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आधुनिक संस्कृत साहित्य में नारी सौंदर्य कालिदास के विशेष संदर्भ में

नारी पात्र काव्य की प्राण वाहिनी धारा है, जिसमें जीवन का मर्मस्पर्शी मधुर रस लहलहाता रहता है। वस्तुतः नारी ही सुख का मूल, त्रिभुवन का आधार और त्रेलोक्य रूपा के रूप में भी शैवागमों में प्रशंसित रही है। आचार्य भरत ने भी नारी को सुख का मूल तथा काम भाव का आलंबन माना है । परंतु आचार्य भरत ने नारी सौंदर्य में उसके अंग सौंदर्य के साथ ही शील सौजन्य, आचरण की पवित्रता तथा जीवन की प्रकृति और अवस्था को विशेष महत्व दिया है। नारी की जीवन प्रकृति के अनुरूप ही आचार्य भरत ने उन 20 अलंका प्रेक्षण रों दक्षिणा की परिकल्पना की है , जो नारी जीवन के अंत: और वाहय सौंदर्य सुकुमारता, सलज्जता, पवित्रता और स्नेहशीलता की उज्जवलता से विभूषित करते हैं। यह अलंकार केवल शरीर शोभा ही नहीं अपितु यह प्राणों का मधुर गुंजन भी है, नारी के शील का परिष्कृत परिनिष्ठित रूप है

अलंकारास्तु नाटयज्ञैरोया: भावरसाश्रीया :।
पोवने आश्रयाधि का: स्त्रीणां विकारा : वक्त्र गात्रजा: ।। नाट्यशास्त्र 22/4

आचार्य भरत ने नारी की अंग रचना, मन : सौष्ट्व और उसके आकर्षण रूट विन्यास एवं विलक्षण स्वभाव का विवेचन करते हुए उसकी प्रकृति विभिन्नता के आधार पर नारी के तीन प्रकार बताए हैं उत्तम, मध्यम और अधम। कामशास्त्र में चार प्रकार की नायिकाओं का उल्लेख किया गया है 1, पद्मिनी 2, चित्रणी 3,शंखनी 4, हस्तीनी ।

ज्योतिष शास्त्र और कामशास्त्र के अनुसार श्रेष्ठ नायिका में स्थूल रूप से शारीरिक सौंदर्य संबंधी 32 लक्षण बतलाए गए हैं। इन सौंदर्य लक्षणों के विद्यमान होने पर भी नायिका को श्रंगार करना आवश्यक माना गया है। श्रंगार 16 प्रकार के माने गए हैं।

महाकवि कालिदास नारी के अंग प्रत्यंग के सौंदर्य से भली भति परिचित थे। उन महिमामंडित नारी सौंदर्य को देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो उन्होंने नारी को अत्यधिक निकट से देखा और परखा है । कालिदास में अपने ग्रंथों में नारी पात्रों के केवल रूप-- सौंदर्य का ही वर्णन नहीं किया अपितु अन्य गुणों के सौंदर्य का भी चित्रण किया है । "कुमारसंभव" के प्रथम सर्ग में पार्वती जी का वर्णन करते हुए कभी लिखते हैं कि---" पढ़ने लिखने की आयु में पहुंचते ही पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण उनमें सब विद्याऐ इस प्रकार अवतीर्ण"होने लगी जैसे शरद आगमन से गंगा में हंस मालाएं या रात होते ही हिमालय की दिव्य औषधियों में उनकी स्वाभाविक दिव्य ज्योति अवतीर्ण हो जाती है" ।

तां हंस माला: शरदीव गंगा
महौषधिं नक्तमिवात्मभास :।
स्थिरोपदेशामुपदेश काले
प्रपेदिरे प्राक्तन जन्म विद्या:।। कुमारसंभव 1/30

और जब शैशव समाप्त कर उन्होंने धीरे-धीरे आयु के उस भाग में पदार्पण किया, जो देह रूपी लता का स्वाभाविक श्रृंगार है, जो मदिरा न हो कर भी मन को मतवाला बना देता है और फूल ना होता हुआ भी कामदेव का तीखा तीर है । कुमारसंभव 1/31
तब उस नव योवन से उसका सुडोल शरीर ऐसा खिल उठा जैसे तूलिका से रंग भर देने पर तस्वीर या सूर्य की किरणों के स्पर्श से कमल का फूल खिल उठता है


