Param Bhagwat Prahlad ji - 9 books and stories free download online pdf in Hindi

परम भागवत प्रह्लादजी -भाग9 - महारानी का कयाधू को महर्षि नारद का महोपदेश

[गर्भस्थ प्रह्लाद को ज्ञानप्राप्ति]
एक दिन जब कि, गर्भस्थ प्रह्लाद अधिक चैतन्य हो चुके थे और पूर्वजन्म के प्रभाव से उनको श्रवणादि विषयों का यथेष्ट ज्ञान प्राप्त हो चुका था, तब महर्षि नारदजी ने एकान्त में महारानी कयाधू को सम्बोधित करके बहाने से, गर्भस्थ बालक प्रह्लाद को ज्ञान का मर्म सुनाया था। महर्षि नारदजी ने जो महोपदेश दिया था वह संक्षेप में इस प्रकार था —
महर्षि नारद– “बेटी कयाधू! मानवजीवन क्षणभंगुर है। अतएव इस शरीर को स्थायी समझ किसी धार्मिक कार्य को टालते हुए व्यर्थ कालक्षेप (समय बिताना) करना भूल है। बालकपन से ही जो भगवान् लक्ष्मीनारायण की अनन्य भक्ति अथवा प्रपत्ति (शरणागति) में लग जाता है वही बड़ा पण्डित और ज्ञानी है। यह मनुष्य जन्म महादुर्लभ होने पर भी अस्थायी है। अतएव इसका सदुपयोग करना ही सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता है। इस असार संसार में मानव जीवन के लिये सबसे श्रेष्ठ भगवच्चरणारविन्द की शरणागति है। शास्त्रों में भगवान् विष्णु की छः प्रकार की शरणागति कही गयी है । परब्रह्म परमात्मा भगवान् विष्णु, सर्वव्यापी, समस्त आत्माओं के प्रिय और सुहृद् हैं। उनके यहाँ किसी जाति, किसी अवस्था और किसी लिंग का भेदभाव नहीं है। भगवान् की प्रपत्ति-साधना में मनुष्यमात्र अधिकारी हैं। अर्थात् इस भागवत धर्म में, इस प्रपत्ति-योग में ब्राह्मण आदि वर्ण एवं जाति की उत्तमता अपेक्षित नहीं है, स्त्री, पुरुष आदि की विशेषता नहीं है और ब्रह्मचर्यादि व्रत, उदारता आदि गुण, पुण्यदेश-पुण्यतीर्थ-स्थानादि, पुण्य काल के पर्व, यज्ञादि उत्तम कार्य तथा अवस्थाविशेष भी अपेक्षित नहीं हैं। अर्थात् प्रपत्तियोग में, भागवत धर्म में एवं भगवान् विष्णु की शरणागति में सभी जाति, सभी आश्रम और सभी अवस्था के मनुष्य अधिकारी हैं। किसी देश, स्थान, समय एवं गुणविशेष की नाममात्र के लिये भी आवश्यकता नहीं है। केवल दृढ़ विश्वासपूर्वक शरणागत होने की आवश्यकता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अन्त्यज आदि सभी जाति के लोग तथा स्त्री एवं बालक भी परमपिता परमेश्वर की प्रपत्ति करते हैं। इसी कारण साधुजन, सभी प्राणियों को प्रपत्ति का उपदेश देते हैं और यथासम्भव सभी प्राणियों को प्रपन्न बनाने की चेष्टा करते हैं। यदि बीच में कोई अपाय (विघ्न) न आ पड़े तो प्रपत्ति का फल मानव जीवन को सबसे अधिक शीघ्र फलदायी होता है और विघ्न आ जाने पर भी वह निष्फल नहीं जाता। फल में समय का विलम्ब भले ही हो जाय, किन्तु प्रपत्ति का फल अक्षय है। वह नष्ट नहीं होता और प्रपन्न (शरणागत) को एक न एक दिन अवश्य ही मिलता है।'
महारानी कयाधू– “भगवन्! मेरा दानवकुल में जन्म हुआ और मैं दैत्यराज की राजमहिषी हूँ। अतएव मैं इस विषय में सर्वथा अनभिज्ञ हूँ। आपने मुझे भगवत्प्रपत्ति अथवा भगवान् विष्णु की शरणागति के जो छः भेद बतलाये हैं वे कौन-कौन से हैं और उनका पालन कैसे होता है? इसके बतलाने की भी आप कृपा करें ।'
