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एक पाँव रेल में: यात्रा वृत्तान्त - 7

एक पाँव रेल में: यात्रा वृत्तान्त 7


7 गंगा सागर एक बार

सारे तीरथ बार-बार, गंगा सागर एक बार की कहावत सम्पूर्ण हिन्दुस्तान में प्रचलित है। रह रह कर यह बात बार बार मेंरे चित्त आने लगी। ऐसी क्या बात है गंगा सागर तीर्थ एक बार ही जाना पर्याप्त है। यही सोचते हुये मैंने 11से 21जनवरी के मध्य 14 जनवरी 2007 को गंगा सागर में डुवकी लगाने की योजना बना डाली। ग्वालियर से चलने वाली चम्बल एक्सप्रेस से रिजर्वेशन करा लिया। साथ चलने वालों की संख्या बढ़कर नौं हो गई। सभी ने अपने रिजर्वेशन करा लिये । यात्र की तैयारियाँ की जाने लगीं। मेरा बाया हाथ खराव है। मुझ एक हाथ वाले के पास चलते समय तक तीन बैग हो गये।

पड़ोस में रहने वाले दामोदर पटसारिया जी उनकी पत्नी, उनके छोटेभाई की पत्नी उनका पुत्र मोनू के अतिरिक्त मेरे छोटे भाई जगदीश तिबारी एवं उनकी पत्नी उर्मिला तथा पत्नी की बड़ी बहिन राम देवी भी हर यात्रा की तरह साथ थीं।

निश्चित तिथि को हम लोग समय से घर से निकल पड़े।मैंने पत्नी से पूछा-‘ ये तीन-बैग कैसे ले चलेंगे।’वे बोलीं-‘ एक बैग मैं ले लूँगी।’

मैंने कहा-‘तुम , हार्ट पेसेन्ट हो,बजन लेकर चल पाओगी?’

वे बोलीं-‘सब भगवान चलायेंगे। जहाँ कुली मिलेंगे वहाँ कर लेंगे।

इसी ओहा-पोह में हावड़ा स्टेशन पर उतर गये। गंगा सागर जाने वालों के सहयोग के लिए टेन्ट लगा था। बहाँ तीन सेवा धारी कुर्सी डाले बैठे थे। मैंने उनसे निवेदन किया-‘हमें बेटिंग रूम दिखाइये।’

उनमें से एक ने हमारा बैग ले लिया। हम उसके पीछे-पीछे चल पड़े। एक मंजिल ऊपर चढ़कर बेटिंग रूम में पहुँच गये।सभी को निवृत होने में एक घन्टा लग गया। हम तैयार होकर टेक्सी स्टेन्ड़ पर पहुँच गये। इस तरह टेक्सी से काली देवी के मन्दिर में पहुँच गये। मन्दिर के पण्ड़ों ने घेर लिया। एक बुजुर्ग पण्ड़े को देखकर सभी नये पण्ड़े चुपचाप लौट गये। वह बोला-‘ भीड़ बढ़ रही है। आप लोगों को सोर्ट रास्ते से दर्शन करा दूँगा। हमने उसके साथ जाने से टालना चाहा। वह बोला-‘ अरे! आप चिन्ता नहीं करें। जो श्रद्धा हाक दीजिये। मैं दबवा नहीं डालूंगा। ’मेरे लधु भ्राता ने कहा-‘पण्ड़ा जी हम सब लोग मिलकर आपको कुल ग्यारह रुपये दे पायेंगे। बाद की चिक चिक हमें अच्छी नहीं लगती।’

वह बोला-‘अरे ! आप जो श्रद्धा से देंगे वह ले लूंगा। इतने भी न हो तो और कम दीजिये। जल्दी चलें। भीड़ बढ़ रही है।’