उन्मीलितं तूलिकयेव चित्रं
सूर्यांशुभिंभिन्नमिवारविन्दम् ।
बभूव तस्या: चतुरस्त्रशोभि
वपुविभक्त नव योवनैन । । कुमारसंभव 1/32

पार्वती जी के नख शिख सौंदर्य का वर्णन करते हुए कवि कालिदास कहते हैं कि‐----

उनके चरण इतने कोमल थे कि पृथ्वी पर धरते ही उनके नखो से अरुण आभा फूट पड़ती थी और जब वो चलती थी तो उनके लाल चरणों की कांति पड़ने से ऐसा प्रतीत होता था मानो जगह जगह पर स्थल कमल खिल उठे हो। कुमारसंभव 1/32

उनकी कमर पतली थी और नव यौवन उभार पर था । उनके पेट पर पड़ी तीन रेखाएं ऐसी प्रतीत हो रही थी मानो कामदेव के चढ़ने के लिए नव योवन मैं वहां नसैनी लगा दी हो।


मध्येन सा वेदविलग्न मध्या
बलित्रयं चारुबभार वाला ।
आरोहणार्थं नव योवनेन
कामस्य सोपानमिव प्रयुक्तम् । कुमारसंभव 1/39

विक्रमोर्वशीयम् नाटक में उर्वशी के सौंदर्य का वर्णन करते हुए कालिदास कहते हैं कि ---"उसकी देह तो आभूषणों की भी आभूषण ,सजावट की सामग्री को भी सजा देने वाली और उपमानो की भी प्रत्युपमान है।

आभरणस्य आभरणं प्रसाधन विधे: प्रसाधन विशेष :।
उपमानस्यापि सखे प्रत्युपमानं वपुस्तस्या : । । विक्रम 2/3

उर्वशी के रूप सुंदर को देखकर पुरुरवा कहता है --"यह विचारे उस बूढ़े तापस ब्रह्मा की रचना नहीं हो सकती क्योंकि वेद पढ़ पढ़ कर जड़ हुए मुनि के शिथिल हाथ भला ऐसे रूप का निर्माण कैसे कर सकते हैं ? इसके लिए तो हो ना हो कमनीय कांति वाले चंद्रमा ने प्रजापति का स्थान ग्रहण किया होगा या श्रृगार रस के देवता स्वयं कामदेव अथवा प्रचुर पुष्प संपत्ति वाले वसंत ने इसकी रचना की होगी" ।

अस्या : सर्ग विधौ प्रजापतिरभूच्चंद्रो नु कांतिप्रद:।
श्रंगारैकरस : स्वयं नु मदनो मासो नु पुष्पाकर: ।
वेदाभ्यास जड़ : कथम नु विषय व्यावृत्त कौतूहलो ।
निर्मातुं प्रभवेन्मनोहरमिदं रूपमं पुराणों मुनि:।। विक्रम 1/10


कालिदास की सभी नायिकाएं अनूठे व अनुपम सौंदर्य वाली हैं। उन्हें देखकर ऐसा आभास होता है मानो


संजोकर सभी सृष्टि की कांति
विधाता ने उनको ढाला ।


कालिदास के "अभिज्ञान शाकुंतलम्" नाटक की नायिका शकुंतला भी असाधारण सुंदरी है। अप्सरा मेनका की पुत्री शकुंतला की अद्भुत रूप सौंदर्य से विस्मित होकर राजा दुष्यंत कह उठते हैं

मानुषीषु कथम् वा स्यादस्य रूपस्य संभव :।
ना प्रभातरलम ज्योतिरुदेति वसुधातलम।। अभिज्ञान शाकुंतलम् 1/24


मानुषियों मैं रूप यह संभव है किस भांति।
नहीं प्रकटती भूमि से प्रभा तरल यह कांति ।।

