रास्ता रोककर खड़ी हो जाती। यहां आकर मेरा हर तर्क बंद हो जाता और जुबान से शब्द निकलने बंद हो जाते।

मैंने कई बार कहा था, ‘यह मेरा जुनून है, मेरा इश्क है, मेरा सपना है। सच पूछो तो जिसके लिए मैं छटपटाता हूं, जब मेरा वो सपना टूटता है, तो मैं घायल हो जाता हूं और मेरी बदकिस्मती है कि मेरी जिंदगी निकल रही है लेकिन मुझेे समझने वाला कोई नहीं मिला।’

मैं कई बार मिसाल भी देता और कहता, ‘शायद मैं ही कायर हूं, शायद मैं ही बु•ादिल हूं, शायद मेरे ही सीने में उतनी आग नहीं है जो मुझेे घर से उठाकर ले जाए। मैंने देखा है जिनके सीने में आग जलती है, वह किसी की इजाजत की जरूरत नहीं समझते। जब कोई दो प्रेमी एक-दूसरे से प्यार करते हैं तो वह अंजाम की परवाह नहीं करते और मैं अंजाम की सोचकर ही डरता रहता हूं। शायद यही मेरी कमजोरी है, जिसका फायदा हर कोई उठाने के लिए तैयार है। तुम भी.....।’

आज तो पत्नी ने हद कर दी थी। कहने लगी, ‘अगर ऐसा था, तो शादी न करते। फिर जितनी देर मर्जी रह आते मुंबई। कोई पूछने वाला न होता। अब तो तीन जिंदगियां आपसे बंधी हुई हैं।’

मुझेे भी गुस्सा आ गया और मैंने कहा, ‘क्या शादी करना सचमुच गुनाह है?’

‘मैंने कब कहा..? मैं तो केवल यह कह रही हूं कि मैंने शादी केवल एक डॉक्टर से की थी न कि किसी फिल्म स्टार से।’

‘तो मैं कहां स्टार बनने जा रहा हूं? दस दिन में भला कोई स्टार बन जाता है? इतने दिन में तो शहर की सडक़ों का भी पता नहीं चलता।’

मेरी बात सुनकर बोली, ‘अगर पता नहीं चलता तो पता करके लेना भी क्या है? बच्चे छोटे हैं। मैं कैसे संभालूंगी?’

लेकिन हर बार की तरह वही ढाक के तीन पात यानी गंगा-जमुना के उफान से बाढ़ की स्थिति, जो आसपास की जमीन में उगी हुई फसलों को भी खा जाती है।’

उस दिन मैंने भी सोच लिया था। मैंने अपने एक दोस्त से कहा, ‘यार तुम एक बार बात करके देखो।’ दोस्त और उसकी पत्नी घर आए।

दोस्त ने जब बात की तो जवाब में पत्नी कहने लगी, ‘भाई साहब, अगर बात न बनी तो ठीक है, वापस आ जाएंगे लेकिन मान लो अगर बात बन गई तो...? मेरी नौकरी तो पंजाब सरकार की है। न तबादला हो सकता है और न ही मैं वहां जा सकती हूं। इसका मतलब है, मैं सारी जिंदगी यहां और ये वहां।’

दोस्ती की बीवी ने भी कहा, ‘भाभी जी जाने दो। दो दिन में नानी न याद आ गई तो बोलना। दो दिन में ही आटे-दाल का भाव पता चल जाएगा। यहां तो कभी पानी का गिलास उठाकर भी इधर-उधर नहीं किया, फिर बाहर जाकर तो सब काम खुद ही करना पड़ता है।’

उसकी बात सुनते ही कनिका ने जवाब दिया, ‘यही तो दिक्कत है भाभी जी। यहां तो हमने राजा-महाराजा के समान रखा हुआ है। इसीलिए तो इन्हें यह जिंदगी रास नहीं आ रही और उस जिंदगी को ठोकर मारने पर तुले हुए हैं।’

कनिका कहते-कहते भावुक होने लगी, ‘मैं जानती हूं...इनके चले जाने से हमारा परिवार बिखर जाएगा और बिखरे हुए परिवार को कौन संभालेगा? फिर कोई नहीं आएगा हमारे घावों पर मरहम लगाने के लिए। आप भी एक दिन आएंगी, दो दिन आएंगी। उसके बाद...? फिर अपनी डफली, अपना राग।’

