Param Bhagwat Prahlad ji - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग10 - हिरण्यकशिपु को वर प्राप्ति

[प्रह्लाद का आविर्भाव, देवताओं में खलबली]
धीरे-धीरे दैत्यराज हिरण्यकशिपु की तपस्या पूरी हुई और उसके समीप दक्ष, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु आदि अपने मानस पुत्रों के सहित जगत्स्रष्टा ब्रह्माजी जा पहुँचे। (पद्मपुराण उत्तरखण्ड अध्याय ९३ के अनुसार हिरण्यकशिपु ने शिवजी के पञ्चाक्षर मन्त्र का जप किया था और शिवजी ने ही वर प्रदान किया था, किन्तु अधिकांश पुराणों में ब्रह्माजी के द्वारा वरप्राप्ति की कथा है। सम्भवतः शिवजी के वरदान की कथा कल्पान्तर की कथा है।) हिरण्यकशिपु का शरीर हड्डियों की ठठरीमात्र रह गया था और उसके ऊपर भी दीमक लग गये थे। ब्रह्माजी ने कहा, “हे कश्यपनन्दन! तुम्हारी तपस्या पूरी हो गयी, अब उठो और मनोवाञ्छित वर माँगो। मैं तुमसे प्रसन्न हूँ । तुम्हारे समान अद्यावधि (आज तक) किसी ने कठिन तप नहीं किया। एकाग्रचित्त होकर धैर्यशाली तप करने वाला आज तक मैंने तुम्हारे समान तुम्हीं को पाया है। भला, जल तक परित्याग करके किसने इतने दिनों का कठिन तप किया है? और यदि कोई ऐसा करता भी तो वह जीता ही कैसे रह सकता था? हे दैत्यराज! उठो, जो चाहो माँगो।” परन्तु ब्रह्माजी के इन वचनों को सुननेवाला था कौन? दैत्यराज तो तपस्या में लीन था और उसका शरीर हड्डियों की ठठरी-मात्र रह गया था। उत्तर देता तो कौन देता? कुछ समय तक ठहर कर ब्रह्माजी ने अपने कमण्डलु से जल निकालकर और उसे मन्त्रपूत करके ज्यों ही दैत्यराज के ऊपर छिड़का त्यों ही उस अस्थि-मात्र अवशिष्ट दैत्यराज के शरीर में अमोघ बल उत्पन्न हो गया। उसका शरीर पूर्ववत् सुन्दरतायुक्त पचीस वर्ष की युवा अवस्था का और असीम साहस से पूर्ण हो गया।
जब मन्त्रपूत जल के प्रभाव से दैत्यराज हिरण्यकशिपु को चेत हुआ और उसने अपनी आँखें खोलीं तब उसने अपने सामने मानसपुत्र महर्षियों के सहित हंसवाहन जगत्स्रष्टा ब्रह्मा को मुसकुराते हुए देखा। देखते ही उसने साष्टाङ्ग प्रणाम कर रोमाञ्चित करने वाले भाव से कहा, “नाथ! आपने असीम कृपा की है कि, मुझ निर्जीव व्यक्ति को जीव, निर्बल को बल और निराधार को आधार देने का अनुग्रह किया है। भगवन्! मुझमें ऐसी शक्ति नहीं कि, मैं आपकी स्तुति कर सकूँ और आपकी इस असीम अहैतुकी कृपा के लिये आपके प्रति शब्दों द्वारा कृतज्ञता प्रकट कर सकूँ।” इतना कहते-कहते दैत्यराज के नेत्रों से आँसुओं की धारा बहने लगी और उसका शरीर पुलकित हो उठा।
ब्रह्माजी— “हे पुत्र! अबतक तुमने जो कठिन तप किया है उसका फल आज तुम्हारे सामने उपस्थित है। जैसी तुम्हारी इच्छा हो वैसा तुम अब वर माँगो। हम तुमको सब कुछ देने के लिये तैयार हैं।"
हिरण्यकशिपु— “भगवन्! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं और वर देने के लिये तैयार हैं तो आप मुझको 'अमरत्व' प्रदान करें। मैंने देवताओं के अत्याचारों से बचने के लिये ही यह तपस्या की है। मेरा एकमात्र अभीष्ट है 'अमरत्व प्राप्त करना।'
ब्रह्माजी— “हे दैत्यराज! यह सारा जगत् प्रकृति के अधीन है। मैं और शिवजी भी उसी के आज्ञानुसार काम करते हैं। इस जगत् में अमर कोई नहीं है। यहाँ तक कि मैं भी अपने एक सौ वर्ष की आयु तक ही रह सकता हूँ। अतएव तुम्हारे माँगे हुए वर को देने में मैं असमर्थ हूँ। मैं स्वयं ही जब अमर नहीं हूँ, तब तुमको अमर बनाने में कैसे समर्थ हो सकता हूँ? हाँ, ‘अमरत्व' के अतिरिक्त अन्य जो कुछ तुम माँगना चाहो, माँग लो। मैं तुम्हारे ऊपर अत्यन्त प्रसन्न हूँ और जो कुछ मेरी शक्ति में है, उसको देने के लिये तैयार हूँ।”