संभवत इसीलिए शकुंतला का सौंदर्य चित्रण करते समय कालिदास ने प्रकृति के ही समस्त उपमानो का चयन किया है


अधर: किसलय राग : कोमल विटपानुकारिणों बाहु :।
कुसुमिव लोभनीयम् योवनमंगेषु सनद्धम् ।। अभिज्ञान शाकुंतलम् 1/20

ऐसे अनूठे नारी सौंदर्य के अनेकों उदाहरणों से कालिदास का साहित्य लबालब भरा पड़ा है। शकुंतला के अछूते यौवन की मनोहरता को प्राकृतिक उपमान द्वारा कवि ने किस कुशलता के साथ व्यक्त किया है


अनाधृ।तं पुष्पम किसलय मलूनं कर रुहै।
रनाविद्धं रत्नम्म मधु नवम नास्वादित रसम्।
अखंडं पुण्यानाम् फलमिव च तदू, रूप मनघम्।
न जाने भोक्तारम कमिह समुपस्था स्यति विधि :।। अभिज्ञान शाकुंतलम् 2/10

सौंदर्य ग्राही कवि कालिदास की सुदृढ़ मान्यता है कि शारीरिक सौंदर्य के पीछे ह्रदय भी सुंदर होना आवश्यक है। आंतरिक गुणों के अभाव में वाहय रूप मात्र को सौंदर्य कहा ही नहीं जा सकता।

रघुवंश के छठे सर्ग मैं चित्रित पूर्व जन्म की अप्सरा राजकुमारी इंदु मति भी कम सुंदर नहीं है। इस अभूतपूर्व सुंदरी से विवाह की कामना कर दूर-दूर से राजकुमार एकत्रित होते हैं। कवि ने उसके लिए इतना ही कहा है कि वह विधाता की असाधारण रचना थी । सैकड़ों नेत्रों ने उसे एकटक देखा और देखते ही रह गए क्योंकि उनके केवल शरीर ही अपने स्थान पर पड़े रह गए ह्रदय तो उस सुंदरी की भूल भुलैया में खो गए । रघुवंश 611।
यहां पर कवि ने विश्व के प्रत्येक सहृदय को पूरी छूट दे दी है कि वह अपनी कल्पना की आदर्श सुंदरी के सांचे में इंदुमती को ढाल ले । अतः कालिदास की इंदुमती केवल भारतीय सुंदरी ही नहीं है अपितु विश्व सुंदरी है। कालिदास द्वारा बनाए यह सौंदर्य कभी पुराने नहीं पड़ सकते । इसीलिए इन पर माघ कृत सौंदर्य की वह परिभाषा खूब चरितार्थ होती है
क्षणै क्षणै यन्नवतामुपैति तदैव रूपम् रमणीयताया: ।

अर्थात सौंदर्य वही है जो प्रतिक्षण नए ही नए रूप में झलकता है।

मेघदूत में वर्णित यक्ष पत्नी का रूप सौंदर्य भी ऐसा अनूठा ही दिखाई देता है । यक्ष अपनी पत्नी का सौंदर्य वर्णन करते हुए मेघ से कहता है

तन्वी श्यामा शिखरिदशना पक्वविम्बाधरोष्ठी।
मध्ये क्षामा चकित हरिणी प्रेक्षणा निम्न नाभि :।
श्रेणी भारादलसगमना स्तोक नम्रा ब्स्तनाभ्याम् ।
या तत्र स्यादयुवति विषये सृष्टि राद्येव धातु :।। उत्तर मेंघ 19


यहां पर भी कवि ने सामान्य रूप से इतना ही कहा है कि उसका शरीर पतला है और उसकी युवावस्था उभार पर है । उसके दांत चमकीले और होठ लाल है। उसकी कमर पतली और वक्ष पुष्ट है तथा कोई अन्य स्त्री सौंदर्य में उसकी बराबरी नहीं कर सकती। संभवतः संसार का कोई भी देश या समाज ऐसा ना होगा जिसे इस प्रकार का नारी रूप रुचिकर न हो । इस प्रकार कवि अपने शब्द चातुर्य से सहृदय के चित्रपट पर ऐसे सौंदर्य की रूपरेखा खींच देता है जिसमें प्रत्येक पाठक अपनी रुचि तथा भावना का रंग भर कर पूर्ण कर लेता है।

