Sundara and Narli Purnima books and stories free download online pdf in Hindi

सुंदरा और नारली पूर्णिमा

सिंधुदुर्ग जिले में समुद्र किनारे बसे एक छोटे से गांव ओटव में मल्हारी और मैनावती नामक युवक और युवती रहते थे। वे दोनों कोली समाज से थे। कोली अर्थात मछुआरे। मत्स्य व्यवसाय उनका खानदानी पेशा था तथा उनका परिवार भी कोलीवाड़ा ( मछुआरों की बस्ती) में रहता था। समुद्री लहरों से खेलना और अपनी मौज-मस्ती में रहना कोलियों की जीवन शैली का बड़ा पुराना अंदाज रहा है। मल्हारी और मैनावती भी बचपन से ही लहरों के साथ खेलते हुए बड़े हुए थे। उनके घर दूर थे, बावजूद इसके अपना अधिकांश समय वे साथ-साथ गुजारते थे ।

कोलीवाड़ा में जब भी कोई उत्सव, जुलूस या शादी का समारोह होता तो मल्हारी और मैनावती उसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। अकसर वे अपनी कोई नई कल्पना लेकर कार्यक्रम का आयोजन करते, जिसे लोग काफी पसंद करते थे इसलिए वे गांव के चहेते भी थे।

बचपन की बातें कुछ और थीं पर अब वे जवान हो गए थे। मैनावती पर परिवार वालों ने काफी पाबंदियां लगा रखी थीं। पहले की तरह खुलकर वे अपनी दोस्ती नहीं निभा पा रहे थे। इससे दोनों परेशान रहते थे। इस बात की शिकायत दोनों ने अपने–अपने घरों में की। अंतत: उनकी गहरी दोस्ती को देखते हुए घर वालों ने आपसी सहमति से ग्रामदेवता की साक्षी में दोनों की शादी कर दी।

शादी के बाद वे बेहद खुश थे। घर में कोई कमी नहीं थी, भगवान का दिया सब कुछ था पर शादी के कई साल बाद भी जब उनकी अपनी कोई संतान नहीं हुई तो वे उदास रहने लगे थे। इस बात को लेकर दोनों परिवार भी दुखी थे। अपनी ओर से दोनों ने ग्राम देवता के मंदिर में जाकर खूब प्रार्थना की, मन्नते मांगी पर मैनावती की गोद नहीं भरी। इससे वह निराशा और तनाव में रहने लगी थी। उसके मन में बुरे-बुरे ख्याल आने लगे थे।

अब तो वह आत्महत्या के बारे में सोचने लगी थी। एक दिन शाम के समय उसका मन व्यथित हुआ और वह समुद्र के किनारे पहुंच गई। समुद्र देवता को उसने प्रणाम किया और बिना किसी भय के वह समुद्र के अंदर चलने लगी। पानी गले तक तक पहुंच गया, तब अचानक उसके कानों में आवाज गूंजी, “हे कन्या, तुम निराश ना हो। आज अपने ग्राम देवता के मंदिर में जाओ और नारियल चढ़ाकर अपने मन की बात कह देना, तुम्हारी मनोकामना पूरी हो जाएगी।”

मैनावती परेशान होकर इधर-उधर देखने लगी पर उसे कोई नजर नहीं आया। उसे लगा जैसे कोई उसका मजाक कर रहा हो। वह पानी में और आगे बढ़ने लगी तब पुन: आवाज आई -   “बालिके, मैं समुद्र देवता बोल रहा हूँ, और आगे मत बढ़ो, कुछ ही दिनों में तुम्हारे घर एक सुंदर समुद्र कन्या का जन्म होगा। वह मेरी पुत्री होगी, इसलिए मेरी बात को खूब समझेगी, तथा वह जब भी हंसेगी तो उसके मुंह से मोती बरसेंगे।”