महर्षि नारद– “बेटी! दानवपुत्रि! तुमने शरणागति के छः भेदों को ठीक ही पूछा है। जब तक श्रोता, वक्ता के कथन को आद्योपान्त (शुरू से अंत तक) यथार्थरूप से समझ नहीं लेता तब तक वक्ता का परिश्रम सफल नहीं होता। अतएव तुमने हमारे कथन को सर्वांश में समझने की चेष्टा की है। यह प्रसन्नता की बात है। बेटी कयाधू! शरणागति
के छः भेद नहीं, छः अङ्ग हैं।
प्रपत्तिरानुकूल्यस्य सङ्कल्पोऽप्रतिकूलता
विश्वासो वरणं न्यासः कार्पण्यामति षड्विधा
—(भारद्वाजसंहिता)
अर्थात्– अष्टाङ्गयोग के अनुसार प्रपत्ति के छः अङ्गों को छ: भेद के नाम से पुकारा गया है। भगवान् की अनुकूलता का संकल्प करना, भगवान् की प्रतिकूलता का वर्जन करना, भगवान् अवश्य ही हमारी रक्षा करेंगे, यह दृढ़ विश्वास रखना, रक्षक के रूप में भगवान् का वरण करना, भगवच्चरणारविन्द में आत्मसमर्पण करना और अपने आपको सर्वथा असमर्थ जानना, इन्हीं छः अङ्गों के सहित प्रपत्ति के अर्थात् शरणागति धर्म के अनेक भेद माने गये हैं, जो कर्ता के स्वभावादि के भेद से सम्बन्ध रखते हैं।
कायिकी, वाचिकी एवं मानसी रूप में शरणागति तीन प्रकार की मानी गयी है और उन तीनों में भी एक-एक के गुणभेद से तीन-तीन प्रकार माने गये हैं। जैसे सात्त्विक-कायिकी, राजसिक-कायिकी, तामसिक-कायिकी—ये तीन भेद कायिकी शरणागति के हैं। सात्त्विक-वाचिकी, राजसिक-वाचिकी, तामसिक-वाचिकी—ये तीन भेद वाचिकी शरणागति के हैं और सात्त्विक-मानसी,राजसिक-मानसी, तामसिक-मानसी—ये तीन भेद मानसी शरणागति के हैं। हे बेटी! इन प्रपत्तियों के लक्षण का वर्णन शास्त्रों में बड़े विस्तार से किया गया है, किन्तु संक्षेपतः उनका सारांश हम तुमको सुनाते हैं ध्यान देकर सुनो। भगवान् को साष्टाङ्ग प्रणामादि करना, भगवान् के शंख, चक्र आदि के चिह्न को धारण करना और ऊर्ध्वपुण्ड्र आदि से शरीर को प्रपत्ति-चिह्नों से चिह्नित करना, कराना कायिकी-प्रपत्ति है। जो चिह्न स्वयं धारण करने के हैं (जैसे–तिलकादि।) उनको स्वयं धारण करना और जो आचार्यचरणों द्वारा धारण करने योग्य हैं (शंख, चक्र आदि।) उनको आचार्यचरणों द्वारा धारण करना चाहिये। जो भगवत्प्रपन्न आचार्यचरणों के उपदेशानुसार उनके अधीन होकर मन्त्रार्थ को भलीभाँति न जानकर भी भगवन्मन्त्रों का मूलमन्त्र उच्चारण करते हैं उनकी प्रपत्ति वाचिकी-प्रपत्ति के नाम से कही जाती है और भगवान् के आयुधादि चिह्नों से युक्त जो प्रपन्न अपने आचार्यचरणों के द्वारा मूलमन्त्र के अर्थ को प्राप्त करते हैं और उस मन्त्रार्थ का अनुसन्धानपूर्वक आचार्य के आज्ञानुसार आनुकूल्य आदि प्रपत्ति के छहोंक् अङ्गों को धारण करते हैं उन प्रपन्नों की शरणागति मानसी शरणागति कहलाती है।
