Sumandar aur safed gulaab - 2 - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

समंदर और सफेद गुलाब - 2 - 4

समंदर और सफेद गुलाब

4

मानव जी ने कहा, ‘बात तो आपकी बिल्कुल सही है। यहां सौ तरह के झंझट हैं। यहां काम करना है तो सब कुछ छोड़-छाडक़र यहीं ठिकाना बनाना पड़ता है। चलो.. आपने तो अपना शौक ही पूरा करना है। आप तो इतने बड़े स्थापित लेखक हैं। पिछले दिनों मैंने यू-ट्यूब पर आप पर जालंधर दूरदर्शन द्वारा बनाई गई आधे घंटे की डाक्यूमैंट्री फिल्म देखी थी। उससे आपके बारे में जानने को बहुत कुछ मिला। आपके उपन्यास तो कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जाते हैं और आपके उपन्यासों पर तो कई शोध कार्य भी हो चुके हैं। मैं भी लिखता हूं, लेकिन हमें कौन जानता है। आप तो जीते जी अमर हो गए डाक्टर आकाश। लेखक मर जाता है, उसे यह सब चीजें हासिल नहीं होतीं लेकिन आपने तो अपने जिंदा रहते ही सब कुछ देख लिया। मैंने देखा है कई लेखकों को, जो हर वक्त अपनी ही डींगें हांकते हैं और कहते हैं कि हम बहुत बड़े लेखक हैं लेकिन आपने तो अपने मुंह से कभी अपनी तारीफ भी नहीं की। अगर मैं डाक्यूमैंट्री न देखता तो आपके बारे में इतना न समझ पाता।

यह फिल्म इंडस्ट्री तो ऐसी है कि जिसके पास पैसा है, वह हीरो भी, लेखक भी, डायरेक्टर भी और प्रोड्यूसर भी। लेकिन आपके पास तो इतने उपन्यास हैं कि आपके उपन्यासों पर फिल्में बन सकती है। जो उपन्यास आपने मुझेे पढऩे के लिए भेजे थे, उनमें तो चित्रात्मकता बहुत है और फिल्म बनाने के लायक हैं।

उनकी बात सुनकर मैं हल्का सा मुस्कुरा दिया।

वह फिर बोले, ‘डाक्टर आकाश, मैं झूठी तारीफ नहीं कर रहा हूं। यह फिल्में अब केवल बिजनेस बनकर रह गई हैं। करोड़ों रुपया लगता है... इसलिए कोई क्वालिटी प्रोडक्ट किसी की नजर में पड़ जाए तो ठीक है नहीं तो जिंदगी मेरी तरह घिसट-घिसटकर निकल जाती है। अब तो इस उम्र में आ गया हूं कि घुटने भी चलने से जवाब देने लगे हैं। क्या करूं, यहां मोह छूटता ही नहीं। लगता है नदी किनारे बैठे हैं...कभी तो लहर आएगी। लेकिन जिंदगी निकल गई...कोई अच्छी लहर भी नहीं आई और जिंदगी भी जहां से शुरू हुई थी वहीं पर रुकी हुई है। कोई बहुत बड़ी पहचान भी नहीं बन पाई और बहुत ज्यादा पैसा भी नहीं कमा पाया लेकिन इतना है कि दाल-फुल्का तो चल ही रहा है।’

बातें करते-करते हम लोग उनके किराए पर लिए हुए फ्लैट में पहुंच गए। मेरा मिलना तो सबसे पहली बार ही था। खैर!.. फेसबुक के माध्यम से एक-दूसरे के चेहरे इतनी बार देखे थे कि किसी को पहचानने में कोई दिक्कत नहीं हुई। इसके बावजूद अनिल ने औपचारिकता निभाई और सबको एक-दूसरे से इंट्रोड्यूस करवा दिया।