मैनावती समुद्र देवता की बात मानकर वापस अपने घर लौट आई। आरती की थाल और नारियल लेकर वह मंदिर पहुंची। बड़ी लगन से उसने पूजा-अर्चना की और अपने मन की बात कह दी। कुछ ही दिनों के बाद उसकी गोद भर गई और उसने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया। बड़े प्यार से मल्हारी और मैनावती ने अपनी कन्या का नाम सुंदरावती रखा। लोग प्यार से उसे सुंदरा कहकर पुकारते थे। पुत्री को पाकर मैनावती इतना प्रसन्न थी कि मानों उसकी हर मुराद पूरी हो गई हो।

इस तरह दिन गुजरते रहे और सुंदरा बड़ी हो रही थी। मगर मैनावती की तबियत दिन-प्रतिदिन खराब होने लगी थी। काफी इलाज करवाने के बावजूद भी वह स्वस्थ नहीं हो पा रही थी और आखिर एक दिन भोर में ही उसने प्राण त्याग दिए। तब तक सुंदरा तीन साल की हो चुकी थी।

इस घटना से मल्हारी पूरी तरह से टूट गया। वह मैनावती से बेहद प्यार करता था, उसके बगैर जिंदगी उसे नर्क समान लग रही थी और इसी गम में वह अपने आपको खत्म कर रहा था। पागलों जैसी हरकतें करता, दिनभर नशे में धुत रहता। यहां तक कि उसे खाने-पीने की तथा अपनी छोटी-सी बेटी का भी ख्याल नहीं रहता था। पास–पड़ोस के लोग और रिश्तेदारों ने उसे समझाने की काफी कोशिश की, कि तुम्हारी मैनावती सुंदरा के रूप में वापस आ गई है। बेटी को खुश रखोगे तो मैनावती की आत्मा को शांति मिलेगी। मगर मल्हारी को लगता था कि इस मनहूस सुंदरा के कारण ही उसकी मैनावती उसे छोड़कर चली गई। वह सुंदरा से घृणा करने लगा था। काम-धाम छोड़कर वह जरूरत से ज्यादा नशे का सेवन करने लगा। इससे घर में गरीबी छा गई। अपनी लत को पूरा करने के लिए वह घर के सामान तक बेच देता था। सुंदरा छोटी थी उसे पास–पड़ोस के लोग पाल-पोसकर बड़ा कर रहे थे।

छोटी सुंदरा पर हो रहे इस अत्याचार को देखते हुए एक दिन रात में मल्हारी के सपने में मैनावती आई और बोली, “सुंदरा को तुम्हारे भरोसे छोड़ गई हूँ। उसकी जिम्मेदारी तुम पर है और तुम हो कि उसे तकलीफ देते हो। वह कुछ और बड़ी हो जाएगी तो खुद ही अपना देखभाल कर लेगी। फिर उसने राज की बात बताई कि वह समुद्र की कन्या है। उसे रुलाओगे तो बहुत पछताओगे। खुश रखोगे तो बहुत कुछ पाओगे। जब वह दिल से हँसेगी तो उसके मुंह से मोती बरसेंगे। इससे तुम सुखी हो जाओगे। मगर इसका सदुपयोग करोगे, तो वह फलेगा अन्यथा सब पानी में मिल जाएगा।” इतना कहकर मैनावती लुप्त हो गई।

मल्हारी की आंखें खुली तो वह हैरान हो गया। उसे यकीन नहीं हो रहा था। पास में सुंदरा सो रही थी और वह कोई हसीन सपना देखते हुए हँस रही थी। जैसे ही उसकी हँसी थमी पास में कुछ मोती बिखरे मिले। मल्हारी ने तुरंत मोतियों को बटोरा और जेब में रखते हुए सोचने लगा कि चलो, कल का इंतजाम हो गया। अब उसने ठान लिया कि वह सुंदरा को हमेशा खुश रखेगा। मगर दूसरे ही पल उसे यह चिंता सताने लगी कि यदि सुंदरा दूसरों के सामने इस तरह हँसेगी तो मोतियों वाला राज खुल जाएगा। इसलिए उसने तय किया कि साए की तरह वह हमेशा उसके साथ रहेगा।