दोस्त की पत्नी जो अभी-अभी लंबा-चौड़ा भाषण दे रही थी, सुनकर चुप हो गई और कनिका की हां में हां मिलाते हुए बोली, ‘यह बात तो आप ठीक कह रही हैं भाभी जी।’

भाभी जी का सीना फूलकर चौड़ा हो गया। हम चारों में खामोशी फैल गई थी। बच्चे सो चुके थे। उस खामोशी को पत्नी ने ही तोड़ा और कहा, ‘मैं चाय बनाकर लाती हूं।’ वह कहते हुए चाय बनाने चली गई।

पत्नी के जाते ही दोस्त की मिसेज बोली, ‘भाई साहब आपका जाना उससे भी ज्यादा मुश्किल है, जितना मैं समझती थी। वैसे एक बात तो है कि आप इस मामले में बड़े लकी हैं कि आपको इतनी समर्पित पत्नी मिली है, जो आज के जमाने में मिलना मुश्किल है। देखिए, वो कहती है कि यहां रहकर कुछ मत करो लेकिन मुंबई मत जाओ। देखो कैसेे रोती है बेचारी आपके लिए। मुझसे तो उसके आंसू देखे नहीं जाते।’

मैं कुछ नहीं बोला। खामोशी फिर पसर गई। मैंने देखा पत्नी चाय ट्रे में रखकर कमरे में दाखिल हो चुकी थी।

बस ऐसे ही जिंदगी चलती रही। कई लोगों ने बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की लेकिन बात जस की तस ही बनी रही। मैं अंदर ही अंदर सुलगता रहता। मेरे अंदर की चिंगारी ज्वालामुखी का रूप धारण कर रही थी।

मुझेे याद है, जब मैंने मन ही मन सोच लिया था कि इस मुद्दे पर चर्चा नहीं करूंगा तो मुझेे लगता था कि यह तूफान के आने से पहले की खामोशी है। मैं खामोश रहता। तिस पर भी पत्नी बोलती, ‘क्या बात है आजकल आप किसी से बात ही नहीं करते? क्या आपको घर में कोई तंगी है?’

मैं उसकी बात सुनकर चुप रहता लेकिन मुझेे लगता कि जले पर नमक छिडक़ा जा रहा है। इन दिनों मैंने प्रतिक्रिया करना छोड़ दिया था। शायद यह जिंदगी का दूसरा मौका था जब मेरे अंदर प्रतिक्रिया खत्म हो रही थी और विद्रोह पनपने लगा था। बस फिर क्या था एक दिन विद्रोह अपने पूरे यौवन पर था कि मैं घर में बिना किसी को बताए मुंबई की गाड़ी में सवार हो गया था। इसकी भनक तक भी किसी को नहीं लगी थी।

केवल अपने एक दोस्त को बताकर गया था और उसी ने ही मुझेे गाड़ी में बिठाया भी था। विद्रोह का ज्वालामुखी मेरे अंदर इस कदर फूटा, जिसके लावे में हर चीज जलती हुई नजर आने लगी थी।

मुझेे याद आया जब मैंने पहली बार बापू से विद्रोह किया था। उस दिन बापू मार रहा था और मैंने कहा था, ‘आज मार लो जितना मारना है, मैं आपका हाथ नहीं पकड़ूंगा।’

बापू इस पर आग बबूला हो गया था और गुस्से से तिलमिलाता हुआ मुझेे जोर-जोर से पीटने लगा था। मैंने भी कोई प्रतिक्रिया नहीं की थी कि ‘मुझेे मत मारो।’

वह मेरी जिंदगी का पहला विद्रोह था। उसके बाद बापू मारने को आगे तो कई बार बढ़ा लेकिन अपने डंडे को अपने थैले से कभी नहीं निकाला। हां.. हाथ का इस्तेमाल कभी-कभार कर लेता था। और इतने से शायद मुझेे कोई फर्क नहीं पड़ता था।

तब तो मुझेे इस बात का अर्थ भी नहीं पता था कि यह प्रतिक्रिया थी या विद्रोह? लेकिन आज सोचता हूं तो लगता है कि प्रतिक्रिया हमें दुख के सिवा कुछ नहीं देती। प्रतिक्रिया हमें सीमित कर देती है और हमें गुलामी की तरफ ले जाती है लेकिन विद्रोह तो खुशी का प्रतीक है क्योंकि यह मेरा विद्रोह ही था कि मैं बिना बताए घर से जा रहा हूं। प्रतिक्रिया खत्म हो चुकी थी क्योंकि मैं जितना मना सकता था मनाया लेकिन अब मेरी मर्यादा जवाब दे गई थी।

