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डॉक्टरों की हड़ताल

हड़ताल

टीकू के सीने दर्द लगातार बढ़ता ही जा रहा था। दर्द से आँखे मींचे हुए वह दुहरा जा रहा था और बीच-बीच में उठकर मम्मी को देख लेता था, इधर-उधर। फिर निराश होकर पुनः लेट जाता था। दर्द को भुलाने के लिए जाने क्या-क्या सोच रहा है वह अपने मन को जाने कहां-कहां भरमा रहा है।

वह दिल्ली से दूर के एक कस्बे से यह सुनकर यहाँ आया था, कि इस अस्पताल में ईलाज का पैसा नही लगता। यहाँ गरीब अमीर सबकी एक सी देखभाल होती है। लेकिन यहाँ आकर पता लगा कि इस जगह इलाज करा पाना इतना आसान नही हैं। पहले तो आउटडोर में अपना पर्चा बनवाओ फिर लाइन में लगकर अपने मर्ज के डॉक्टर को दिखाओ। डॉक्टर के पास ऐसी भयानक भीड़ होती है कि तीन-चार घण्टे प्रतीक्षा में खड़े रहने के बाद जाकर कोई मरीज पहुँच पाता है, उनके सामने।

जित्ता बड़ा अस्पताल, उत्ते ही नखरे हैं यहाँ के। जब तक पुरी जांच और इन्वेस्टिगेशन न हो जाए, यहाँ का डॉक्टर किसी को एक गोली भी नही लिखता। इन्वेस्टिगेशन भी तुरत-फुरत नही होते। किसी के लिए दो तीन महीने बाद को समय मिलता है, तो किसी जाँच के लिए चार महीने बाद का। इस बीच यदि मरीज की हालत बीगड़ जाए तो राम ही रखवाला है। अब कौन समझाए यहाँ के ज्ञानी-विज्ञानी चिकित्सकों को, कि भैया एसी लम्बी तारीखें क्यों देते हो ? सोचे बिना मना ही कर दो न मरीज से, कि तुम तुम्हारे इलाज में असमर्थ हैं। ये अस्पताल नही अदालत है, जहाँ पेशिया लगती है।

पन्द्रह वर्ष की उम्र ऐसी ज्यादा नही होती कि दुनियादारी की बातें समझ सके कोई, लेकिन टिंकू की बात और है। विपत्ति और दुर्भाग्य कम उम्र में ही परिपक्व बना देता है किसी को। वह पाँच साल का था, तब कैंसर से निहत्थे जुझते हुए मर गए थे उसके पिता। दो ताऊ भी थे पर एक थे मत्त कमाऊ और दुसरे थे अपनी नौकरी के गुलाम। सौ टिंकू और उसकी तीनो बहनो के सिर पर हाथ फेरने वाला कोई न था। अधपगली माँ थी, जो लगातार रोती रहती थी उसके रोने में जाने कितने ढ़ंग थे। कभी बैठे-बैठे अचानक बिसुरने लगती थी। तो कभी अचानक बेअवाज रोते हुए आँखे लाल कर लेती थी। शुक्र है कि बहुत पहले माँ एक सरकारी स्कुल में नौकरी पा गई थी, तो उसकी तन्ख्वा ही घर खर्च का सहारा बन गई थी।

टिंकू फिर उठा और उस तरफ नजर दौड़ाई जिधर आउटडौर के पर्चे बनते थे। पर माँ का दूर-दूर पता न था। टिंकू अपने सीने का दर्द को दबाता हुआ शायद अनजाने मे जाने कैसा-कैसा चेहरा बना रहता था, कि एक मोटा थुल-थुल सा आदमी उसकी तरफ देखता हुआ कुछ देर वही खड़ा रहा, फिर प्यार से बोला “क्या बात है बेटा, ठीक तो हो !”

