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खिलते पत्थर

"खिलते पत्थर!"
उन्हें इस अपार्टमेंट में आए ज़्यादा समय नहीं हुआ था। ज़्यादा समय कहां से होता। ये तो कॉलोनी ही नई थी। फ़िर ये इमारत तो और भी नई।
शहर से कुछ दूर भी थी ये बस्ती।
सब कुछ नया - नया, धीरे- धीरे बसता हुआ सा।
वैसे ये बात तो है कि ऐसी नई बसती हुई कॉलोनियों में माहौल बेहद तरोताजा होता है।
रोज़ नए- नए लोगों का आवागमन, रोज़- रोज़ नई खुलती दुकानें, एक दूसरे से मेल- मिलाप करके जल्दी ही सबसे परिचित हो जाने का जुनून, ये सब बस्ती को जीवंत बनाए रखता है, एकदम वायब्रेंट!
घरेलू काम ढूंढने वाली औरतें। कपड़ों पर प्रेस करने का अड्डा जमाने के ख्वाहिशमंद धोबी, लोगों से जान पहचान बना लेने को उत्सुक दुकानदार सहज ही दिखाई देने लग जाते हैं।
पड़ोसी भी दरवाज़ा खोलते ही हर तरह की मदद करने को आतुर, अच्छा- अच्छा आपको प्लम्बर चाहिए, मेरे पास एक नंबर है अभी देता हूं।
क्या कहा? पेपर वाला? हां, आता है न, सुबह सबसे पहले हमारा ही अख़बार वाला आ जाता है, बाक़ी तो सब आठ के बाद आते हैं, मैं कल सुबह ही उसे बोलता हूं, आपसे बात कर लेगा।
मानो हर एक का लक्ष्य यही हो कि आप जल्दी से जल्दी सैटल हों।
सुष्मिता जी आश्वस्त हुईं।
रिटायर होते ही अपने ख़ुद के मकान में आ रहने का सुख भला किसे अच्छा नहीं लगता?
इतने साल नौकरी करते हुए तो हमेशा कॉलेज के अहाते में ही रहीं। वहां उन्हें एक और महिला के साथ शेयरिंग में मकान अलॉट हो गया था।
पता ही नहीं चला कि कब उम्र गुजरी। दिन भर तो कॉलेज में बच्चों के बीच बीतता, सुबह शाम अपने बनाने- खाने में निकल जाते।
छोटे से मकान में अपने कमरे के अलावा एक बरामदा और पोर्च कॉमन था जिसे बारी- बारी से कभी वो, तो कभी उनकी पार्टनर साफ़ कर लेते।
सोने से पहले पढ़ने - पढ़ाने के दस कामों के बाद ये किसे याद रहता कि रात को सोने के अलावा कुछ और भी होता है। सीधी सुबह ही आंख खुलती।
सुष्मिता जी की शादी नहीं हुई।
यदि पिछले पैंतीस सालों में इस कॉलेज परिसर में आए- गए विद्यार्थियों, शिक्षकों व कर्मचारियों के बीच ये सवाल उछाला जाता कि बताओ, सुष्मिता सारस्वत शादीशुदा हैं या कुंवारी, तो सारा समूह दो हिस्सों में बंट जाता।
एक धड़ा कहता कि हम तो सौभाग्यवती सुष्मिता की बारात की अगवानी में घंटों सजधज कर खड़े भी हुए थे, तो वहीं दूसरा धड़ा कहता कि हमने तो कभी उनके आगे नाथ देखा, न पीछे पगहा।
किसी ने न कभी उनके हाथ में कोई कांच की चूड़ी देखी, न कभी माथे पे तिल भर की बिंदी। न कोई लाल- पीली साड़ियां और न माथे पे चुटकी भर सिंदूर!
भला ऐसी होती हैं क्या सुहागनें ?
ज़रूर कुंवारी ही हैं।
क्यों?
क्या औरत की ज़िन्दगी के दो ही खूंटे हैं? तीसरा कुछ और नहीं हो सकता। पहचान क्या है शादीशुदा की?
शादी शुदा औरत का एक अदद पति होता है, वो चाहे उसके पल्लू से बंधा हो, चाहे दुनिया के मेले में छुट्टा घूमता हुआ। या फिर दुनिया के मेले के उस पार किसी मोक्षधाम की राख या मिट्टी में दबे ताबूत या मजार में सोया हुआ। अरे, कहीं तो कुछ होता है!