हम अपने अपने सामान के साथ उनके पीछे हो लिये। उसने एक दुकान पर हमारा सामान रखवाया। सामान रखाने के लिये उसने अपनी परिचित एक बूढ़ी महिला को बैठा दिया। हमने उसी दुकान से प्रसाद लिया। वह पण्ड़ा हमें लाइन में लगा कर गायब हो गया। हमने इधर -उधर झांक कर पंडा को देखना चाहा। पण्डा पहले से किसी को लाइन में लगाकर गया होगा उससे बातें कर रहा था। हमारी उससे आँख मिली तो उसने हाथ हिला कर हमें संतुष्ट कर दिया। हम लाइन से दर्शन करने मुख्य द्वार पर पहुँचे ही थे कि पण्ड़ा जी हमारे पास आ गये। हमें दर्शन करने के नियम बतलाने लगे। अपनी जेबों को सँभाल कर रखने का निर्देश देने लगे। हमारा हाथ अपनी जेब देखने लगा। मैंने पण्डा के जेब कतरों से मिले होने का सन्देह हो गया। मैंने झट से जेब से हाथ हटा लिया। इसी सोच में हम मन्दिर के गर्भ ग्रह में प्रवेश कर गये। प्रसाद चढ़ाने पुजारी जी को दे दिया। यों दर्शन करके उसी दुकान पर पहुँच गये। हमारा सामान एक बूढ़ी माताजी सामान रखा रहीं थी। वे बोलीं-‘आप लोग अपना सामान अच्छी तरह सँम्भाल लें। प्रत्येक बैग के दस-दस रुपये के हिसाव से हमारी रेट है। हमने कुछ कम कराना चाहे। इस बात पर वह लड़ने तैयार हो गई। हमने उसके हिसाब से पैसे देकर पीछा छुड़ाया।


यहाँ से निवृत होकर दक्षिणेश्वर के मन्दिर जाने की सोची। वहाँ स्थित काली माँ ने रामकृष्ण परमहंस जी को दर्शन दिये थे। किन्तु बहाँ जाने का समय नहीं था। हम टेक्सी करके गंगा सागर जाने वाले बस स्टेन्ड पहुँच गये और गंगा सागर के लिये बस में बैठ गये। याद आने लगा वह पौराणिक आख्यान-जिसमें गंगा को हिमालय से गंगासागर तक लाने के लिये भगीरथ जी ने कठोर तप किया था। जिससे कपिल ऋषि के क्रोध से भस्म अपने परिवार के लोगों के उद्धार हो सके। उनका उद्धार हुआ या नहीं किन्तु सम्पूर्ण भारत वर्ष का उद्धार अवष्य हो गया है।शायद इसी बात का आभार मानने के लिये देया के लाखों लोग प्रति वर्ष गंगा सागर पहुँचते हैं।

परमहंस गौरी बाबा की कृपा से मैं गोमुंख से गंगाजल लेकर आया था। जाने क्या सोचकर उस गंगाजल को एक शीशी में भरकर वहाँ उडेलने के लिये लेकर आया था। उस गंगाजल को मकर संक्रन्ति के चर्व पर सभी साथी तीर्थ यात्रियों के साथ गंगा सागर के जल में अर्पित करके अपने मन को तृप्त किया था।

गंगा जी ने सगर पुत्रों को मुक्त किया था। इसी आकांक्षा के साथ लाखों यात्री मृत्यु से मुक्त होने की इच्छा लेकर यहाँ आते हैं। पर्व के अवसर पर पर्व लेकर सभी अपने अपने पित्रों का तर्पण करते हैं।

वहाँ हमने एक टेन्ट किराये पर ले लिया था। हम लोग तीन दिन वहीं रह कर उस स्थल का आनन्द लेते रहे। लौटते समय दामोदर पटसारिया जी को दस्त लगने लगे थे। वाहन से उतरकर जाहाज पर सबार होगये। जैसे ही उपरे भीड़ में दिशा मैदान जाने स्थान तलाशने लगे। एक छोटी छोटी झाड़ियों की की ओट में उन्हें निवृत होना पड़ा।

अब हम दिनांक 15.01.07 को हावड़ा पहुँच ने के लिये बस की तलाश करने लगे। जो बस आती यात्री दौड़कर उस पर सबार हो जाते। हम थोड़ा आगे बढ़कर जिधर से बसें आ रहीं थीं उधर ही खड़े हो गये। एक बस रुकी। मैंने अपने टूटे हाथ का सहारा लेकर कैसे भी अपने लोगों को उसमें चढ़ाया। सभी बैठ गये। पत्नी ने गला खुजलाया। पता चला बस में चढ़ते समय उनका मंगल सूत्र ही किसी ने काट लिया है।

