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एक पाँव रेल में: यात्रा वृत्तान्त - 8

एक पाँव रेल में: यात्रा वृत्तान्त 8


8 हिमाचल प्रदेश की देवियाँ


हमारे देश में देवियों की शक्ति में अगाध विष्वास हैं। जिसमें हिमाचल प्रदेश की देवियों के दर्शन जिसने न किये उसने कोई तीर्थ नहीं किये, ऐसी मान्यता है। मैं अपने लघुभ्राता जगदीश तिवारी, उनकी पत्नी उर्मिला देवी,, पत्नी के बड़ी बहिन रामदेवी, पड़ोसी दामोदर पटसारिया ,उनकी पत्नी एवं पुत्र मोनू मित्र चिन्तामणी गुप्ता जी उनकी पत्नी रामकली देवी एवं उनके साले नारायणगुप्ता, उनकी पत्नी शकुन्तला देवी ,यों तेरह लोगों के रिजर्वेशन कराकर वैष्णव देवी के दर्शन के लिये निकल पड़े। कश्मीर की यात्रा मन को आल्हादित करने लगी।

कभी कभी यात्रा में वड़ा गु्रप होना कष्ट देह रहता है। जिसमें सभी अपने अपने मन से चलने वाले हों तब जो यात्रा और भी कठिन हो जाती है। जब कहीं जायें कम बजन का सामान लेकर चलें। भारी सामान कष्टदाई होता है फिर भी आवश्यक का सामान तो लेकर चलना ही पड़ता है। चिन्तामणी गुप्ती जी मेरे शिक्षक जीवन के साथी रहे हैं। नगर में समाज सेवी के रूप में उनकी अच्छी पहचान है, उनसे मेरा सामंजस्य बैठ जाता है।

हम झेलम एक्सप्रेस से चलकर जम्मू पहुँच गये।जम्मू से बस द्वारा हम कटरा चार बजे पहुँच पाये। एक होटल में सब ने अपने अपने लिये कमरे बुक करा लिये। उस दिन वही रह कर आराम करते रहे। दूसरे दिन भोर ही दर्शन के लिये निकल पड़े। पहले लाइन में लग कर टिकिट लिये और चढ़ाई शुरू कर दी। सभी ने पैदल यात्रा करने का मन बना लिया। धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे। यात्रा शुरू होते ही पानी वरसना शुरू हो गया। आगे चलकर तो बहुत तेज पानी वरसने लगा। हम सब ने हार नहीं मानी और भारी वर्षा के वाबजूद हम बढ़ते ही रहे। अर्धक्वारी पहुँच कर दर्शन के टिकिट बुक किये और अबिलम्ब आगे बढ़े। यहीं से इलेक्ट्रिक टेक्सी चलती हैं, उनके चलने का समय हो गया था। हम सब ने उनके टिकिट ले लिये और आधा घन्टा में ऊपर पहुँच गये। वहाँ जाकर स्नान किये और दर्शन की लाइन में लग गये। एक घन्टे में वैष्णवी देवी माँ के दर्शन भी हो गये। उसके बाद सभी ने वहीं के मैस में कूपन लेकर भोजन किया। खा-पी कर हम तीन बजे तक निवृत हो पाये।

उसके बाद सभी ने साहस किया और भैंरों घाटी की चढ़ाई चढ़ने लगे। हम सब पाँच बजे तक ऊपर पहुँच गये। बुरी तरह थक गये थे। हिमालय की प्राकृतिक सुन्दरता थकान मिटा रही थी। भैंरों घाटी में प्रकृति का आनन्द लेते हुये वही आराम करने लगे। साथ-साथ भैरव जी के दर्शन भी कर लिये। इतनी ऊँचाई पर पहुँचकर सामने चौरस छत पर इस तरह पसर गये कि सुध ही नहीं रही। एक झपका सा लग गया। जिससे सारी थकान तिरोहित हो गई।