बेटी कयाधू! इन प्रपत्तियों में जो सात्त्विकी, राजसी और तामसी के रूप में भेद किये गये हैं, उनको अब हम कहेंगे। तुम ध्यान देकर सुनना। छहों अङ्गों से युक्त उन कायिकी, वाचिकी और मानसी प्रपत्तियों के तीन-तीन भेद इस प्रकार माने गये हैं कि जो प्रपत्ति मोक्ष प्राप्ति की विरोधिनी तामसी होती है, उसके कर्ता के हार्दिक भाव, भूतद्रोहात्मक भूतहिंसादि की इच्छा से प्रेरित होकर सर्वभूतानुकम्पी, सर्वजीव-दयापर भगवान् विष्णु के प्रपन्न होते हैं। जो प्रपत्ति राजसी के नाम से कही गयी है, उसके कर्त्ता के हार्दिक भाव, ऐहिक और आमुष्मिक—इहलोक और परलोक के नाना प्रकार के भोगों को प्राप्त करने की इच्छा से अकामैकवत्सल, निष्काम के एकमात्र प्रिय, इन्द्रियगण के नियन्ता भगवान् हृषीकेश के प्रपन्न होते हैं और जो प्रपत्ति सात्त्विकी नाम से कही गयी है, उसके कर्ता के हार्दिक भाव, समस्त त्रैवर्गिक—आर्थिक, कामिक, धार्मिक कामनाओं से परे शुद्ध दास्यभाव भगवत्कैंकर्यरूपी फल की इच्छा वाले होते हैं। इन तीनों शरणागतियों में तामसी-शरणागति निन्दनीय, राजसी साधारण और सात्त्विकी उत्तम मानी गयी है। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को चाहे वह किसी जाति का हो, किसी धर्म का हो, किसी अवस्था का हो और चाहे किसी भी देश का हो भगवच्चरणारविन्द की अनन्यभक्ति, भगवच्चरणारविन्द की शरणागति—सात्त्विकी शरणागति कायिक, वाचिक और मानसिक रूपों से अवश्य ही करनी चाहिए। मानव जीवन के लिये संसार में भगवत्-शरणागति से बढ़कर कोई दूसरा श्रेयस्कर कार्य त्रिकाल में भी नहीं हो सकता।”
महारानी कयाधू– “भगवन्! आपके ज्ञानामृत उपदेश से मेरी तृप्ति नहीं होती और पुनः-पुनः अधिकाधिक उपदेश सुनने की इच्छा बढ़ रही है, आपने जो शरणागति-धर्म का वर्णन किया, इसमें सन्देह नहीं कि, आपके कथनानुसार उससे बढ़ कर कोई उपाय नहीं, जो मानव जीवन को सार्थक बनावे, किन्तु उसकी साधना के लिये हम जैसी अबला, दानवदुहिता एवं दैत्य-जाया के लिये क्या कर्तव्य है? यह अभी तक मेरी समझ में नहीं आया,
कृपया बतलाइये।”
महर्षि नारद– “हे दैत्यराजमहिषी! इन्द्रियों के जो सुख हैं सो शरीर के सम्बन्ध से देहधारीमात्र को सभी योनियों में भाग्यानुसार प्राप्त होते हैं, किन्तु भगवान् की भक्ति एवं प्रपत्ति, आचार्य द्वारा इसी मानव शरीर को प्राप्त होती है, अन्य योनियों को नहीं। सुख का तो दुःख की तरह ही अपनी अनिच्छा से भी प्राप्त होना सम्भव है। अतएव भगवद्भक्ति की ओर जो ध्यान न देकर सुख की इच्छा से प्रयत्नशील देखे जाते हैं वे ज्ञानी नहीं
कहे जा सकते। क्षण-क्षण में मानव जीवन बड़ी तेजी से क्षीण हो रहा है। इसको व्यर्थ न जाने देना चाहिए और शीघ्र-अतिशीघ्र भगवान् की शरणागति द्वारा मोक्ष प्राप्ति का उपाय करना चाहिये। जब तक शरीर में शक्ति है, जब तक कोई विपत्ति न आ पड़े, तब तक काल की कुटिल गति से डरकर शीघ्रता के साथ मोक्ष के अर्थ प्रयत्नशील होना चाहिए। वेदों में पुरुष की एक-सौ वर्ष की आयु कही गयी है। अपने-अपने युग और योनि के अनुसार इसमें भले ही अन्तर होता रहे, किन्तु माध्यम मान से पुरुष को 'शतायुर्वै पुरुषः' कहा गया है। यदि हम सौ-वर्ष आयु मान ले तो आधे आयु का भाग रात्रि में शयनादि में