मुझेे लगने लगा था कि मेरे अंदर जो फूल है वह धीरे-धीरे मुरझाने लगा है। उस फूल को बचाना मेरा दायित्व बनता है जो जीवन को खुशी से भर देता है। हालांकि इस फूल को मैंने बचाकर ही रखा है।

नतीजा यही हुआ कि मेरे अंदर एनर्जी तो थी जिसे हम पोटैंशियल एनर्जी कह सकते हैं, उसे कायनैटिक एनर्जी में कनवर्ट करना बहुत जरूरी था और मैंने वही किया। मैं कहानियां लिखने लगा और फिर धीरे-धीरे उपन्यास। मुझेे काफी मान-सम्मान भी मिला। मेरी एक पहचान बन गई जो केवल पंजाब या हिंदुस्तान तक ही सीमित नहीं रही बल्कि उपन्यासों की दस्तक हिंदुस्तान के बाहर भी गई।

मुंबई पहुंचकर मैंने चैन की सांस ली थी लेकिन एक समस्या थी कि रहा कहां जाए। मैंने कई जगहों के नाम सुन रखे थे। बस उन्हीं में से एक थी पीएंडटी कॉलोनी। मैंने ऑटो किया और पीएंडटी कालोनी पहुंच गया। वहां मुझेे कमरा ढूंढने में ज्यादा मुश्किल नहीं हुई। वहां पर बहुत से लोग थे जो कमरे के किराए का आधा किराया लेते थे और कमरा दिलवा देते थे। तब सस्ता समय था। इतनी मारामारी भी नहीं थी। मुझेे कमरा मिल गया और मैंने वहां पर सामान टिका दिया। ब्रोकर आधा किराया लेकर चलता बना। जहां कमरा लिया वहां आंटी के पास फोन लगा हुआ था। सबसे पहले मैंने फोन नंबर लिया और अपने दोस्त को दिया, जिसे पता था कि मैं मुंबई आया हूं। उसी ने घर जाकर बताया भी था कि मैं मुंबई चला गया हूं।

जैसे ही मैंने उसे अपने रहने की जगह का फोन नंबर बताया तो उसने कहा, ‘घर में रोना-धोना लगा हुआ है। सब लोग आपको कोस रहे हैं लेकिन आपकी पत्नी पता नहीं किसी मिट्टी की बनी हुई है। वह कुछ नहीं कह रही केवल रोये ही जा रही है। उसके मां-बाप आए थे। कह रहे थे, चल हमारे साथ चल लेकिन उसने जाने से भी मना कर दिया।’

उन्होंने ज्यादा जोर डाला तो कहने लगी, ‘नहीं यह मेरी समस्या है। इससे मैं खुद ही यहीं रहकर निपट लूंगी। आप चिंता न करें।’

दोस्त बता रहा था कि पत्नी ने अन्न का एक दाना भी नहीं खाया।

खैर, मैंने सारी बातें सुनकर भी अनसुनी कर दीं। मैंने यही सोचा कि कोई कितनी देर तक रोयेगा। कोई कितनी देर तक नहीं खायेगा। यह संसार है। यहां आदमी मर भी जाता है, तब भी पीछे रहने वालों की जिंदगी चलती रहती है।

खैर, उस कॉलोनी में काफी स्ट्रगलर रहते थे। मैं शाम को उनके साथ गप्पें हांकने लगा।

उस रात बरसात खूब हो रही थी। हम लोग एक क्वार्टर की सीढिय़ों के पास खड़े थे। थोड़ी सी बरसात कम हुई तो सब ने सोचा कि अब अपने-अपने कमरे की तरफ चला जाए। मैं भी अपने कमरे की तरफ चला आया। अभी कमरे में घुसा ही था कि मुझेे देखते ही आंटी ने कहा, ‘तुम्हारे घर से फोन आया था।’

‘क्या..?’

मैंने तुरंत पूछा, ‘मेरे घर से फोन आया था?’

मैं समझ गया कि मेरे दोस्त सुरेश ने ही घरवालों को नंबर दिया होगा। सब खैरियत तो है, मैं सोच में पड़ गया लेकिन मेरे पास तो कोई नंबर भी नहीं था जिससे मैं पता कर सकता।

दोस्त बैंक में नौकरी करता था इसलिए उससे बात बैंक के फोन नंबर पर ड्यूटी के दौरान ही हो सकती थी। घरवालों ने जरूर किसी पी.सी.ओ. बूथ से फोन मिलाया होगा।

‘आपने क्या कहा आंटी?’ मैंने पूछा।

‘मैंने कह दिया कि बाहर बहुत बरसात हो रही है, पता नहीं कब लौटेगा। सुबह फोन करना।’

‘फिर...क्या कहा उन लोगों ने?’

