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उबड़-खाबड़ जिंदगी

अभी दो दिन पहले खबर मिली कि हर्षिता के पति का देहांत हो गया।यह तो नहीं कह सकती कि यह खबर सुनकर मैं सकते में आ गई क्योंकि यह तो सम्भावित ही था।बल्कि कटु सत्य तो यही है कि उसके संघर्ष का फिलहाल समापन हो गया।किसी को भी मेरे ऐसे विचार जानकर अजीब प्रतीत हो सकता है लेकिन पूरा वाकया जानकर आप स्वयं फैसला ले सकते हैं कि क्या मैं गलत कह रही हूँ?

हर्षिता सिंह और मैं दोनों ने साथ ही एमडी स्त्रीरोग में प्रवेश लिया था।मुझे हॉस्टल में रहने की इच्छा नहीं थी इसलिए मैंने दो कमरे के एक मकान में एक कमरा ले लिया था।हर्षिता औऱ मैं कॉलेज में साथ रहते थे, जिससे हमारी मित्रता हो गई थी।हम अपनी बातें शेयर कर लिया करते थे।

सूर्यकांत सिंह मेडिसिन विभाग में था।स्वजातीय होने के कारण कुछ माह पश्चात ही उसने हर्षिता को प्रपोज किया था लेकिन हर्षिता को वह पसंद नहीं था, इसलिए उसने घरवालों की इच्छा से विवाह करने की बात कहकर सूर्यकांत को टाल दिया था, किंतु सूर्यकांत ने एक वर्ष बीतते-बीतते हर्षिता के घर अपने परिवार द्वारा अपना रिश्ता भिजवा दिया।सूर्यकांत तीन बहनों से छोटा इकलौता पुत्र था,परिवार काफी संपन्न था,अतः हर्षिता के परिवार ने समझा-बुझाकर तथा कुछ प्रेशर डालकर धूमधाम से उनका विवाह कर दिया, जबकि हर्षिता एमडी पूर्ण होने के बाद ही विवाह करना चाहती थी लेकिन अभी भी मध्यमवर्गीय परिवारों में विवाह अंतिम एवं अनिवार्य संस्कार माना जाता है और हर्षिता के घर वाले हाथ आए इतने अच्छे रिश्ते को निकलने नहीं देना चाहते थे।वैसे भी अरेंज मैरिज में शिक्षित वर, सम्पन्न परिवार देखा जाता है, कमियां तो बाद में ज्ञात होती हैं।जो भी अच्छा-बुरा होता है उसे भाग्य मानकर स्वीकार करना अक्सर सबकी मजबूरी बन जाती है, क्योंकि इससे आजाद हो पाने का साहस अधिकतर लोगों में नहीं होता ,चाहे वह आर्थिक रूप से समर्थ ही क्यों न हो।क्योंकि समाज का दोहरा मापदंड स्त्री को ही दोषी ठहराता है।

पुरुषगत अहंकार से भरे हुए सूर्यकांत की दृष्टि में पत्नी सहधर्मिणी नहीं अपितु तीसरे दर्जे की पारिवारिक कार्यकर्ता मात्र होती है जिसे पति की हर बात माननी चाहिए चाहे सही हो या ग़लत।घर सम्हालना,बच्चे पैदा करना,उनकी परवरिश सब महिला की जिम्मेदारी है।किसी भांति का सहयोग उसे किंचित मात्र भी गवारा नहीं था, बस उसकी जिम्मेदारी घर में समान ला देने तक सीमित थी।विवाहोपरांत कुछ समय पश्चात ही हर्षिता को ज्ञात हो गया था कि सूर्यकांत प्रति रात्रि ड्रिंक करता है।जब उसने समझाना चाहा तो वह उखड़ पड़ा कि मैं उन पतियों में नहीं हूँ जो पत्नी की गुलामी करते हैं।हर्षिता ने दुःखी होकर कहा था कि एक बुरी आदत छोड़ने की बात कहना कहाँ से गलत है।जब हर्षिता ने सास से इस संदर्भ में बात करनी चाही तो उन्होंने भी दो-टूक जबाब दे दिया कि ठाकुरों के यहाँ खाना-पीना शान की बात मानी जाती है।

