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जिंदा है पांचाली

कुछ द़िन पहले मेरी मुलाकात एक ‘लाडो मित्र’ से हुई। जो गांव-ढाणियों में जाकर 'बेटी शिक्षा' कार्यक्रम का प्रचार करती हैं। मैंने बस ऐसे ही उससे पूछ लिया कि क्या तुम्हें जागरुकता के दौरान ऐसा कोई घर मिला जहां पर बेटी का बिल्कुल भी मान-सम्मान नहीं...।
पहले तो उसने यही बताया कि ऐसे तो बहुत सारे घर मिलें...। लेकिन मेरा काम सिर्फ शिक्षा के बारे में जागरुक करना हैं। इसीलिए मैंने उस बारे में ज़्यादा सोचा नहीं...।
अपने सवाल को और अधिक स्पष्ट करते हुए मैंने फिर से लाडो मित्र से पूछा कि, तुम तो पिछले कई सालों से इस ‘जागरुकता कार्यक्रम’ से जुड़ी हुई हो, क्या तुम्हें ऐसी कोई बेटी मिली जिसका संघर्ष शिक्षा पाने से अधिक किसी ओर बात के लिए हो...? मेरी बात सुनकर वो सोच में पड़ गई और तभी उसे ‘हरकू दादी’ का घर याद आया जो टोंक जिलें की एक छोटी सी ढाणी में था।
उसने बताया कि, इस घर में उसे एक ‘कजरी’ नाम की लड़की मिली थी। अपनी टीम के साथ वो एक दिन इसके घर में कुछ देर सुस्ताने के लिए बैठे थे। हरकू दादी इस घर की मुखिया के तौर पर हैं जो घर के बरामदे में खटिया पर बैठे-बैठे हुक्का गुड़गुड़ाती रहती हैं।
दादी ने उस दिन हम सभी के लिए छाछ की राबड़ी बनवाई थी। थोड़ी ही देर में एक दुबली-पतली सी लड़की हम सभी के लिए स्टील के बड़े ग्लास में राबड़ी लेकर आई थी। मुझे वह बहुत उदास और चुपचाप सी लगी थी। जब मैंने उससे पूछा कि, क्या तुम पढ़ी-लिखी हो...? उसने हां कहा, और फिर चली गई।
मुझे कुछ अजीब लगने लगा, और उस लड़की के बारे में और कुछ जानने के लिए मैंने दादी से पूछ लिया कि, टाॅयलेट किधर हैं...? दादी ने आवाज़ लगाई, 'कजरी'...सुन तो इन्हें टाॅयलेट दिखा दें।
तभी उस लड़की का नाम पता चला। मैंने टाॅयलेट के बाहर ही खड़े रहकर उससे पूछा कि तुम ठीक हो ना...? मुझे कुछ उदास दिख रही हो...। उसने कहा कि, मैं ठीक हूं। लेकिन उसके जवाब से मैं संतुष्ट नहीं हुई। और उस पर थोड़ा दबाव डालते हुए पूछा कि, कजरी देखो तुम्हें कोई दिक्कत हैं या कोई बात हैं तो बताओ, मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं।
कजरी ने इधर-उधर देखा और बोली, मुझे ‘बहुपति’ के कलंक से बचा लो...। ये सुनते ही मैं हक्का-बक्का रह गई। उसने बताया कि दादी ने पैसों के लालच में आकर मेरी शादी हिमाचल प्रदेश के एक बड़े आसामी के घर कर दी। दादी जानती थी कि मैं फेरे तो एक लड़के के साथ ले रही हूं लेकिन मुझे पांच भाईयों के बीच में साझा किया जाएगा। लेकिन उसने ये बात छुपाए रखी।
जब मैं ससुराल गई तब मुझे पता चला कि मैं पांचों भाईयों की पत्नी हूं। मैं उसकी पूरी बात सुन पाती उससे पहले ही दादी ने उसे आवाज़ लगा दी। उसने अपना मोबाइल नंबर मुझे दिया और चली गई। कजरी की पूरी कहानी मैंने अपनी टीम को सुनाई। सभी के मन में गुस्सा था...अगले दिन हम सभी दोबारा कजरी के घर आए और उसकी दादी से इस बारे में पूछा...।
दादी खटिया से उठ खड़ी हुई और जोरों से चिल्लाने लगी। उसने हमें खूब बुरा सुनाया। जब हमने कहा कि, पुलिस में रिपोर्ट कराएंगे...तो वह हंसते हुए बोली...जाओ-जाओ कराओ...। भला प्रथाओं पर भी कोई रोड़े अटका सका हैं...? ये हमारे समाज की परंपरा हैं, जो सदियों से चली आ रही हैं.....।
हम सभी चुप हो गए...। बाद में गांव वालों से भी पता चला कि, 'बहुपति' की परंपरा आज भी कुछ समाजों में हैं।
हम सरकार के प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे, जो सिर्फ बेटियों की शिक्षा को लेकर था। उस दिन के बाद हमनें कज़री की कोई खैर खबर नहीं ली....।
लाडो मित्र से कज़री की पूरी कहानी सुनने के बाद मैंने उसका फोन नंबर ले लिया और घर चली आई। लेकिन आज मन बेहद विचलित था...।