निर्माता राज बाबू कुर्सी से उठकर आलिंगनबद्ध होकर मिला। डायरेक्टर ने मेरी तरफ देखकर हाथ आगे किया और हाथ मिलाते-मिलाते जोर से दबा दिया। मेरी तरफ तिरछी नजर से देखा और बोला, ‘जल्दी आ जाते तो वर्कशाप अटैंड कर लेते। अब तो सभी कलाकार चले गए हैं। कोई बात नहीं, अब अपने डायलॉग्स पर अच्छी तरह से पकड़ बना लो ताकि आपको सैट पर कोई परेशानी न आए। आपके साथ बहुत बड़े-बड़े कलाकार हैं और आप तो बिल्कुल नए हैं। और हां...वैसे भी आप बिना ऑडिशन दिए ही सीधा फिल्म में शूट के लिए पहुंच गए हैं। यहां लोग जिंदगियां गला देते हैं, फिर भी फिल्म का मुंह नहीं देख पाते। ..यू आर लक्की मिस्टर आकाश।’

उसकी बातें सुनकर मुझेे गुस्सा आ गया और मैंने बेझिझक कह दिया, ‘आप मुझेे डरा रहे हैं या समझा रहे हैं?’

मेरी बात सुनते ही बोला, ‘बाकी सैट पर पता चलेगा, जब कैमरे का सामना करोगे। वहां तो अच्छे-अच्छों को पसीने निकल जाते हैं।’

मैं उसे जबाब तो देना चाहता था कि ‘मैंने कैमरा पहली बार फेस नहीं करना है। जब से होश संभाला है तब से पता नहीं जालंधर दूरदर्शन पर कितने प्रोग्राम किए। कितनी बार प्रोग्राम कंडक्ट किया, अब तो याद भी नहीं। कई नाटकों में भी काम किया।’ लेकिन मैं चुप रहा क्योंकि मुझेे लगा कि इसकी औकात इतनी नहीं है कि मैं इसे अपनी सफाई दूं। जब मेरा काम बोलेगा तो खुद ही पता चल जाएगा।

लेकिन उसका कमीनापन ऐसा निकला कि उसने मुझेे काम करने ही नहीं दिया और मैं इस मेकअप रूम का हिस्सा बनकर रह गया हूं। खैर, मैं तो बाहर से आया हूं लेकिन कृष्ण जी ने तो सारी जिंदगी यहीं गुजार दी, उनके साथ क्या हुआ? अनिल ठीक कहता था कि बाप-बेटे के झगड़े में मत पडऩा। मुझेे फिर पिछली रात की घटना याद आने लगी। उनका झगड़ा मेरी आंखों के सामने आने लगा। मुझेे ऐसा लगा जैसे दो कुत्ते आपस में झगड़ रहे हों। हालांकि वह बाप-बेटा हैं लेकिन खून इतना सफेद कि एक-दूसरे को ही बर्दाशत नहीं करते।

जब निर्माता के पास पहुंचे तो वहां फिल्म के टाइटल को लेकर झगड़ा हो गया। निर्माता कह रहा था कि ‘हमें इस टाइटल को बदलना होगा। यह अच्छा नहीं है और कैची बिल्कुल भी नहीं है।’

बूढ़े ने कहा, ‘ऐसी बात नहीं है। आजकल ऐसे ही टाइटल्स का जमाना है। अब रिवायती टाइटल्स का जमाना लद गया। एक्सपैरिमैंट का दौर है और हम पुराने दौर में जी रहे हैं। मुझेे यह मंजूर नहीं है और हां.... एक बात तो तुम कान खोलकर सुन लो कि डायलॉग्स से छेड़छाड़ की, तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।’

इस बीच उसका सुपुत्र बोल पड़ा, ‘क्या कर लोगे आप? हम अपने हिसाब से उसमें चेंज तो लाएंगे ही।’

बूढ़े ने बेटे की बात सुनते ही कहा, ‘तू भले ही बहुत बड़ा डायरेक्टर बन गया होगा लेकिन मेरा लेखन का अनुभव भी तुम से कम नहीं है। मैं इस बात की इजाजत बिल्कुल नहीं देता।’