चलो, इस मायावी, जादुई दुनिया में अगर पति कहीं अंतर्ध्यान भी हो जाए तो उसकी सनद के तौर पर चंद बच्चे तो होते हैं। न हों तो बच्चों के होने का, न होने का, न हो पाने का एक इतिहास होता है। शरीर की चमड़ी पर उनके लिए की गई कोशिशों के निशान होते हैं।
ख़ैर, वो सब तो अब न जाने कब कहां पीछे छूट गया। अब न वो कॉलेज है, और न वो अहाता।
अब तो है ये शहर की बाहरी कॉलोनी का नया अपार्टमेंट और इसमें रहने वाली रिटायर्ड प्रोफ़ेसर सारस्वत।
यहां कोई ये पूछने वाला नहीं है कि सुष्मिता सारस्वत कुंवारी है, सुहागन है, परित्यक्ता है, तलाक़शुदा है, प्रथक्कृता है, देवी है, मानवी है या डायन...
यहां तो उनसे केवल ये पूछने वाले लोग हैं कि उन्होंने टैक्स चुका दिया या नहीं, बिजली, पानी, फ़ोन, अख़बार का बिल भर दिया या नहीं, चौकीदार, माली, इलेक्ट्रीशियन, प्लम्बर, स्वीपर का पेमेंट कर दिया या नहीं?
और यदि ये सब कर दिया तो इदन्नमम!
लेकिन पिछले कुछेक दिनों से इस अपार्टमेंट में एक नई चिड़िया चहकती है। चहकती क्या, टिटियाती है।
कोई ध्यान से सुने, तो उसकी सिसकियां सुन लेे।
इसकी दीवारों पर रेंगने वाली छिपकली थर्राती है।
इस अपार्टमेंट में एक आदमी आता है।
अरे! "आदमी आता है" क्या कोई डरने की बात है?
आदमी कोई भूत है, जो कहीं न आए जाए?
आदमी तो दुनिया भर में आता जाता है। ब्रह्माजी की बनाई हुई दुनिया आबाद ही उस दिन हुई जब इसमें आदमी आया।
आदमी आने से कोई बर्बाद थोड़े ही हो जाता है।
वो आदमी ठेकेदार है, एक काली सी पुरानी मोटर में आता है। वो आदमी प्रौढ़ है पर बन- संवर कर रहता है। सबसे बहुत मीठा बोलता है, पर बोलते ही सब जान जाते हैं कि आदमी ज़्यादा पढ़ा- लिखा नहीं है। उस आदमी के होठ काले हैं पर पान खाने से लाल दिखते हैं।
सुष्मिता जी को उस आदमी से डर नहीं लगता। उनके घर की खिड़कियों में चहचहाते पंछियों सा नहीं है उनका कलेजा जो आदमी के आने भर से टिटियाने लगे। उनकी दीवार पर रेंगती छिपकली बीमार होगी, सुष्मिता जी स्वस्थ हैं, बीमार नहीं हैं।
फ़िर उस आदमी में कोई डरने वाली बात भी तो नहीं है।
सुष्मिता जी को तो अजनबी सा भी नहीं लगता वो आदमी।
वैसा ही तो है वो आदमी, जैसा आदमी एक दिन सुष्मिता जी की देहरी पर अपने घर वालों के लाव लश्कर को लेकर ढोल नगाड़े बजाता हुआ चला आया था। ये बात और है कि सुष्मिता जी ने उस आदमी को मार भगाया। क्योंकि वो सुष्मिता जी की ज़िन्दगी पर, उनके परिवार पर, उनकी सांसों पर किसी टिड्डी दल की तरह काबिज़ होकर बस जाना चाहता था।
फ़िर वैसा आदमी ज़िन्दगी में दोबारा कभी नहीं आया।
हां, याद है, एक बार और आया था।
पर वो बहुत छोटा था। मसें भी अभी - अभी भीगी थीं उसकी। उनका विद्यार्थी था। कॉलेज के अहाते में उनसे सट कर गुज़रता था। आते- जाते एक ही रट... मैम लोगी क्या? ले लो न मैम! आज आऊं?
