A story--(Story of Dr. Sangeeta Jha) books and stories free download online pdf in Hindi

एक कहानी--(डा.संगीता झा की कहानी)

बचपन की बहुत प्रचलित कहानी थी, एक था राजा एक थी रानी, दोनों मर गए ख़त्म कहानी. ऐसे कई राजाओं की कहानी नानी-दादी से सुनी थी, लेकिन ये सच्ची कहानी है मेरे अपने पापा श्री सच्चिदानंद तिवारी की, जो सचमुच बड़े प्रोग्रेसिव थे. उनके कर्म और विचार साथ-साथ चलते थे. उस ज़माने में लड़कियों की पढ़ाई और अंतरजातीय विवाह और कभी जब अंतरधर्म विवाह की बात आती तो वो कहते,“सबका ईश्वर एक है, उस तक जाने के रास्ते अलग-अलग हैं. अगर हिंदू को काटोगे तो ख़ून निकलेगा और मुसलमान को भी काटोगे तो ख़ून ही. शुक्र मनाओ उसने लड़के से ही शादी की है.” ऐसा कह सबका मुंह बंद कर देते. ख़ुद भी उन्होंने उन दिनों फ़िज़िक्स में एमएससी की थी और गवर्न्मेंट कॉलेज में फ़िज़िक्स के प्रोफ़ेसर थे. घर पर ग़रीब बच्चों और दोस्तों के बच्चों को मुफ़्त विज्ञान के सभी विषय पढ़ाया करते. बेटों से ज़्यादा बेटी को चाहने वाले पापा आज ‘गुंजन सक्सेना’ मूवी देख बार बार याद आ रहे हैं.
मुझे यानी अपनी अदिति को उन्होंने अपने बेटों से भी ज़्यादा प्यार और आज़ादी दी. बचपन में मैं, मैं नहीं बल्कि हम बनी इतराती फिरती थी. घर के आसपास के नाले मेरे आरामगाह, उसमें रहने वाले मेंढक मेरे दोस्त, कीचड़ मेरा पाउडर और उड़ते हुए भौंरों और तितली के पीछे दौड़ना मेरा नशा. इतनी आज़ादी तो शायद ही उस दौर की किसी भी लड़की को मिली होगी. खेलते-खेलते जब मन करता बाहर गोबर चुनते ग़रीबों की गोबर की टोकनी ले भैंसों के पीछे दौड़ लगा उनका गोबर टोकनी में ले गोबर चुनने वालों बच्चों को वापस दे देती. उन्हीं बच्चों के साथ मेरी मुंह से आवाज़ निकालती हुई रेलगाड़ी चलती. कभी-कभी घर के पीछे सरवेंट क्वॉर्टर में रहने वाली कमला के लिए ना केवल गोबर चुनती बल्कि गोबर के उपले भी थाप देती. इस सब की ख़बर जब अम्मा जो ख़ुद भी हाई स्कूल में लेक्चरर थी, तक पहुंचती तो बेचारी शर्म से पानी पानी हो जाती, वहीं पापा अपनी आदि के लिए खड़े हो जाते. अदिति के कई नाम थे और वो अदिति के ही दिए हुए थे मसलन आदि, गुड़िया, हनी, गुड्डो…और ना जाने क्या-क्या.
क़रीब-क़रीब इसी तरह की ज़िंदगी अदिति ने कॉलेज आते तक जी. उसके मानस पटल पर एक ही हीरो थे, उसके पापा जो क्रिकेट, फ़ुटबॉल कुश्ती तक में माहिर थे और गणित के कठिन से कठिन सवाल चुटकियों में हल कर देते थे. हर फ़ील्ड में अपने पापा को ही आदर्श पाती थी़. कभी घर से बाहर ख़ुशी ढूंढ़ने की इच्छा ही नहीं हुई.
हर उम्र की अपनी ज़रूरत होती है और एक ही व्यक्ति आपके मानस पटल पर क़ब्ज़ा नहीं कर सकता. अदिति को भी बड़े होना ही था. कॉलेज में अदिति के बैच में अनिल पासवान था, जिसने उसके सपनों में धावा बोल दिया. पहले तो अदिति समझ ही नहीं पा रही थी कि एकाएक उसे क्या हो रहा था. उठते जागते सोते एक ही सपना जिसमें वो प्रिन्सेस और अनिल उसके सपनों का राजकुमार. कई दिनों तक चुपचाप रही, फिर अपने ही सपनों से दोस्ती कर ली. वही सपने बार-बार धारावाहिक की तरह आते. कभी मेरा राजकुमार मुझे घोड़े पर बिठा बहुत दूर दूसरी दुनिया जहां सिर्फ़ मैं और वो ढेर सारे फूल पक्षी और रंगीन दुनिया.
वापस कॉलेज में आ जब उसे देखती तो मन ही मन ख़ूब हंसती. अब अपने आस पास की दुनिया, पड़ोसी के पके पपीते या पेड़ पर लटके हुए आमों ने आकर्षित करना बंद कर दिया था.