मालविकाग्निमित्रम् की नायिका मालविका के रूप सौंदर्य का वर्णन करते हुए राजा कहता है कि ---"उसकी तस्वीर को देख कर मैं समझता था कि यह सचमुच इतनी सुंदर ना होगी ,पर अब पता चला ,कि इसका रूप चित्रत करने में तो चित्रकार ही असफल रहा है"। यह तो सिर से पैर तक एकदम सुंदर है मानो नाट्याचार्य की इच्छा के अनुरूप ही विधाता ने इसके एक एक अंग की रचना की है ।


कालिदास की अधिकांश नायिकाएं कला निपुण है। मालविका और इरावती नृत्य कला में निपुण है तो अनसूया और प्रियंवदा चित्रकला में निपुण हैं । यक्ष पत्नी भी विरह काल में वीणा बजा कर उस पर स्वरचित पद गाकर मनोरंजन करती है। ललना कुल ललाम भूता अनिंदय सुंदरी उर्वशी के मनमोहक नृत्य से तो मानो संपूर्ण प्रकृति ही नाच उठती थी । अज पत्नी इंदुमती भी ललित कलाओं में निपुण थी।


कालिदास की अधिकांश नायिकाएं प्रकृति प्रेमी तथा पशु पक्षियों से भी असीम प्रेम करने वाली हैं। पार्वती, सीता, शकुंतला तथा उनकी सखियां स्वयं ही आश्रम के वृक्षों में पानी देती व उनकी सेवा सुश्रुषा करती हैं। यक्ष पत्नी भी मंदार वृक्ष का ,गोद लिए बेटे के समान पालन पोषण करती हैं। निसर्ग प्रेमी शकुंतला भी दीर्घपान्ग नामक हरिण शावक का पुत्र वत पालन करती हैं । यह कला निपुणता एवं प्राकृतिक प्रेम तथा पशु पक्षियों के प्रति पुत्रवत व्यवहार आदि के गुण इन नायिकाओं के सौंदर्य में चार चांद लगा देते हैं।

कालिदास के काव्य मैं नारी के केवल योवन सौंदर्य का ही नहीं, प्रत्युत उसके कन्या, पत्नी एवं माता तीनों ही रूप पूर्णरूपेण निखर उठे हैं। उनकी नायिकाओं में आदर्श कन्या आदर्श पत्नी एवं आदर्श मातृत्व भावना के दर्शन होते हैं। नायिका पहले माता पिता के उमड़ते हुए वात्सल्य का विषय बनती है और बाद में मातृत्व का वरदान पाकर धन्य हो जाती है। इंदुमती के वियोग में विलाप करते हुए अज उसे उत्तम ग्रहणी, विश्वस्त सचिव, प्रिय सखी तथा ललित कलाओं में अपनी प्रिय शिष्या आदि विभिन्न रूपों में स्मरण करते हैं । कवि की सभी आदर्श नायिकाओं का सौंदर्य अंतर स्थल का सौंदर्य है। त्याग और तपस्या में तप कर ही उनका चरित्र कंचन के समान निखर सका है । श्रेष्ठ नायिकाओं के अतिरिक्त कवि ने जिन विलास वती नारियों की चर्चा की है वे मादक अवश्य है परंतु कालिदास के मन में उनके लिए कोई विशेष गौरव पूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हो सका है। गौरव का स्थान केवल उनके लिए है, जो तपोवन की संस्कृति में पली हैं , संयम में बढी हैं, जिनका सौंदर्य आंतरिक सहज गुणों का सौंदर्य है। कालिदास की नायिकाओं के चरित्र में भारतीय सभ्यता संस्कृति का जो कुछ सर्वोत्तम है उसी का स्वर गूंज रहा है।

हर युग का ज्ञान कला देती रहती है ।
हर युग की शोभा नारी लेती रहती है।
इन दोनों से भूषित वेशित और मंडित ।
हर युग की संस्कृति एक दिव्य कथा कहती है।।



इति