Jagdish Bhavan books and stories free download online pdf in Hindi

जगदीश भवन

बहलोलपुर के लाला उदयराम अपने तीन बेटों और एक बेटी के साथ बरला आ गए। उन्नीसवीं सदी बीतने को थी।
उन्होंने बड़े बेटे दिलेराम और छोटे बेटे रामस्वरूप के साथ- साथ बिटिया पार्वती की शादी भी कर दी लेकिन बीच वाला बेटा गोबिंदराम कुंवारा ही रहा, उसने शादी नहीं की।
पोते- पोतियां होने के बाद बरला जैसा छोटा सा गांव भला सबको कब तक भाता। लाला उदयराम के न रहने के बाद परिवार ने जनपद मुख्यालय अलीगढ़ को अपना ठिकाना बनाने का विचार किया।
पटवारी रामस्वरूप रुपए पैसे से मज़बूत होने के चलते आगे आए और हवेली बननी शुरू हो गई।
रामस्वरूप के पांच बेटे और दो बेटियां थे। सबसे बड़े पुत्र ने ओवरसीयरी की पढ़ाई की और सरकारी मुलाजिम हो गए। दूसरे बेटे ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से ही पहले एम. ए. और फ़िर वकालत की पढ़ाई की। छोटे तीनों भी शहराती होकर पढ़ने लगे।
दूसरे नंबर का यह बेटा जगदीश वकालत करके वकील साहब तो कहलाने लगा पर उसका मन वकालत में रमा नहीं। उसने वहीं ठेकेदारी का काम शुरू कर दिया। सड़कों के ठेके नए- नए जनपद में खूब मिलते थे।
जब हवेली बननी शुरू हुई तो ठेकेदारी करते जगदीश को ये काम ख़ूब रूचा और वो मोटरसाइकिल पर आते- जाते घूमते हुए काम का अच्छा- खासा सुपरवाइजर बन गया।
1934 में रामस्वरूप की पत्नी कलावती देवी का स्वर्गवास हो जाने के बाद रामस्वरूप का जी भी बरला से उचाट हो गया।
जगदीश मकान को तेज़ी से बनवाने के जोश में अपने संपर्कों से लाभ उठाता और कई बार पैसा उधार भी लाता।
इसी समय रामस्वरूप के दोनों बड़े भाइयों को भी लाला उदयराम से अपने हिस्से की कुछ रकम मिली ही थी। दोनों भाइयों ने आगे बढ़कर कुछ राशि मकान बनवा रहे लड़के को उधार दे दी। उन दिनों बैंकों का अस्तित्व न होने से दोनों भाइयों ने ये राशि डिबाई (बुलंदशहर) में किसी महाजन के पास रखी थी। जगदीश का आना- जाना ठेकेदारी के कारण डिबाई में होता था। उसे वहीं से ये राशि उधार दिलवा दी गई।
रामस्वरूप के पूरी तरह बरला छोड़ने का मानस बनाने के बाद रुपए - पैसे की कोई तंगी नहीं थी क्योंकि वहां की ज़मीन- जायदाद से भी कुछ न कुछ हाथ आया ही था। लिहाज़ा उनके दोनों भाइयों को उनसे उधार लिया गया पैसा वापस लौटाया जाने लगा।
दिलेराम का तो अपना बड़ा परिवार था तो उसने रकम वापस ले ली पर मझले गोबिंद ने ये कह कर अपना पैसा वापस न लिया कि मेरे आगे- पीछे है ही कौन, मुझे चैन की दो रोटी इसी घर में मिलती है तो मैं पैसा लेकर क्या करूंगा।
लेकिन जब पैसा वापस लौटाने पर ज़ोर दिया गया तो गोबिंदराम का कहना था कि चलो, ये पैसा दान समझ कर न लिया जाए पर इसके बदले बस ये व्यवस्था हो जाए कि इस नए बन रहे मकान में सभी भाइयों और बहन के लिए कभी भी आने- जाने के लिए दरवाज़े खुले रहें।
