Urvashi and Pururava Ek Prem Katha - 11 books and stories free download online pdf in Hindi

उर्वशी और पुरुरवा एक प्रेम कथा - 11






उर्वशी और पुरुरवा
एक प्रेम-कथा


भाग 11


उर्वशी और पुरुरवा गंधमादन पर्वत पर बने महल में निवास करने चले गए। वहाँ उनके प्रेम में व्यवधान डालने वाला कोई नहीं था। रात्रि दिवस दोनों एक दूसरे के प्रेम सरोवर में गोते लगाते रहते थे। चंद्रमा की सुखद शीतल चांदनी में गलबहियां डाले आपस में बात करते थे।
एक दिन उर्वशी ने पुरुरवा से कहा,

"महाराज मैंने सुना है कि आप बहुत सुंदर वीणा वादन करते हैं। मुझे भी वीणा सुनाइए।"

पुरुरवा ने उर्वशी की तरफ देख कर कहा,

"यदि इंद्रलोक की सर्वश्रेष्ठ नर्तकी वीणा के सुरों के साथ नृत्य करने को तैयार हो तो मैं अवश्य वीणा बजाऊंगा।"

यह सुन कर उर्वशी ने चुनौती देते हुए कहा,

"तो ठीक है महाराज देखते हैं कि आपकी वीणा के सुर पहले शांत होते हैं या मेरे पैर।"

पुरुरवा ने उर्वशी की चुनौती को स्वीकार करते हुए कहा,

"आज मेरी वीणा के सुर जल्दी क्लांत नहीं होंगे। अपने पैरों को तैयार कर लो।"

पुरुरवा वीणा बजाने लगे और उर्वशी के पैर उसके सुरों के साथ थिरकने लगे। बहुत ही मनोहारी दृश्य था। वीणा के संगीत पर उर्वशी चपल दामिनी के समान नृत्य कर रही थी। ना वीणा बजाते हुए महाराज पुरुरवा के हाथ शिथिल पड़ रहे थे। ना ही उर्वशी के पग थमने को तैयार थे। सुबह से दोपहर और फिर संध्या हो गई। वीणा की मधुर ध्वनि वातावरण में गूंजती रही। उर्वशी पवन के झोंकों के समान लहराती रही।
वीणा बजाते हुए महाराज पुरुरवा उर्वशी के नृत्य का आनंद ले रहे थे। नृत्य करती उर्वशी की भाव भंगिमा उन्हें स्फूर्ति प्रदान कर रही थी। महाराज पुरुरवा का वीणा वादन उर्वशी को ऊर्जा प्रदान कर रहा था। इस प्रकार दोनों ही एक दूसरे से शक्ति प्राप्त कर रहे थे। महल के परिचारकों ने दीप जला दिए थे। सुबह से रात हो गई थी। किंतु प्रतियोगिता थम ही नहीं रही थी। अंततः जैसे वीणा ने ही निर्णय लिया हो कि अब यह प्रतियोगिता समाप्त होनी चाहिए। वीणा के तार टूट गए। वीणा के सुर शांत हो गए। उर्वशी के पैर भी थम गए। लेकिन उसके चेहरे पर विजय का दर्प था।
अगले दिन दोनों चौसर खेलने बैठे तो बहुत सा समय उसी में बीत गया। उर्वशी चौसर की अच्छी खिलाड़ी नहीं थी किंतु महाराज पुरुरवा उसकी खुशी के लिए जानबूझ कर हार रहे थे। उर्वशी के सुंदर चेहरे पर जब जीत की मुस्कान खिलती थी तो पुरुरवा का मन मोह लेती थी।
उर्वशी और पुरुरवा को एक साथ रहते बहुत सा समय बीत गया। दोनों बस एक दूसरे में खोए हुए थे। उन्हें शेष संसार से कोई लेना देना नहीं था। रानी औशीनरी ने सोंचा था कि उर्वशी से मिलने के बाद जब महाराज पुरुरवा के मन की पीड़ा कम हो जाएगी तो वह सामान्य हो जाएंगे। तब वह महाराज के तौर पर अपने कर्तव्यों का सही प्रकार से पालन कर पाएंगे। किंतु महाराज तो सब कुछ भूल कर गंधमदान पर्वत पर भोग में अकंठ डूब गए थे। रानी औशीनरी को अब राज्य के भविष्य की चिंता हो रही थी।


इंद्रलोक में मनोरंजन के अनगिनत साधन थे। मेनका, रंभा, तिलोत्तमा जैसी रूपवती व नृत्य एवं गायन में प्रवीण अप्सराएं थीं। लेकिन कुछ भी देवराज इंद्र को नहीं लुभा पा रहा था। उनके मष्तिष्क में सदैव उर्वशी का ही विचार रहता था। अब उनसे उर्वशी का वियोग सहा नहीं जा रहा था।
देवराज ने विश्ववसु नामक गंधर्व को उर्वशी के विषय में जानकारी लेने धरती पर भेजा था। उसने आकर बताया कि उर्वशी और पुरुरवा एक दूसरे के साथ बहुत खुश हैं। दोनों के दिन बहुत आनंद से बीत रहे हैं। यह सुनकर देवराज इंद्र को बहुत बुरा लगा। एक साधारण मनुष्य उनकी सबसे प्यारी अप्सरा के साथ भोग विलास कर रहा है। जबकी वह देवताओं के राजा हो कर यहाँ उसके विरह में तड़प रहे हैं। इस विचार से उनके मन में ईर्ष्या का भाव पैदा हो गया। वह उर्वशी को वापस इंद्रलोक में लाने की योजना बनाने लगे।
देवराज इंद्र ने सोंचा था कि कुछ समय पुरुरवा के साथ व्यतीत करने के बाद उर्वशी का मन एक साधारण स्त्री के रूप में रहने से ऊब जाएगा। वह पुनः इंद्रलोक में वापस आने के लिए छटपटाने लगेगी। लेकिन विश्ववसु ने बताया कि वह पुरुरवा के साथ बहुत आनंद से रह रही थी। अतः देवराज उर्वशी का मन पुरुरवा से मोड़ना चाहते थे।
देवराज इंद्र ने बहुत सोंच विचार के बाद केयूर नामक गंधर्व को अपने सम्मुख प्रस्तुत होने का आदेश भिजवाया। वह उसके आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। कयूर कुछ ही देर में उनके सामने प्रस्तुत हुआ।

"प्रणाम देवराज। मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ?"