हर्षिता अभी पीएचडी करना चाहती थी, इसलिए अभी प्रेग्नेंसी नहीं चाहती थी लेकिन सूर्यकांत को मंजूर नहीं था, परिणामस्वरूप एमडी पूरी होने तक वह प्रेग्नेंट हो गई।लेकिन उसने हार नहीं मानी और पीएचडी में सेलेक्ट हो गई।इसी मध्य एक प्यारी सी बेटी की वह मां बन गई।कुछ माह उसकी माँ ने हर्षिता एवं नातनी की देखभाल की, जबकि सासुमां तो 10 दिन बाद ही वापस लौट गईं,क्योंकि उन्हें पोता चाहिए था।उसके पश्चात हर्षिता ने गृह सहायिका की मदद से बच्ची एवं घर को सम्भालते हुए अपनी पीएचडी पूर्ण कर ली।हर्षिता जहीन औऱ बेहद परिश्रमी थी,अतः शीघ्र ही अपने ही मेडिकल कॉलेज में नियुक्त हो गई।हर्षिता के सेलेक्शन के पश्चात सूर्यकांत भी अपने कमतर होने के भय से परिश्रम करके पीएचडी में सेलेक्ट हो गया।जुगाड़ औऱ पैसे के बल पर सूर्यकांत भी सरकारी मेडिकल कॉलेज में लेक्चरर के पद पर लग गया।

उसका पीना दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था,इसके साथ-साथ उसका व्यवहार अत्यधिक असंयमित एवं अमर्यादित होता जा रहा था, गाली -गलौज तो रोज की ही बात हो गई थी।एक बार सूर्यकांत ने हाथ उठाने का प्रयास किया था तब हर्षिता ने सख्ती से कहा था कि अब मेरी सहनशक्ति समाप्तप्राय है, अगर तुमने अपने व्यवहार में सुधार नहीं किया तो मैं बर्दाश्त नहीं करूंगी।बेटी बड़ी हो रही थी, वह पिता से सहमी रहती थी।यह गनीमत रही कि सूर्यकांत की जॉब दूसरे शहर में थी।उसने हर्षिता के ट्रांसफर का प्रयास किया था लेकिन सफल नहीं हो सका था।जबतक वह दूर रहता,माँ-बेटी का समय बड़े चैन से व्यतीत होता।

अब सूर्यकांत एवं उसके परिवार को वारिस बेटा चाहिए था, वे अल्ट्रासाउंड करवाकर पुत्रप्राप्ति सुनिश्चित करना चाहते थे लेकिन हर्षिता टेस्टिंग के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थी,इसलिए उनके मध्य तनाव औऱ बढ़ने लगा था।यहाँ तक की सूर्यकांत एवं उसकी माँ-बहनें तलाक लेकर दूसरे विवाह की बात करने लगे थे।हर्षिता तलाक नहीं चाहती थी क्योंकि वह बेटी के सर से पिता का साया नहीं हटाना चाहती थी।वह अभी भी आशान्वित थी कि शायद उम्र बढ़ने के साथ सूर्यकांत में सुधार आ जाय।

अत्यधिक शराब के सेवन का असर सूर्यकांत के स्वास्थ्य पर दिखने लगा था,उसके लिवर में खराबी आनी शुरू हो गई थी।डॉक्टर ने सारी जांचों के पश्चात सख्ती से शराब त्यागने की हिदायत दी थी, महीने भर अस्पताल में भर्ती रहा,हर्षिता ने हर तरह से देखभाल की, रुपये पानी की तरह बहाए।सूर्यकांत ने अपनी कमाई बचाई तो थी नहीं,सब उड़ा दिया था खाने-पीने में।उसके परिवार वालों ने भी न शारीरिक मदद की न आर्थिक।जैसे ही तबियत में थोड़ा सुधार आया फिर से पीना प्रारंभ कर दिया।इस बार शरीर नहीं झेल सका और वह संसार से पलायन कर गया।उसकी मृत्यु के लिए भी सूर्यकांत के परिवार वालों ने उसे ही दोषी ठहराया।समझदार होती बेटी उनकी बातों से बेहद आक्रोशित हो गई थी लेकिन हर्षिता ने बेटी को जैसे-तैसे शांत कराया था।

खैर, त्रयोदशी संस्कार के बाद सभी कथित रिश्तेदार प्रस्थान कर गए।जाते-जाते नन्दों ने जता दिया कि बेटा न होने के कारण ससुराल की सम्पत्ति भूल जाय।उस समय तो हर्षिता खामोश रही लेकिन उसने मन ही मन यह दृढ़ निश्चय किया था कि वैसे तो वह स्वयं पूर्णतः सक्षम है लेकिन अपनी बेटी के अधिकारों को वह बिल्कुल नहीं छोड़ेगी।

सच ही है, जिंदगी के रास्ते बेहद उबड़-खाबड़ हैं, बस गिरते-सम्हलते, संघर्ष करते चलते जाना है।कभी कोई दो कदम साथ चलकर छोड़ जाता है, कभी भरोसा तोड़कर छल जाता है।कभी नफ़रत कभी प्यार है,कभी जीत है, कभी हार है, बस जीवन है, बस यही संसार है।

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