रामस्वरूप का कहना था कि आज तो ऐसा है ही, पर भविष्य में कौन इस बात का ध्यान रखेगा, किस पर भरोसा किया जाए! तुम तो हिसाब- किताब साफ़ ही रखो। पर गोबिंदराम का कहना था कि मुझे जगदीश पर पूरा भरोसा है, इसे मेरा पुत्र जैसा ही मान लो।
इस बात ने रामस्वरूप को निरुत्तर कर दिया। वो पटवारी होने के कारण लिखा पढ़ी के कायल थे मगर फ़िर उन्होंने भवन के कागज़ों को बनवाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। उन्हें इस प्रकरण से थोड़ी खिन्नता भी हुई और कुछ नाराज़ होकर उन्होंने "जो चाहो सो करो" का रुख अख्तियार कर लिया।
जहां सभी के मन में कलावती देवी के न रहने के बाद से इस मकान का उनके नाम पर नामकरण करने का मानस चल रहा था, रामस्वरूप ने भाई की बात सुन कर ये इरादा छोड़ दिया।
इतना ही नहीं, उन्होंने हवेली का नाम भी "जगदीश भवन" रख दिया।
सबको विचित्र लगा पर राम स्वरूप के रखे गए नाम पर कोई कुछ कह न सका।
सब एक दूसरे के लिहाज़ में बोल न सके। दिलेराम की बहू ने भी मन ही मन भवन के इस नामकरण को अपना मौन समर्थन दिया। इसका एक कारण ये भी था कि इस लड़के जगदीश की शादी की बात जिस लड़की से चल रही थी वो किसी दूर के रिश्ते में उसकी बहन होती थी। 1942 में गोबिंदराम का निधन हो गया और बात हमेशा के लिए अनिर्णीत रह गई। कभी - कभी ये बात चलने पर कहा जाता कि "जगदीश" तो जगत पिता शंकर का नाम भी है।
गोबिंदराम तो न रहे, 1942 में उनकी मृत्यु हो गई पर उन की कही गई बात को आधार बनाकर बड़े भाई दिलेराम की बहू व बच्चे साधिकार उस मकान में बने रहे। दूसरी तरफ रामस्वरूप के सभी बच्चों को अपनी अपनी नौकरियों के चलते शहर से बाहर जाना पड़ा।
यद्यपि तीसरे बेटे धनेश की इच्छा थी कि अब मकान की लिखा- पढ़ी करवा कर इसके कागज़ात तैयार करा लिए जाएं ताकि भविष्य में कोई अड़चन किसी को न आए। पर दिलेराम के परिवार के लोगों के वहीं रहते हुए ये न हो सका।
मकान का मालिकाना हक कानूनी तौर पर स्पष्ट न हो पाने पर जगदीश को भी प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष ताने- तिश्ने मिलने से उस का मन भी इस मकान से विरक्त हो गया और उसने दूर जाकर भी जीवन भर अपना कोई मकान नहीं बनाया। उसने फिर कभी इस मकान से कोई ताल्लुक़ न रखा और एक गांधीवादी मूल्यों पर चलने वाले आवासीय विश्वविद्यालय में जीवन भर खादी पहन कर सादगी से जीवन गुज़ार दिया।
उसके अन्य भाइयों ने अपने मकान भी बना लिए या नौकरी के कारण उनके दूर- दूर रहने की विवशता रही इसलिए उस भवन में रामस्वरूप के बच्चों में से कोई भी न रहा।