घर पर भी सब हैरान कि ये क्या हो गया? भाई ने ताने मारे,“ये सौम्यता तुझे शोभा नहीं देती. तू हमारे घर की जंगली बिल्ली है, बिल्ली ही बनी रह.” पहले वाला समय होता तो शायद सचमुच झपट्टा मार नोच लिया होता पर मैं चुप ही रही. अम्मा जो हमेशा मेरे जंगलीपन से परेशान रहती थी कि इस लड़की को कौन ब्याहेगा, उनके चेहरे पर ज़रूर मेरे इस परिवर्तन से मुस्कान आ गई थी.
कॉलेज में मैंने ही अपने हीरो को घूरना शुरू कर दिया. मैंने ही अपने सपनों को सच करने की ठान ली. वो बेचारा तो पहले घबरा ही गया, मुझसे कटा-कटा रहने लगा. मुझसे नैन लड़ाने के लिए बहुत हिम्मत की ज़रूरत थी. मैं फ़िज़िक्स के प्रोफ़ेसर वो भी पहलवानी में उस्ताद की बेटी थी. चाहे कितने भी बड़े रिफ़ॉरमर हों पर अपनी बेटी तो अपनी ही बेटी होती है. वैसे कमी तो मुझमें कुछ भी नहीं थी. पढ़ने में अव्वल दिखने में सुंदर यानी सूरत और सीरत दोनों में ही बाज़ी मारी थी, बस कमी थी तो ठहराव और सौम्यता की. बकरे की अम्मा कब तक ख़ैर मनाती? मेरी नज़रों ने उसकी नज़रों को घायल कर ही दिया. पहले तो उसने कनखियों से मुझे निहारना शुरू किया, फिर उसकी नज़रें बतमीज़ हो गईं. जहां मुझे देखती उन्हें ये भी होश ना रहता कि लोग भी आमने सामने हैं या क्लास रूम में सीरियस डिस्कशन चल रहा है, बस मुझे निहारना ही जैसे उनका एक ही काम था. डर के मारे मेरी आंखें अब नज़रें चुराने लगी थीं. फिर शायद ठीक मेरी तरह उसने भी मेरे सपने देखने शुरू कर दिए थे.
काश... प्यार नज़रों तक ही ठहर जाता, पर भला कभी ऐसा होता है. थोड़े दिनों बाद हम कभी कैंटीन तो कभी कॉलेज के लॉन में पाए जाने लगे. कभी ज़िंदगी भर साथ रहने की क़समें तो कभी भविष्य की प्लानिंग. समय पंख लगा कर उड़ रहा था और हमारी लव स्टोरी भी परफ़ेक्ट फ़ेरी टेल की तरह दौड़ रही थी. कभी मेरा रूठना, फिर उसका मनाना. हमने कभी-कभी घर पर झूठ बोल बाहर भी मिलना शुरू कर दिया. अम्मा शक भी करतीं कि मैं झूठ बोल कर जाती हूं लेकिन फिर पापा मेरा रक्षाकवच बन जाते. कभी पापा ने घर पर जातपात की बात ही नहीं की. हमारे एक पड़ोसी हुआ करते थे वैद्य साहेब, उनकी बेटी मधुरिमा ने अपने सहपाठी विक्टर से घर वालों के विरुद्ध जा कोर्ट मैरिज कर ली. ये उन दिनों की बात है जब अगर बिहार के ब्राह्मण की बेटी बंगाल के ब्राह्मण के बेटे से भी शादी कर ले तो ग़दर मच जाता था. वैद्य अंकल को भड़काने वालों की कमी नहीं थी, लेकिन पापा ने आगे बढ़ ना केवल वैद्य अंकल को शांत किया बल्कि उनकी बेटी दामाद को भी प्यार से घर ला सम्मान दिलाया. मैं तो बड़ी आश्वस्त थी कि मेरे प्यार को ज़रूर उसकी मंज़िल मिलेगी क्योंकि मेरे पापा तो इतने समझदार थे.

