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हिंदी-गुजराती भाषाई नोंक-झोंक

सन १९८०-८१ में हम जयपुर राजस्थान से अहमदाबाद गुजरात में आए। मेरे पति होटल लाइन में थे और उनका जयपुर रामबाग़ पेलेस होटेल से स्थान्तरण कामा होटेल अहमदाबाद में होगया था, पहले यह दोनों प्रॉपर्टी ताज होटल्स के साथ थीं। हमें होटेल के पास ही बोरसली अपार्टमेंट में रहने को फ्लेट दिया गया।
इस फ़्लोर पर चार फ्लेट थे। हम गुजराती भाषा और यहाँ के तौर तरीक़े से बिलकुल भी परिचित नहीं थे,सो शुरू शुरू में थोड़ी बहुत खट्टी मीठी दिक़्क़तें आती रहती थीं, पर आसपास के लोग काफ़ी मददगार थे, भाषा पूरी तरह न आने पर भी काम चल जाता था।
वैसे दोनों भाषाएँ बहनों जैसी ही लगती थीं मुझे तो, पर जैसे दो बहिनों में थोड़ा अंतर होता है, वैसे ही इनमें भी था।एक ही शब्द होने के बावजूद अर्थ अलग हो जाता था।
एक बार की बात है, शाम को अचानक हमारे दरवाज़े की घंटी ख़राब हो गई। सुबह ६बजे क़रीब दूधवाला आया करता था, सो चिंता हुई कि सुबह वह घंटी (डोर बेल)बजाता रहेगा और हमें पता ही नहीं लगेगा अत: मैंने एक काग़ज़ पर मोटे अक्षरों में लिख दिया , ‘घंटी ख़राब है।’ तथा उसे बाहर घंटी के स्विच के पास चिपका दिया।
हमने लगाया ही था कि पड़ोसन बाहर आई और लिखा हुआ पढ़ने लगी, उसके माथे पर थोड़े बल पड़े , फिर मुझ से पूछा,’ यह क्या लिखा है?´ मैंने होशियारी के भाव से कहा, ‘ हमारी घंटी ख़राब हो गई है , इसलिए लिख दिया, कोई आकर न चला जाए।’
वह कुछ असमंजस में लगी, फिर बोली,’ अच्छा तुम्हारे पास घंटी है, जो ख़राब हो गई, ...हाँ, बराबर कोई गेंहू पिसाने आए तो बिचारे को धक्का नहीं पड़े ना!’
‘क्या! मैं चौंकी, अरे यह तो मैंने दूध वाले के लिए लिखा है, गेंहू पिसवाने मेरे पास कोई क्यों आएगा?’
उसने भी चौंकते हुए कहा, दूध वाला ? वह क्या करेगा घंटी का?’
मुझे लगा, कुछ तो गड़बड़ है, हम दोनों की बातों में कोई तालमेल ही नहीं बैठ रहा था। मैंने अपनी हँसी रोकते हुए पूछा,’ तुम घंटी का क्या मतलब समझ रही हो?’
वह भी थोड़ा सकपकाई और कहने लगी,’ अच्छा बताओ तुम्हारी घंटी कहाँ है?’
मन में सोचा, अजीब है, घंटी के पास खड़ी है और घंटी नहीं दिख रही इसे? कोई तो गड़बड़ है, मैंने कहा,’ कमाल है,यह तो रही, घंटी के स्विच को छूते हुए कहा।
सुनते ही वह ज़ोर ज़ोर से हँसने लगी.. और अपनी नंद निराली को आवाज़ देने लगी। मुझे उसकी यह हरकत बहुत ही अज़ीब लग रही थी।
निराली ने बाहर आकर सब बात पूछी, और वह भी हँसने लगी, फिर बोली, ‘आंटी, यह घंटी थोड़े ही है'
' तो क्या है? मैने हैरत से पूछा. , '
यह तो बेल है।’
'क्या? ' मैं भी चौंकी,
वह कहने लगी चलो आप मेरे साथ आओ, हाथ पकड़ कर वह मुझे अपने घर में ले गई और वहाँ दाल, दलिया, गेंहू पीसने की मशीन बता कर कहने लगी,’ इसे हम घंटी कहते हैं, जो छोटी घर में रखते हैं, उसे घर घंटी कहते हैं और जो बाहर बड़ी मशीन होती है ना,उसे घंटी कहते हैं।
अब हँसने की बारी मेरी थी, ‘अरे! तुम इसे घंटी कहते हो?’ अब समझ आया भाभी के वे प्रश्न जो बाउंस हो रहे थे। तभी, उसने पूछा, ‘आप इसे क्या कहते हैं?’
मैंने कहा ‘ चक्की’ यह लो अब वह हँसने लगी।
हम एक दूसरे पर हँस रहे थे, शुरू की बातें याद कर के जो हमारी समझ में नहीं आ रही थीं।
मैंने कहा ‘पर यह बेल शब्द तो अंग्रेज़ी का है, गुजराती का बताओ’ कहने लगी यह तो गुजराती भाषा बनने के बाद बनी हैं ना, इसलिए कोई शब्द नहीं है, हम सब इसे बेल ही कहते हैं।वैसे गाँव में घंटडी़ कहते हैं.
तभी निराली अंदर गई और एक काग़ज़ पर गुजराती में लिखकर लाई- ’या बेल ख़राब थई छै।’ यह लीजिए, अब आप इसे लगाइए।
मैंने कहा लिखा हैना, ‘लेकिन दूध वाला भी तो गुजराती हैं ना’ कहकर हँसने लगी और मैं क्लीनबोल्ड ... :)
©मंजु महिमा