मैंने उन्हें मरघट ज्ञान देकर समझाया-‘जो गया जो गया। उसी के भाग्य का होगा। तुम चिन्ता नहीं करो घर पहुँच कर पहले मंगलसूत्र बनवा दूंगा। वे रो धो कर कैसे भी चुप हो पाईं। हम छह बजे तक हावड़ा स्टेशन पर पहुँच गये।

यहाँ से आठ बजे देवघर जाने के लिए ट्रेन थी। समय के सही एडजेस्टमेन्ट के कारण रिजर्वेशन नहीं करा पाये थे। अतः जनरल डिब्बे से ही यात्रा करना था। ट्रेन यही से बनकर चलना थी। इसी भेरोसे प्लेट फार्म पर पहुँचव गये। गंगा सागर यात्रा के कारण भयंकर भीड़ थी। हम सभी साथी महानगर की भीड़ से भागने में भीड़ का ही सामना करना पड़ रहा था। बहुत मुष्किल से डिब्बे में सबार हो पाये। उसके फर्स पर ही बैठ गये। हमारे सारे साथी विछुड़ गये। इधर उधर दृष्टि डाली। मेरे छोटे भाई जगदीश जी की आवाज सुन पड़ी। वेसीट के लिये कियी से झगड़ रहे थे। मैंने साथ देना चाहा। उन्हें जोर की आवाज देकर कहा-‘ मैं आऊ क्या?’ वे बोले नहीं -‘ ये भसी भले लोग हैं। उनकी बात सुनकर मैं समझ गया सीट पर समझोता हो गया होगा। अब अन्य साथियों की तलाश की। सभी उसी डिब्बे के अलग-अलग केविनों में सबार होकर सीटें पा चुके थे।

स्मय से ट्रेन चल पड़ी। सभी ने ऐसे राहत की सांस ली जैसे किसी भारी संकट से जूझकर निपटे हों।

हमारे देश में जो कुछ हो रहा है भगवान की कृपा से हो रहा है। राम राम करते आगे बढ़ते रहे। जिस स्टेशन पर गाड़ी रुकती । उसमें चढ़ने वालों की भीड़ रहती उतरनेवाला कोई न होता। यों डिब्बा ठसा ठस भर गया। सांस लेंने को भी जगह न रही। भीड किसी का दर्द व रिरियाना नहीं सुनती। ऐसे पाँच घन्टे की जगह आठ घन्टे हमने उसमें गुजारे। रात चार बजे जी0सी0 डी0 स्टेशन पर उतरे। कैसे भी बेटिंग रूम में स्थान बनाया, तब कहीं राहत मिली।

दिनांक 15.01.07 को सुबह सात बजे तक निवृत होकर टेक्सी से देवधर के लिये निकल पड़े। पहुँचते ही पण्ड़ों ने घेर लिया। एक पण्डे की बातों में आगये। वह हमें दर्शन कराने ले गया। वहाँ हमारा पण्डा भी मिल गया। उसने हमारे पिताजी के बाबा के देवघर आने के अपने बही-खाते में नाम लिखे दिखाये। हमें उनका विश्वास करना ही पड़ा। हम वहाँ अपने पूर्वजों की उपस्थिति के नाम देखकर वागवाग हो गये। हमने अपने आने के नाम भी पण्डे जी की वही में दर्ज कराये। उस नये पण्डे को भी संन्तुष्ट करके ही वहाँ से लौटे। इस तरह हम भगवान बैजनाथ के शिवलिंग के दर्शन करके कृतार्थ हो गये । हम जी.सी. डी. से आसन साल होते हुए लौटती चम्बल एक्सप्रेस से गया धाम के लिये चल पडे।


हम कचपचाते मन से रात ग्यारह बजे गया स्टेशन पर उतरे। ग्वालियर जिले का पण्डा आने वालें की तलाश में आ गये। हम उसके साथ आटो से उनके घर पहुँच गये। एक अच्छे कमरे में हमें ठहरा दिया। उसने हमारे ओढ़ने-विछाने की व्यवस्था कर दी। हम दिन भर के भूखे थे। पण्डे से यह बात हमने कही। उसने तत्काल आटे- दाल आदि की व्यवस्था कर दी। खाना बना। सभी ने जमकर घर की तरह खाना खाया और फिर निष्चिन्त होकर सो गये।