कहते-कहते बूढ़े को गुस्सा आ गया और कहने लगा, ‘अगर आपने डायलॉग्स से छेड़छाड़ की तो मैं सैट के आगे ही आत्महत्या कर लूंगा।’

इस बात को सुनकर निर्माता को गुस्सा आ गया और बोला, ‘आप से हमने स्क्रीनप्ले लिखवा लिया है और उसके पैसे अदा कर दिए गए हैं। अब हमारी मर्जी है, हम इसे जैसे मर्जी इस्तेमाल करें या न करें।’

बूढ़ा उसकी बात सुनते ही बोला, ‘साहब नाम तो मेरा जाएगा और बदनाम भी मैं हूंगा। आपका क्या है, एक फिल्म बनाकर करनाल भाग जाओगे... और दोबारा शायद यह धरती, आपको यहां आने का मौका ही नहीं देगी। अगर देगी भी, तो आप के अंदर की हेंकड़ी निकल चुकी होगी और आपको पता चल जाएगा कि किसी की भावनाओं की क्या कीमत होती है।’

बूढ़ा फिर कहने लगा, ‘अगर मैं एक बार फिल्म इंडस्ट्री में बदनाम हो गया तो मेरा नाम तो सदा के लिए खराब हो जाएगा। जो मुझेे काम मिलता है वो भी बंद हो जाएगा।’

निर्माता को भी उसकी बात सुनकर गुस्सा आ गया। वह हिकारत से बोला, ‘ओ...दुखी साहब!.. आपने कौन सी ऐसी फिल्में लिख दी हैं, जिन पर आपको ऑस्कर अवार्ड मिल गया हो।’

बहस बढऩे लगी थी। डायरेक्टर बीच में पड़ा और निर्माता को साइड पर ले गया। जब वे दोबारा सामने आए तो कहने लगे, ‘ठीक है, आपके डायलॉग्स से कोई छेड़छाड़ नहीं होगी। अब आप जाइए क्योंकि हमें भी कहीं जाना है... और हां, डाक्टर आकाश को और अनिल को हमारे ही पास रहने दीजिए। इन्हें भी हमारे साथ ही चलना है।’

किसी तरह मानव जी चले गए। बाकी सब लोग तो कमरे में ही बैठे रहे और हम चार लोग चाय पीने के लिए एक छोटी सी दुकान पर चले गए।

मानव जी के पुत्र ने चाय पीते-पीते एक सुझाव दिया, ‘बस कल जब शूटिंग शुरू होगी, हम लोग गेट पर मना कर देंगे कि अगर कोई भी बूढ़ा व्यक्ति अंदर आने की कोशिश करे तो उसे अंदर मत आने दिया जाए... और साथ में तो हम लोग लेकर जाएंगे ही नहीं।’ निर्माता भी इस बात को लेकर हंसा और कहने लगा, ‘यह बात सही है, हम उसे कल सैट पर घुसने ही नहीं देंगे। अपने हिसाब से जो मन में आए करेंगे।’

चाय पीकर हम लोग फिर से कमरे में चले गए। वहां सब बातें तय हो रही थीं। काफी चहल-पहल कमरे हो रही थी। पता नहीं कितने लोग वहां पर आए। कोई मेकअप मैन आदमियों के लिए अलग और औरतों के लिए अलग। दर्जी भी आया और सबके कपड़े जो सैट पर डालने थे वह भी... और जो-जो चीजें इस्तेमाल होनी थीं, सब वहां पर पड़ी थीं।

धीरे-धीरे सब लोग यह कहकर लौटने लगे कि ‘ठीक है सुबह सैट पर ही मुलाकात होगी।’

इतने में एक भोजन सप्लायर पैक खाना हाथ में लिए वहां आ गया और बोला, ‘साहब यह आपका आर्डर था, ले आया हूं।’

निर्माता ने ध्यान से उसकी ओर देखा और बोला, ‘हमने तो कोई आर्डर दिया ही नहीं था।’

उसने पलटकर कहा, ‘साहब, यहीं के नंबर से ही आर्डर आया है।’