हिरण्यकशिपु– “हे जगत् के सिरजनहार नाथ! आपने ठीक ही कहा है, किन्तु मैं अब भी अधीर नहीं। आप 'अमरत्व' नहीं दे सकते तो न दें, मैं दूसरा वर माँगता हूँ। आप मुझे यह वर दें कि ‘आपने जो कुछ बनाया या सिरजा है, चाहे वह देव, दानव, दैत्य आदि देवयोनि के प्राणी हों और चाहे मानवादि योनि के प्राणी अथवा कोई भी आपका सिरजा हुआ प्राणी हो, उसके द्वारा मेरी मृत्यु न हो। मेरी मृत्यु न घर के भीतर हो न घर के बाहर। न रात में हो न दिन में। मेरी मृत्यु न पृथिवी में हो और न आकाश में। न मुझे प्राणी मार सकें न अप्राणी। इतना ही नहीं, मैं इसी शरीर से आपके समान ही समस्त लोकपालों का अधिपति बन कर रहूँ।”
दैत्यराज के अद्भुत वर को स्वीकार कर ब्रह्माजी ने तथास्तु कह अपने लोक के लिये प्रस्थान किया और महर्षिगण भी अपने-अपने आश्रम को पधारे। हिरण्यकशिपु भी मन ही मन बड़ा ही प्रसन्न हुआ और उसने सोचा कि 'मैंने ब्रह्माजी को भी भुला दिया और प्रकारान्तर से अमरत्व का ही 'वर' प्राप्त कर लिया है। अब देखता हूँ मेरे शत्रु देवतागण और उनका पक्षपाती विष्णु जो मेरे भाई का घातक है, किस कन्दरा में छिप कर अपनी-अपनी जान बचाते हैं और मेरे विरुद्ध कैसा षड्यन्त्र रचते और किसकी दुहाई देते हैं? इधर दैत्यराज ने वर प्राप्त कर अपने घर के लिये प्रस्थान किया और उधर देवताओं में वरदान का समाचार सुन ऐसी खलबली मच गयी कि जिसकी कोई सीमा नहीं। देवताओं ने दैत्यराज के परिवार के साथ उसकी अनुपस्थिति में जो सुलूक किया था उसका बदला लेने को दैत्यराज आ गया। अतएव देवतागण विशेष कर देवराज इन्द्र, 'कृतापराधः स्वयमेव शंकते' के अनुसार अधीर हो उठे। देवराज ने जिन दैत्य सेनापतियों को बन्दी बना रखा था, जिन दैत्यराजकुमारों को अपने जेलखानों में ढूंस रखा था, उनसे क्षमा माँग-माँग कर उन सबको छोड़ दिया और समस्त देवता तथा दिक्पालगण अपनी-अपनी रक्षा के लिये उपाय ढूँढ़ने लगे ।
दैत्यराज हिरण्यकशिपु अपूर्व वर प्राप्त करके अपनी राजधानी 'हिरण्यपुर' में जो आज मुल्तान नाम से प्रसिद्ध पंजाब प्रान्त का एक नगर है, जा पहुँचा। राजधानी को देवराज इन्द्र ने पहले ही से तहस-नहस कर डाला था, किन्तु उसका भग्नावशिष्ट खंडहर मौजूद था। दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने देवराज की सारी काली करतूतें सुनीं और यद्यपि उसको इतना क्रोध आया कि
उसकी आँखें लाल हो गयीं और वह दाँत कटकटाने लगा, तथापि उसने उस समय युद्ध न छेड़ धैर्य धारणकर अपनी राजधानी को पुनः सजाने और अपने समस्त सैनिक सामन्तों को सँभालने का कार्य आरम्भ किया। थोड़े ही समय में बड़े-बड़े शिल्पियों द्वारा 'हिरण्यपुर' पुनः 'हिरण्यपुर' हो गया। उसकी शोभा देख कर देवराज इन्द्र की अमरावती को भी लज्जा जान पड़ने लगी। इसी बीच में दैत्यराज के राजकुमार जो देवराज इन्द्र के यहाँ बन्दी थे तथा सारे-के-सारे सेनापति भी आ गये और दैत्यराज के आगमन का समाचार सुनकर महर्षि नारदजी ने गर्भवती महारानी कयाधू को भी लाकर उसके प्राणपति दैत्यराज को सौंप दिया। प्राणप्रिय पुत्री तथा प्राणप्रिया भार्या के मुख से भी दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने देवराज इन्द्र के क्रूरतापूर्ण अमानुषिक अत्याचारों को सुना। अपनी अनुपस्थिति में अपने अन्तःपुर के ऊपर देवराज के आक्रमण का वृत्तान्त सुन कर दैत्यराज के मुख से सहसा निकल पड़ा कि ये काम कायरों, चोरों और डाकुओं के हैं, वीरों के नहीं। हम इन अत्याचारों का उत्तर लम्पट इन्द्र के कार्यों के रूप में नहीं, वीरता के साथ देंगे। आप लोग धैर्य धारण करें?
