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सूर: वात्सल्य के विविध आयाम

सूर: वात्सल्य के विविध आयाम

भक्ति की दार्शनिकता से पुष्ट और अलौकिक अनुग्रह की प्रार्थना के रूप में निर्वदित होते हुए भी सूर की कविता का परिवेश अधिक प्रत्यक्ष, लौकिक, मानवीय और तादात्म्य सुलभ है। उनके काव्य में संबंधित समाज अपने भूगोल और जीवन के कार्य व्यापारों के रूप में तो चित्रित है ही, उसकी संवेदना भी अत्यन्त मानवीय और रूपात्मक है। सूर की भक्ति कविता पर न सिद्धान्त निरूपण का बोझिल दबाब है, न इतिवृत्त अथवा विवरणों का रचना विरोधी विस्तार या बिखराव। उन्होंने अपनी उद्भावनाशील रचनात्मकता के द्वारा समाज के व्यापक अनुभवों को गहरी अन्तर्दृष्टि के साथ इस प्रकार चित्रित किया है कि उनका काव्य एक ओर सरस गीत बन गया है तो दूसरी ओर अपने समय और समाज का प्रासंगिक अभिलेख। उनकी अनुभूतियाँ ही नहीं उनके काव्य के उपकरण भी समाज से जुड़े होने के कारण संप्रेषण प्रवण और प्रतीतिपरक है।

भक्ति के आलंबन के रूप में भागवत के दशम स्कन्ध में कृष्ण का जो स्वरूप सूर के काव्य का उपजीव्य है उसमें सूर को रचनात्मकता की असीम संभावनाएँ मिलीं। उनमें से प्रेम का निरूपण तो पहले भी होता रहा है और सूर ने प्रेम-चित्रण में माधुर्य की आन्तरिकता का अभिनव आकल्पन भी किया है पर बालकृष्ण के रूप में सूर ने वात्सल्य के क्षेत्र में अद्वितीय आविष्कार किया है। शैशव या बाल्यावस्था पर मनोवैज्ञानिक अथवा जैविक दृष्टि से तो लिखा जा सकता है और लिखा भी गया है किन्तु उसके ऊपरी परिचय से हटकर उसे कलात्मक अथवा साहित्यिक रूप देना और वह भी पूर्णता के स्पर्श के साथ, अनुभूति की तलस्पर्शी गंभीरता तथा उत्कृष्ट रचनात्मक माध्यम की अपेक्षा रखता है। सूर ने इसे जिस सहजता से साधा है वह उनकी अन्यतम सिद्धि है।

वात्सल्य प्राणी जगत का स्वाभाविक मनोभाव है, मानव जगत का तो और भी अधिक। गर्भत्व और प्रसव की जैविक प्रक्रिया के अंतर्गत शिशु का सम्बन्ध माता से शारीरिक ही नहीं रह जाता बल्कि वह उसकी ममता का सहज आलंबन बन जाता है। मातृत्व की यह वृत्ति जननी में तो होती हीहै, अन्य स्त्रियों में भी यदि राग द्वेष न हो तो किसी भी शिशु के प्रति संभव है। देवकी, यशोदा और गोपियों के हृदय में कृष्ण के प्रति जो वात्सल्य है उसके संदर्भ यही हैं। यशोदा के वात्सल्य में पुत्र प्राप्ति की संचित आंकाक्षा जैविक रूप से जननी न होते हुए भी शिशु कृष्ण को पाकर पूरी हो जाती है और उनके मन में वात्सल्य सहज रूप से उमड़ पड़ता है। वास्तव में वह कृष्ण की धात्री न होकर माता ही बन जाती है, हालांकि कृष्ण के मथुरा प्रवास के समय देवकी को संदेश भेजती हुई यशोदा ‘हौं तौ धाय तिहारे सुत की’ कहती हैं। इस कथन में यशोदा के हृदय की जो स्थिति व्यक्त हुई है और जननी और धात्री के अन्तर की जो मार्मिक व्यंजना हुई है उसकी कोमलता और बारीकी को शब्दों में कह पाना सूर का ही रचना कौशल है। शिशु माता-पिता की व्यक्तिगत आकांक्षा की तृप्ति तो है ही वह सामाजिक वृद्धि का घटक भी है। इसलिये शिशु-जन्म पर वात्सल्य का प्रसार पूरेे समाज का उल्लास बन कर प्रकट होता है। वह स्वागत का उपलक्ष्य बन जाता है। मातृत्व का यह विस्तार सामाजिक संश्लेषण का अप्रत्यक्ष आधार भी होता है। गोकुल की स्त्रियों में बालकृष्ण के प्रति इस स्नेह का कारण यह नहीं है कि वह सम्पन्न मुखिया नंद के पुत्र हैं। ऐसा होता तो यह स्वामिभक्ति का बनावटी प्रदर्शन हो जाता। कृष्ण इसलिये प्रिय हैं कि वह सौन्दर्य में अप्रतिम और चेष्टाओं में विलक्षण है।

