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शम्बूक - 22

उपन्यास : शम्बूक 22

रामगोपाल भावुक

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13 शम्बूक के आश्रम में- भाग 4

आप लोग जाकर इस नई व्यवस्था में भागीदार बने। आप लोग अपने अपने वर्ग में जायें और अपनी बात का उनसे निवेदन करें। यदि वे नहीं माने तो बुद्धि-वल पूर्वक अपना काम बनायें। यदि हम यह पंक्ति तोड़ने में सफल नहीं हुये तो यह आने वाले समय के लिए नासूर बन जायेगा। सेवक वर्ग पतित हो जायेगा। वह अपना अस्तित्व भूल जायेगा। मुझे दिख रहा है हमें पीछे धकेला जा रहा है। वे लोग अपने ही खास भाइयों को साथ बैठाने में हीनता अनुभव करने लगे हैं।

बन्धुओं! हमारे इस देश में कहीं भी जातियाँ नहीं थीं। जातियाँ तो आज भी नहीं हैं। भाई- भाई अलग- अलग रहने लगें तो जाति बन गईं। यहाँ शब्द ब्रह्म की प्रमुखता रही है। सारा खेल उसी का चल रहा है। जो दीप हमारे अन्दर जल रहा है वही सभी के अन्दर समाहित है। समझ नहीं आता ये वर्गों की दीबारें क्यों पनप रही हैं। इनमें दिन- प्रतिदिन कट्टरता आती जा रही है। हर पिता अपने बच्चे को अपने ही वर्ग में रखना चाहता है। मेरा सोच है ये दीबारें ठीक नहीं है। अब सभी अपने- अपने गंतव्य को प्रस्थान करें।

श्रीराम हमारे महाराजा हैं। वे बहुत सोच विचार कर चलने वाले है। उनका हर कदम सोच समझकर पड़ता है। यदि आपके साथ न्याय न हो तो आप अपने महाराजा की शरण ले सकते हैं। वे निश्चय ही न्याय करेंगे।

किसी का स्वर गुँजा-यदि उन्होंने न्याय नहीं किया तो?

‘यह सम्भव नहीं है। वे न्याय के लिये प्रसिद्ध हैं। मुझे ज्ञात र्है वे विश्वामित्र और बसिष्ठ जी के मध्य नहीं आये। वे दोनों में श्रद्धा रखते हैं, इनमें से कोई किसी सें कम नहीं हैं। श्री राम अपनी मर्यादाओं में बंधे हैं। इसे हम अपने स्वार्थ के लिये उनके कार्यों को अन्याय से परिभाषित कर सकते हैं।

‘इधर विश्वामित्र चिन्तन में डूवे हैं। उन्होंने जब से यह झूठी कहानी सुनी है कि राम ने एक तपस्वी को मारा है। यह कहानी बनाकर कुछ लोग महाऋषि की हमदर्दी बटोर ने का प्रयास कर रहे हैं। समझ नहीं आता इतना ज्ञानी-ध्यानी ऋषि कैसे इनकी बातों पर विश्वास कर सकता है। उन्होंने मुझे ब्रह्म ऋषि स्वीकार कर लिया है, मुझे उनके विवके पर सन्देह नहीं रह गया है। वे ऐसे झूठे किस्से-कहानियों पर विश्वास नहीं कर सकते।

मैं यह जान रहा हूँ कि हमारे राम ऐसा कोई आचरण नहीं कर सकते जिससे आम जन-जीवन प्रभावित हो। कर्मणा संस्कृति में इतने दोष आ चुके हैं कि उसमें बदलाव आवश्यक हो गया है। व्यवस्था में जो बदलाव आया है वह धीरे-धीरे आया है। लोग अपने बच्चों को अपना काम- धन्धा सिखलाना चाहते हैं। उनके बच्चे उस कार्य को सहजता से सीखते भी हैं। इस कारण जन्मना संस्कृति नयी है। स्थिर भी हुई है। मैं आज भी अनेक वार क्षत्री बन जाता हूँ। पैतृक परम्परा को त्यागा तो नहीं जा सकता। जब जब मुझे क्रोध आता है मैं ब्रह्म ऋषि का पद पाकर भी पूरा क्षत्री बना रहता हूँ।

मैं क्षत्री वर्ग से था तव मेरी यह हालत है। शम्बूक शूद्र बर्ग से है। वह भी ब्रह्म ऋषि बनकर तप के बल पर सब कुछ पा लेना चाहता है। देखना उसे अणिमा, लधुमा जैसी सभी सिद्धियाँ मिल कर रहेंगीं। कोई परम्परा से हटकर जीना चाहता है तो लोगों को यह स्वीकार नहीं है। लोगों को तो परम्परा में ही जीना रुचिकर लगता है। इसके बाहर निकलने का प्रयास किया तो लोग उसका विरोध करने लगते हैं।