'सूरज ढल रहा था और हल्का—हल्का अंधेरा पसरने लगा था'...। ऐसा लग रहा था मानो जैसे कि पांच हजार वर्ष पूर्व का 'कालचक्र' आज 21 वीं सदी में एक बार फिर से घूम गया हो।
पांचाल के राजा द्रुपद अपनी पुत्री द्रोपदी का विवाह एक महान पराक्रमी राजकुमार से कराना चाहते थे। पांडू पुत्र अर्जुन सर्वश्रेठ धनुर्धारी थे और राजा द्रुपद अपनी पुत्री का विवाह उन्हीं से कराना चाहते थे। लेकिन उन्हें यह खबर मिली कि पांडू पुत्रों की मृत्यु हो चुकी है तब उन्होंने पांचाल में ही द्रोपदी के स्वयंवर का आयोजन किया। उन्होंने एक खंबा खड़ा करवाया और उस पर एक गोल चक्र लगा दिया। इस चक्र में एक लकड़ी की मछली फंसी हुई थी जो कि, एक तीव्र वेग से घूम रही थी। उस खम्बे के नीचे पानी से भरा हुआ पात्र रखा था।
धनुष बाण की मदद से उस पानी से भरे पात्र में मछली का प्रतिबिम्ब देखकर उसकी आँख में निशाना लगाना था। उन्होंने कहा कि जो भी राजकुमार मछली पर सही निशाना लगाएगा। उसका विवाह द्रोपदी के साथ होगा। इस स्वयंवर में कई राज्यों के राजा और राजकुमार शामिल हुए।
पांडव उस समय वन में ब्राम्हणों की तरह रहते थे। जब उन्हें द्रोपदी के स्वयंवर का समाचार मिला तब वे भी पांचाल पहुंचे। यहां पर सुतपुत्र कर्ण और कौरव भी मौजूद थे। एक-एक करके सभी ने अपना पराक्रम दिखाया लेकिन कोई भी सफल नहीं हुआ।
यह देखकर राजा द्रुपद अत्यंत दुखी होते है। तभी अर्जुन जो कि ब्राहृमण के वेश में थे उन्होंने बहुत ही आसानी से लक्ष्य को भेद डाला। उनका बाण सीधे मछली की आंख में जा लगा। यह देखते ही द्रोपदी बहुत खुश हो गई और उसने वरमाला अर्जुन के गले में डाल दी।
स्वयंवर के बाद जब पांडव अपनी कुटिया पहुंचे तो अर्जुन ने माता कुंती से कहा कि हम भिक्षा ले आए हैं...। कुंती ने बिना देखें कह दिया, जो भी लाए हो आपस में बांट लो। लेकिन जब वो पलटकर देखती हैं तब पता चलता हैं कि वो अर्जुन की पत्नी द्रोपदी हैं।
कुंती बहुत ही दुःखी होतीं हैं। वह कहती हैं कि द्रोपदी कोई वस्तु नहीं जिसे बांट लिया जाए। ये भूल कुंती से अनजानें में हुई थी। इस भूल के कई पौराणिक कारण हैं।
लेकिन आज इस 'वर्चुअल' दुनिया की दहलीज पर भी कई 'पांचालिया' खड़ी हैं, जो भूलवश नहीं बल्कि सोच समझकर 'बहुपति' प्रथा की आग में झौंकी जा रही हैं।
हमारे देश में आज भी कई जगह ऐसी हैं जहां पर महाभारत काल की बहुपति प्रथा को सामाजिक रुप से स्वीकार्यता मिली हुई हैं।
जब मैंने इस बारे में खोजबीन शुरु की तब देखा कि उत्तराखंड के जौनसार, बावर, दक्षिणी कश्मीर के हिमालयी क्षेत्र, नीलगिरि के टोडा, देहरादून की खासा जनजाति, अरुणाचल प्रदेश की गाइलोंग जनजाति, केरल का माला मदेसर, माविलन और राजस्थान, हरियाणा व पंजाब के कुछ क्षेत्रों में आज भी बहुपति परंपरा हैं।
यदि हम इस प्रथा के पौराणिक पहलू को न देखें और एक स्त्री के रुप में द्रोपदी की मनःस्थिति को महसूस करें तो शायद पांच पतियों की कल्पना करना उसके लिए भी सहज नहीं रहा होगा।
'कजरी' जिसका सबकुछ पांच भाईयों के बीच में बंट चुका था...। उसका शरीर और हर एक रातें भी भाईयों में तय दिन के हिसाब से बंटी हुई थी। बारी—बारी से वो इन पांच पतियों के साथ रातें गुजार रही हैं...। न उसके शरीर पर उसका अधिकार हैं ना ही उसके मन पर...। वह सिर्फ एक वस्तु बनकर जी रही हैं...।
इतिहास की एक बड़ी भूल आज भी समाज में दोहराई जा रही हैं। ये देखकर बेहद हैरान हूं और परेशान भी...।
इस प्रथा के एक अन्य पहलू पर नजर डालें तो जहां पर बेटियों की संख्या कम हैं उन जगहों पर ये अधिक प्रचलित हैं। लेकिन ये तो कोई समाधान नहीं हैं, बेटियों की संख्या कम हो ही क्यूं रही हैं इस पर गहराई से चिंतन की जरुरत हैं...फिलहाल 'बेटियों को बचाना' ही इसका एक कारगर समाधान हैं...।
'कालचक्र' का पहिया एक बार फिर से घूमा हैं उस भूल को सुधारने के लिए जो 'कुंती' से हुई थी।

टीना शर्मा 'माधवी'
पत्रकार/ कहानीकार/ स्वतंत्र टिप्पणीकार
sidhi.shail@gmail.com