पूरे मोहल्ले में पापा की सोच सहिष्णुता के चर्चे होते थे. भाई की पढ़ाई से ज़्यादा उन्हें मेरी पढ़ाई की चिन्ता थी. मैं थोड़ा भी भटकती तो कहते,“बेटा पढ़ो, तुम्हारा भाई नहीं पढ़ेगा तो इसे टेम्पो ख़रीद दूंगा, ड्राइवर बन जाएगा लेकिन तुम क्या एक रिक्शे वाले से शादी करोगी. तुम्हारा पढ़ना भाई से ज़्यादा ज़रूरी है.’’बचपन में रिक्शे वाले के नाम से ही मैं डरने लगी कि रिक्शावाला और मेरा पति. उसके साथ तो सपने भी नहीं देखे जा सकते थे. इसीलिए इतनी शैतानियां और ख़ुराफ़ातों के बावजूद पढ़ाई मेरे लिए बचपन से ही अहम थी. मैंने अनिल को घर बुलाना भी शुरू कर दिया था. अम्मा की शक्की नज़रें देख मैं एक बार तो डर ही गई थी लेकिन पापा ने वो डर भी दूर कर दिया. वो भी मेरी तरह किताबी कीड़ा था इससे हमारे बीच नोट्स का भी आदान प्रदान होने लगा. हम इतना ज़्यादा साथ रहते थे कि हमारे बीच प्रेम से ज़्यादा दोस्ताना था. मेरे सपनों और मंज़िल में हमेशा मंज़िल की ही जीत होती थी. इससे इतने प्रेम के बाद भी पढ़ाई में कोई कमी नहीं आई थी. सब ठीक चल रहा था, पढ़ाई अपने अंतिम चरण में थी. अनिल की इसरो में नियुक्ति हो चुकी थी. वो तो पढ़ने में अच्छा था पर तब पहली बार मालूम हुआ कि जातिवाद में पढ़ाई, नौकरी सभी में रिज़रवेशन भी होता है. कभी मन में आया ही नहीं कि मैं सवर्ण और वो दलित. ख़ैर पापा सब देख लेंगे सोच मैंने इस विचार को भी दिमाग़ में पनपने नहीं दिया.

इम्तिहान भी ख़त्म हुए और अनुकूल परिणाम भी आए. दोनों ही फ़र्स्ट डिविज़न में डिस्टिंक्शन के साथ पास हुए. मैं आगे किसी अच्छी यूनिवर्सिटी से पी.एच.डी. करना चाहती थी और उसकी तो नौकरी थी ही. वो श्रीहरीकोटा चला गया और मुझे उसकी बहुत याद सताने लगी. जब हम किसी के साथ रहते हैं तब घर की मुर्गी दाल बराबर वाली भावना रहती है और जब दूर जाते हैं तो एहसास होता है कि उसका साथ होना कितना ज़रूरी है. हमारे इस प्रेम के दो राज़दार भी थे एक अनिल का ख़ास दोस्त अनंत और दूसरी मेरी दोस्त अनिता. कितना भी पापा पे विश्वास हो या गर्व हो लेकिन फिर भी अपने प्रेमपत्र तो मैं घर पर नहीं मंगवा सकती थी. मेरे पत्र अनंत के घर पर ही आते थे. अपने पहले ही पत्र में अनिल ने मुझे बताया कि उसके जॉब में पापा का बड़ा हाथ था. इसरो के चीफ़ पापा के बड़े अच्छे मित्र थे. मैंने मन ही मन सोचा मुझे क्यों नहीं जॉब उन्होंने दिलवाया शायद दामाद का ज़्यादा ख़याल रखा पापा ने. वो भी बड़ा आश्वस्त हो गया कि पापा हमारी शादी के लिए मान लेंगे. इस विरह में हमारी चिट्ठियां शायरी और तुकबंदियों से भरी रहती मसलन

सोने की थाली में हीरे चमकते हैं
डार्लिंग तेरी याद में आंसू टपकते हैं

फ़िज़िक्स के विद्यार्थी होने से हिंदी साहित्य में हमारी पकड़ बड़ी उथली थी. मेरे लिए भी उसके बिना रहना बड़ा निरर्थक सा था. इसलिए मैंने उससे शादी करने की ज़िद की. वो वहां से एक महीने की छुट्टी ले घर आया. मैंने भी पार्लर जा अपना फ़ेशियल करा ख़ुद को चमका लिया. मेरे इस परिवर्तन से घर वाले हैरान थे. मैं उन्हें सर्प्राइज़ देना चाहती थी. वो आया और हम अनंत की मदद से बाहर मिले. मैं बड़ी ख़ुश ख़ुश घर आई और मैंने पापा से कहा कि हम शादी करना चाहते हैं. पापा कुछ देर सोचे और बोले,“ठीक है बेटा, जैसी तेरी मर्ज़ी मैं अनिल के घर वालों से बात करने चला जाऊंगा.’’
अम्मा का मुंह उतरा हुआ था और वो सारी रात बड़-बड़ करती रहीं. दूसरे दिन सुबह सुबह पापा घर से निकले और बड़ी देर बाद घर आए, चेहरा भी तमतमाया हुआ था. पापा मेरे पास आए और मुझे छाती से लगाते हुए बोले,“बेटा मैं हार गया! बहुत कोशिश की मैंने उन लोगों को मनाने की पर वो लोग अड़े रहे उन्हें किसी हाल में भी ये रिश्ता मंज़ूर नहीं है.’’