एक तो पहले से ही देवताओं के प्रति शत्रुता के भाव दैत्यराज के हृदय में थे, दूसरे उनकी अनुपस्थिति में उनकी राजधानी एवं उनके अन्तःपुर में देवताओं ने जो अत्याचार किये थे वे घी की आहुति के समान अग्नि को–क्रोधाग्नि को प्रज्वलित करनेवाले हुए‌‌। दैत्यराज ने वर प्राप्त कर लौटने पर जब राजधानी एवं राजप्रासाद की रचना पूर्ववत् करा दी और पुनः स्वस्थ होकर शासन करने लगे, तब उन्होंने अपने राज्य में ढिंढोरा पिटवा दिया कि “यदि कोई भी स्त्री पुरुष अथवा बालक किसी भी देवता की पूजा करेगा, अथवा देवताओं का पक्ष लेनेवाले विष्णु की पूजा-अर्चा करेगा तो उसको कड़े से कड़ा दण्ड दिया जायगा। इतना ही नहीं, यदि कोई विष्णु का नाम भी उच्चारण करेगा तो उसको भी कारागार में बन्द कर कठोर दण्ड दिया जायगा।” इस प्रकार का ढिंढोरा पिटते ही, सारे साम्राज्य में खलबली मच गयी और बेचारे विष्णु-भक्तों को जिस कठिनाई का सामना करना पड़ा, उसका तो अनुमान करना भी इस स्वतन्त्र विचार के जमाने में असम्भव है। न जाने कितने भगवद्भक्त कारागारवासी हुए और न जाने कितनों को तरह-तरह की यातनाएँ भोगनी पड़ीं तथा कितने ही मौत के घाट उतारे गये। राज्यभर में अवैष्णवता का अन्धकारमय जड़वाद फैल गया और कहीं ढूँढ़ने पर भी देखने को विष्णुभगवान् का
मन्दिर और वैष्णव न मिलते थे।
दैत्यराज हिरण्यकशिपु को ब्रह्मा का वरदान मानों अमोघ ब्रह्मास्त्र मिल गया और वह अपना वैरभाव देवताओं से निकालने लगा। कितने ही देवताओं को उसने अपने कारागारों में बन्द कर उनके सारे के सारे अधिकार छीन लिये और शक्तिशाली लोकपालों को अपने अधिकार में रख दासता की बेड़ी में जकड़ दिया। न जाने कितने ही देवता दैत्यराज के भय से भयभीत हो अपने लोक ही से चल दिये और मर्त्यलोक में मनुष्यों के वेश में रहने तथा जैसे तैसे अपना-अपना जीवन यापन करने लगे। उसके साम्राज्य में देव-ब्राह्मणों की पूजा, भाँति-भाँति के यज्ञ और अनुष्ठानों का अन्त हो गया तथा तामसी विद्याओं का खासा प्रचार होने लगा। वैदिक ब्राह्मणों तक में मारण, मोहन, उच्चाटन आदि की ही शिक्षाएँ अधिकता से प्रचलित हो गयीं और सात्त्विकी विद्याओं का लोप सा हो गया। दैत्यराज तथा उसके सभी अधिकारी सारे संसार की ऋद्धि सिद्धि और अक्षुण्ण अधिकारों को पाकर मदान्ध हो गये और सारी चिन्ताएँ छोड़ उन सबके अन्तःकरण में एकमात्र विष्णु का वैर-ही-वैर रह गया। दैत्यराज को रात-दिन यही चिन्ता रहती कि किस प्रकार से कहाँ विष्णु मिलें कि उनसे भाई का बदला चुकाऊँ और उनको मार कर देवताओं का आश्रय मिटा दूँ।
उधर दैत्यराज के तामसी शासन से सारा संसार कम्पायमान हो रहा था और तामसी असुरों की पाँचों अँगुलियाँ घी में थीं और इधर महारानी कयाधू प्रसवकाल समीप आने से बड़े ही विस्मय में थीं। जिस समय से प्रह्लाद माता के गर्भ में आये थे उसी समय से यद्यपि उनको तरह-तरह के विलक्षण स्वप्न होते थे, तथापि जैसे-जैसे प्रसवकाल समीप आने लगा वैसे-ही-वैसे स्वप्न भी अधिकाधिक होने लगे। महारानी कयाधू स्वप्न