Radharaman vaidya-Dardpur ki samiksha17 books and stories free download online pdf in Hindi

राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 17

अस्तित्व रक्षण की रचनात्मक गूँज-दर्दपुर

राधारमण वैद्य

उपन्यास केवल साहित्यिक रूप नहीं है, वह जीवन-जगत को देखने की एक विशेष दृष्टि है और मानव-जीवन और समाज का विशिष्ट बोध भी। कश्मीर का इतिहास मिली-जुली संस्कृति और साम्प्रदायिक सौहार्द का रहा है। घाटी में उग्रवाद का उभार हुआ तो भाईचारे के ताने-बाने टूटने लगे और आखिरकार वहाँ के हिन्दुओं को राज्य के बाहर पनाह लेनी पड़ी। धार्मिक आतंकवाद और पड़ोस से प्रेरित अलगाववाद ने वहाँ कहर ढाया, सारा वातावरण विषाक्त हो गया, समरसता बिखर गयी। राजनीति ने भी अपने स्वार्थ के डैने फैलाये, इकतरफा तुष्टिकरण के दांव से परिस्थिति को संभालने का प्रयत्न हुआ। कश्मीर में आये आतंक और विघटन के इस दौर ने आपस के आत्मीय सम्बन्धों को बुरी तरह झिंझोड़ तो दिया पर संवेदना के सम्पूर्ण सूत्र अभी टूटे नहीं, ऐसा क्षमा कौल के उपन्यास ’’दर्दपुर’’ को पढ़ने पर स्पष्ट होता है। क्षमा कौल इसी विखण्डन के दुख-दर्द को दूर से देखने वाली नहीं, वरन् भोगने वाली संवेदनशील महिला है, जिसे स्वयं 1990 में कश्मीर से निर्वासित होना पड़ा, अतः दर्दपुर की रचना अनुभव-सम्पन्न और मार्मिक ढंग की बन पड़ी है।

उपन्यास का रचना-विधान कुछ ऐसा है कि सुधा, जो स्वयं एक निर्वासित हिन्दू, कश्मीरी पंडित की बेटी है और एक विशेष खोजपूर्ण प्रोजेक्ट के अन्तर्गत कश्मीरी मुसलमान स्त्रियों के दुःख दर्द, भय और विवशता की अध्ययन प्रक्रिया में यथासंभव सहयोगी होती है और गहरी सहानुभूति से इस मिशन को सार्थकता देती है। जब वह कश्मीरी उजड़ी विधवा स्त्रियों से मिलती है तो वह देखकर चकित हो जाती है कि छुद्र राजनीति, मीडिया और छदम् धर्मनिरपेक्षता कैसे अवसरवादी खेल खेल रही है। वह अपने घर को देखने जाती है और जजबोबा, पूरे समुदाय में बेहद भली, और हचकुकिल जो पूरे मुहल्ले की आँखों में बेहद चालाक, मक्कार और अधर्म प्रवृत्त स्त्री होते हुए भी सुधा की बाबी (माँ) की धार्मिकता को कुफ्र नहीं, खुदा की दोस्ती ही कहती थी, के अतिरिक्त दिखने में बहुत शालीन और बाअदब गुलाम नबी पंडित अपने उद्गार छिपाकर व्यक्त करने वाला दोचित्ता-दोगला व्यक्ति और वह मिथकीय खंभा- जिस पर फिल्म श्रीकृष्ण से लेकर पंडितों के पन्द्रह से लेकर पैंतीस वर्ष के आयु के भट्टों को मारने की धमकियों के इश्तहार चिपकाये जाते थे-, को पाकर तमाम पिछली यादों में डूब जाती है।