मुझे तो जैसे सांप सूंघ गया. दिल पर एक दर्द सा उठा कि अचानक ये क्या हो गया? उसके पापा एक बढ़े लिखे पी.डब्लू.डी. में चीफ़ इंजीनियर, मां भी पढ़ी-लिखी हाउस वाइफ़ थी. उससे छोटे दोनों भाई और बहन स्थानीय इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहे थे. उसके घर वाले इतने दकियानूसी भी हो सकते हैं, ऐसा मेरी सोच से परे था. मेरे पापा जिन्होंने मधुरिमा और विक्टर की शादी करा दी अपनी बेटी में तिवारी पासवान का मेल ना करा पाए. ख़ून तो मुझमें पापा का ही था और थी भी मैं पापा की क्वीन विक्टोरिया. बस मन ही मन एक निर्णय लिया और अनंत के घर गई. हमारी प्रेम कहानी निभाते-निभाते अनंत और अनिता भी क़रीब आ गए थे. अनंत भी सकते में आ गया कि अनिल के घर वाले नहीं मान रहे हैं. उसने तो हमारी शादी में पहनने के लिए शेरवानी भी सिलवा ली थी. मैंने उससे मुझे अनिल के घर ले चलने के लिए कहा. बहुत मिन्नतें करने के बाद वो मान गया.
मैं और अनंत जैसे ही उसके घर घुसे, लगा जैसे मानो भूकंप ही आ गया हो. अनंत डर के मारे मुझे वहीं छोड़ भाग गया. मुझे देख उसकी मां ज़ोर-ज़ोर से छाती पटकते हुए चिल्लाने लगी,“अमर अब तो हद हो गई ये आवारा लड़की घर पर ही आ गई. जा रे समाज के लोगों को बुला के ला. अभी फ़ैसला हो जाएगा.”
अमर और अभीक उसके छोटे भाई थे. उसके पढ़े-लिखे पापा भी जाहिलों की तरह चिल्लाने लगे,“मैडम बक्श दो हमें! दूर हो जाओ हमारे बेटे की ज़िंदगी से. वो तो नादान है बेचारा ...तुम्हारे जाल में फंस गया.”
उसका भाई अमर जिसे मैं बड़ा ही सीधा-साधा और नेक समझती थी वहशियों की तरह चिल्लाने लगा,“ये लड़की इत्ति क्या आग लगी है तेरे को मर्द की? मेरा च भाई मिला था क्या? आ मेरे पास आ तेरी आग ठंडी करता हूं.”
बहन जिसके बारे में अनंत से सुना था कि उसके मुंह में तो ज़बान ही नहीं है चिल्लाने लगी,“ये औरत धंधा करने लगी, मेरा ही घर मिला था क्या आग लगाने को.’’

और ना जाने क्या क्या वो लोग बकते जा रहे थे. मेरा सर घूमने लगा, दो मिनट आंख बंद की तो लगा बस ज़िंदगी शायद यहीं ख़त्म हो गई है. मैं बेहोश हो ज़मीन पर गिर पड़ी. कुछ ऐसा सुनाई पड़ रहा था मानो सब एक साथ चिल्ला रहे हों,“नाटक कर रही है साली! गोबर सुंघाओ अभी होश आ जाएगा.’’
जब मुझे होश आया तो मैं अनिल के घर के ही दीवान पर लेटे हुई थी और मेरे सिरहाने पर पापा और अम्मा खड़े थे. मुझे रंडी वेश्या पुकारने वालों के चेहरे की हवाइयां उड़ी हुईं थी. मुझे होश में आया देख पास खड़े डॉक्टर और पापा ने चैन की सांस ली और डॉक्टर साहेब को विदा किया वो पापा का ही पुराना विद्यार्थी था. उसे तो सारे माजरे की भनक भी नहीं हुई. शायद पापा ने कहा हो कि मैं अपने दोस्त से मिलने आई थी और चक्कर आ गया.
उसके बाद तो ठीक सुप्रीम कोर्ट की तरह अदालत बैठी.मुक़दमे में मैं पीड़िता यानी विक्टिम थी, मेरे वक़ील पापा और मुक़दमे के जज भी पापा ही थे. मेरे गुनाहगारों की फ़ौज थी और सारे के सारे सर झुकाए खड़े थे. मैं तो पापा से लिपट-लिपट कर रोने लगी. पापा ने ज़ोर से चिल्लाते हुए अपना फ़ैसला सुनाया,“बुलाओ अपने कायर बेटे को जिसने मेरी फूल सी प्यारी का दिल दुखाया.”
थोड़ी देर में अनिल सहमा हुआ सा अंदर से आया. उसकी नाक से ख़ून निकल रहा था और आंखों के नीचे भी लाल ख़ून जमा था. मेरे बेहोश होने के बाद शायद उसकी अच्छी मार कुटाई हुई थी. मैं तो अपनी दुनिया में गुम हो गई थी. एक ही पल में मेरी चपलता, तेज़ी और आत्मविश्वास को मानो पाला मार गया था. पापा ने सबको ज़ोर से फटकार लगाई और अनिल को तो धमकी भी दी,“ख़बरदार अगर कभी मेरी बेटी की ज़िंदगी में दोबारा आने की कोशिश भी की. अभी तुमने मेरा असली रूप देखा ही कहां हैं? हिंदुस्तान के किसी भी कोने में रहो मैं जान से मार दूंगा चाहे ख़ुद सारी उम्र जेल में सड़ता रहूं.”