अब हम सभी नीचे उतरने लगे। सच कहूँ नीचे उतरने में हमारी गति तेज हो गई। हम भी जल्दी से जल्दी अर्धक्वारी पहुँच ने को व्याकुल थे। हमने अर्धक्वारी पहुँच कर दर्शन के नम्बर का पता चलाया। पता चला हमारा नम्बर तो सुवह तक आयेगा। हमने रात काटने के लिये कम्बल बुक करा लिये। दुर्भाग्य यह रहा सभी कम्बल गीले मिले। हमने उन्हें बापस कर दिया। अब कैसे भी वर्षात में रात काटने की समस्या सामने थी। ऊपर कमरे थे। कैसे भी उन्हीं में एडजेस्ट हो गये। सुवह फ्रेस होकर स्नान किया और समय से पहले नास्ता करके लाइन में लग गये। इस तरह दोपहर तक अर्धक्वारी के दर्शन कर पाये।

अर्धक्वारी के दर्शन इसलिये महत्वपूर्ण हैं क्यों कि इस गुफा से गुजरने पर गर्भवास के समय हमारा शरीर माँ के जिन अंगों से निकलकर बाहर आता है उसे के साक्षात् दर्शन इस गुफा में किये जा सकते हैं। हमें पहले इसी के दर्शन करना चाहिये बाद में ऊपर वैष्णवी देवी माँ के दर्शन के लिये जाना चाहिये। यहाँ उलटा होने लगा है भीड़ के कारण लोग पहले वैष्णवी देवी माँ के दर्शन कर आते हैं। बाद में समय मिला तो अर्धक्वारी के दर्शन कर लिये, नहीं तो बाहर से उनकी परिक्रमा करके लौट आते है। मुझे लगता है आरे उनकी परिक्रमा करके ही लौटना है तो ऊपर जाने से पहले ही उनकी परिक्रमा करके ऊपर वैष्णवी देवी माँ के दर्शन करने जायें , इससे क्रम खण्ड़ित नहीं होगा। माँ के पास नव शिशु बन कर जाना ही उचित है तभी माँ के दर्शन का लाभ मिल सकता है। यहाँ भीड़ बढ़ने का कारण यह है कि गर्भ में एक ही व्यक्ति के प्रवेश जितनी जगह है। एक-एक आदमी ही उसमें प्रवेश कर पाता है। हम सब ने क्रमशः दर्शन किये।

नीचे आकर थकान मिटाने गंगा जी के सीतल जल में स्नान करके ही लोग अपने कटरा के निवास पर पहुँचते हैं। छोटे भाई जगदीश तिवारी से नीचे आते- आते विछोह पड़ गया। वे नीचे आकर भी हम से नहीं मिले। बड़ी देर तक नीचे उतर कर गंगा जी के किनारे रास्ते पर उनकी प्रतीक्षा करते रहे। हमें लगा कहीं वे होटल न पहुँच गये हो तो हम भी चल पड़े। हम जहाँ रुके थे, वहाँ पहुँच गये किन्तु जगदीश वहाँ भी नहीं आये थे। हम चिन्ता में पड़ गये किन्तु वे समझदार हैं आजायेंगे , यह सोच कर होटल में आराम करने लगे। एक घन्टा और गुजर गया। वे नहीं आये तो चिन्ता होने लगी। हम उन्हें खोजने के लिये होटलज से बाहर निकले।ो वे हमें सामने से आते हुए दिखे। इस तरह उनकी प्रतीक्षा में दिन ढ़ल गया और शिव खोड़ी जाने का प्रोग्राम केन्सिल करना पड़ा। उस दिन वहीं होटल में ही आराम करते रहे।

दूसरे दिन सुवह ही जम्मू के लिये निकल पड़े। सब का विचार बना कि चलकर जम्मू घूमा जाये। दस बजे तक हम जम्मू आ गये । हम सब ने मिलकर एक छोटी बस करली जो जम्मू के सारे स्थल दिखा दे और चिनचिन माता के शक्तिपीठ के भी दर्शन करा लाये। और अन्त में हमें स्टेशन पर छोड़ दे। उसने तय मुताविक सभी जगह के दर्शन कराये। जब हम दर्शन करने जाते हमारा सामान उसी बस में रखा रहता।

