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प्राचीन भारतीय इतिहास - 4 - वैदिक काल



सिंधु सभ्यता के पतन के बाद जो नवीन संस्कृति प्रकाश में आयी उसके विषय में हमें सम्पूर्ण जानकारी वेदों से मिलती है। इसलिए इस काल को हम 'वैदिक काल' अथवा वैदिक सभ्यता के नाम से जानते हैं। चूँकि इस संस्कृति के प्रवर्तक आर्य लोग थे इसलिए कभी-कभी आर्य सभ्यता का नाम भी दिया जाता है। यहाँ आर्य शब्द का अर्थ- श्रेष्ठ, उदात्त, अभिजात्य, कुलीन, उत्कृष्ट, स्वतंत्र आदि हैं। यह काल 1500 ई.पू. से 600 ई.पू. तक अस्तित्व में रहा।

वैदिक सभ्यता का नाम ऐसा इस लिए पड़ा कि वेद उस काल की जानकारी का प्रमुख स्रोत हैं। वेद चार है - ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और यजुर्वेद। इनमें से ऋग्वेद की रचना सबसे पहले हुई थी। ऋग्वेद में ही गायत्री मन्त्र है जो सविता(सूर्य) को समर्पित है।

ऋग्वैदिक काल 1500-1000 ई.पू.

ऋग्वैदिक काल के अध्ययन के लिए दो प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध हैं-

पुरातात्विक साक्ष्य

साहित्यिक साक्ष्य

पुरातात्विक साक्ष्य

इसके अंतर्गत निम्नलिखित साक्ष्य उपलब्ध प्राप्त हुए हैं-

चित्रित धूसर मृदभाण्ड

खुदाई में हरियाणा के पास भगवान पुरा में मिले 13 कमरों वाला मकान तथा पंजाब में भी प्राप्त तीन ऐसे स्थल जिनका सम्बन्ध ऋग्वैदिक काल से जोड़ा जाता है।

बोगाज-कोई अभिलेख / मितल्पी अभिलेख (1400 ई.पू- इस लेख में हित्ती राजा शुब्विलुलियुम और मित्तान्नी राजा मत्तिउआजा के मध्य हुई संधि के साक्षी के रूप में वैदिक देवता इन्द्र, मित्र, वरुण और नासत्य का उल्लेख है।

साहित्यिक साक्ष्य

ऋग्वेद में 10 मण्डल एवं 1028 मण्डल सूक्त है। पहला एवं दसवाँ मण्डल बाद में जोड़ा गया है जबकि दूसरा से 7वाँ मण्डल पुराना है।

प्रशासनिक इकाई

प्रशासन की सबसे छोटी इकाई कुल थी। एक कुल में एक घर में एक छत के नीचे रहने वाले लोग शामिल थे। एक ग्राम कई कुलों से मिलकर बना होता था। ग्रामों का संगठन विश् कहलाता था और विशों का संगठन जन। कई जन मिलकर राष्ट्र बनाते थे।ऋग्वैदिक भारत का राजनीतिक ढाँचा आरोही क्रम में- कुल > ग्राम > विशस > जन > राष्ट्र

धर्म

ऋग्वैदिक काल में प्राकृतिक शक्तियों की ही पूजा की जाती थी और कर्मकांडों की प्रमुखता नहीं थी। ऋग्वैदिक काल धर्म की॑ अन्य विशेषताएं • क्रत्या, निऋति, यातुधान, ससरपरी आदि के रूप मे अपकरी शक्तियो अर्थात, भूत-प्रेत, राछसों, पिशाच एवं अप्सराओ का जिक्र दिखाई पडता है।

आर्थिक जीवन

वैदिक आर्यो ने पशुपालन को ही अपना मुख्य व्यवसाय बनाया था। ऋग्वैदिक सभ्यता ग्रामीण सभ्यता थी। इस वेद में ‘गव्य एवं गव्यति शब्द चारागाह के लिए प्रयुक्त है। इस काल में गाय का प्रयोग मुद्रा के रूप मे भी होता था। अवि (भेड़), अजा (बकरी) का ऋग्वेद में अनेक बार ज़िक्र हुआ है। हाथी, बाघ, बतख,गिद्ध से आर्य लोग अपरिचित थे। धनी व्यक्ति को गोपत कहा गया था। राजा को गोपति कहा जाता था युद्ध के लिए गविष्ट, गेसू, गव्य ओर गम्य शब्द प्रचलित थे। समय की माप के लिए गोधुल शब्द का प्रयोग किया जाता था। दूरी का मान के लिए गवयतु।