उपन्यास शोधार्थी सोमानी घर की अपनी पार्टी की हुर्रत, इज़ा, बेला, गुलशन, आरा और सुधा के साथ पाकिस्तान-सीमा पर स्थित मीड़ापुर की ओर चलने की तैयारी से शुरू होता है और समाप्त भी वहाँ की स्त्रियों से बात करके, उनकी दीन-दशा और दयनीय हालत से रूबरू होकर लौटने पर होता है। अधिकांश भाग स्त्रियों पर केन्द्रित है, जिससे कश्मीर में धार्मिकता और सामाजिकता में उत्पन्न विकृति उभरती है तथा आतंकवाद, अलगाववाद और अंध धार्मिकता से पैदा की गई कटुता के कारण प्राकृतिक सौन्दर्य में आकर्षण के स्थान पर भयावहता दृष्टिगोचर हो उठी है। सैलानियों से मिलने वाली रोजी भी आतंकवाद के भय से लोगों के कश्मीर न पहुँचने से, नष्ट हुई है, जिससे सामान्य जन की विपन्नता भी बढ़ी है, और बेरोजगार नौजवान आतंकवादियों के चंगुल में फँसकर घरों की बरबादी का कारण बन रहे हैं। प्रसंगवश अनेक स्थानों पर यह सर्वविदित तथ्य उभरता है और हमीदपुर के पास के मीड़ापुर की सारी विधवाएँ अमीना के पास बैठती है। उनमें से एक खदीना नाम की स्त्री बताती है कि ’’पन्द्रह हजार रूपये देकर मेरे खाविन्द को उकसाया गया। उसने बंदूक पकड़ी। आतंकवादी बन गया। दो फौजियों और कुपवाड़ा के एक पण्डित को मार डाला। फिर खुद भी मर गया।’’ पन्द्रह हजार हमारे लिए बहुत बड़ी रकम थी हमने उन दिनों खूब खाया-पिया भर। फिर पता चला कि उसने बन्दूक उठाई थी और एनकाउण्टर में मारा गया। लाश भी नहीं दी पुलिस ने’’ यह आम स्थिति है सामान्य मुस्लिम परिवारों की। यह पूंछने पर कि ’’आपको आतंकवादी संगठनों से कुछ राहत मिलती है ?’’ ‘‘मिलती थी, अब बन्द हो गयी। अब तीन साल हो गए, यह रही कापी’’ गुलशन आरा ने कॉपी हाथ में ली। इस पर जे0के0एस0एफ0 का चिन्ह बना था और खाने बने थे, जिनमें दी गई रकम का व्यौरा था।

इस आतंकवाद और अलगाववाद की मार केवल हिन्दू (पंडित) घरों की स्त्रियों पर ही नहीं पड़ी, बल्कि मुसलमान स्त्रियाँ और अधिक पीड़ित थीं। आतंकवादियों को शरण देने के लिए मुस्लिम परिवार विवश थे और इन्हीं घरों से नौजवानों को लालच या दबाव के सहारे आत्मघाती बनने को मजबूर किया जाता था और वहीं आसपास के घरों से तलाशकर स्त्रियों को भोग्या बनाया जाता था। हिन्दू महिलायें तो उनका शिकार थी हीं पर मुस्लिम घर भी सुरक्षित नहीं थे क्योंकि उनकी बर्बरता किसी नैतिकता को नहीं जानती है। दिल्ली आई0आई0टी0 से सोनम दिन भर की कार्यशाला की समाप्ति पर सबको हल करने को एक प्रश्न देती है, ‘एक ऐसी स्त्री जिसका पति आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त था, उसने आत्मसमर्पण किया और...वापस आया है। ...घर में है। खेतों पर जाने वाला कोई नहीं है। ...घर में बुजुर्ग और बीमार सास-ससुर हैं। ...बच्चों की पढ़ाई, खाने-पीने और पहनने की चिन्ता उसी को करनी है। ...पति की अन्य आतंकवादियों से रक्षा का जिम्मा उसी का है, क्योंकि उनकी नज़रों में वह गद्दार है और मारे जाने का हकदार..ऐसी घटाटोप स्थिति में ऐसी स्त्री क्या करेगी ?’ ऐसा दिल दहलाने वाला प्रश्न सुन सब मौन हो गई, पर सुधा सोचती है कि ऐसी स्त्रियाँ गावँ-मोहल्लों में कितनी ही होंगी। उसे महाभारत के समय का अर्जुन का कथन याद आता है- स्त्री दूषित होगी...और युद्ध की सम्पूर्ण मार स्त्री पर ही पड़ेगी।

सुधा जीप में सभी के साथ मीड़ापुर की ओर जाते समय अपनी नानी की याद करती है, जिसने बहुत पहले पाकिस्तान से आये बर्बर कबालियों के जुल्मों को देखा था। उसको ललद्यद और हब्बा खातून की याद आती है, जो अपने समय के समाज के जुल्मों से पीड़ित रही। पुरूष प्रधान समाज ने स्त्रियों को सताया और पीड़ित किया। उपन्यास में क्षमा कौल ने प्रसंगवश कई स्थलों पर स्त्री की कारूणिक स्थिति को चित्रित किया है। एक स्थल पर वह लिखती है, ’’पुरूष भी इसी पुरूष के जोर-जबरदस्ती की एक प्राचीन कथा है। इसमें भी अरणिमाल के पति मुंशी दरबार की सुन्दरियों के साथ विलास और लम्पटता की कहानी है, जिसमें अरणिमाल की असमय में मृत्यु हो जाती है। इस तरह क्या हिन्दू मुसलमान सभी ओर स्त्री पर पुरूष का अत्याचार होना सामान्य बात रही है और अब भी वह किसी न किसी रूप में उभरती रहती है कश्मीर में इसने व्यक्तिगत से सामाजिक रूप ले लिया है।