“जी” मुँह से कम बोला था टिंकू, पर अपना सिर दायीं तरफ झुकाते हुए उसने लगभग सारे शरीर से जवाब दिया था कि वह भला चंगा है।

वह भला चंगा ही तो था। लेटते हुए मन-ही-मन उसने सोचा- पिता कि मृत्यु के बाद जैसे तैसे समय कटने लगा था। घर में माँ थी और थी तीन बहनें, तथा चौथ वह। दूसरे नम्बर की बहन उस समय ग्यारह साल की थी, तीसरी नौ बरस की थी तथा छोटी बहन उससे भी छोटी थी, उस वक्त सिर्फ दो साल की।

नगर पालिका में क्लर्थ थे उसके पिता। जाने कहा से शराब पीने का शौक लग गया था उन्हे, जो लगातार बढ़ता ही गया और क्षय रोग से शरीर को क्षत-विक्षत करता हुआ कैंसर के मुहाने पर ले आया था।

नगरपालिका के अधिकारी ने पिता के स्थान पर अनुकम्पा-नियुक्ति देने का प्रस्ताव रखा, तो सब किंकर्तव्यविमुढ़ थे। बच्चों मे तो एक भी एसा न था, जो नौकरी कर पाता, इसलिए उनसे निवेदन करके कुछ दिनो के लिए उनकी माँ ने यह प्रस्ताव रूकवा लिया था। सोचा था कि जब बड़ी बेटी बेला अठारह की हो जाएगी, तो उसे ही दिला देंगे यह नौकरी। वह बुद्धिमान भी है। ग्यारह की उम्र में ही लगने लगा है कि छोटे-भाई बहनो के लिए माँ जैसी ममता थी उसमें।

वे सात साल बड़े कष्टो से बीते उन सबके। बेला खुद को तैयार कर रही थी नौकरी के लिए और बेला में घर का कमाऊ बेटा खोज रही थी माँ। खेलना तो सीखा ही न था उसने। दिन रात माँ के पास बैठे रहते थे वे।

अठारह की होते-होते बहुत कुछ जान गई थी बेला। यह भी कि सदा उसे अपने घर के लिए ही जीला है। और वह भी कि खुद की सारी इच्छाएँ तमन्नाएँ दफना देनी होगी उसे।

थोड़ी लिखा-पढ़ी अनुनय-विनय, आक्षेप और उनके निराकरणों की कागजी कार्यवाही के बाद अंततः नगरपालिका में क्लर्क बन गई थी बेला, तो सबको लगा था, कि चलो बरसों की साध पुरी हो गई। बुरे दिन पीछे छुट गए।

पहले दिन दफ्तर से लौटी थी, तो टिंकू हुसलकर बोला था “दीदी में अब जिंस का सूट लूंगा”।

“ले लेना ! कोई बड़ी बात है क्या ?” बेला लाड़ की तरंगो मे उतरा रही थी उस वक्त। बेला से छोटी शैव्या ने मिडी-सूट माँगा था, तो सबसे छोटी मिनी ने बंजार सूट की इच्छा की थी। वे लोग देर रात तक बतियाते रहे थे उस दिन।

बेला की नौकरी को एक साल बीत गया था। घर की काया पलट हो गई थी। वर्षो पुराने मकान की खुरदुरी दीवार पर नया पलस्तर हो चुका था। नया सोफा था बैठक में, और दीवारों के डिस्टेम्पर से लेकर घर के बर्तनों तक सेलगने लगा था कि घर का स्टैण्डर्ड बदल रहा है।

रक्षाबंधन का पर्व था उस दिन। टिंकू नए कपड़े पहने घूम रहा था, मुहल्ले में अपने दोस्तो के साथ। उसने खुद को शीशे में देखा तो आत्ममुग्ध हो गया था। नए पहने कपड़ो में वह खूब सुंदर दिख रहा था।