में कभी भाँति-भाँति के देव-देवियों के आगमन देखती थीं, कभी भक्ति में मग्न होकर उनको नाचते-गाते देखतीं-सुनती थीं, और कभी विष्णुभगवान् का पूजन और उनका महोत्सव मनाते हुए देववृन्द को देखती थीं। कभी-कभी तो जाग जाने पर भी वह कुछ ही दूरी पर हरि-नाम-कीर्तन की मधुर ध्वनि और विष्णुभगवान् के जयजयकार का शब्द सुनती थीं। इतना ही नहीं, कभी-कभी वह प्रत्यक्ष में भी वायुरूप देवों को भगवद्भक्त का जयजयकार करते हुए भी देखती थीं और यह सब कुछ देख-सुन कर वह बड़े विस्मय में समय बिताती थीं।
महारानी कयाधू विस्मय में इस कारण पड़ी थीं कि, इन दैवी घटनाओं को देख और सुनकर उनको महर्षि नारद के वचन स्मरण आते और वह विश्वास करती थीं कि हमारे गर्भ से संसार में कीर्ति फैलानेवाला एक महापुरुष उत्पन्न होगा, किन्तु उसके साथ उनको यह भय भी सताता था कि यदि प्राणपति दैत्यराज को यह समाचार मिल गया तो सम्भवतः वे गर्भ को ही नष्ट करा डालेंगे। इस कारण से वे अपने स्वप्न की देखी और सुनी बातों को किसी के आगे प्रकट करना नहीं चाहती थीं, और बिना प्रकट किये हुए उनका हृदय एक अपूर्व अवस्था को प्राप्त हो गया था। अन्त में कोमल रमणी का हृदय इन बातों को छिपा न सका और एक दिन जब पुरोहितजी उनके अन्तःपुर में आये, तब उनसे एकान्त में रानी ने अपने स्वप्न की सारी बातें कह सुनायीं। पुरोहितजी यद्यपि राजा की आज्ञा के भय से प्रत्यक्षतः विष्णुभक्त न थे, तथापि वस्तुतः वे थे परम वैष्णव और द्विज-देवताओं के शुभचिन्तक। पुरोहितजी ने महारानी कयाधू की सारी बातें सुन कर कहा कि “हे दैत्यराजमहिषी! हमने आपके सभी लक्षणों को देखा और स्वप्न की सारी बातें सुनीं। आप चिन्ता दूर करें। आपके गर्भ से जो बालक होगा उसके द्वारा आपके दोनों ही कुल— पितृकुल तथा श्वसुर कुल संसार में प्रसिद्ध होंगे। वह बड़ा यशस्वी होगा एवं धन्य धन्य होगा। वह बालक संसार भर का हितकारी और महापुरुष होगा। बस, इतना ही इस समय हम आपसे कहते हैं। किन्तु इसी के साथ इस बात का अनुरोध भी करते हैं कि यदि अपना
तथा अपने दोनों कुलों का कल्याण आपको इष्ट है तो इस बात की चर्चा अब किसी के भी आगे न करना।” महारानी कयाधू ने पुरोहित की हितभरी बातों को सुन कर स्वप्नचर्चा को गुप्त रखने की प्रतिज्ञा की और प्रतिज्ञा को अन्त तक निबाहा भी। उस दिन के पश्चात् किसी को कानों कान स्वप्न का समाचार नहीं मिला।
इस घटना के पश्चात् थोड़े ही दिनों पीछे परमपुनीत समय में परमभागवत प्रातःस्मरणीय भक्तशिरोमणि प्रह्लाद का पवित्र एवं कल्याणप्रद आविर्भाव हुआ। बालक के भूमिष्ठ होते ही चारों ओर मङ्गलमय वाद्यध्वनि होने लगी, नगाड़े बजने लगे और सारे राजमहल में ही नहीं, सारे नगर में मङ्गलाचार होने लगे। नवजात शिशु के अपूर्व रूप-लावण्य, सुन्दर शारीरिक गठन एवं सारे मन्दिर को प्रभान्वित कर देनेवाली उसकी प्रभा को देखकर, माता अपनी प्रसववेदना को भूलकर आनन्दमग्न हो गयी। माता सोचने लगी कि 'यह बालक साधारण राजकुमार नहीं है, यह अद्भुत रूपधारी परमपावन ईश्वर-दूत