कहते-कहते वह पर्ची पढऩे लगा, जिस पर पता लिखा था। उसने फिर कहा, ‘देखिए साहब पता तो यही लिखा है।’

फिर उसने पर्ची पर लिखा मोबाइल नंबर घुमा दिया लेकिन थोड़ी ही देर बाद बोला, ‘यह तो काटे जा रहा है।’

डायरेक्टर भी कहने लगा, ‘यार किसी और के घर का होगा।’

उसने थोड़ी देर किंतु-परंतु किया, फिर चला गया।

उसके जाने के बाद अनिल ने कहा, ‘हम लोग भी चलते हैं, मानव जी इंतजार कर रहे होंगे। अब सारी बातें हमसे पूछेंगे, तो हमें उन्हें जवाब देना मुश्किल हो जाएगा।’

निर्माता बोला, ‘आप कह देना यार लेखक की जरूरत ही नहीं है। मेरी तरफ से एक लॉलीपॉप दे देना और कहना, ‘राज बाबू ने बोला है कि आपका कोई डायलाग चेंज नहीं किया जाएगा’ और फिर भी आपको लगेगा तो हम लोग डबिंग में बैठकर बदल देंगे।’ कहता-कहता वह बत्तीसी निकालकर हंसने लगा।

खैर, हम लोग वहां से निकल आए। मुंबई की सडक़ों पर भीड़ तो गजब की थी। अनिल से मैंने पूछा, ‘यार यह माजरा है क्या?’

उसने तुरंत कहा, ‘छोडि़ए डाक्टर साहब... आपसे इसीलिए कहा था कि इनके लफड़े में मत पडऩा। अब रोटी का ही सीन देख लीजिए। इन्हीं लोगों ने मंगवाई थी। जब मंगवाई थी तब निर्माता यहां नहीं था। जब आ गई, तो निर्माता यहां था। बस उसी की आंखों में धूल झोंकने के लिए खेल खेला कि हम लोग तो एक पैसा भी बर्बाद नहीं करते। मैंने खुद देखा डायरेक्टर के पास एक और फोन था जो उसके हाथ में पकड़ा हुआ था। जैसे ही घंटी बजती, वह तुरंत फोन काट देता था। अरे भाई, यह मुंबई है। यहां पता नहीं लोगों ने कितने-कितने फोन रखे होते हैं।’

मैंने तुरंत कहा, ‘लेकिन उसकी घंटी भी तो नहीं बजी?’

‘असल में उसने फोन साइलेंट मोड पर लगाया हुआ होगा, तो बजती कैसे? अगर उसकी घंटी बजती तो निर्माता की भी घंटी साथ ही बज जानी थी। चलो छोड़ो आपके कुछ दिन हैं। अपना काम करो और निकल जाओ जालंधर को, आपने इनके लफड़ों से क्या लेना है?’ अनिल ने कहा।

‘हां, बात तो सही है।’ मैंने भी उसकी हां में हां मिलाई।

इससे पहले कि मैं कुछ और सोचता, मेरी तंद्रा अनिल ने भंग की और कहा, ‘अरे डाक्टर साहब, आंखें खोलिए और उठिए। हमें यहां इसी मुद्रा में देखते हुए पांच मिनट हो गए हैं। हम लोग जानते हैं कि आपको इस हादसे के बाद नींद तो नहीं आ रही होगी। जाहिर है कि आप कुछ न कुछ सोचे ही रहे होंगे।

मैंने तुरंत कहा, ‘तो इसका मतलब है, आपको सारी घटना पता चल चुकी है?’