बारह बजे पड़ोस के मंदिर में श्रावणी पूजा निबटी थी। ग्यारह बजे से टिंकू वही पूजा देखता रहा था। उसे बड़ा कौतूहल था कि दोना-पत्तल सामने रखकर बैठे वे दस-बारह पंडित आखिर क्या कर रहे हैं ? सबके हाथो में कुश की अजीब-सी अंगूठी थी और उघारे बदन पर मोटे-मोटे जेनऊ टंगे थे-बाएँ कंधे से लेकर दाई तरफ कमर तक झुलते हुए। पूजा की सामग्री में चंदन,अक्षत फूल, रााख, गोबर, गोमूत्र, गोदूध से लेकर घी अलसी शहद तक शामिल था। पूजा के अंत में बांटा गया पंचामृत पिया, तो बड़ा अच्छा लगा, उसे, पर पंचगव्य पिया, तो मुँह का स्वाद ही बिगड़ गया था, पुछने पर पता लगा कि गोमूत्र, गोबर, दूध, दही और घी का सम्मिश्रण था वह।

वह थू-थू करता घर लौटा और अपनी बहनों को वह किस्सा सुनाया, तो हँसी से लोट पोट हो गई थीं वे सब। उसे चटोरा कहती थीं न सब।

उनके कस्बे की यह परंपरा थी कि श्रावणी पूजा के बाद ही राखी बांधी जाती थी। टिंकू को एक ऊँचे से पटा पर बैठाकर सबने राखी बांधी उसकी कलाई पर फिर बलाई ली। फिर तब साथ-साथ खाने को बैठे।

वे उसे अस्पताल ले गई। इसके बाद मेडीकल कॉलेज तक जाना पड़ा उसे। जहां गहरी छान बीन के बाद एक भयावह बात पता चलती थी कि उसके दिल में एक छेद है। दिल में छेद, यानी कि बड़ी बिमारी, और बड़ा ही ईलाज। बड़ा ईलाज अर्थात् बड़ा बजट कित्ता बड़ा क्या पता ? लाख दो लाख कुछ भी हो सकता था यह बजट ! कहाँ ो आएँगे इतने रूपए ? सोचतो घर के सब लोगों के हाथ-पाँव ठण्डे हो गए थे। सन्नाटा छा गया था, सबके मन मे भीतर ही भीतर।

फिर किसी ने बताया था- दिल्ली के इस अस्पताल का पता। कहा था- वही पुराना कथन कि इस अस्पताल में इलाज के पैसे नही लगते, बस किसी तरह आपका प्रवेश हो जाए यहाँ। वह किसी तरह वाला रास्ता कहा जानते थे वह लोग ? मम्मी, बेला और टिंकू उस समय आ पहुँचे थे वहाँ। तीन और से एक बड़े मैदान को घेरे, हजारो कमरो वाली इस इमारत का विराट स्परूप देखकर मन ही मन दहल गए थे वे लोग।

किसी तरह पर्चा बना था और संयोग से उसी दिन टर्न पड़ता था दिन के डॉक्टर का। तो होथों-हाथ डॉक्टर ने भी देख लिया था टिंकू को। कुुुुछ जांच हुई थी एक अजीब सी मशीन पर और डॉक्टर ने उन्हे माइनर ऑपरेशन की तारीख दे दी थी ताकि फिलहाल काम चलता रहे अभी। बड़ा ऑपरेशन बाद में होगा। सात दिन के लिए अपने घर काहे को लौटते वे? तो वाही रूके रहे । दरअसल सात दिन बाद तारीख थी माइनर ऑपरेशन की।

नियत दिन टिंकू को ऑपरेशन कक्ष में ले जाया गया। एक रक्तवाहिनी को भीतर ही भीतर दिल से जोड़कर डॉक्टरो ने बाहर भेज दिया था उसे। पूरे दस घंटे बाद होश में आया था वह। तीन चार दिन भर्ती रहा था।

बड़े ऑपरेशन की तिथि तीन महीने बाद की मुकर्रिर हुई, जो कि अक्टूबर महीने की बीस तारीख पड़ रही थी। उन लोगो को दिल्ली सत्रह हो ही आ जाना है, सह तय करके वे लोग अपने घर लौट आए थे।