इस्लाम के कश्मीर प्रवेश के पूर्व शाक्त, शैव और वैष्णव का गहरा मतभेद और वैमनस्यता थी। पाखण्ड के मार्ग से वे एकरूप बनाये थे, वैसी त्रिकोणी द्वन्द्व था। शाक्त और शैव, दर्शन की भूमि पर अभिन्न कहे जाते ह,ै पर इनमें आपस में द्वन्द्व था। कौल की व्याख्या में कहा जाता है, ‘अन्तर्शाक्ता बहिशैवा सभामध्ये च वैष्णवः’ लेकिन इस्लाम के हमले के बाद शाक्त, शैव और वैष्णव हिन्दू हो गए जैसे इस्लाम में शिया और सुन्नी। अब द्वन्द्व हिन्दू और इस्लाम के साथ रह गया। निज़ामे मुस्तफा की वकालत करने वाली कश्मीरी-मुसलमान किसी समय कश्मीरी-पण्डित थे, जिन्होंने दण्ड-भेद के माध्यम से इस्लाम कबूल किया। उनके सरनेम तान्त्रे (तंत्र कर्मी शाक्त) वाणी (वाणिक) भट्ट, पंडित, हार (घर) कौल आदि अभी हाल के हैं। पर अक्सर देखा गया है नये धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्ति धर्मांध होते ही है क्योंकि जिस धर्म में वे आए हैं उसके पूर्वालंबी उस पर किंचित मात्र भी संदेह न करें। इसलिए पड़ौस के अलगाववादियों से ज्यादा नृशंस व्यवहार निकट पड़ौसियों का रहा- ऐसा स्वर भी उभरता है।

सुमोना धर जो दिल्ली से प्रोजेक्ट की ग्रुप लीडर है, उसके व्यवहार में भी वही शासकीय तुष्टीकरण का लहजा है, जिसके कारण वह गुलशन की चिन्ता सुधा से अधिक करती है। सुधा का धूप-बत्ती जलाकर मन ही मन आँख मूंद गणेश को अर्पित करना अखरता है। सुधा सोचती है कि शायद उसकी धूप-बत्ती के धुएँ से कुफ्र का धुआँ फैलकर गुलशन के धर्म को दूषित और सुमोना को चिन्तित कर रहा है, तभी तो वह उसे बाहर रखने को कहती है। इसी तरह काँटेदार तारों में घिरे गणेश को देख सुधा को लगता है कि हमारे ईश्वर को बंदी बना लिया गया है। कामदेव की रति की तरह सुन्दर कश्मीरी मुसलमान लड़कियों पर लादा ड्रेस-कोड देखकर सुधा सोचती है कि अतीका ने आखिर वही पोशाक पहनी जो धर्मानुसार वैध थी। ऊपर से एक काले बुर्के मेें अपने सारे सौन्दर्य की गठरी बना डाली। क्या लिबासों के भी धर्म होते हैं ? सुधा के मन में एक कोने में विचार संघर्ष चलता रहता है, वह सोचती है कि क्या होती है धार्मिकता ? वैसे जलबोबा, जो उसकी पड़ौसिन थी, उसके सामने जीवन्त धार्मिकता की विशेषज्ञ गुरू है। उसे वह देखकर ही समझ लेती है धार्मिकता। जलबोबा पक्की मुसलमान होते हुए इंसान है। इंसान होना ही धार्मिक होना है। इसलिए वह मीनाक्षी से धार्मिकता पर साहित्य पढ़ने से साफ इंकार कर देती है। सुधा की अपनी माँ, भट्टिनी, नियमों के अनुसार जीवन जीती थी। सारा मुहल्ला उसकी कद्र करता था। यहाँ तक कि बेहद चालाक, मक्कार और अधर्म प्रवृत्त हचकुकिल भी उसकी धार्मिकता को कुफ्र नहीं धार्मिकता ही मानती, क्योंकि उसकी बेटी जमीला की शादी के दिन घनघोर बादलों से भयानक बारिश के आसार देख दुलहन जमीला को साथ ला, पैर छूने की कोशिश करती भट्टियनी से सजल नेत्रों से बोली थी, ’’बाबी भगवान से कृपा मांग, बारिश न हो’’ भट्टिनी एक धागा बांध प्रार्थना में जुट गई थी। जमीला की निर्विघ्न विदा हुई थी। अगले दिन उसने रत्नदीप जला धागा काटा और शिवजी का अभिषेक किया।