हम सब घर आ गए. पापा ने अम्मा को भी अच्छे से समझाया कि एक बुरे सपने की तरह इस वाक़ये को भुला दिया जाए. प्यार ऐसे भुलाए कहां भूलता है? मैं ही पागलों की तरह पड़ी रहती मानो मेरी दुनिया ही ख़त्म हो गई हो. भाई तो अपनी कम्पनी के काम से यूएसए गया हुआ था. मां को ताकीद दी गई कि भाई को भी इसकी भनक ना पड़े. पापा बिलकुल सहज बने रहे मानो कुछ घटा ही ना हो. मैंने तो पागलपन में एक दिन अपने हाथ की नस काट ली. ख़ून काफ़ी बह जाने से मेरी हालत नाज़ुक हो गई. बिना कोई शोर मचाए पापा ने एम्बुलेंस बुलवाई और मुझे अस्पताल ले गए. पड़ोसी तक को इस बात की भनक नहीं हुई कि पड़ोस वाले घर की लड़की ज़िंदगी और मौत से जूझ रही थी. पंद्रह दिनों तक ज़िंदगी से आंख मिचौली खेलने के बाद जब मैं घर पहुंची तो पापा का एक अलग ही रूप देखा. पहली बार उनके चेहरे पर अपने लिए प्यार नहीं बल्कि आक्रोश देखा. घर पहुंचते ही सबको कमरे से बाहर कर उन्होंने सिटकिनी लगाई और मुझसे ज़िंदगी में पहली बार कठोर आवाज़ में कहा,“क्यों? क्यों... तुमने सिर्फ़ अपने बारे में सोचा? जब से पैदा हुई हो, बेटे से ज़्यादा प्यार दिया तुम्हें... आज एक लड़का जिसमें हिम्मत नहीं है तुम्हें सम्भालने की कायर, बुज़दिल उसके लिए जान देने पर तुली हो. साफ़-साफ़ बताओ जीना है या मरना चाहती हो.’’
पापा ने अपने दोनों हाथ मेरे गले पर ला उसे दबाने का इशारा करते हुए कहा,“बोलो! मरना है तो मैं ही गला घोंट देता हूं. साला कमीना पासवान ये श्रेय क्यों ले कि उसकी वजह से तिवारी की बेटी मरी है.”
मैं तो रोने लगी,“पापा माफ़ कर दो प्लीज़ पापा.”
मैं और पापा दोनों एक-दूसरे से लिपट कर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे और उसी क्षण मैंने उस कायर को अपने दिल से निकाल फेंका. पहली बार पापा के मुंह से तिवारी पासवान ये शब्द सुन बड़ा अजीब सा भी लगा. कुछ ही दिनों बाद पापा ने अपने बचपन के दोस्त शुक्ला अंकल के बेटे राजीव से मेरा ब्याह कर दिया. ज़िंदगी पटरी पर चलने लगी क्योंकि राजीव पति से ज़्यादा दोस्त थे. दोनों ही अपनी पीएचडी के
बाद आईएससी बंगलोर में फ़ैकल्टी बन गए. पिछली ज़िंदगी के दर्द की यादों के निशान भी लगभग मिट से गए थे.

लेकिन ज़िंदगी के रूप भी निराले होते है . मैं एक कॉन्फ़्रेन्स के सिलसिले में सीडीआरआई लखनऊ गई हुई थी. मेरे ओरेशन के चेयर परसन थे इसरो के वाइस चेयरमैन श्री अनिल पासवान. सालों बाद अपने दिल की कस्तूरी जगाने वाले से सामना हुआ. लगा मुझे इतना सम्मानित किया जा रहा है और मेरे पैर थरथरा रहे थे. किसी तरह अपने आप को सम्भाला और ठीक कॉलेज की अदिति बन अपना ओरेशन प्रेज़ेंट किया. चेयर परसन ने स्पीकर की भूरी भूरी तारीफ़ की. मेरा दिमाग़ तो कहीं और दौड़ रहा था. अभी भी उसका चेहरा चमक रहा था और सारे साइंटिस्ट उसके आगे-पीछे घूम रहे थे. किसी ने पीछे से आवाज़ लगाई,“डॉक्टर अदिति आज आपके प्रेज़ेंटेशन में भाषण वाली बात भी थी. ग्रेट, स्कूल कॉलेज के दिनों में वाद विवाद प्रतियोगिता ज़रूर जीतती होंगी.”
अनिल ज़ोर से बोला,“अरे हम क्लासमेट हैं ये तो हमारे कॉलेज की शान थी.’’
फिर वही महाशय,“अरे तो गले लगिए, क्लासमेट से इतनी दूरी!”
मैं फीकी हंसी हंस दी. अनिल ने ज़ोर से उद्घोषित किया,“आज मैं आपकी अदिति मैडम को डेट के लिए ले जाना चाहता हूं. चलेंगी ना आप?’’