न्याय व्यवस्था

न्याय व्यवस्था धर्म पर आधारित होती थी। राजा क़ानूनी सलाहकारों तथा पुरोहित की सहायता से न्याय करता था। चोरी, डकैती, राहजनी, आदि अनेक अपराधों का उल्लेख मिलता है। इसमें पशुओं की चोरी सबसे अधिक होती थी जिसे पणि लोग करते थे। पुत्र प्राप्ति हेतु देवताओं से कामना की जाती थी और परिवार संयुक्त होता था।

उत्तर वैदिक काल

उत्तर वैदिक काल (1000-600 ई.पू.) भारतीय इतिहास में उस काल को, जिसमें सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद तथा ब्राह्मण ग्रंथों, आरण्यकों एवं उपनिषद की रचना हुई, को उत्तर वैदिक काल कहा जाता है।

वैदिक साहित्य

वैदिक साहित्य में चार वेद एवं उनकी संहिताओं, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषदों एवं वेदांगों को शामिल किया जाता है।

वेदों की संख्या चार है- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद।

ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद विश्व के प्रथम प्रमाणिक ग्रन्थ है।

वेदों को अपौरुषेय कहा गया है। गुरु द्वारा शिष्यों को मौखिक रूप से कंठस्त कराने के कारण वेदों को "श्रुति" की संज्ञा दी गई है।

ऋग्वेद

ऋग्वेद देवताओं की स्तुति से सम्बंधित रचनाओं का संग्रह है।

यह 10 मंडलों में विभक्त है। इसमे 2 से 7 तक के मंडल प्राचीनतम माने जाते हैं। प्रथम एवं दशम मंडल बाद में जोड़े गए हैं। इसमें 1028 सूक्त हैं।

इसकी भाषा पद्यात्मक है।

ऋग्वेद में 33 देवो (दिव्य गुणो से युक्त पदार्थो) का उल्लेख मिलता है।

रप्रसिद्ध गायत्री मंत्र जो सूर्य से सम्बंधित देवी गायत्री को संबोधित है, ऋग्वेद में सर्वप्रथम प्राप्त होता है।

' असतो मा सद्गमय ' वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है।

ऋग्वेद में मंत्र को कंठस्त करने में स्त्रियों के नाम भी मिलते हैं, जिनमें प्रमुख हैं- लोपामुद्रा, घोषा, शाची, पौलोमी एवं काक्षावृती आदि

इसके पुरोहित क नाम होत्री है।

यजुर्वेद

यजु का अर्थ होता है यज्ञ।

यजुर्वेद वेद में यज्ञ की विधियों का वर्णन किया गया है।

इसमे मंत्रों का संकलन आनुष्ठानिक यज्ञ के समय सस्तर पाठ करने के उद्देश्य से किया गया है।

इसमे मंत्रों के साथ साथ धार्मिक अनुष्ठानों का भी विवरण है जिसे मंत्रोच्चारण के साथ संपादित किए जाने का विधान सुझाया गया है।

यजुर्वेद की भाषा पद्यात्मक एवं गद्यात्मक दोनों है।

यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद।

कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएं हैं- मैत्रायणी संहिता, काठक संहिता, कपिन्थल तथा संहिता। शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- मध्यान्दीन तथा कण्व संहिता।

यह 40 अध्याय में विभाजित है।

इसी ग्रन्थ में पहली बार राजसूय तथा वाजपेय जैसे दो राजकीय समारोह का उल्लेख है।

सामवेद

सामवेद की रचना ऋग्वेद में दिए गए मंत्रों को गाने योग्य बनाने हेतु की गयी थी।

इसमे 1810 छंद हैं जिनमें 75 को छोड़कर शेष सभी ऋग्वेद में उल्लेखित हैं।

सामवेद तीन शाखाओं में विभक्त है- कौथुम, राणायनीय और जैमनीय।

सामवेद को भारत की प्रथम संगीतात्मक पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है।

अथर्ववेद

इसमें प्राक्-ऐतिहासिक युग की मूलभूत मान्यताओं, परम्पराओं का चित्रण है। अथर्ववेद 20 अध्यायों में संगठित है। इसमें 731 सूक्त एवं 6000 के लगभग मंत्र हैं।

इसमें रोग तथा उसके निवारण के साधन के रूप में जानकारी दी गयी है।

अथर्ववेद की दो शाखाएं हैं- शौनक और पिप्पलाद।

ब्राह्मण

दिक मन्त्रों तथा संहिताओं को ब्रह्म कहा गया है | वही ब्रह्म का विस्तारितरुपको ब्राह्मण कहा गया है। पुरातन ब्राह्मण में ऐतरेय, शतपथ, पंचविश, तैतरीय आदि विशेष महत्वपूर्ण हैं। महर्षि याज्ञवल्क्यने मन्त्र सहित ब्राह्मण ग्रंथों की उपदेश आदित्यसे प्राप्त किया है।