"तुम उर्वशी के प्रिय मित्र हो। उसे बहुत प्रेम करते हो....."

देवराज इंद्र ने कहते हुए उसकी ओर दृष्टि जमा दी।

"देवराज हीरा तो सभी को आकर्षित करता है किंतु उसे मुकुट में तो केवल राजा ही धारण कर सकता है।"

देवराज को यह बात अच्छी लगी। उन्होंने कहा,

"पर मेरा वह हीरा तो आजकल धरती के एक साधारण मनुष्य के पास है। क्या तुम उसे मेरे पास लाने में मेरी सहायता करोगे।"

"जो भी देवराज आज्ञा देंगे मैं उसका पालन करूँगा।"

देवराज ने उसे अपनी योजना समझा दी। केयूर उन्हें प्रणाम कर उनकी योजना के पालन के लिए चला गया।

महारानी औशीनरी अपने महल में उदास बैठी थीं। महाराज पुरुरवा उर्वशी के रूप जाल में पूरी तरह उलझ गए थे। राज्य की प्रजा अब इस विषय में बातें करने लगी थी। राजा के बिना प्रजा खुद को अनाथ समझ रही थी। उन्हें समझ नहीं आता था कि अपनी समस्याओं के निपटारे के लिए वह किसके पास जाएं। प्रजा में भय था कि यदि राज्य पर किसी दूसरे राजा ने आक्रमण कर दिया तो उनकी रक्षा कौन करेगा ? दूसरी तरफ राज्य के कुछ अराजक लोग इस स्थिति में अमर्यादित हो गए थे। उनके भीतर राज्य के विधान के लिए कोई भय नहीं रह गया था। ऐसे लोग आमजन का उत्पीड़न कर रहे थे।
महारानी औशीनरी इन्हीं बातों को लेकर परेशान थीं। वह चाहती थीं कि महाराज को उनके इस सुंदर स्वप्न से बाहर निकाला जाए। उन्हें उनके उत्तरदायित्वों का ज्ञान कराया जाए। एक पत्नी के तौर पर अब वह पछता रही थीं कि उन्होंने महाराज की इच्छा की पूर्ति के लिए वह अनुष्ठान क्यों करवाया। महाराज को तो अब यह भी याद नहीं रहा कि उनकी एक पत्नी भी है।
महारानी औशीनरी की दासी निपुनिका ने आकर बताया कि महामंत्री लतव्य उनसे मिलने की आज्ञा चाहते हैं।

"महारानी की जय हो। मुझे आपसे राज्य संबंधी कुछ विषयों पर बात करनी थी।"

"कहिए क्या बात है।"

"महारानी महाराज की अनुपस्थिति में राज्य संचालन से संबंधित कई महत्वपूर्ण निर्णय अटके पड़े हैं। अब आप से अनुरोध है कि उन विषयों पर आप ही निर्णय करें।"

"किन विषयों पर ?"

"महारानी राज्य के पूर्वी क्षेत्र में अतिवृष्टि के कारण फसलों को बहुत नुकसान पहुँचा है। बाढ़ के कारण प्रजा के लोगों को बहुत कष्ट हो रहे हैं। बहुत आवश्यक है कि राज्य की तरफ से उन्हें सहायता पहुँचाई जाए।"

"महमंत्री इसमें किसी भी प्रकार की मंत्रणा की क्या आवश्यक्ता है। प्रजा यदि कष्ट में हो तो राज्य प्रशासन का यह उत्तरदायित्व है कि उनकी उचित सहायता की जाए। आप शीघ्र ही पूर्वी क्षेत्र के लोगों को सहायता पहुँचाने का प्रबंध करें।"

"जी महारानी राज्य के पूर्वी क्षेत्र में तुरंत ही सहायता भेजने की व्यवस्था हो जाएगी।"

"अन्य विषय क्या हैं ?"

"महारानी सुदूर राज्य के कुछ व्यापारी हमारे राज्य में व्यापार करने की आज्ञा चाहते हैं।"

"क्या उन व्यापारियों के विषय में सूचनाएं एकत्र कर ली हैं। वह व्यापारी ही हैं या उनके भेष में गुप्तचर।"

"जी उनके विषय में भली प्रकार से पड़ताल कर ली गई है। वह प्रतिष्ठित व्यापारी हैं जिनका व्यवसाय दूर तक फैला है।"

"वह हमारे राज्य में व्यापार करने के लिए समुचित कर देने को तैयार हैं।"

"जी महारानी।"

"तो फिर उन्हें व्यापार की अनुमति दे दी जाए।"

इसके पश्चात लतव्य ने महारानी औशीनरी के सामने अन्य समस्याएं रखीं। महारानी ने उनके निपटारे के समुचित सुझाव दिए। लतव्य के जाने के बाद महारानी पुनः विचार करने लगीं कि किस तरह महाराज को उनके राजा के कर्तव्य का भान कराया जाए।