‘अरे दाइयों से पेट थोड़ा ही छुपता है डाक्टर साहब।’ पास खड़े प्रो. पांडेय ने कहा।

‘अरे आप भी आ गए।’

मैंने सोचा अनिल निकल रहा था, मैं उसी के साथ ही निकल आया।

‘छोडि़ए डाक्टर आकाश, यह सब तो चलता ही रहता है। आप कोई और रोल कर लीजिए।’

अभी मैंने कुछ कहना ही था कि प्रोड्यूसर भी वहीं आ धमका और मैंने झट से कहा, ‘बिल्कुल मैं कोई और रोल करूंगा जो मेरी बॉडी के मुताबिक फिट बैठता हो।’ प्रोड्यूसर मेरी बात सुनकर खुश हो गया और बोला, ‘यह हुई न बात। हम सब लोग फिल्म की भलाई के लिए ही काम कर रहे हैं और डाक्टर साहब भी गलत थोड़ा ही सोचेेंगे।’ कहकर वह गंदी-सी हंसी हंसने लगा। उसकी हंसी आवाज मेरे कानों के पर्दों को चीर रही थी और मेरा दिल लहूलुहान कर रही थी।

मैंने हंसते हुए कहा, ‘ठीक है, हम लोग कल सबुह आएंगे लेकिन अभी निकल जाते हैं।’

मेरी बात सुनकर बोला, ‘देख लो.. अपने सीन ले जाओ जो कल करने हैं।’

‘शाम को कमरे में आकर ले लूंगा, अभी हम लोग निकलते हैं। कुछ मुंबई घूम लेते हैं।’ मैंने उत्तर दिया।

उससे विदा लेकर हम लोग वह कोठी छोड़ आए थे जहां शूटिंग हो रही थी।

हम लोग बाहर निकलकर मेन रोड पर पैदल ही आ गए और वहां ऑटो रिक्शा का इंतजार करने लगे। कुछ देर में ऑटो आता दिखाई दिया। हमने हाथ देकर ऑटो रोक लिया और बिना पूछे ही उसमें बैठ गए क्योंकि पैसे मीटर के हिसाब से देने थे। ऑटो में बैठते ही अनिल ने कह दिया था, ‘मारवे बीच।’ ऑटो वाला सीधा मारवे बीच की ओर ले गया और हमें बीच के पास सडक़ पर ही उतार दिया।

थोड़ा रास्ता पैदल चलकर बीच तक पहुंचना था। कुछ रास्ता तो सडक़ से तय किया, आगे चलकर रेत थी। उस रेत पर चलकर ही हमें समंदर के किनारे तक पहुंचना था। वे दोनों बड़ी तेजी से चल रहे थे लेकिन मैं पांव धीरे-धीरे रख रहा था क्योंकि मुझेे डर था कि अगर मैं पांव तेजी से रखूंगा तो मेरे जूतों में कहीं रेत ही न पड़ जाए। इसी चक्कर में मैं उनसे काफी पीछे रह गया था।

मुझेे तो यह भी खबर नहीं थी कि मेरे इर्द-गिर्द कौन चल रहा था। मैं देखना भी नहीं चाहता था क्योंकि मेरे अंदर तो एक समंदर चल रहा था। मेरे अंदर जो समंदर था, उसमें कभी लहर आती जो मेरे मन को चीरकर वापस चली जाती। अभी लहर की पहली वेदना को मैं झेल नहीं पा रहा था, तब तक एक और लहर मेरे मन को छलती हुई आगे निकल जाती और मैं कुछ न कर पाता।

कई बार तो ऐसा लगता कि मेरे शरीर में ज्वारभाटा आया हुआ था। उसकी लहरों ने मेरे मन को धवस्त कर दिया था... और सोचनेे की शक्ति को इतना तीव्र कि वह शक्ति जैसे मेरे विचारों को ही अपनी चपेट में ले रही हो। फिर मेरे मन में ख्याल आया कि यह सब बकवास है, सब पैसे का खेल है। अगर मेरे पास पैसे हों तो मैं प्रोड्यूसर, डायरेक्टर या एक्टर या जो चाहूं बन सकता हूं। न जाने कितने लोग मिलकर एक फिल्म का निर्माण करते हैं, जूनियर आर्टिस्ट से लेकर सीनियर तक। गाना लिखता कोई है, गाता कोई और है और म्यूजिक किसी और से लिया जाता है। जब फिल्म बन जाती है.. उसकी प्रोमोशन पर न जाने कितना खर्च होता है। इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। मुझेे याद आया कि सुबह जब सब नाश्ता ले रहे थे तो फिल्म का एक सीनियर आर्टिस्ट मुझसे बात करते हुए कहने लगा, ‘पता नहीं इस फिल्म का क्या हश्र होगा?’