संहिताओं के अन्तर्गत कर्मकांड की जो विधि उपदिष्ट है ब्राह्मण मे उसी की सप्रमाण व्याख्या देखने को मिलता है। प्राचीन परम्परा मे आश्रमानुरुप वेदों का पाठ करने की विधि थी। अतः ब्रह्मचारी ऋचाओं ही पाठ करते थे ,गृहस्थ ब्राह्मणों का, वानप्रस्थ आरण्यकों और संन्यासी उपनिषदों का। गार्हस्थ्यधर्म का मननीय वेदभाग ही ब्राह्मण है। यह मुख्यतः गद्य शैली में उपदिष्ट है। ब्राह्मण ग्रंथों से हमें बिम्बिसार के पूर्व की घटना का ज्ञान प्राप्त होता है।सर्वाधिक परवर्ती ब्राह्मण गोपथ है।

आरण्यक

आरण्यक वेदों का वह भाग है जो गृहस्थाश्रम त्याग उपरान्त वानप्रस्थ लोग जंगल में पाठ किया करते थे | इसी कारण आरण्यक नामकरण किया गया।

इसका प्रमुख प्रतिपाद्य विषय रहस्यवाद, प्रतीकवाद, यज्ञ और पुरोहित दर्शन है।

वर्तमान में सात अरण्यक उपलब्ध हैं।

सामवेद और अथर्ववेद का कोई आरण्यक स्पष्ट और भिन्न रूप में उपलब्ध नहीं है।

उपनिषद

उपनिषद प्राचीनतम दार्शनिक विचारों का संग्रह है।

कुल उपनिषदों की संख्या 108 है।

मुख्य रूप से शास्वत आत्मा, ब्रह्म, आत्मा-परमात्मा के बीच सम्बन्ध तथा विश्व की उत्पत्ति से सम्बंधित रहस्यवादी सिधान्तों का विवरण दिया गया है।

"सत्यमेव जयते" मुण्डकोपनिषद से लिया गया है।

मैत्रायणी उपनिषद् में त्रिमूर्ति और चार्तु आश्रम सिद्धांत का उल्लेख है।

वेदांग

युगान्तर में वैदिक अध्ययन के लिए छः विधाओं (शाखाओं) का जन्म हुआ जिन्हें ‘वेदांग’ कहते हैं। वेदांग का शाब्दिक अर्थ है वेदों का अंग, तथापि इस साहित्य के पौरूषेय होने के कारण श्रुति साहित्य से पृथक ही गिना जाता है। वेदांग को स्मृति भी कहा जाता है, क्योंकि यह मनुष्यों की कृति मानी जाती है। वेदांग सूत्र के रूप में हैं इसमें कम शब्दों में अधिक तथ्य रखने का प्रयास किया गया है। वेदांग की संख्या 6 है

शिक्षा- स्वर ज्ञान

कल्प- धार्मिक रीति एवं पद्धति

निरुक्त- शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र

व्याकरण- व्याकरण

छंद- छंद शास्त्र

ज्योतिष- खगोल विज्ञान

सूत्र साहित्य

सूत्र साहित्य वैदिक साहित्य का अंग है। उसे समझने में सहायक भी है।

ब्रह्म सूत्र-भगवान विष्णु के अवतार भगवान श्रीवेद व्यास ने वेदांत पर यह परमगूढ़ ग्रंथ लिखा है।

कल्प सूत्र- ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण। वेदों का हस्त स्थानीय वेदांग।

श्रोत सूत्र- महायज्ञ से सम्बंधित विस्तृत विधि-विधानों की व्याख्या। वेदांग कल्पसूत्र का पहला भाग।

स्मार्तसूत्र षोडश संस्कारों का विधान करने वाला कल्प का दुसरा भाग

शुल्बसूत्र- यज्ञ स्थल तथा अग्निवेदी के निर्माण तथा माप से सम्बंधित नियम इसमें हैं। इसमें भारतीय ज्यामिति का प्रारम्भिक रूप दिखाई देता है। कल्प का तीसरा भाग।

धर्म सूत्र- इसमें सामाजिक धार्मिक कानून तथा आचार संहिता है। कल्प का चौथा भाग

गृह्य सूत्र- परुवारिक संस्कारों, उत्सवों तथा वैयक्तिक यज्ञों से सम्बंधित विधि-विधानों की चर्चा है।