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दर्पण

शीर्षक_ "जीवन अंत कहां होगा!!"



पल पल बढ़ते अनिश्चित पथ का
पूर्ण विराम कहां होगा ..!,
जीवन अथक कहानी है,
तो,अंत भला कहां होगा !
इस पार जीवन है,
उस पार जीवन कहां होगा!
पल पल घूमते जीवन चक्र में,
अंत भला कहां होगा?

संघर्ष इस पार जीवन में,
क्या शांति उस पार मिलेगा?
इस पार जीवन है,
उस पार जीवन कहां होगा!
पल पल बढ़ते अनिश्चित पथ पर,
पूर्ण विराम कहां होगा!

गायत्री ‌ठाकुर.



''अन्नदाता ''

कल हुई थी जंग..,
भूख और मौत में,
उसने मौत को चुना था.

टकटकी लगाए..,
आसमान में,
खाट पर अन्नदाता का शव पड़ा था !
लग रही है ठंड मूर्तियों को ,यह कहकर ..,
दान वस्त्रों का मंदिरों में चढ़ा था,
पर कफ़न के आस में,
शव अन्नदाता का पड़ा था,
कोठरी में उसके..,
अन्न का एक दाना न था,
तिमिर से भी काला,
उसका जीवन भरा था.
सींचा था जिसने,
खून पसीने से,
इस वसुंधरा को,
क्या देश के उत्थान में,
वह भागीदार न था?

गायत्री ‌ठाकुर.


'पंछी उन्मुक्त विचरण के '


अनगिनत पलों के दाने,
कब तक चूग पाएंगे,

तोड़कर कर सैकड़ों तालें ,
एक दिन उड़ जाएंगे ,
होकर भाव शून्य एक दिन,
शून्य में मिल जाएंगे.
तोड़कर रेशमी धागे,
बंधन यही छोड़ जाएंगे,
बहते जल धारे है ऐ,
कैसे बंध पाएंगे.
लहरें समुंदर के फिर,
समुन्दर में मिल जाएंगे.
क़ैद में पिंजरे के इसे,
कब तक रख पाएंगे.
मिट्टी के है पिंजरे ऐ,
ये तो मिट्टी में मिल जाएंगे.
पंछी उन्मुक्त विचरण वाले,
मुक्त हो उड़ जाएंगे.
गायत्री ‌ठाकुर.

''ख़ामोश पल "

जिंदगी के शोर‌ से,
कहीं अच्छे ये ख़ामोश पल.
जिनमें सुलझते देखा हमने,
कितने अनसुलझे पल.
थक जाते हैं जब क़दम अपने,
तब याद आते हैं बड़े,
चैन के ये दो चार पल.
भागती दौड़ती दुनिया में,
कहां मिलती है ये पल.
सपनों के बाजार में,
ना मिलेंगे कभी ये पल.
जिंदगी की रफ्तार से,
चल चुरा कर अब कुछ पल,
आ लिखें हम फिर कोई मिठी सी ग़ज़ल.
न जाने कब कौन सी शाम जिंदगी के,
आखरी हो, और आखरी हो पल.
गायत्री ‌‌‌‌ठाकुर

"ईश्वर तुम सिर्फ सत्य हो ''

ईश्वर तुम सिर्फ सत्य हो,
सत्ता का अस्त्र नहीं
तुम आस्था हो ,विकल मन का,
सत्ता का अस्त्र नहीं.

ईश्वर तुम सिर्फ सत्य हो,
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा नहीं,
तुम विश्वास हो,धुंधले मन का,
सत्ता का अस्त्र नहीं.
ईश्वर तुम सिर्फ सत्य हो,
मंदिर की चारदीवारों में नहीं,
तुम तो पर्याय हों,समस्त सृष्टि का,
सत्ता का अस्त्र नहीं.
ईश्वर तुम सिर्फ सत्य हो,
वेद‌ ,पुराण, शास्त्रों का नहीं,
तुम तो एक विचार हों,
मानव के कल्पित मन का,
ईश्वर तुम सिर्फ सत्य हो,
सत्ता का अस्त्र नहीं.

ईश्वर तुम सिर्फ सत्य हो,
महलों और ऊंची दिवारों का नहीं,
तुम तो सत्य हो,
उस लहूलुहान खण्डित मन का,
ईश्वर तुम सिर्फ और सिर्फ सत्य हो,
सत्ता का अस्त्र नहीं.
गायत्री ‌ठाकुर.


"चेहरे रंग मंच के ''


कुछ हतप्रभ, कुछ विस्मित चेहरे,
कुछ बेजान, कुछ रौबदार गठीले,
कुछ मुरझाए, कुछ हंसमुख चेहरे,
अलग अलग किरदारों में बंधते,
पृथक पृथक ढांचे में ढलते,
कुछ रोते कुछ गाते चेहरे ,
भांति भांति के राग सुनाते,
अलग अलग करतब दिखलाते,
जीवन चक्र दोहराते चेहरे,
एक ही रंग मंच पर आते जाते,
किन्तु अलग कथा लिख जाते.
गायत्री ‌ठाकुर.


''कवि कर्म ''

अश्रु रचता हो जब इतिहास,
मानवता का पल पल ह्रास,
अत्याचार के अनेक आकार,
फलता फूलता विविध प्रकार,
दुःख विषाद जब बना संसार,
भुख बेरोजगारी का हो जब निरंतर विस्तार,
जीवन लगता फिर निस्सार,
तब स्वरों में जंचता नहीं प्रेमोद्गार.
काव्यों में दिखते नहीं फिर सौंदर्यमय संसार.
क्रंदन करती अधरों पर फिर कैसी शांति कैसा प्रेम गान!
रहोगे कैसे तुम, कवि अनजान?
नहीं, नहीं यह ह्रृदय नहीं कवि का पाषाण !
तम से पीड़ित जीवन जब ले रहा उच्छवास,
नहीं, तब कर्म नहीं कवि का, यह भोग विलास.

गायत्री ‌ठाकुर.