सूर का वर्ण्य समाज भले ही राजधानी में बैठे किसी नृप के शासन के अधीन है पर उनके समाज का जीवन समान सामाजिक व्यवस्था का प्रतीक है। उसमें ‘जाति पाँति हमते वर नाहीं नाहिन बसत तुम्हारी छैयाँ’ और ‘खेलत में को काको गुसैंयांँ’ जैसी उक्तियाँ भी कह दी जाती हैं। अधिक गायें होने अर्थात आर्थिक सम्पन्नता होने के कारण किसी को सामाजिक विशेषाधिकार क्यों मिले ? विशेष रूप से वंशधारित श्रेष्ठता के। बाल जगत तो सामाजिक असमानता के इस बोध से प्रभावित न हो।

यों तो हमारे मनोभाव सहजात होते हैं पर उनके निर्धारण में, उनकी प्रबलता और क्षीणता में अन्य स्थितियों का भी महत्त्व रहता है। वात्सल्य की अनुभूति भी सामान्य रूप से स्वाभाविक और प्रायः निरपक्ष प्रतीत होने पर भी परिवेश जीवन दशाओं आकांक्षाओं के अनुसार भी रूप लेती है। सूर के सम्पूर्ण काव्य की तरह उनके बाल वर्णन में भी सम्बन्धित परिवेश उपस्थित है। कृष्ण का वेश, दही और मक्खन आस्वाद के काम्य पदार्थ गोप बालों के साथ खेल गोचारण नंद और यशोदा की आकांक्षा आदि अनेक संदर्भ सूर के वात्सल्य को स्वाभाविक बनाते हैं । बच्चे का रूप और उसकी चेष्टाएँ वैसे भी प्रिय लगती हैं फिर अपनी जीवन दशाओं के अनुरूप होने पर उनकी प्रियता और बढ़ जाती है। बाल-वर्णन के इस तादात्म्य का एक कारण वह परिवेश भी है जिसमें भक्ति के आराध्य के प्रति कुछ अतिशय भावाकुलता तथा काव्यात्मक उपकरणों के कारण विशेष वर्णन होते हुए भी सब कुछ सामान्य और स्वाभाविक लगता है। सूर ने भी कहीं कनक आँगन और खंभों में प्रतिबिम्बित कृष्ण की छवि का वर्णन किया है पर उनके कृष्ण धूल और मिट्टी सें अलग विशिष्ट वर्ग के बालक नहीं है। उनकी चेष्टाएँ बालोचित सहजता के साथ ही अपने परिवेश से संपृक्त हैं।

सूर कृष्ण के बाल रूप का वर्णन अपने आराध्य के प्रति भक्ति से प्रेरित होकर ही करते हैं और अनेक स्थानों पर उनके ईश्वरत्व का बोध भी कराते हैं। पद की अन्तिम पंक्ति में तो वह भक्त होने का परिचय देने का अवसर खोज ही लेते हैं। फिर भी वात्सल्य में वह अपने आराध्य का लौकिक रूप से ही चित्रित करते हैं। इसीलिये उनका यह निरूपण मनोविज्ञान, व्यवहार और सामान्य अनुभूति की दृष्टि से इतना संवेद्य बन गया है। नंद के घर पुत्र जन्म के समाचार से सभी लोग आनन्दित हैं। सभी स्त्रियाँ नूतन वस्त्र पहन कर उनकी अभ्यर्थना में दौड़ पड़ती हैं। कृष्ण के बाल सौन्दर्य के प्रति अनन्य आसक्ति और उनकी चेष्टाओं से प्राप्त उल्लास, अनेक बहानों से उनके सान्निध्य की आकांक्षा, ऊपर से खीझ और शिकायत और भीतर से झिलमिलाती खुशी, नन्द और यशोदा का सुख, उनकी चिन्ताएँ, अभिलाषाएँ, कृष्ण की बाल सुलभ चंचलता, बालबुद्धि के अनेक प्रदर्शन.... इन सब के भीतर की सूक्ष्म मनोदशाओं का आन्तरिक स्वरूप सूर की दृष्टि से कुछ भी ओझल नहीं हुआ है। इतना सर्वसुलभ, इतना काम्य कि लोकजीवन में आज भी दूल्हा और दुलहिन के आदर्श के रूप में भले ही राम-सीता से संबंधित गीत गाये जाते हों पर जब पुत्र जन्म की बधाई के लोकगीत गाये जाते हैं तो उनमें जसुदा के भये नन्दलाल ही होते हैं और कृष्ण को शिशु रूप में इस तरह काम्य बना देने की विलक्षण कल्पना सूरदास की है। माता इस कामना की आश्रय है जिसके हृदय को सूर ने तत्सम रूप में पढ़ा है। इसीलिये हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि कहा जाता है कि ‘सूरदास बाल लीला वर्णन करने में अद्वितीय है, मैं कहूँगा सूरदास मातृहृदय का चित्र खीेंचने में अपना सानी नहीं रखते।’