बरसों बीत गए, मन में कूक जगाने वाला एक समय मेरे यौवन का स्वामी मेरे सामने खड़ा था. एक यक्ष प्रश्न तो अभी भी मेरे दिमाग़ में चल रहा था कि उसने अपने घर वालों के डर के आगे मेरे प्यार को क्यों ठुकराया? उसके डेट के आग्रह को मौन स्वीकृति दे दी. बरसों बाद दिल से तैयार हुई, हल्की लाइट लिपस्टिक लगाई. ये मन भी कैसा पागल होता है, जिसे कभी प्यार करता है, उससे कभी घृणा कर ही नहीं पाता है. अनिल ने क्लार्क अवध में एक टेबल बुक कराई थी. टेबल के सामने के पारदर्शी शीशे से पूरे अवध की शाम देखी जा सकती थी. अनिल पहले से वहां बैठा इंतज़ार कर रहा था. मुझे देखते ही बोला,“बहुत प्यारी लग रही हो. थोड़ी मोटी ज़रूर हो गई हो. लेकिन चेहरा बिलकुल वैसा ही. कहीं से उम्र ने छापा नहीं मारा है.’’
मैंने ठीक पहले की तरह जवाब दिया,“फ़्लर्ट करने के लिए बुलाया है क्या.”
अनिल,“मैं और मेरी देवी से फ़्लर्ट.’’
मैं,“रहने दो सब कुछ मेरी आंखों के सामने और ऐसी चमचागिरी.’’
अनिल,“तुमने वो देखा है जो तुम्हें दिखाया गया है. पर तुम्हारी तरक़्क़ी देख बड़ा गर्व महसूस कर रहा हूं.’’
मैं,“सब कुछ पापा की बदौलत मैं बच गई. तुम्हारे साथ होती तो ना जाने क्या क्या...” बोलते-बोलते मैं रोने लगी.
अनिल,“हां सचमुच तिवारी सर ने अपनी बेटी को दलित पासवान होने से बचा लिया.’’
मैं,“तुम्हारे दिमाग़ में मैल भरा है. माई फ़ादर दी ग्रेट, उनकी सोच ही नहीं है ऐसी.”
उसके बाद उसने जो बताया मेरी आंखें खुली की खुली रह गईं. पापा को जब पता लगा मैं और अनिल शादी करना चाहते हैं तो वे दस पहलवान गुंडे ले उसके घर गए और अनिल के पापा भाइयों और बहन को भद्दी भद्दी गालियां दे मुझसे दूर रहने की सलाह दी. अनिल के पापा ने कहा,“ तिवारी जी आप तो समाज को बदलने के लिए जाने जाते हैं.”
पापा,“चुप साले हरामख़ोर तुझे लगता है मैं अपनी एकलौती बेटी को एक दलित से ब्याह दूंगा. तेरे बेटे को गंदा करने के लिए मेरा घर ही मिला था क्या?”
पासवान साहब बहुत डर गए और उनके पैरों पर गिर अपने बेटे के प्यार की माफ़ी भी मांगी लेकिन पापा टस से मस भी नहीं हुए. उनके साथ आए पहलवान ने अनिल की मां के बाल खिंच कर कहा,“देख औरत तू रोक ले अपने बेटे को नहीं तो तेरी बेटी को हम उठा लेंगे.” जाते-जाते धमकी भी दी कि इस बात की भनक उनकी बेटी अदिति को नहीं होना चाहिए और ड्रामा भी इस लेवल का होना चाहिए कि अदिति कभी मुड़ कर भी अनिल की तरफ़ ना देखे. इनफ़ैक्ट जब मैं अस्पताल में अपनी नस काट कर भर्ती थी इसका पता भी अनिल को बाद में चला क्योंकि उसे तो डर के मारे उसके घर वालों ने एक कमरे में बंद कर रखा था. हर दिन उसकी मां और बहन रो-रो करअपनी इज़्ज़त की दुहाई मांगते थे. मुझे तो पापा में अब चाणक्य दिख रहे थे. राजीव बहुत अच्छे इंसान हैं मेरे मित्र हैं. कितना भी नाटक करूं लेकिन सच तो ये था कि अनिल को भुला पाना मेरी लिए नामुमकिन था. किसी तरह खाना खाया, मेरी ज़ोर की रुलाई फूट पड़ी. अनिल अपनी जगह से खड़ा हो गया और मेरी पीठ सहलाने लगा. सचमुच उसकी छुअन में एक सहारे का एहसास था, ठीक वैसा ही जो मैं अपने जीवन के पहले पुरुष यानी पापा की बांहों में पाती थी. दो प्यारे मित्रों की तरह गले मिल हमने एक-दूसरे से विदा ली और कोई चारा भी नहीं था. वापस बैंगलोर आ मैंने राजीव को सारी बात बताई तो राजीव ने मुझे बांहों में भर कहा,“श्री चाणक्य ने मेरा फ़ायदा करा दिया नहीं तो मैं तो कुंवारा ही रह जाता. जानेमन आपका अनिल कुछ भी कहे लेकिन कायरों की इस दुनिया में कोई जगह नहीं.’’