व्यर्थ व्यतीत होता है। बचपन के बीस वर्ष भी मोहवश खेल-तमाशे और अज्ञानदशा में बीतते हैं। वृद्धावस्था के अन्तिम बीस वर्ष भी जराग्रसित असमर्थ दशा में व्यतीत होते हैं और शेष आयु का भाग भी युवावस्था के कामादि शत्रुओं के द्वारा निरर्थक और चिन्तित दशा में ही में व्यतीत हो जाता है। कभी ऐसा समय नहीं आता कि पुरुष, धीर-गम्भीर होकर अपने आपको मानव जीवन के झंझटो से छूटा हुआ पावे। अतएव गृहकार्यों में आसक्त रह कर कोई भी पुरुष जितेन्द्रिय हो मायामोहरूपी फाँसी से अपनी आत्मा को छुड़ा सके, यह कभी सम्भव नहीं। प्राणों से भी अधिक प्यारी मनुष्यों की धनतृष्णा कभी त्यागी नहीं जा सकती और धनोपार्जन द्वारा यदि कोई धन की तृष्णा (प्यास, इच्छा) को शान्त करना चाहे, तो सर्वथा भूल है। जैसे साहूकार यदि चोरों को अपना पहरुआ (पहरेदार) बना कर अपने धन की रक्षा कराना चाहे तो भूल है, वैसे ही जो प्राणी धन प्राप्त करके धनतृष्णा को शान्त करना चाहते हैं, वे भूलते हैं। दयालु एवं प्यारी स्त्रियों का रहस्यमय भाषण, सुन्दर परामर्श और दाम्पत्य सुख तथा बालकों की मनोहर वाणियाँ और सुहृदों के वियोगादिजनित दुःख जिसके चित्त को फँसा रखते हैं वे कभी शरणागति के द्वारा त्याग प्राप्त नहीं कर सकते। मानवजन, मायामोह में पड़ कर भगवत्प्रपत्ति के बिना पुत्रों के स्मरण, बेटियों की चिन्ता, भाई-बहिन, दीन मां-बाप और मनोहर घरबार
की ममता तथा पशुगण एवं परम्परा से चले आये परिकरों (आसपास रहने वाले लोग या परिजन) का स्नेह कभी छोड़ा नहीं जा सकता। मनुष्यगण, रेशम के कीड़े के समान लोभवश चेष्टा किया करते हैं। जिनका अन्त नहीं ऐसे जिह्वा और शिश्न के विषयों का वे सेवन करते हैं। वे न कभी तृप्त हो सकते हैं और न उनको उन विषय-वासनाओं से कभी छुटकारा मिल सकता है। जो प्राणी अपने कुटुम्बपालन, परिकर-परिपोषण तथा अपने परिवार में मायामोहवश रमण करते तीनों तापों से परितप्त हैं वे कभी भी सांसारिक बन्धनों से छुटकारा नहीं पा सकते हैं। इस प्रकार तरह-तरह के मायामोह में पड़कर वैकुण्ठ जाने की चेष्टा न कर, न जाने कितने प्राणी अपने जाने-अनजाने पापों के कारण घोर नरक में गिरते हैं। जो नर कभी दीन नहीं रहते वे भी न जाने किस कर्म-विपाक (पूर्वजन्म के किए हुए शुभ और अशुभ कर्मों का भला और बुरा फल) से अपनी शरीर रक्षा में असमर्थ होकर भी कामिनियों के विहार में पड़ते हैं और बेड़ी के समान उस नारीबन्धन से छुटकारा नहीं पाते। अतएव अपने आत्मा के उद्धार के लिये अपने शरीर को सफल एवं जीवन को जीवन बनाने के लिये प्रत्येक प्राणी को चाहिए कि वह आसुरी मायामोह को त्याग कमलपत्र के समान गार्हस्थ्य जीवन में भी विरक्त भाव से रह कर देवादिदेव जगत् पिता लक्ष्मीनारायण के चरणारविन्द की शरणागति के द्वारा मोक्षपद को प्राप्त करे।
बेटी कयाधू ! हमारे विस्तृत वर्णन से तुम घबरा-सी गयी हो, पर तुमको घबराना नहीं चाहिए। भगवान् अच्युत के प्रसन्न करने में न कोई परिश्रम है, न कुछ भी कठिनाई है और न कोई