लेकिन 1958 में रामस्वरूप के देहावसान के बाद से ये कसक सभी के मन में बनी रही कि इस भवन में 90 प्रतिशत से अधिक धन और लगभग सारा परिश्रम रामस्वरूप के परिवार से ही लगा हुआ है तो इसका स्वामित्व भी इसी परिवार के पास होना चाहिए। रामस्वरूप के तीसरे पुत्र धनेश का अपनी मां के प्रति अत्यधिक लगाव होने के कारण उसे ये बात शिद्दत से अखरती रही कि जो हवेली मां के नाम पर बननी शुरू हुई थी वो दिखावटी सद्भाव के कारण धीरे धीरे एक विवादित मिल्कियत में तब्दील हो गई और इस तरह परिवार में इतने वारिसों के होते हुए भी अपनी पैतृक संपत्ति सहेजी न जा सकी।
इस पुत्र ने भविष्य में दिल्ली में जब अपना भव्य भवन बनाया तो उसका नाम "मां प्रसाद" ही रखा।
जगदीश के बड़े पुत्र ने भी जयपुर में अपना मकान बना कर उसका नामकरण "जगदीश भवन" ही किया। वह अपनी मां के न रहने के बाद बचपन से ही जिस विवाद के बाबत सुनता चला आ रहा था उसका हल भी उसने अपनी भावना के इसी ज्वार से निकाला।
इसी भावना के वशीभूत आठवें दशक में जगदीश से छोटे तीसरे भाई धनेश की ओर से इस बात की कोशिश एक बार फ़िर शुरू की गई और उसने अपने बड़े पुत्र को सनदी लेखांकन की पढ़ाई करने के लिए दिल्ली से अलीगढ़ भेज दिया। यहां रहते हुए उस पुत्र ने जर्जर होते जा रहे भवन की देखरेख का सवाल उठा कर इस भवन के असली वारिसों को एकजुट करने की चेष्टा भी की पर भवन में दिलेराम के परिवार के कुछ बच्चों के अधिकार पूर्वक रहने के चलते यह कोशिश सफ़ल नहीं हो सकी। एक बार सबसे छोटे पुत्र की ओर से भी उसकी सरकारी नौकरी में कोई व्यवधान आ जाने के बाद अपना कुछ व्यवसाय जमा कर वहां रहने की कोशिश शुरू हुई किंतु ये भी स्पष्ट आयोजना के अभाव में दूर की कौड़ी ही सिद्ध हुई।
रामस्वरूप का जन्मशती वर्ष मनाने के ख्याल से वर्ष 1985 में उनके सभी बच्चे अलीगढ़ में इकट्ठे हुए तब इस मकान के विवाद की बात पर भी विचार किया गया और ये सोचा गया कि सबके सहयोग से इसकी मिल्कियत के कागज़ात तैयार करवा लिए जाएं किंतु इस अवसर पर शेष सभी की रुचि इसमें न रह जाने के फलस्वरूप इसका स्वामित्व पाना संभव नहीं हो पाया। इसमें प्रक्रियात्मक अड़चन के साथ- साथ इच्छा शक्ति की भी जरूरत थी। ये हो न सका।
इसे लेकर परिवार में कुछ कटुता भी बढ़ी और मनमुटाव के बाद इसके कुछ भाग का विक्रय कर, कुछ भाग का दान कर, शेष भाग इसमें रह रहे वंशजों पर ही छोड़ दिया गया।
इस तरह किसी समय की सद्भावना भविष्य में कटुता और बिखराव बन गई और संयुक्त परिवारों के टूटने- बिखरने के उस दौर में अलगाववादी प्रवृत्ति की विजय हुई।
आज जगदीश भवन का अस्तित्व नहीं है। अब इसके अधिकांश रहवासी यहां से जा चुके हैं। जो इक्का दुक्का परिजन हैं भी उन्होंने इसके अधिकांश भाग को पूरी तरह बदल कर पूरी तरह नए रूप में ढाल लिया है।
ये इमारत शहर के बीचों बीच स्थित सघन मोहल्ले में स्थित होने के कारण अब अत्यंत भीड़ भरे इलाक़े में आ गई है। लगातार आसपास नया निर्माण होते रहने के कारण अब इस स्थान की सूरत बिल्कुल बदल गई है।