टिंकू की दुनिया ही बदल गई थी अब। न वह तेज स्वरों में बोलता था और न ही भागने-दौड़ने का कोई खेल खेलता था। तीखे और चटपटे खाने से दूर का भी रिश्ता नही नही रहा था उसका। बुआ ने जब उसे देखा तो दहाड़ मारके रो उठी थी। देर तक सिसकियाँ लेते हुए भगवान को बुरा-भला सुनाती रही थी। कहती रही थी, कि इस छोटे बच्चे का आखिर कुसूर क्या है, कि पहले बाप छीन लिया और अब एसी गंभीर बिमारी दे दी इसे। मम्मी भी बिखल उठी थी तब और सकपकाया-सा टिंकू चुप बैठा रह गया था।

बीस अक्टूबर को ऑपरेशन हो नही पाया और ऑपरेशन की तिथि चार महीने के लिए आगे बढ़ गई। वैसे भी न अब दर्द होता था टिंकू को और न ही कोई अन्य परेशानी थी। बस सुस्त सा बना रहता था वह। किसी को तारीख बढ़ने का दूःख नही हुआ। सात महीने बीत चले।

घर के लोग कुछ निश्चित से हो गए थे। उसकी तरफ वैसा ध्यान नही देता था कोई, बल्कि यह कहना उचित होगा। कि टिंकू की बिमारी की भी आदत पड़ गई थी सबको। इसी आदत का परिणाम था कि बीस फरवरी को बेला को छुट्टी न मिलने के कारण वे लोग दिल्ली नही जा सके। इसके लिए न किसी को दुःख था न पछतावा। पर टिंकू मन ही मन चिंतित था। अचानक ही बेला में कुछ परिवर्तन महसूस किए थे सबने। वह प्रायः मुन्ना के साथ शाम को घर लौटती। दोनों कनबतियां करते रहते। लोग कनखियों से देखते उन्हे। मोहल्ले की एक दो स़्ित्रयों ने मम्मी को टोका तो वे गुमसुम-सी देखती रही थीं उन्हें।

मम्मी ने बेला को समझाया, तो बिफर उठी थी वह। घर का खर्च उठाने की जिम्मेदारी जब मुझे दी गई है, तो थोड़ी बहुत मनमर्जी करने की भी स्वतंत्रता चाहिए मुझे। मम्मी ने कहा कि बाप की जगह नौकरी मिली है तुझे, सो बाप क जिम्मेदारी भी निभानी होगी। तो चीख पड़ी बेला, कि मैं आज ही त्यागपत्र दे देती हूँ इस नौकरी से। मम्मी ने कहा कि फिर क्या अपने बाप के हाड़ खाएगी। निगोड़ा मुन्ना तो खुद बेरोजगार हैं।

इस संवाद के बाद बेला घर से कटती चली गई थी। कहाँ तो कहती थी कि सब बहन-भाईयों को ठीक से सैंटल कर देना उसका आखिरी लक्ष्य है, और कहाँ अब सबसे पहले अपना घर बसाने की तैयारी करने लगी थी।

एक दिन आर्यसमाज के कार्यालय में जाकर उन दोनों ने शादी भी कर ली थी और अलग घर में चले गए थे। दरअसल मुन्ना वैसा ही युवक था जैसा गूंगा और गुलाम पति वह चाहती थी। इधर घर में आभावो के घनेरे बादल फिर छा गए थे।

बेला से छोटी शैव्या ने स्वतः ही सिलाई सीखना शुरू किया और जल्द ही वह दुसरो के कपड़े सिलने लगी। समय फिर जैसे तैसे बितने लगा। सुना तो मम्मी तड़प उठी। उसने लिहाज तोड़ा और बेला के घर जा पहुंची। निरपेक्ष भाव से बेला ने उन्हे कह दिया कि यदि तबियत खराब है तो अस्पताल जाकर ईलाज कराइए। वो क्या करे ?