सुबह ही पण्डा जी ने आकर जगाया । आप लोग निवृत हो लें । चाय पी लें। हमारा आदमी आको स्नान के लिये गुप्त गंगा में ले जायेगा। हम चाय पीकर निवृत ही हो पाये थे कि पण्डा जी का आदमी आ गया। वह हमें स्नान के बाद पिण्डदान कराने के लिये ले गया। हम सभी रास्ते में उससे सौदे वाजी करने लगे। हम सभी छोटी से छोटी पूजा कराना चाहते हैं। इसमें कितना खर्च आयेगा। हम सब पूजा के तीन सौ इक्यावन रुपये ही दे पायेंगे। वे बोले-‘इतने भी न हो तो कोई चिन्ता की बात नहीं हैं। आप लोग तो प्रेम से पिण्डदान कीजिये। उन्होंने ठीक ढंग से हमारी पूजा अर्चना कराई। हमने संन्तुष्ट होकर उन्हें पांच सौ एक रुपया भेंट किया। हमने देखा वे अपने आप को संन्तुष्ट महसूस कर रहे थे।

दोपहर तक पूजा अर्चना एवं गया जी के मन्दिरों के दर्शन करके निवृत हो गये। दोपहर कार खाना बना। थोड़ा विश्राम किया और निकल पड़े वौद्ध गया के दर्शन के लिये। सभी ने उस बट वृक्ष के दर्शन भी किये जिसके नीचे बैठकर भगवान वुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था। हम भगवान वुद्ध के जीवन से रू-ब-रू होते हुये रात आठ बजे तक गया जी लौट आये। रात का भोजन करने के बाद पण्डा जी के दारबार में पेशी हुई। पण्डा जी बोले-‘ कार्यक्रम में जो दक्षिणा दे आये वह तो हमारे पण्डाओं का मेहनताना था। हम लोग पूजा इत्यादि कराने नहीं जाते। हमारे द्वारा नियुक्त लोग ही यह कार्य कराते हैं। इस तरह पण्ड़ा जी ने खुशी-खुशी बातों का खेल रचकर एक पतले सूत्र से हमारे हाथ बाँध दिये और हमसे अपने लिये दान-दक्षिणा कहलवाली। तब कहीं उन्होंने हमारे हाथ खोले।

खैर, रात आराम से सोये, सुवह चार बजे इलाहवाद कुम्भ के लिये ट्रेन पकड़ने स्टेशन पहुँच गये। यहाँ भी बहुत भीड़ थी। बहुत ही मुष्किल से कुली की सहायता से ट्रेन में चढ़ पाये। कुम्भ के कारण भीड़ बढ़ती रही। बाथ रूम का उपयोग भी रास्ते भर नहीं कर पाये।

ऐसी कठिन यात्रा में याद आती रही 1995 ई0 में की गई कुम्भ की यात्रा की। उस समय डबरा से रिजर्वेशन बुन्देल खण्ड एक्सप्रेस से पहले ही करा लिया था। उस दिन आराम से हलाहवाद उतर गये थे। वहाँ से ओटो करके कुम्भ मेले में पहुँच गये थे। उस समय हम आठ लोग थे। मनोज गुप्ता मास्टर जी ने अपने गुरुदेव के कुम्भ में लगे पण्डाल में टेन्ट बुक करा लिया था। जिसमें हम आराम से जाकर ठहर गये थे। तीन -चार दिन तक आराम से कुम्भ मेंले का आनन्द लेते रहे। खाना-पीने की व्यवस्था गुरुजी के आश्रम से ही की गई थी। उसी आनन्द की याद करके हम ने इा वार भी कुम्भ मेले में जाने का मन बना लिया था।