‘कुछ नहीं... यही कहा कि उसे बता देना कि हम लोग सुबह फोन करेंगे।’ कहकर आंटी अपने कमरे में चली गई।

खैर, मैंने अपना बिस्तर जमीन पर लगाया और सोने की कोशिश करने लगा।

नींद नहीं आ रही थी। लेटे हुए मुझेे कई तरह के विचारों ने घेर लिया। बहुत कुछ सोचता रहा।

मुझेे लगा कि अब फोन करने का क्या फायदा? जब मैं बिलख-बिलखकर कहता था कि मुझेे एक बार मुम्बई जाने दो, तो कोई मानता ही नहीं था। फिर तभी तो मैंने प्रतिक्रिया छोडक़र विद्रोह का तरीका अपना लिया था। कई तरह की ऐसी बातें मेरे मन में घूम रही थीं।

सब कुछ होने के बावजूद मुंबई का कीड़ा मेरे दिमाग से नहीं निकल रहा था। पत्नी तो कई बार कहती थी, ‘आप खुद ही कहते हैं न कि शब्द रहेंगे साक्षी। शब्द कभी नहीं मरेंगे क्योंकि शब्द ही ब्रह्म हैं। अगर आप चले गए तो आप ब्रह्महत्या करने के इल्जाम से मुक्त नहीं हो पाएंगे।’

ऐसे ही विचारों के समंदर में गोते लगाते हुए पता नहीं कब नींद आ गई। जब आंख खुली तो घड़ी में चार से ऊपर समय हो चुका था। मैं अपनी रूटीन के मुताबिक उठा और सैर के लिए तैयार होने लगा। मैं जल्दी से वॉशरूम जाकर फारिग हुआ और सैर करने के लिए निकल पड़ा। मुझे बेड-टी लेने की गंदी बीमारी थी, लेकिन आज बिना बेड-टी लिए ही पानी का गिलास पीकर फ्रैश हो गया था। कहते हैं न मरता क्या न करता।

सैर करते हुए ऐसा महसूस हो रहा था कि पेट अच्छे से साफ नहीं हुआ है। बाहर थोड़ा-थोड़ा दिन चढऩे लगा था और चीजें प्रकाशमय होने लगी थीं। सैर करते हुए मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि मैं अपने सपनों की दुनिया में सैर कर रहा हूं। सडक़ पर लोगों का आना-जाना अभी कम ही था।

असल में यह कॉलोनी शहर के बाहर थी और इसके आगे जाकर इंटरनैशनल हवाई अड्डा था जिसका काम अब भी चल ही रहा था। इसके आगे कुछ नहीं था। इसलिए इस तरफ लोग कम आ-जा रहे थे। लोकल बस का भी यह आखिरी स्टाप था। इसके बावजूद झुग्गी झोंपड़ी दूर-दूर तक नजर आ रही थीं। एक जगह पर रुककर मैंनेे कुछ स्ट्रेच एक्सरसाइज की और वापस लौट आया। रास्ते में देखा तो एक रेहड़ी पर चाय बन रही थी। उससे एक कप चाय पी तो कमरे की तरफ लौट आया।

अभी कमरे में दाखिल हुआ ही था कि आंटी ने कहा, ‘तुम्हारी बीवी का फोन आया था।’

‘आपने क्या कहा?’

‘मैंनेे कह दिया कि सैर करने के लिए गया है, थोड़ी देर के बाद फोन करना।’

इतना बताने के बाद आंटी ने फिर कहा, ‘और हां... अब कहीं जाना नहीं। बात सुन लेना अपनी पत्नी की।’

मैं सोचने लगा, सुबह-सुबह जरूर इस वक्त किसी ऐसे एस.टी.डी. बूथ पर बैठे होंगे, जो सारी रात खुला रहता है।

अभी मैं सोच ही रहा था कि इतने में फोन की घंटी बजने लगी।

मैंनेे फोन उठाया और ‘हैलो’ कहा।

उधर से मेरा दोस्त फोन पर था। उसने हैलो कहने के बाद कहा, ‘लो भाभी जी से बात करो।’