राजीव के लिए ये आई गई बात थी लेकिन मेरे लिए तो वो कभी ये ही मरने जीने का सबब थी. पहली बार इस सच्चाई का पता चला कि ‘हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और.’
पापा पर ग़ुस्सा भी आया लेकिन कुछ रिश्तों को हम निशर्त जीते हैं. समय बीतता जा रहा था. भाई अमेरिकन सिटिज़न बन गया था और हमेशा की तरह मेरे बब्बर शेर पापा मेरा देश महान की रट लगाए हुए थे. अम्मा बेटे के पास गई भी पर पापा को कैसे अकेले रहने देती. पता नहीं अम्मा को अंदर ही अंदर कौन सा दुःख खाए जा रहा था, असमय ही हृदय घात में चल बसीं. भाई समय पर पहुंच गया था, हमारी तो मानो दुनिया ही लुट गई थी. लेकिन मैंने पाया कि पापा इस दुःख के समय भी भाई को समझा रहे थे,“मां के पैर अर्थी से थोड़े बाहर रहने चाहिये क्योंकि पैर हमारे शूद्र होते हैं. ब्रह्मा के सिर से हम उत्पन्न हुए हैं यानी ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, पेट से वैश्य और पैरों से शूद्र. सबसे पहले मां को मुखाग्नि देना, कपाल क्रिया ज़रूर करना.”


ये सब सुन मुझे पापा से घृणा होने लगी मां तो पूरी हमारी है चाहे पैर हो या सिर. इतनी बड़ी-बड़ी बातें करने वाले पापा के ऐसे विचार. भाई मां की तेरहवीं कर वापस चला गया. पापा मेरे साथ थोड़े बदलाव और थोड़ा समय मेरे बच्चों के साथ बिताने के लिए बैंगलोर आ गए. मेरे दोनों बच्चों से पापा की अच्छी दोस्ती भी हो गई. एक महीने बाद पापा को वापस जाना था लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था. सारे देश में लॉक डाउन हो गया और पापा को मजबूरन अपने शहर को छोड़ हमारे साथ रहने पर मजबूर होना पड़ा. पापा तो दस दिनों के बाद ही अपने शहर अपने दोस्तों के पास जाने को मजबूर हो रहे थे. ज़िंदगी भर बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का नारा लगाने वाले तिवारी जी का दामाद के घर दम घुट रहा था. पापा मेरे ही नहीं बल्कि भाई के भी हीरो थे. मां के मरने पर जब उन्होंने सवर्ण और शूद्र की बात की तो भाई को भी शायद अच्छा नहीं लगा पर वो चुप रहा. सारी फ़्लाइट्स कैंसल्ड थीं और पापा के पास हमारे यहां रहने के सिवा कोई चारा नहीं था.
पापा बहुत ही बुद्धिमान थे. मेरे बेटे से उन्होंने ऑन लाइन लेक्चर्स, गूगल पे सब सीख लिया था. अमेरिका में रहने वाले अपने बेटे बहू से रोज़ वीडियो कॉल करते थे. रोज़ मास्क और पारदर्शी हेल्मेट पहन सब्ज़ी, फल, दूध लेने कॉलोनी के ही मार्केट जाते थे. मैं बहुत समझाती कि समय ठीक नहीं है पर समझे तब तो. राजीव मुझ पर झुंझलाते,“देखती नहीं पापा कितनी सावधानी से रहते हैं. हमेशा मास्क पहनते हैं, सेनेटाइजर से हाथ धोते हैं और तो और कहीं कुछ खाते पीते भी नहीं हैं. घर के अन्दर बंद रहेंगे तो पागल हो जाएंगे.’’
पापा भी बड़े ख़ुश कि बाहर घूम फिर सकेंगे. बचपन में मुझ पर अपना सारा प्यार लुटाने वाले पापा का झुकाव मैं अपने बेटे पर ज़्यादा देखती और हर दिन उसे एक कहानी चाहे महाभारत या रामायण से सुनाते थे. बेटी ने मेरा ख़ून विरासत में पाया था, हर कहानी पर प्रश्न करती थी. पापा को उसमें दूसरी विद्रोही अदिति नज़र आ रही थी और अब तो वो अपनी जड़ों से भी कट चुके थे. साथ देने वाले कोई पहलवान भी नहीं थे. बेटे कबीर ने अपने नाना की स्टोरी सुनाते हुए वीडियो रिकॉर्डिंग की और यू ट्यूब में डाल दी. थोड़े ही देर में ढेरों लाइक्स आ गए और घर बैठे बैठे पापा स्टोरी टेलर के रूप में फ़ेमस हो गए. इन कहानियों में पापा ने अपने भीतर के धर्म के शैतान को दबाए ही रखा. किसी भी कहानी में ब्राह्मण शूद्र की बात नहीं की, लेकिन बेटे कबीर को अक्सर बताते कि हमारी उत्पत्ति ब्रह्मा के सिर से हुई है और हम सर्वश्रेष्ठ हैं और पैरों से शूद्र निकले हैं. एक दिन जब पापा यही राग आलाप रहे थे, मैं पीछे खड़ी थी. मैंने तुरंत उत्तर दिया,“बेटा जैसे हम ब्राह्मण हैं वैसे ही इसरो के वाइस चेयर मैन डॉक्टर अनिल पासवान शूद्र हैं, हमारे पैरों की चप्पल.’’