मैंने उत्सुकता से पूछा था, ‘क्यों क्या हुआ सर?’

‘कुछ नहीं, मेरा कहने का मतलब है कि एक-दो करोड़ के बजट से फिल्में बनती जरूर हैं... लेकिन वह केवल डिब्बों में ही बंद होकर रह जाती हैं। फिर भी जिनको इस मायानगरी का कीड़ा काट लेता है, वह किसी न किसी तरह पैसे का जुगाड़ करके इस मायानगरी में आ ही जाता है। डायरेक्टर से लेकर हम जैसे लोगों की चांदी हो जाती है। सब मिलकर उसे लूटते हैं और बेचारा खाली हाथ घर वापस लौटता है। जब घर लौटता है तो उसकी हालत धोबी के कुत्ते जैसी हो जाती है।’

मेरी जिज्ञासा बढ़ गई और मैंने पूछा, ‘आप लोग तो कलाकार हैं। मैं तो आपको अक्सर टी.वी. पर देखता हूं।’

वह दबी जुबान में बोला, ‘अरे काहे के कलाकार...! हम लोग तो चले आते हैं कि चलो यार, जो यहां से मिलेगा उससे घर खर्च ही निकल आएगा।’

मैं उसकी बातों को हैरानी से सुन रहा था।

‘मत पूछो इस इंडस्ट्री का हाल। जान जाओगे तो इस तरफ मुंह भी नहीं करोगे।’ उसने कहा था।

‘क्यों...ऐसी क्या बात है?’

वह बड़े दार्शनिक अंदाज में कहने लगा, ‘अब यह बताओ, कि जो फिल्म हम लोग करने आए हैं, उस फिल्म का भविष्य ही क्या है? सब लोग मौज-मस्ती कर रहे हैं। यहां जितने भी लोग हैं, सबको पता है कि एक बंदा यहां पैसा लुटाने के लिए आया है। जब वह लुट-पिट जाएगा, अपने घर को चला जाएगा। उसके बाद तू कौन और मैं कौन वाली स्थिति पैदा हो जाएगी। अभी तो फिल्म की शुरुआत है। कुछ दिन तक देखो, तमाशा होगा यहां। सब लोग लड़ेंगे क्योंकि धीरे-धीरे आपके राज बाबू का बैंक अकाऊंट निल होने लगेगा। अरे, कुछ लोग तो हार्ट अटैक से मर जाते हैं... मेरे भाई।’ वह लगातार बोलता ही जा रहा था, ‘यह मुंबई है और समंदर के बीचो-बीच बसा हुआ शहर है, जिसमें पानी तो बहुत है लेकिन खारा है जिसे पीया नहीं जा सकता। इस फिल्म इंडस्ट्री को समझना भी उतना ही मुश्किल है, जितना इस विशाल समंदर को। इसे देखना अच्छा तो लगता है लेकिन इसे समझा नहीं जा सकता और न ही इसकी गहराई तक हम लोग पहुंच सकते हैं।’

उसकी बातों को सुनकर और सोचकर मुझेे सचमुच राज बाबू का चेहरा एक कुत्ते की भांति लगा था जो भौंकता ही जा रहा था।

मुझेे अपने बारे में ध्यान आया तो मुझेे लगा कि, एक लेखक जो भी लिखता है, वह अकेला ही सूरमा होता है। उसे शुरू से लेकर अंत तक सब कुछ खुद ही लिखना होता है। अपने कथानक के पात्रों की अंगुली पकडक़र आखिर तक उन पात्रों से संवाद रचाकर लोगों के सामने लाना होता है। आज मेरे अंदर का लेखक धीरे-धीरे जाग रहा था। अगर यूं कहूं कि जग ही गया था, तो गलत न होगा। आज वह भ्रम भी धीरे-धीरे टूट गया था, जो बरसों से मेरे मन में पल रहा था।