अर्द्ध विक्षिप्त सी मम्मी उसी रात टिंकू को अस्पताल ले गई। दिल्ली के पर्चे देखे, तो किसी भी डॉक्टर ने इलाज करने से मना कर दिया। फिर दो दिन इसी उपाओह में गुजरें। अंततः आज प्रातः वे दोनों दिल्ली आ पहुंचे। इंस्टीट्युट के द्वार के ठीक सामने टिंकू को फुटपाथ पर लिटाकर मम्मी आउटडोर के पर्चा रिन्यू कराने वाले हिस्से में चली गई है, जिनका वह बेसब्री से इंतजार कर रहा है।

पीड़ा को दबाते हुए टिंकू ने आँखे खोली तो मम्मी को खुद पर झुके हुए पाया। वे कुछ आश्वस्त-सी लग रही थीं। बताया कि आज भी उसी डॉक्टर का टर्न है, जिसने पहले देखा था। टिंकू आश्वस्त होकर हिम्मत बांधने लगा कि सीढ़ीया चढ़ के ऊपर जा सके पर उसकी हालत तो खड़े होने तक की नही थी। मम्मी ने वार्ड-ब्वाय से अनुमति लेकर एक व्हील-चेयर उठायी थी और उस पर जैसे-तैसे टिंकू को बैठा लिया। लिफ्ट में चढ़कर वे जब ऊपर की मंजिल पर जा रहे थे तो एक मरीज निराश स्वर में उनसे बोला, “हड़ताल के कारण शायद ही कोई डॉक्टर मिले आज।”

हाय रे दुर्भाग्य ! डॉक्टर का चेम्बर बंद करता एक वार्ड-ब्वॉय दूसरे मरीजो से कह रहा था, अब दो महीने बाद आना। डॉक्टरों की हड़ताल चल रही है, इसलिए सबको दो महीने बाद की तारीख दी जा रही है। नीचे जाकर नई तारीख ले लो।” यह सुनकर मम्मी बिलख उठी और टिंकू पर फिर बेहोशी छा गई।

एक मरीज तो वार्ड-ब्वॉय पर अपना गुस्सा निकालने लगा-ये डॉक्टर है कि कसाई। अपने मतलब के लिए सैकड़ो मरीजों को, बिना आसरे छोड़ गए। क्या करेंगे ये मरीज, कहाँ जाएँगे।

वार्ड-ब्वॉय ने कोई जवाब नहीं दिया, वह रोबोट की तरह मशीन बना सुनता रहा और ताला लगा के चलता बना।

पूरे अस्पताल में अफरा-तफरी मची हुई थी। मरीज और उनके खुशामदी हताश हो चले थे, कोई-कोई तो रो ही उठा था। सर्जिकल वार्ड में आज जिसका ऑपरेशन होना था, वे अपनी टुटी हड्डीयो में दर्द बढ़ता महसुस कर आँखे मुंदे दीवारो से सिर टिकाए लेटे थे। किडनी विभाग की पांचवी मंजिल पर तो हाहाकार मचा हुआ था डायलिसिस कराने के लिए भर्ती हुए मरीज अपनी किडनीयों में एठन महसूस करते हुए अनिष्ट की आशंका में सूनी-सूनी आँखो से इधर उधर ताक रहे थे। शरीर में इकट्ठा होता जहर कही बदन फाड़कर बाहर न निकल पड़े, यह भय अब उन्हें आँख मुंदकर सोने भी नही दे रहा था।

किडनी केंसर और हृदय रोगो के ईलाज बड़े महंगे होते है, यह बात टिंकू की मम्मी ने यहां आकर जानी है। इन रोगो के मरीज हड़ताल के कारण ज्यादा सदमें में हैं, क्योंकि प्रायवेट अस्पताल में जाकर इलाज कराने की कुव्वत होती, तो यहां क्यो आते वे लोग।