मैंने एक पैनी नज़र पापा पर डाली और वहां से निकल गई. बेटा नाना को बड़े प्यार से समझा रहा था,“नाना मम्मा को बिलकुल ये बातें अच्छी नहीं लगती हैं और अनिल अंकल तो कई बार आईएससी में एज़ ए गेस्ट स्पीकर आते हैं. मम्मा के बहुत अच्छे दोस्त हैं. उन्होंने शादी भी नहीं की है और अपनी छोटू (मेरी बेटी) तो अनिल अंकल की ज़बरदस्त फ़ैन है.’’
उसके बाद पापा थोड़े बुझ से गए शायद उन्हें अंदाज़ा हो गया था कि मुझे उनके अंदर के चाणक्य का पता चल चुका है़. पापा की कहानियों का सिलसिला चल रहा था. लोग लॉक डाउन में बेरोज़गार हो रहे थे और पापा घर-घर में छा रहे थे. बचपन के सभी दोस्तों पड़ोसियों के फ़ोन लगातार आ रहे थे. भाई के बच्चे और उनके भारतीय मूल वाले मित्र पापा की कहानियों के फ़ैन हो चले थे.
कोरोना क़हर और लॉकडाउन के बीच भी हमारे घर में सब कुछ अच्छा चल रहा था कि अचानक एक सुबह पापा को बुखार, हरारत गले में दर्द हुआ. पापा का कोविड टेस्ट पॉज़िटिव आया और पूरी कॉलोनी में हड़कम्प मच गया, ये पहला केस जो था. दो दिन पहले ही पापा के कुछ इंटरनेट फ़ैन पापा का पता चलते ही घर पर पापा से मिलने आए. मेरे मना करने पर भी पापा मास्क पहन उनसे मिले और मास्क उतार उनके साथ अपनी तस्वीर भी उतरवाई, ये उसी का ख़ामियाज़ा था. रिपोर्ट आते ही जीएमसीएच वाले आए और तुरंत पापा को कोविड ऑथराइज़्ड हॉस्पिटल में ले गए. हमारा पूरा घर सील हो गया, ये कोरोना का शुरुआती दौर था. प्राइवेट हॉस्पिटल में कोरोना मरीज़ का प्रवेश निषिद्ध था. हम मजबूर और परेशान थे, नाना के सिपाही यानी मेरे दोनों बच्चे भी कोविड पॉज़िटिव हो गए थे. ना कोई घर आता था और ना ही हम बाहर निकल सकते थे. फ़ोन पर ही पापा की जानकारी मिलती थी, डॉक्टर भी परेशान थे. यहां भी ब्रह्मा जी के पैर ही सिर के काम आए. राजीव ने तुरंत अनिल को फ़ोन लगाकर पापा की बीमारी की ख़बर दी. इसरो के फ़ोन से ही अस्पताल के डॉक्टर पापा के आगे-पीछे घूमने लगे. अनिल के बॉस कम दोस्त इसरो के डायरेक्टर ने तो सीधे कर्नाटक के चीफ़ मिनिस्टर को फ़ोन लगा दिया. पापा से हम लोग और भाई भी वीडियो कॉल पर बात कर लेते थे. ये तो भला हो कबीर का जिसने नाना को स्मार्ट फ़ोन के सब उपयोग सिखा दिए थे. पापा ठीक हो रहे थे और दो चार दिनों में डिस्चार्ज की बात हो रही थी. भाई भी निश्चिंत हो चला था लेकिन अचानक डिस्चार्ज के ठीक एक दिन पहले पापा को दिल का दौरा आया और सुबह चार बजे उनकी मौत हो गई. सारे उनके दिमाग़ के जाले दिमाग़ में ही रह गए. क्या बेटे द्वारा मुखाग्नि, अर्थी से शूद्र पैर बाहर और कपाल क्रिया धरी की धरी रह गई. हम नज़रबंद थे, आख़िरी समय उनका मुंह देखना भी नसीब नहीं हुआ. उनके शरीर का दाह संस्कार भी कई शवों के साथ शायद उसमें कई शूद्रों के शव भी रहे होंगे के साथ जीएमसीएच वालों ने कर दिया. इसके साथ ही कोरोना ने पंडित सच्चिदानंद तिवारी की कहानी भी ख़त्म कर दी.

समाप्त.....
डा.संगीता झा