हमारी पठान कोट के लिये रात आठ बजे ट्रेन थी। इसलिये हम उस बस से आराम से पूरा जम्मू भ्रमण करते रहे। इस तरह उसने हमें करीव छह बजे जम्मू स्टेशन पर छोड़ दिया। उस दिन सोमवार का दिन था। घर में गौरी बाबा का सत्संग सोमवार के दिन पता नहीे कितने समय से चल रहा है। ये पहला अवसर था जब सत्संग का नागा हो रहा था। यहि हम यात्रा पर होते हैं तो वही उस समय पर बाबा को याद कर लेते हैं। यह पहला अवसर था जब हम बाबा की याद भूल गये। छह से सात बजे तक यो ही बैठे गप्पे मारते रहे। सात बजे स्टेशन पर ट्रेन पकड़ने चल पड़े। ठीक सात बजे में चौड़े स्टेशन पर ऐसा फिसला कि टूटते-टूटते बचा। बाबा ने हमारी भूल का बोध करा दिया। हम किसी तरह जहाँ से गाड़ी चलने वाली थी उस प्लेट फार्म पर आ गये। वहाँ पठान कोट जाने वाली गाड़ी लग गई थी। हम आराम से उसमें व्यवस्थित हो गये लेकिन चोट के दर्द से अन्दर ही अन्दर कराह रहा था। चुपचाप बैठा भूल के लिये गौरी बाबा को याद करता रहा।

रात ग्यारह बजे पठान कोट स्टेशन पर उतरे। स्टेशन खाली पड़ा था। आकाश साफ था इसलिये खुले में सब ने अपने अपने बिस्तर डाल लिये। मैं रातभर बिना किसी को बतलाये दर्द सहता रहा। सुवह निवुत होकर पाँच बजे ही चलने को तैयार हो गये। यात्रा तो ट्रेन से करना थी किन्तु इन दिनों बर्षात के कारण चटटान खिसकने से ट्रेन का रास्ता बाधित हो गया था इसलिये सड़क मार्ग से यात्रा करना ही विकल्प रह गया था। हम पहली बस से काँगड़ा रवाना होगये। लगभग तीन घन्टे में बस ने हमें काँगड़ा बस स्टेन्ड़ पर उतारा।


सब ने तय किया कि मन्दिर के पास बहुत सी धर्मशालायें हैं, उन्हीं में ठहरा जाये। बस स्टेन्ड से हम ओटो से चल पड़े। ओटो वाले ने नीचे चौराहे पर ही उतार दिया। वहाँ से सामान लेकर चढ़ाई में धर्मशाला तक पहुँचना बहुत ही कठिन हो रहा था। पत्नी के हार्ट पेसेन्ट होने की बजह से उनका बैग भी मुझे ही लेना पड़ा। इधर पानी भी वर्ष रहा था। चोटें अपना असर दिखा रहीं थीं। बहुत मुश्किल से काँगड़ा देवी के मन्दिर के सामने पहुँच पाये। सामने ही धर्मशालायें थीं। यह ठीक रहा धर्मशाला में एक कमरा मिल गया। आराम से ठहर गये तब कहीं राहत मिली। मन्दिर उस समय खुला था। सभी जाकर मैया के दर्शन कर आये। उस समय मन्दिर में भण्डारा चल रहा था। सभी ने वहीं प्रसाद ग्रहण किया। सारी थकान तिरोहित हो गई। धर्मशाला में आराम करने लगे। लेटते ही गिरने की चोटें असर करने लगीं। मैंने इस स्थिति में पत्नी से निवेदन किया, जो आटा-दाल बाँध कर लाई हो, यहीं मन्दिर में दे आओ। वे आगे ज्वाला देवी के लिये लेकर चलीं थीं। उन्हें मेरे प्रस्ताव पर गुस्सा आ गया। उन्होंने गुस्सा में सारा सामान निकाल फेंका । उनकी बहिन राम देवी चलीं सो उसे मन्दिर में दे आईं। इस तरह बजन से कुछ राहत मिली।