पत्नी ने रोते हुए कहा, ‘आप तो चले आए, अब मैं दोहरी जिम्मदारी कैसे निभाऊंगी? मुझे नौकरी करने भी जाना है। बड़ा बेटा तो स्कूल जाने लगा है लेकिन छोटे की तो अभी स्कूल जाने की भी उम्र नहीं है।’

मैंनेे बात सुनते ही फौरन कहा, ‘किसी क्रेच में डाल दो।’

मेरी बात सुनते ही पत्नी रोने लगी और उधर से आवाज आनी बंद हो गई। फोन पत्नी के साथ आए मेरे ससुराल परिवार के सदस्यों ने पकड़ लिया। वे मुझसे बात करने लगे।

मैंनेे ज्यादा लंबी बात नहीं की और कहा, ‘सोचकर बताता हूं।’

दिन चढ़ा और दस बज गए। मैंनेे अपने दोस्त को फोन लगाया।

दोस्त कहने लगा, ‘यार आ जाओ... भाभी जी की तबियत बहुत खराब है। ब्लड प्रैशर बढ़ गया है और इंजैक्शन देकर उनको सुलाया है।’

उसकी बात ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया। मैंनेे फौरन कहा, ‘ठीक है, मैं आज ही टिकट बुक करवाकर बताता हूं कि कब आना है। ऐसा करना अभी घर जाकर यह बता दो कि मैं जल्द ही वापस आ रहा हूं।’

दोस्त ने कहा, ‘थोड़ी देर में निकलता हूं। अभी आया ही हूं बैंक। अभी तो मैनेजर भी नहीं आया। मैनेजर को आने दो, उसे कहकर निकलता हूं या छुटटी ही लेकर चला जाऊंगा।’

दोस्त से फोन पर बात करने के बाद मैं सीधा एजैंट के पास गया।

उसने कहा, ‘कल की गाड़ी की टिकट दिलवा देता हूं लेकिन एक टिकट का दो सौ रुपया फालतू लगेगा।’

‘ठीक है..मैं दे दूंगा।’

मैंनेे उसे पैसे दिए तो उसने कहा, ‘शाम को टिकट मिल जाएगी।’

शाम को मैंनेे उससे टिकट ले ली।

रात को पुन: पत्नी का फोन आ गया। इससे पहले कि वह कुछ बोलती, मैंनेे तुरंत कहा, ‘कल पश्चिम एक्सप्रेस का टिकट ले लिया है। मैं परसों पहुंच जाऊंगा।’

*****

ट्रेन एक बार फिर घर की तरफ भागती जा रही थी। मेरे सपने एक बार फिर से औंधे मुंह जा गिरे थे। लेकिन क्या करता, परिवार का बलिदान मेरे वश के बाहर की बात थी।

वापस आया तो सारा घर खुश था। बच्चे तो जैसे सहमे हुए बैठे थे। पत्नी ने मेरी पसंद के तरह-तरह के व्यंजन बनाए हुए थे। दोस्त का परिवार भी घर पर ही आया हुआ था। दोस्त मुझे स्टेशन से लेने आ गया था। हमने खाना साथ बैठकर खाया और देर रात दोस्त और उसका परिवार अपने घर चला गया।

खैर, यह तो सालों पहले का वाक्या था लेकिन अब की बार तो कोई चिंता ही नहीं थी। किसी तरह से घर से निकलकर आया था, लेकिन रजामंदी से। वैसे भी इस बार सीधा सैट पर शूटिंग करने के लिए ही जाना था।

इसके बावजूद पत्नी राजी नहीं था और कह रही थी, ‘नाचने-गाने वाले काम आप भी करना चाहते हैं। भगवान ने आपके अंदर इतने गुण भरे हैं। आप हीरे को छोडक़र पत्थर की तरफ भाग रहे हैं। कहां तो आपके उपन्यासों पर शोध हो रहा है और क्लासों में पढ़ाए जाते हैं। उपन्यासों पर शोध करके विद्यार्थी असिस्टैंट प्रोफैसर बन जाते हैं। आप आमादा हैं भांडों की मंडी में जाने के लिए। मैं कभी बोली नहीं लेकिन छोटे-बड़े पर्दे पर जितने भी सितारे हैं, जब तक भांडों का काम न करें, उनकी पहचान ही नहीं बनती। यह तो वही बात है कहां राम-राम कहां टैं-टैं।’

उसने बहुत कुछ कहा था लेकिन मैंनेे भी एक कान से सुनी और दूसरे से निकाल दी थी। मेरे ऊपर तो मुंबई जाने का भूत ही सवार था।