किन्तु यह नियम जनक जी पर लागू नहीं हुआ। आज भी उनके पास बड़े- बड़े तपस्वी और ब्राह्मण ज्ञान प्राप्त करने के लिये आते रहते हैं। वे भी क्ष्त्रिय हैं। उन पर कोई नियम लागू नहीं है। सभी उनके ज्ञान के आगे नतमस्तक है। वे विदेह के रूप में प्रसिद्ध हो चुके हैं। अष्टावक्र जैसे परम ज्ञानी संतों का उनके यहाँ आना-जाना लगा रहता है।

विदेह-इसका अर्थ होता है विना देह के, जिसे देह का भान न रहे। देहातीत सारे कार्य होते चले जायें। मैं देह नहीं हूँ जब यह सिद्धि मिल जाये। मैं आत्मा हूँ। सर्व व्यापक परमात्मा का हर पल का इससे सम्पर्क रहने लगे। इस शरीर में उसी का वास है। इससे मैं शरीर नहीं हो जाता। हम ध्यान में बैठते समय आत्मा को उस परमात्मा में विलीन करने का प्रयास करें। दोनों के एकाकार होते ही तुम झूमने लगोगे। सारे संकल्प-विकल्प तिरोहित हो जायेंगे।

उस समय, समय थम जाता है। कोई चिन्तन पास नहीं फटकता। यही दृष्टा भाव हमें उस स्थिति में लम्वे समय तक ध्यान में बैठाये रखता है। उस समय देह से सम्बन्ध नहीं रहता। ऐसी स्थिति हर पल हर समय बनी रहे, तुम विदेह के रूप में अपने में वास करने लगे हो। यह पथ गुरु ही प्रदत्त कर सकता है। इसे कोई शब्द प्रदान करना चाहे, यह गूंगे का गुड है। जिसका स्वाद बतलाना सम्भव नहीं है। ऐसी विद्याओं के आचार्य उन दिनों महाराज जनक जी ही थे।

शम्बूक को इन सब बातों का अपने जनों से पता चल गया था। वे सोच में डूवे थे। समाज में विश्वामित्र को उतना न्याय क्यों नहीं मिल पाया। इसके लिये क्या समाज दोषी है? अथवा वे उतना तप नहीं कर पाये जितनी आवश्यकता थी। इसका अर्थ है मैं जिस तरह तप करता रहा कहीं न कहीं उसमें कमी रही। विश्वामित्र ने जितना किया उन्हें उतना मिला भी किन्तु महाराज जनक की तरह किसी और को कुछ नहीं मिल पाया। वे राजकाज भी सँभालते रहे, अपने परिवार के साथ जीवन यापन भी करते रहे। उन्हें उनके तप का पूरा सम्मान मिला है।

विश्वामित्र मेनका के चक्रव्यूह में फस ही गये। इसका अर्थ है मेरा तप इसी कारण सार्थक फल प्रदान नहीं कर पाया। लोग हैं कि इस व्यवस्था को ही दोषी मान कर चल रहे हैं। जनक और विश्वामित्र क्षत्री वर्ग से हैं। दोनों के स्वभाव एवं आचरण में जमीन-आसमान का अन्तर है। विश्वामित्र ने तप से जो प्राप्त करना चाहा वे अनेक वार उसमें अनुर्तीण भी हुये है, उन्हें जो मिला है वह उन्हें कठिनता से प्राप्त हुआ है। महाराज जनक के तप पर किसी ने प्रश्न ही खड़ा नहीं किया। उनके सहज तप से सब कुछ अपने आप प्राप्त होता चला गया।

मैं सोचता था रावण की तरह उग्र तप से फल षीघ्र मिल जाता है, यही सोचकर मैंने पेड़ से उलटा लटककर उग्र से उग्र तप करने का प्रयास किया। जिसका इतना प्रचार हो गया कि जिसे देखकर लोग त्राहि-त्राहि करने लगे। मुझे उसका कोई फल भी नहीं मिला। सारा समाज मुझ से डरकर दूर भागने लगा है। यह बात मेरी देर से समझ में आई है। तभी मैंने उस उग्र हठ योग का त्याग किया है।

शम्बूक सोच में है कि राम की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिये ये ऋषि लोग उनके गुणगान करने में लगे हैं, किन्तु मुझे तो कुछ और ही दृष्टि गोचर हो रहा है। मुझे तो रावण के चरित्र ने अधिक प्रभावित किया है। वह जैसा कहा जा रहा है वैसा नहीं है। कुछ भूलें होना मानवीय स्वभाव में हैं। सीता का हरण करके वह तो ले गया लेकिन उसने उनके साथ कोई दुर्व्यवहार नहीं किया। उसने उन्हें अपने सुन्दरतम बगीचे अशोक वन में ससम्मान रखा। श्रीराम की यह बात मुझे अच्छी नहीं लगी। रावण को मारने के बाद उन्होंने सीता जी की अग्नि परीक्षा ली तभी उन्हें स्वीकार किया। उसके वाद लोक अपवाद का उनके पास कोई उत्तर नहीं था। लोक अपवाद के उत्तर में वे स्वयम् अपनी अग्नि परीक्षा देकर लोगों को सन्तुष्ट करते। सीता जी को पुनः जंगल में भेजने का कोई औचित्य नहीं था।

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