मल्हार सुंदरा को हमेशा अपने साथ रखने लगा तथा उसकी हर चाहत को पूरा करने लगा। उसका जब मन करता तब मोती चुनता। इस गुप्त धन का वह दुरुपयोग कर रहा था क्योंकि नशे की लत में वह पूरी तरह से डूब चुका था।

सुंदरा धीरे-धीरे बड़ी हो रही थी। जैसे-जैसे वह बड़ी हो रही थी, उसका रूप निखर रहा था।  मल्हारी का घर जो कच्चा था, काफी पुराना हो गया था, अब उसने पक्का मकान बनवा लिया।  सुंदरा के लिए अच्छे –अच्छे कपड़े लाने लगा। उसे जो पसंद था, हर वो चीज वह उसे लाकर देने लगा ताकि वह मुस्कुराते रहे। पास-पड़ोस के लोग इस बात से हैरान थे कि अचानक उसमें इतना परिवर्तन कैसे आ गया! जो आदमी अपनी बेटी से इतनी नफरत करता था, अचानक वो उससे इतना प्यार कैसे करने लगा? काम-धाम तो कुछ करता नहीं, फिर इतना धन वो कहां से लाता है? मल्हारी लोगों की बातों को यह कहकर टाल देता कि उसने नया व्यापार शुरू किया है, उससे अच्छी कमाई होने लगी है।

एक दिन उसके घर में काम करने वाली नौकरानी ने देखा कि मल्हारी सुंदरा को हँसाने का भरपूर प्रयास कर रहा था पर वह हँस नहीं रही थी तो, उसने उसे गुदगुदी करके हँसाया। जैसे ही सुंदरा हँसी तो उसके मुख से मोती गिरने लगे। इन मोतियों को उठाकर मल्हारी ने अलमारी में रख दिया। नौकरानी राज जान गई थी और धीर-धीरे उसने कुछ लोगों को यह बात बता भी दी। सुंदरा जब घर से बाहर निकलती तो लोग उसका पीछा करते और कहते, “सुंदरा हँसो, हँसो ”  पर सुंदरा के साथ हमेशा मल्हारी रहता और लोगों को डांटकर भगा देता।

सुंदरा अब बड़ी हो गई थी। उसने काफी कोशिश की कि उसका पिता सुधर जाए पर वह नहीं सुधरा। मोती के राज को अब वह समझने लगी थी। उसे अपने पिता से नफरत होने लगी कि उसका पिता मोतियों के खातिर उससे प्यार करता है, पर वो मजबूर थी।

एक दिन मंदिर के पुजारी ने मल्हारी को बताया कि सुंदरा अब बड़ी हो गई है, कोई योग्य लड़का देखकर उसकी शादी कर दो। इस बात से मल्हारी नाराज हो गया और उसने पुजारी को खरी-खोटी सुना दी, “सुंदरा मेरी बेटी है। मैं उसका विवाह करूं या ना करूं, तुम कौन होते हो समझाने वाले ?” पुजारी बेचारा खिन्न हो गया। सुंदरा ने मल्हारी से कहा, “आपने पुजारी जी को ऐसा जवाब देकर अच्छा नहीं किया। वो तो मेरे और आपके भले के लिए कह रहे थे।” इस पर मल्हारी सुंदरा पर बरस पड़ा, “मुझे नसीहत दे रही है ? जन्म के बाद ही तू अपनी मां को खा गई, मनहूस कहीं की। अब मुझे भी मार डालना चाहती है क्या?"