लाइट्स...रोलिंग...एक्शन...। जैसे ही मेरे कानों में ‘एक्शन..’ की आवाज पड़ी तो मैं बोलने लगा, ‘यहां बहुत से लोग आवेंगे। बहुत से दवाब पड़ेंगे जिन्हें झेलना ही पड़ेगा। कोई इज्जत का वास्ता देगा तो कोई शराफत का ढोंग पीटेगा। कोई डरावेगा तो कोई धमकावेगा। अगर फिर भी न माणे तो हमारे सामने पैसे फैंक दिए जाएंगे जैसे कुत्ते का मुंह बंद करवाने के लिए उसके सामने बोटियां फैंक दी जाती हैं।’

यह डायलॉग तो मैंने ठीक बोल दिए थे। सबने सराहा भी था लेकिन वो डायरेक्टर इस बात को हज्म नहीं कर पा रहा था क्योंकि वह शुरू से ही इस रोल को मुझसे छीनने में लगा हुआ था।

उसका कोई वश नहीं चला तो बोला, ‘आज थाने के इतने ही सीन होंगे बाकी के अगले शैड्यूल में होंगे।’

उसकी बात सुनकर मैंने तुरंत कहा था, ‘अरे सर... मैं अगले शैड्यूल में दस दिन और •ााया नहीं कर सकता। मैं तो पहले ही बड़ी मुश्किल से अपनी नौकरी से छुट्टी लेकर आया हूं।’

वह मेरी तरफ देखकर बोला, ‘अरे डाक्टर आकाश यह फिल्म का काम है और ये हमारी मर्जी से चलेगा। फिल्में करने का शौक है तो नौकरी-वौकरी भूल जाइए। अगर नौकरी का इतना ख्याल है, तो दिमाग में से फिल्म एक्टिंग का कीड़ा निकाल दीजिए।’ जब उसने कहा तो मैंने एक न•ार प्रोड्यूसर की तरफ देखा।

वह नजर मिलते ही मेरी तरफ आ गया और बोला, ‘अरे डाक्टर साहब... देख लीजिए, मेरा बहुत पैसा इसमें लग गया है। बाकी की शूटिंग अगले शैड्यूल में रख लेते हैं। आज कुछ नामचीन एक्टर आए हैं, उनके सीन रख लेते हैं। वैसे भी यह बंगला तो चार दिन के लिए ही बुक है। बड़े स्टार्स के साथ काम निपटा लेते हैं क्योंकि उनकी तारीखें मिल गई हैं। हम लोग तो बाद में भी शूट कर लेंगे। थानेे की सीन हैं, कहीं भी कर लेंगे।’

मुझे लगा, यह तो मेरे साथ खेल खेला जा रहा है। मैं जालंधर से इतने पैसे खर्च करके मुम्बई आया हूं। पैसे तो बर्बाद हुए ही, साथ में जितने दिन छुट्टी पर रहूंगा उतने पैसे भी नौकरी से मिलने वाली तनख्वाह में अलग से कटेंगे। मैंने उस निर्माता को कुछ कहने की कोशिश की, तो वह बीच में ही बोल पड़ा, ‘अरे डाक्टर साहब... आप नहीं जानते इस फिल्म इंडस्ट्री को। कलाकारों की डेट्स लेना बड़ा ही मुश्किल काम है।’

वह मुझे कई तरह की दलीलें देकर समझाने की कोशिश करने लगा। मेरे सामने दो ही विकल्प थे या तो मान जाऊं या इस मोह को छोड़ दूं और चुपचाप यहां से निकल जाऊं। इससे पहले कि मैं कुछ और सोचता, मैंने तुरंत कह दिया, ‘ठीक है.. मैं अपना काम अगले शैड्यूल में कर लूंगा।’ मानो मैंने सरेंडर कर दिया था। मेरा जवाब सुनते ही निर्माता बोला, ‘मैं जानता था डाक्टर साहब... आप यही फैसला लेंगे क्योंकि आप भी फिल्म का भला चाहते हैं, मैं भी भला ही चाहता हूं। हम सब लोग जो काम कर रहे हैं, यही चाहते हैं न कि फिल्म का भला हो।’ निर्माता के डायलॉग्स जैसे ही मेरे कान में पड़े तो मुझे उसका चेहरा एक हारे हुए जुआरी की तरह लगा जो बार-बार किसी भी दांव को हारने के बाद एक ही बात बोलता है, ‘अब की बार पत्ते पड़े, तो देख लूंगा सबको।’ उसकी हालत भी वैसी ही थी।

******