इस तरह बड़ी गहराई तक आहत सुधा की स्मृति में कश्मीर की मिली-जुली संस्कृति और सौहार्द को व्यक्त करने वाले दृश्य और घटनाएँ कौंधती रहती है और उग्रवाद और अलगाववाद से टूटते भाईचारे के ताने-बाने और उससे प्रताड़ित हिन्दू और विशेषतः भट्ट समुदाय को राज्य के बाहर पनाह लेने की विवशता और उसकी पीड़ा बार-बार याद आती है और कचोटती है, जिसे लेखिका ने भली प्रकार अपने शब्दों में उकेरा है। आतंकवाद के परिदृश्य पाठक की आंखों के सामने साकार हो जाते हैं। लेखिका की सारी सहानुभूति स्त्री के प्रति विशेषतः उभरी है, इसीलिए पुस्तक का समर्पण ’’धार्मिक आतंक की सतायी विश्व की सभी स्त्रियों के नाम है, क्योंकि ललद्यम की तरह गम के वस्त्र उसने भी पहने है और अकेली ’संगसार’ हुई है। इस उपन्यास को रचने में क्षमा कौल अपनी अस्मिता और विरोध को रक्षित करना चाहती है और हताशा के गर्त में डूबने से अपने को बचा लेती है और अपने अन्तःकरण की पीड़ा को अभिव्यक्त कर देती है। आरंभ में विद्यारत्न आसी की उद्घृत पंक्तियाँ कश्मीरी पंडितों के जीवट को प्रकट करती है। नीरा जुत्सी का स्त्रीमन यातना की हर खेप को चुपचाप ग्रहण करता है और अपने संतुलन और विवेक को बनाए रखता है। हिन्दू अमेरिकन फाउंडेशन (एच ए एफ) की इकहत्तर पेजी रिपोर्ट में कहा गया है कि कश्मीर घाटी में करीब तीन लाख हिन्दू प्रभावित हुए हैं। रिपोर्ट के मुताबिक आतंकवादी हिंसा से हजारों हिन्दू और मुसलमान मारे गए हैं।

उपन्यास की भाषा का अपना एक अलग प्रभाव है क्षमा कौल ने अपने कश्मीरियत स्वरूप को घटनाओं और विभिन्न स्थितियों को आधार बना कर उभारा है। ’डेजिहोर, फिरन जैसे अलंकार और वस्त्र को यथावत प्रयोग कर स्थानीयता को साकार किया है, संवेदनशीलताा और मानवीय स्पर्श रचना के संबल हैं। ...यद्यपि कथानक में कसाव का अभाव है। निर्भीकता और स्पष्टवादिता लेखिका की अपनी विशेषता है, क्योंकि उसकी सीधी मुठभेड़ इस संवेदनशील समस्या से हो चुकी है और प्रतिदिन हो रही है। वह हर वर्णित घटना में कहीं न कहीं उपस्थित रही है। इस रोज-रोज ताजा हो रही समस्या से वह रू ब रू हो रही है। इसीलिए उपन्यास प्रभावशाली बन पड़ा है। यद्यपि... वह तल्लीनता से पाठक को बाँधता नहीं है। इस विषय और विश्व भर के राजनीतिज्ञों का ध्यानाकर्षित करने वाली समस्या पर हिन्दी में यह पहला उपन्यास है। धार्मिक आतंकवाद और अलगाववाद की वीभत्सा की प्रत्यक्ष अनुभूति को क्षमा कौल ने अपने इस उपन्यास में प्रखरता से अभिव्यक्त किया है।

भारतीय ज्ञानपीठ ने पुस्तक को प्रकाशित कर समस्या को गम्भीरता से समझने और उस पर विमर्श करने का सुयोग उत्पन्न किया है। पुस्तक का गेटअप और मुद्रण प्रशंसनीय है। रचना पढ़ने वालों को अन्तःकरण तक आन्दोलित कर देती है। मानव जीवन और समाज का बोध कराने की दृष्टि प्रदान करती है।

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