सूर एक और क्षेत्र में भी अनुपम और विशिष्ट हैं। वह है कृष्ण के प्रति गोपियों के वात्सल्य और कान्ताभाव का प्रेम के ही रूप में ऐसा यौगिक तैयार करना जिसमें सहज रूप से एक तत्त्व दूसरे में मिल जाता है। वैसे तो रस की दृष्टि से इनका विश्लेषण करें तो आलम्बन एक होते हुए भी अवस्था की दृष्टि से वे भिन्न होंगे और आश्रय में भी उसी प्रकार अवस्था भेद होगा। पर वात्सल्य का यही अनुराग मनोवैज्ञानिक रूप से कहाँ तक सिर्फ वात्सल्य है और कितना अंश उसमें रति के दूसरे रूप का निहित है, इसे विच्छिन्न कर पाना बहुत आसान नहीं है। डाँ. राममूर्ति त्रिपाठी ने शिशु कृष्ण को देखकर एक गोपी के मन में उमड़ते कांता भाव के उदाहरण में एक पद दिया है.

तजी लाज कुल कानि लोक की पति गुरू जन प्यौसारौ री।

सासु ननद घर-घर लिए डोलत याको रोग विचारौ री।

सूर की भक्ति की दृष्टि से देखें तो यह माधुर्य का अखण्ड प्रसार है और मनोविज्ञान की दृष्टि से यह मनोवृत्तियों का नैसर्गिक स्वरूप है। इस प्रेम की विभिन्न छवियों का ऐसा संश्लेष सूर की गहरी अणुवीक्षणीय दृष्टि का परिचायक है। प्रेम की तरह वात्सल्य संयोग में प्राणद है और अभाव में त्रासद। शास्त्रीय दृष्टि से वात्सल्य के विभिन्न उपादानों को चिन्हित करके उसे रस की प्रतिष्ठा देना सूर की कारयित्री प्रंतिभा का अभिनन्दन ही है लेकिन बिना इस निष्पत्ति की प्रक्रिया से सजगता से गुजरे भी सूर का वात्सल्य चित्रण आस्वाद को पूरी तरह तृप्त करने में सक्षम है।

कलात्मकता सूर की बाहर से लायी हुई सज्जा नहीं है। कृष्ण के बाल सौंन्दर्य के चित्रण में कभी-कभी उन्होंने शास्त्रीयता की ओर से भी प्रस्थान किया है लेकिन अधिकतर वे अपने उपकरणों के लिये भी लोक जीवन से ही जुड़ते हैं। भावों की अभिव्यक्ति में वह अभिधात्मक और स्थूल न होकर उनके भीतर की सारी व्यंजनाओं के उसी तरह वृत्त रचते हैं जैसे पानी में फेकें गये किसी कंकड़ से जलाशय के तटबंधों तक परिधियाँ बनती जाती हैं। विदग्धता का प्रमेय सूर के काव्य से बढ़कर और क्या है।

सूर के वात्सल्य के संज्ञेय आयामों के अनुसंधान के बाद भी अनुभूति के स्तर पर उसकी संभावनाओं का कोष अक्षय बना रहता है। सूर को भक्ति के सम्प्रदाय विशेष की शास्तियों का गायक मात्र न मानकर लोक की अनुभूतियों से जुड़ा कवि मानते हुए ही मैनेजर पाण्डेय प्रश्न करते हैं- ’क्या ऐसे कवि को अपने आस पास की दुनिया से विरक्त अपने भाव में मगन रहने वाला कवि मानना उचित है?’

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