यह बात सुनकर सुंदरा रोने लगी। उसकी तो जीने की इच्छा ही अब खत्म हो गई थी। पर वह जानती थी कि उसका पिता उसे रोने नहीं देगा। जब भी कभी उसे दुख होता या चोट लगती तो वह मन मसोसकर बैठ जाती और अपना दर्द किसी से भी बताती नहीं थी। जब भी वह कराहने लगती तो मल्हारी उसका मुंह दबाकर रोने से रोकता और जब तक वह हँस ना देती, उसे गुदगुदी करता। सुंदरा भागकर अपने कमरे में चली जाती और दरवाज़ा बंद करके दबी आवाज़ में रोने लगती। अपनी मां को याद करती।

सुंदरा को अब कई लोग चाहने लगे थे। कुछ लोग उसे अपने घर की बहु भी बनाना चाहते थे पर मल्हारी मानता नहीं था। अपने पिता की धूर्तता से सुंदरा परेशान हो गई थी। उसके मन में कई बार आत्महत्या करने का विचार आया पर वह सोचती कि एक दिन उसके पिता की आंखें जरूर खुलेंगी, तब वे सुधर जाएंगे।

 

सुंदरा सोचती ‘इस तरह घुट-घुटकर जीवन जीने से तो अच्छा है कि मैं मर जाऊं! यहां जो भी हैं वो मुझसे नहीं बल्कि मुझसे मिलने वाले मोतियों के लिए प्यार करने का नाटक करते हैं! आखिर क्यों दिया ऐसा वरदान समुद्र देवता ने, जिसने सबको स्वार्थी बना दिया है? आज मैं सच्चे प्यार के लिए तरस गई हूँ। अब मैं नहीं जीना चाहती।’ कहते-कहते सुंदरा बीच समुद्र में चली गई और उसने अपने जीवन का अंत कर लिया। समुद्र देवता को भी शायद यही मंजूर था।

सुंदरा की मौत के बाद समुद्र देवता कोप गए। गुस्से में आकर वे लहरों को आसमान तक उछालने लगे। इससे भयंकर समुद्री तूफान आया। कई घर तबाह हो गए तो कई लोग लहरों में समा गए। कुछ लोग घबराकर दूर टीले पर जा बैठे। पुजारी ने बताया, “सुंदरा समुद्र की बेटी थी। हमारी मूर्खता से ही ये सब हुआ है। समुद्र देवता हमसे नाराज हो गए हैं। उन्हें शांत करने के लिए हम सबको माफ़ी मांगकर पुष्पहार, फल और  नारियल चढ़ाना होगा।”

इस बीच मल्हारी पूरी तरह से तबाह हो चुका था। उसका घर बाढ़ में बह गया। वह दर-दर की ठोंकरें खाने को मजबूर था।

गांव वालों ने समुद्र देवता से माफ़ी मांगी। फल, फूल और नारियल चढ़ाया। पूजा के रूप में बड़े उत्सव का आयोजन किया। तीन दिन, तीन रात वे समुद्र देवता की पूजा-अर्चना करते रहे। चौथे दिन समुद्र देवता शांत हुए। उनका गुस्सा कम हुआ। कोलीवाड़ा के कोलियों ने धीरे-धीरे अपने घर ठीक किए। कोलीवाड़ा के नर-नारियों ने पूजा अर्चना करते हुए नारियल का भोग लगाया। इसके बाद वे अपनी नैय्या लेकर मछली मारने के लिए समुद्र में उतरे। मल्हारी अब भी सुधरने का नाम नहीं ले रहा था। अंतत: पूर्णिमा के दिन उसने अपने प्राण त्याग दिए।

कहते हैं कि तब से यह परंपरा बन गई है कि कोली समाज पूनम की रात समुद्र देवता को नारियल चढ़ाकर पूजा करेगा। कालांतर में लोग इस दिन को नारली पूर्णिमा के नाम से पुकारने लगे और एक बड़े उत्सव का आयोजन भी करने लगे। इसे शुभ दिन मानते हुए उस दिन से वे पुन: मछली मारने का काम आरंभ करते हैं। यह रक्षाबंधन की पूर्णिमा होती है। इस दिन कोलीवाड़ा के लोग सुंदरा को भी याद करते हैं।