उनकी पार्टनर दूसरी टीचर ने भी उस दिन अचानक उसकी इल्तिज़ा सुनली और तब सुष्मिता जी को अचकचा कर कहना पड़ा- एक्स्ट्रा क्लास लेने के लिए कह रहा है।
वो भी फ़िर कभी नहीं आया।
और इतने साल बाद अब ये, तीसरा आदमी।
सुष्मिता जी को इधर कुछ दिन से बहुत आराम हो गया। उन्हें एक साफ़ सुथरी होशियार काम वाली बाई मिल गई।
दिन में तीन टाइम आती। सुबह नाश्ता, सफ़ाई सब निपटाती, दोपहर में खाना और कपड़े मशीन में डालना और फिर शाम को खाना।
क्या और किसी घर में भी काम लेे रखा है तुमने?
- ओ हो बाई, कितना करूंगी? क्या - क्या करूंगी, मेरे घर का काम भी है न? आप तो अकेली जान हो, इसलिए लेे लिया। मेरे हाथ भी तो दो पैसा चाहिए न!
सुष्मिता जी ख़ुश हो जातीं। चलो, अकेले उन्हीं का काम है तो देर - सवेर भी बुला सकेंगी।
और सचमुच सुष्मिता जी अब उसे बतातीं, आज देर से आना, आज मत आना। मानो किसी और ड्यूटी का एडजस्टमेंट बैठा रही हों।
धीरे - धीरे उसकी चपलता ने सुष्मिता जी को ढीला कर लिया।
अब सुष्मिता जी से पैसे लेे जाती और बाज़ार से सौदा सुलफ़ भी वो ही लेे आती। मोल तौल में अच्छी थी, सुष्मिता जी के चार के काम तीन में पटा लाती।
एक दिन सुबह सुबह सुष्मिता जी नहा कर निकलीं तो चिड़िया मरी वैसे ही टिटिया रही थी। उन्होंने खिड़की का पर्दा खींचते - खींचते दीवार को देखा तो कांप गईं। छिपकली थर्रा रही थी।
उल्टे पांव लौट लीं वो, थर्राते जीव को भला कोई भगाता है। बैठी रहने दो।
दोपहर को काम वाली अाई तो टोकरी में अटर - पटर के साथ पीली सी शीशी दिखी सुष्मिता जी को।
औरत होशियार है, देखो तो दो चार दिन पहले टाइलें गंदी होने की शिकायत की तो आज ही उन्हें रगड़ने का जुगाड़ भी कर लाई।
सुष्मिता जी को टीवी की आवाज़ के साथ गुनगुनाते हुए देख कर किचिन में आज बाई की रोटी ही जल गई।
कोई बात नहीं, बड़े सुखों की छांव में छोटे दुःख दुख नहीं देते।
भरी दोपहर में बिल्डिंग में ज़ोर से चीखने की आवाज़ सबने सुनी। लेकिन आवाज़ सुन कर पड़ोसियों के आते आते भी कुछ समय तो लगना था। इतने में ही झट से निकल गई सुष्मिता जी की बाई।
किसी को शक भी नहीं हुआ।
बौखलाए हुए पड़ोसियों ने देखा कि सुष्मिता सारस्वत रसोई के फर्श पर गिरी हुई हैं और उनके मुंह पर फैले तेज़ाब के छीटों ने उनकी साड़ी में भी जगह - जगह सुराख कर दिए हैं।
हड़बड़ा कर उन्हें लेकर हस्पताल की ओर दौड़ते पड़ोसी को तो सारी कॉलोनी ने देखा पर सुष्मिता जी को ये कौन बताता कि उनकी बाई अब कभी काम पर नहीं आयेगी क्योंकि उसने अपना काम पूरा कर दिया है।
सुष्मिता जी खुद भी ये कहां जानती थीं कि उन्होंने बिना कुछ जाने तीसरे आदमी, उस ठेकेदार की लड़ाका बीवी को ही काम पर रख लिया है।
उनकी गलती तो बस ये थी कि उन्होंने इस तीसरे आदमी को भी देखते ही मार नहीं भगाया।
बेचारी छिपकली के बस में थर्राने के अलावा और था भी क्या?
- प्रबोध कुमार गोविल, बी 301 मंगलम जाग्रति रेसीडेंसी, 447 कृपलानी मार्ग, आदर्श नगर, जयपुर - 302004 (राजस्थान) मो 9414028938 ई मेल:: prabodhgovil@gmail.com