यह सोचकर मैंने अपने अंदर से भ्रम के कई लबादे उतारकर बाहर फैंक दिए और अचानक मेरा मन मस्ती से भर गया। हालांकि उस मस्ती में मेरा साथ देने वाला कोई नहीं था या सच कहूं तो उस समय किसी के साथ की जरूरत भी नहीं थी। मैं धीरे-धीरे रेत पर चल रहा था।

अचानक मेरी तंद्रा भंग हुई, जब मेरे कानों में अनिल की आवाज पड़ी, ‘अरे डाक्टर साहब... जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाइए क्योंकि फेयरी चलने का समय हो गया है।’

मैं जब तक वहां पहुंचा तो पाया कि फेयरी निकल गई और हम लोग उस निकलती हुई फेयरी को देख रहे थे।

अनिल बोला, ‘बस सैकिंड्स की ही देरी हुई वर्ना हम लोग फेयरी पकड़ लेते।’

मैंने कहा, ‘कोई बात नहीं, अगली फेयरी से चले जाएंगे।’

‘चले तो जाएंगे.. लेकिन पता नहीं अगली फेयरी कब चलेगी?’ अनिल ने तुरंत मेरी बात का जवाब दिया।

अगले ही पल हम लोग फेयरी के काऊंटर के सामने खड़े थे। उससे पूछा तो उसने बताया कि ‘फेयरी पांच बजे चलेगी और आपको सीधा कोलीबाड़ा पहुंचा देगी।’

प्रोफैसर पांडेय बोला, ‘डाक्टर साहब, आप भी क्या याद रखोगे कि मुंबई आए थे और कोई चीज देखी थी। यह जो सामने समंदर के दूसरे छोर पर सोने-सी चमक रही बिल्डिंग दिख रही है न...यह ग्लोबल विपाश्यना पैगोडा है, जो एशिया में पहले नंबर पर है। ऐसी इमारत आपको पूरी मुंबई में नहीं मिलेगी... और रही बात शांति की तो आपका मन वहीं बस जाने को करेगा।

अनिल तीन टिकटें लेकर हमारे पास आ गया। मैंने जेब से पैसे निकालकर अनिल को पकड़ा दिए और कहा, ‘तुम अपनी जेब से कोई पैसा खर्च नहीं करोगे।’

उसने पकडऩे में ना-नुकर की लेकिन मैंने उसे कहा, ‘देखो, आप लोगों को तो यहीं रहना है इसलिए आप प्ली•ा पैसे मत खर्च करो। मैं तो एक-दो दिन में घर निकल ही जाऊंगा। समझूंगा कि यहां पर घूमने-फिरने के लिए आया था।’ कहते-कहते मैंने पांच सौ रुपये का नोट उसकी जेब में डाल दिया।

‘आप एक-दो दिन में कैसे जा सकते हैं? आपकी फ्लाइट को तो अभी कई दिन पड़े हैं।’

उसकी बात सुनते ही मैंने कहा, ‘मुझेे किसी कुत्ते ने नहीं काटा कि मैं इतने दिन यहां ठहरूंगा। मेरा मन तो कर रहा है कि अभी रात की फ्लाईट की टिकट मिल जाए और मैं घर लौट जाऊं।’

‘छोडि़ए डाक्टर साहब, आप अपना मन मत हल्का कीजिए।’ प्रोफैसर पांडेय ने मुझेे कहा।

‘नहीं, मैं मन हल्का नहीं कर रहा हूं पांडेय साहब, बल्कि मैं तो इस बोझ से मुक्त होना चाहता हूं, जो मेरे सिर पर चढ़ा हुआ है। आप नहीं जानते मेरे अंदर एक जवारभाटा आया हुआ है, जो मुझेे इस जगह को छोडऩे के लिए मजबूर कर रहा है। पता नहीं लोग इन बीचों पर कैसे घूमते हैं। आपने महसूस नहीं किया, जगह-जगह मरी हुई मछली की बास आ रही है।’