अथवा कोई ईश्वरीय शक्ति सम्पन्न देवता का अवतार है और ईश्वर के किसी विशेष कार्य को सम्पन्न करने के लिये इसका आविर्भाव हुआ है।' एक तो माता का पुत्र-वात्सल्य -रस यों ही प्रेम के रूप में सहस्रधार होकर प्रवाहित होता रहता है, दूसरे अपने पुत्र के अलौकिक तेजस्वी स्वरूप एवं चैतन्य शक्ति को देखकर तथा महर्षि नारद एवं पुरोहित के वचनों को स्मरण कर महारानी कयाधू पुत्र-स्नेह में निमग्न हो गयीं और बारम्बार नवजात शिशु को चूमने लगीं। इतना ही नहीं, दैत्यराज हिरण्यकशिपु तो जो कुछ कर रहे थे करते ही थे, महारानी ने अपने अन्तःपुर के लिये यह आदेश दे दिया कि उस समय तक मुक्तहस्त से दान-पुण्य बराबर होता रहे जब तक कि अशौच नहीं लगता।
बात की बात में सारी राजधानी में, हिरण्यपुर के मुहल्ले-मुहल्ले और घर-घर में राजकुमार के जन्म के आनन्द में महोत्सव मनाने का समारोह होने लगा। चारों ओर नवीन नगर में नवीन उत्साह के साथ मङ्गलमय उपकरणों से सुसज्जित नवयुवतियों के झुण्ड-के-झुण्ड बधावा लेकर राजप्रासाद की ओर जाते दिखलायी देने लगे। गुण-गरिमा-गर्वित गवैये अपनी राग-रागिनियाँ अलापते हुए माङ्गलिक गाने गाने लगे। राजधानी में चारों ओर ऐसी चहल-पहल मच गयी कि कोई किसी की बात भी नहीं सुनता था। 'दीयताम्, दीयताम्' (मुझे दीजिए, मुझे दीजिए) के शब्द की प्रतिध्वनि के समान ही 'गृह्यताम्, गृह्यताम्' (लीजिए, लीजिए) की प्रतिध्वनि से आकाश प्रतिध्वनित होने लगा। महाराज शुक्राचार्य के सुपुत्र की सम्मति से बालक के सविधि जात-संस्कार किये गये।
बालक अपूर्व था, उसकी प्रभा विलक्षण थी और वह धीरे-धीरे नहीं, बड़ी शीघ्रता के साथ शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान नित्य ही कुछ-न-कुछ उन्नति करने लगा। समयानुसार उसके निष्क्रमण एवं नामकरण आदि संस्कार भी सविधि कराये गये और आचार्य ने उसका नाम 'प्रह्लाद' रक्खा। यद्यपि यह राजकुमार प्रथम राजकुमार नहीं था फिर भी इसकी सुन्दरता, इसके भविष्य-चरित्र का प्रभाव तथा इसके तेजपुञ्ज मुख-कमल को देखकर, माता का तो कहना ही क्या था दैत्यराज हिरण्यकशिपु भी अपने आप को आनन्द के अगाध सागर में निमग्न देखने लगा। इस नवजात शिशु के सामने मानों पूर्वोत्पन्न पुत्रों का स्नेह-स्मरण ही जाता रहा।
इधर असुर समुदाय में चारों ओर आनन्द बधाई बजती थी और सब लोग राजकुमार के जन्मोत्सव का आनन्द मना रहे थे, उधर देवताओं में भी परमभागवत प्रह्लाद के आविर्भाव का समाचार पहुँचते ही, अपनी सारी विपत्तियों को भुलाकर, दासता की बेड़ियाँ बजा-बजा कर आनन्द मनाया जाने लगा। भविष्य की आशा पर, जगत्स्रष्टा ब्रह्माजी के आश्वासन के भरोसे पर प्रह्लाद के जन्मकाल में असुरों की अपेक्षा देवताओं में, कम नहीं, बल्कि अधिक आनन्द मनाया जाने लगा, किन्तु असुरों का आनन्द प्रकटरूप में था और देवताओं का आनन्द हृदयगत और गुप्त था। सारांश यह कि, प्रह्लाद के आविर्भाव से सारा संसार आनन्दित हो गया। देव, दनुज, मनुज आदि सभी जातियों के घर आनन्द का समुद्र उमड़ने लगा।