इस बार ट्रेन से उतर कर हिम्मत करके ओटो पकड़कर कुम्भ की सीमा में प्रवेश कर गये। थके तो पहले से ही थे। वहाँ सामान लादकर ठहरने के लिये जगह की तलाश करना बहुत भारी हो रहा था। दो घन्टे तक टेन्टों में इधर सें उधर घूमते रहे। पैसा खर्च करने पर भी कोई जगह नहीं मिली। बड़े-बड़े अखाड़ों के टेन्टों में भी गये, परम्परा के अनुसार हम वहाँ के शिष्य नहीं थे इसलिये हमें ठहरने की अनुमति नहीं मिली। इसका सीधा अर्थ यह रहा कि यदि आप कुम्भ मेले में जाना चाहते हैं तो पहले किसी परम्परा के शिष्य बन जायें। अन्यथा हमारी तरह कुम्भ मेंले में इस वार की तरह भटकना ही पड़ेगा। पहले तो हम उस पाण्डाल की परम्परा के शिष्य के साथ लग गये थे। इस वार ऐसा कोई साथी नहीं मिल पाया। जिसके परिणाम स्वपस्प ठहरने की जगह ही नहीं मिल पा रही है।

गंगा जी पार करके छठवा सेक्टर भी पार कर लिया। सातवे सेक्टर में प्रवेश कर गये। सभी साथी हार मानकर सड़क के किनारे बैठकर रह गये। मैं और मोनू इन्हें बैठाकर जगह की तलाश में निकले। एक पण्ड़ा जी का पड़ाव दिखा। वहाँ पण्ड़ा जी एक तख्त पर विराजमान थे। मैंने उनसे निवेदन किया। वे बोले -‘टेन्ट तो मिल जायेगा, एक हजार रुपये लगेंगे। मैं और मोनू ने बिना सोचे समझे उन्हें एक हजार रुपये थमा दिये। लौटकर सभी को वहाँ लिवा गये। सभी अपने-अपने विस्तर बिछाकर पसर गये। थोड़ी देर बाद हिम्मत करके कुछ खाने पीने को लाने के लिये मैं और दामोदर पटसारिया जी निकल पड़े। जिस भाव पर जो चीजें मिलीं, ले आये।

सुबह लेट्रिन जाने की बड़ी समस्या खड़ी होगई। पता चलाने पण्डा जी के पास चला गया। वे बोले-‘भैया इस टेन्ट में यही तो समस्या है। सभी को बाहर चोड़े में ही दिशा-मैदान को जाना पड़ेगा। हमारे यहाँ तो दो ही लेट्रिन हैं। और इतने लोग आ गये हैं कि सँभाल ही नहीं पा रहे है। सच कहें, खुले में ही सभी को निवृत होना पड़ा। यों हमने जिस त्रासदी से वहाँ तीन दिन गुजरे वे जीवन भर याद रहेंगे और कुम्भ महाराज की जय बोलते रहेंगे। तीसरे दिन हमारा लोटने का रिजर्वेशन था। लौटते समय सामान ढोने का एक रिक्सा मिल गया उस पर सामान लाद कर कुम्भ की घरती को प्रणाम करके वह स्थल छोड दिया। स्टेशन पर कुम्भ का प्रभाव दिख रहा था। बैठने तक को कहीं जगह नहीं थी। ट्रेन रात आठ बजे आना थी। चार घन्टे लेट हो गई। रेल्वे को दया आ गई। उन्होंने उसकी जगह पर स्पेशल ट्रेन लगा दी। उसमें सभी जनरल के डिब्बे लगा दिये। रिजर्वेशन होते हुये हमे जनरल में यात्रा करना पड़ी। उस ट्रेन को भर कर आगे नैनी पर खडा कर दी ,वह वहाँ सुवह तक डली रही फिरा कही थोड़ा- थोड़ा आगे बढ़ी। इस तरह कैसे भी घर लौट आये।

याद आने लगी वह कहावत- सारे तीरथ बार-बार, गंगा सागर एक बार। भैया पहले गंगासागर टापू पर जाने के लिये पर्व के अवसर पर ही व्यवस्था रहती थी। अब तो कभी भी वहाँ जाया जा सकता है। मेरी सलाह है भीड़ से बचकर जाने में ही लाभ है। अब आप बार-बार गंगा सागर जाये पर पर्व के अवसर पर न जायें। तभी इस कहावत के मिथक को तोड़ पायेंगे।


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