‘वो तो आनी ही है, डाक्टर साहब।’ पांडेय ने झट से कहा।

जब एहसास हुआ तो मैंने नाक पर हाथ रख लिया।

पांडेय मेरी तरफ देखते हुए फिर बोला, ‘अरे डाक्टर साहब... यह समंदर है। अपनी लहरों के साथ पता नहीं क्या-क्या बहाकर किनारों पर ले आता है। साथ में छोटी-छोटी मछलियां भी होती हैं, जो लहरों के साथ ही रेत पर आकर वापस नहीं जा पातीं और दम तोड़ देती हैं। बाकी कसर मछली पकडऩे वाले पूरी कर देते हैं, जो काटकर जिन टुकड़ों की जरूरत नहीं होती उन्हें रेत पर ही पड़ा रहने देते हैं। वैसे भी यह तो पानी का चलन है... जब नदिया महासागरों में गिरती हैं, तो पता नहीं क्या-क्या अपने साथ बहाकर ले आती हैं। यह तो बेचारी छोटी-छोटी मछलियां हैं।’ कहते-कहते प्रोफेसर साहब गंभीर हो गए और बोले, ‘डाक्टर साहब एक बात कहूं बुरा तो नहीं मानोगे?’

‘अरे कहिए न सर, बुरा किस बात का मानना... और वैसे भी जितना बुरा आज मेरे साथ हुआ है उससे बुरा क्या होगा?

मेरी बात सुनते ही प्रोफैसर ने कहा, ‘आपने यह जाने का फैसला कुछ जल्दी नहीं ले लिया? इसका मतलब है कि आपका इमोशन्स पर कंट्रोल कम है। हमारी भाषा में कहते हैं कि आपका इमोशनल ब्रेन ज्यादा स्ट्रांग है, वर्ना आप वापस जाने का फैसला इतनी जल्दी में नहीं लेते।’

मैं प्रोफैसर पांडेय की बात समझने की कोशिश करने लगा।

उन्होंने फिर कहा, ‘इमोशनल इंटेलीजैंसी की बात करें तो उसकी तीन स्टेजेस होती हैं। अगर हम ब्रेन स्टैम की बात करें तो मुझेे लगता है कि वह मिलियन की स्पीड से एक्टिव हो जाता है, समय आने पर। हमारे शरीर का हाइपेथैलेमस कई गुणा ज्यादा काम करनी शुरू कर देता है। हम क्या, पशु पक्षी भी अपने आप को बचाने की कोशिश करते हैं, जब उन्हें कोई खतरा नजर आता है। वहां पर तीन ‘एफ’ की थ्योरी लागू होती है। अगर रेंगने वाले जानवरों की बात करें तो सबसे पहली थ्योरी में वे फाइट करते हैं। जब उन्हें लगता है कि बात नहीं बनेगी तो वह फ्लाइट करते हैं। अगर तब भी लगे कि अब खतरा और बढऩे लगा है तो फ्लोक की थ्यूरी पर चलते हैं, यानी इकट्ठे हो जाते हैं और मिलकर परिस्थितियों का सामना करते हैं। यह तो जरा-सी बात है, डाक्टर आकाश। आप तो डाक्टर हैं। इमेजिनेशन से खुशी मिलती है। अगर हम लोग शरीर में कोर्टिसोल यानी हाइड्रोकोर्टिसोन को रोक लें तो खुशी खुद-ब-खुद चलकर आपके पास आ जाती है। मेरा कहने का मतलब केवल इतना है कि जब तक सर्वाइवल के लिए खतरा न हो, फीलिंग ब्रेन में बातों को ले जाना ही नहीं चाहिए और इमोशनस में बहना ही नहीं चाहिए।’

प्रोफैसर पांडेय की बात सुनकर मैंने भी कहा, ‘आपकी बातें तो बिल्कुल ठीक हैं। मैंने यह फैसला भावुकता में नहीं लिया है। किसी इमोशंस में भी नहीं बहा हूं। बस मुझेे लगता है कि मुझेे यहां नहीं रहना चाहिए।’

*****