छोटे-मोटे मरीजो ने अपने बिस्तर बांधके अस्पताल छोड़ना शुरू कर दिया था सीढ़ियो पर काफी भीढ़ थी और लिफ्टे तो खचाखच भरी थीं सबकी सब। भूकंप या युद्ध की आशंका से आसरा छोड़कर भागने का दृश्य साकार हो रहा था वहाँ।

टिंकू का सिर एक ओर को लुढ़का दिखा, तो मम्मी दहाड़ मारके रो उठी थीं पर उनकी चीख कांक्रीट की बनी अस्पतान की बेजान इमारत में यहां से वहां तक लहराती, पछाड़ खाती, गुंजती रही थी। कौन सुनता यह चीख ! जो सुन सकते थे, वो तो हड़ताल पर थे-अपनी तनख्वाह के लिए, भत्तों के लिए, काम के घंटो के लिए।

रो-रो हलकान हो चुकी मम्मी को यकायक याद आया कि इमरजेंसी तो हर वक्त खुली रहती है, चलो वही दिखा लें। उनकी बुढ़ी हड्डियों में फिर जोश आ गया, पहिए दार कुर्सी के हत्थे पकड़े वह तेजी से लिफ्ट की ओर भागी।

लिफ्ट मौजूद न थी, और वहाँ भी दर्जनों लोग खड़े थे, लिफ्ट के लौटने इंतजार में। उनमें ही शामिल हो गर्द मम्मी, और मन-ही-मन प्रार्थना करने लगी कि जल्दी लिफ्ट लौट आए।

भीड़ में मौजूद लोग उत्तेजित थे। एक नेतानुमा युवक कह रहा था कि वह कल ही संसद में सवाल उठवा देगा, तो दूसरे ने टेलिवीजन पर समाचार पहुंचाने की बात की। मम्मी के मन में आशा शेष थी, वे बोलीं, “चार छः दिन में खुल जाएगी न हड़ताल, फिर इलाज करा लेंगे ! काहे को डॉक्टर को नाराज करते हो आप लोग !”

“अरे अम्मा ! तब तक जाने कितने मरीज मर जाएँगे।” नेतानुमा आदमी झल्ला उठा यह कहते-कहते।

ईधर मम्मी के दिल पर तो एक चट्टान सी सरक गई थी, यह सुनकर उसने घबराकर टिंकू को देखा और अपनी साड़ी के पल्लू से हवा करते हुए उसे जगाने का यत्न करने लगी।

टिंकू की बेहोशी टूटी और आँख खोलकर उसने ईधर उधर ताका। मम्मी का चेहरा थोड़ा खिल सा गया।

उधर नेता का भाषण जारी था-मैं तो अदालत में नालिश कर दूंगा। यहां के डॉक्टरो पर। मेरा चौकीदार आठ दिन से भर्ती है और उसकी हालत में रत्ती भर भी फरक नही आया हैं। ये सब के सब आलसी है। मेरा नौकर मर गया तो निपटा दूंगा में एक आध को ।

टिंकू ने अपने आप को संभाल लिया था तब तक। जोर लगा के वह बोला था, हम लोगो की जान इतनी आसानी से नही जाने वाली नेताजी। बड़ी कठिन जान है हमारी मुझे तो एसा लगता है कि इन अस्पताल फस्पताल से हमारी जिन्दगी पर कोई फरक नही पड़ता। हम लोग जाने कैसे जिंदा रहते हैं, जाने कैसे मर जाते है। इसलिए चिंता मत करो। जल्द ही ठीक हो जाएंगे हम लोग ।”

भीड़ मे सन्नाटा छा गया था।

लग रहा था मन-ही-मन सब कर रहे हैं-आमीन !

लिफ्ट की सरसराहट ने लोगों का ध्यान खींचा तो लोग सक्रिय हो उठे। कुछ लोग लिफ्ट में घुसे, तो उनके बीच जगह बनाती मम्मी भी दाखिल हो गई। टिंकू अब ठीक दिख रहा था।