दूसरे दिन काँगड़ा मैया के दर्शन करने के बाद बस से चामुण्डा देवी के दर्शन को निकल पड़े। एक डेढ़ घन्टे में बस ने हमें चामुण्डा देवी के मन्दिर पर उतारा। वहाँ बड़ी देर तक दर्शन करते रहे। वहाँ स्थित कुंण्ड एवं चामुण्डा देवी की प्रतिमा अलग ही महत्व रखती है। स्थल की प्राचीनता स्मृति में समा गई है। लौटती बस से हम काँगड़ा लौट आये थे। उस शाम भी वहीं का आनन्द लेते रहे। दूसरे दिन सुवह ही बस से ज्वाला देवी की यात्रा पर निकल पड़े। करीव तीन घन्टे में हमें बस ने ज्वाला देवी के बस स्टेन्ड पर उतारा। सामान कुछ साथियों के पास छोड़ कर हम होटल तलाशने निकले। मन्दिर के सामने एक धर्मशाला में कमरा मिल गया। हम सब उसी में ठहर गये। सामान व्यवस्थित करके हम ज्वाला मैया के दर्शन को निकल पड़े। पहाड़ की चटटान से ज्वालायें निकल रहीं थीं। प्रकृति का यह उपहार देखते ही रह गया। एक गुफा में नीचे उतर कर जल में भी ज्वाला निकल रही थी। दर्शन के बाद ऊपर पहाड़ी पर माँ के मूल स्थान पर जाकर दर्शन कर आये। रात को ज्वाला देवा की आरती का आनन्द लिया। रसीद कटाकर रात्री का भोजन भण्ड़ारे में ही लिया। उस प्रसाद का आनन्द अलग ही रहा। रात्री वहीं व्यतीत की। सुवह ही चिन्पूर्ण देवी के दर्शन के लिये आगे की यात्रा पर निकल पड़े। दोपहर के पहले तक चिन्पूर्ण देवी के बस स्टेन्ड पर पहुँच गये। वहीं एक दुकान पर हम सब ने अपना सामान रखा और पैदल ही दशैन के लिये निकल पड़े। चिर्न्पूणा देवी माँ के सभी ने श्रद्धाभाव से दर्शन कियेष् वहाँ से प्रप्त हलुआ का प्रसाद आज भी स्मृतियों को आनन्द देता रहता है। उसी पथ से बापस लौट आये। दुकानदार के यहाँ से अपना सामान उठाया और आनन्दपुर साहब पहुँचने के लिये बस में सबार हो गये। बस में से हमें देश के विशाल बाँध भाखड़ा नाँगल के दर्शन का लाभ भी मिल सका।

बाँध के पास बस बदलने के लिये उस बस से उतर गये। थोड़ी देर प्रतीक्षा के बाद वहीं से हमें आनन्दपुर साहब की बस मिल गई। इस तरह तीन बजे तक हम आनन्दपुर साहब की धर्मशाला में ठहरने का स्थान पा सके। कुछ देर आराम करने के बाद हम सब ने आनन्दपुर साहब के दर्शन किये। वहीं से पैदल चलकर दूसरे गुरुद्वारा जिसमें बाबड़ी के दर्शन और उसकी कथा को विस्मृत नहीं कर पा रहे हैं। रात का खाना लंगर में ही किया। यों पूरे समय वहाँ का घूम-घूम कर आनन्द लेते रहे।

दूसरे दिन सुवह ही हम सब नैना देवी के दर्शन के लिये बस से निकल पड़े। बस ने नैना देवी के बस स्टेन्ड पर नाचे ही उतार दिया। ऊपर जाने के लिये वहीं से जीप मिल गई। जिसने ऊपर तक लिफट के मुँहाने तक पहुँचा दिया। हम लोग पैदल ही सीढियों के रास्ते से मन्दिर तक पहुँचे। नैना देवी को अर्पित करने दुकान दार से नैना खरीदे और माँ के चरणो में उन्हें भेट कर आये। वहाँ के तलधर में बैठी माँ के स्थान के भी दर्शन किये। इस तरह प्रकृति का भरपूर आनन्द लेते हुये जीप के स्थान पर आ गये। वहाँ से जीप में सबार होकर बस स्टेन्ड से बस पकडकर आनन्दपुर साहब लौट आये। दोपहर का लंगर फिर वहीं लिया और आनन्दपुर साहब के बस स्टेन्ड से बस पकड़कर दिन अस्त होने से पहले अमृतसर आ गये।

गुरुद्वारे में ठहरने के लिये जगह तलाशी, नहीं मिली। इधर-उधर के होटलों के दलाल वहाँ ग्राहकों के चक्कर में चक्कर लगा ही रहे थे। एक दलाल टकरा गया। मुझे और गुप्त जी को दिखाने साथ ले गया । हमें कहीं ठहरना ही था तो दो कमारे सेट कर लिये। इस तरह हम गुरुद्वारे के पास ही होटल में सेट हो गये। इसका एक लाभी यह मिला गुरुद्वारे के दर्शन एवं लंगर का लाभ आसानी से मिल सका। दूसरे दिन सुवह ही जलियाँ वाला बाग के दर्शन कर शहीदों को नमन कर आये। लाटकर पंगर पाया। उसके बाद एक जीप से बाघा वार्डर पर सलामी के समय उपस्थित रहे। वे क्षण भुलाये नहीं भूल सकता। रात अमृतसर के उसी होटल में व्यतीत की ।दूसरे दिन दोपहर बापसी का हरिद्वार यात्र के लिये सहारनपुर के लिये रिजर्वेशन था। हमें ट्रेन ने रात बारह बजे उतारा। वहाँ से रात की बस पकड़कर सुवह पाँच बजे तक हरिद्वार पहुँच गये और टेक्सी पकड़कर शान्ति कुंज पहुँच गये। चिन्तामणि गुप्ताजी वहाँ के सक्रिय सदस्य हैं, इसलिये वहाँ कमरा मिलने में परेशानी नहीं हुई।

पत्नी रामश्री तिवारी लम्बे समय से हरितालिका व्रत रखतीं आ रहीं थीं। उम्र के ढलाव के कारण उसका परायण अनिवार्य हो गया था। यह बात उनके साथ व्रत रखने वालीं रामवली सिंह चन्देल जी की पत्नी भी उसका परायण करना चाहतीं थी। पूर्व निश्चय के अनुसार वे भी उसी समय शान्तिकुंज में उपस्थित हो गये। उस दिन आराम से वहीं गुजारा और सारे समय शान्तिकुंज के कार्यक्रमों में भाग लेते रहे। दूसरे दिन हरितालका ब्रत था। सुवह से ही ब्रत शुरू हो गया। हम पहले गंगा जी में स्नान कर आये । उसके बाद गायत्री हवन में भाग लिया। लौट कर कमरे में आये ही थे कि चन्देल साहब की पत्नी उर्मिला सिंह अचानक बीमार पड़ गईं। उन्हें डाक्टर को दिखाया गया। वे दिनभर व्यथित रहीं। रात्री जागरण करके कैसे भी रात व्यतीत की । सूवह आचार्य जी की बड़ी पुत्री को तीजा की भरेट देकर उदयापन किया। इस तरह कठिनता से ब्रत का उदयापन हो सका। आष्चर्य उदयापन के बाद वे पूरी तरह स्वस्थ्य हो गईं थीं। उसके बाद दोपहर बाद हरिद्वार के मन्दिरों के दर्शन कर आये। तासरे दिन सुवह ही हरिद्वार से हमारे लौटने की ट्रेन थी।

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