बाधा है। वे तो जीवमात्र में व्यापक परमात्मा हैं और सब तरह से सिद्ध हैं। पर-अपर जीवों में ब्रह्मा से लेकर स्थावर-जङ्गम सभी में तथा पाञ्चभौतिक विकारों में समानरूप से परमात्मा को देखो।
सबके प्रति प्रीति करना ही उसकी वास्तविक उपासना है। सभी गुणों में, गुणों की बराबरी में, गुणों के उलट-पलट में एकमात्र वही परमात्मा है, अविनाशी ईश्वर है। उसी की शरणागति और
उसी का भजन करना ईश्वर की परम उपासना है। सबके आत्मस्वरूप, देखने के योग्य स्वरूप से वे कभी व्याप्यव्यापक निर्देश योग्य कभी दिखलायी नहीं पड़ते। क्योंकि वे तो संकल्प-विकल्पहीन ब्रह्म हैं न? अतएव वे केवल माया से अपने सभी ऐश्वर्यों को छिपा रखते हैं और अनुभव से आनन्दस्वरूप परमेश्वर, गुणों के रचनेवाली माया से ही जाने जाते हैं। इसलिये जीवमात्र में दया करना, सुहृदता (प्रेम, मैत्री) करना और सर्वत्र ईश्वर को सर्वव्यापी रूप से देखना ही ईश्वर की परम उपासना है। अनन्त, आदिदेव, भगवान् लक्ष्मीनारायण यदि प्रसन्न हो जायँ तो सभी वस्तु प्राप्त हो सकती हैं। धर्म, अर्थ और काम जो अपने आप सिद्ध हैं उनको या उनके सहायक गुणों को जो निर्गुण की चाहना करने वाले भगवत्प्रपन्न हैं कभी भी सेवन नहीं करते और न उनकी प्राप्ति की इच्छा करते हैं। धर्म, अर्थ, काम को त्रिवर्ग कहते हैं। आत्मा, विद्या, वेदत्रयी, नीतिदण्ड और अनेक प्रकार की वार्ताओं से युक्त जो ज्ञान हैं सो वेद के सार हैं परन्तु इनसे भी
सारातिसार सर्वश्रेष्ठ है भगवच्चरणारविन्द की शरणागति को प्राप्त करना, अतएव सभी सांसारिक बन्धनों को मिथ्या मानते हुए भगवान् को सर्वव्यापी मानकर उनकी शरणागति प्राप्त करना और असुरों की तामसी प्रकृति का परित्याग करना ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है।”
महर्षि नारदजी के महोपदेश को सुनकर गर्भस्थ प्रह्लाद पूरे ज्ञानी तथा परम भागवत का पद पाने वाले हुए और महारानी कयाधू ने भी सारी सांसारिक चिन्ताओं की ज्वाला से मुक्त प्रसन्न मन हो महर्षि के चरणों में प्रणाम किया तथा महर्षि नारदजी अपने सन्ध्योपासन के लिये सरोवर की ओर पधारे। सन्ध्योपासन से निवृत्त होकर महर्षि नारद पुनः अपने आश्रम में आये और महारानी कयाधू ने आकर पुनः प्रार्थना की कि “हे ऋषिराज! आपने जिन सर्वव्यापी ईश्वर की शरणागति का वर्णन किया है, उनको जानने का सरलतर मार्ग कौन-सा है? यह मैं जानना चाहती हूँ।”
महर्षि नारद– “हे दैत्यराज महिषी! तुमने ठीक ही प्रश्न किया है। धर्म के दो मूल हैं— ज्ञान और शरणागति। पहले ज्ञान प्राप्त होता है तब उसकी शरणागति सुलभ होती है। अवश्य ही ज्ञान मार्ग रूखा और परिश्रमसाध्य है, अतएव साधारण प्राणी उससे घबराते हैं, किन्तु वह शरणागति की पहली कक्षा के समान ही है। उसे जो नहीं जानते उनकी शरणागति में दृढ़ता नहीं आती। अच्छा सुनो, अब हम तुमसे उस ज्ञानयोग की चर्चा करते हैं, जिसको शास्त्रकारों ने बड़े विस्तार से कहा है। हे बेटी कयाधू! जन्म होना, शरीर का बढ़ना, उसकी स्थिति, उसमें परिवर्तन, उसका धीरे-धीरे क्षय और अन्त में नाश होना— ये छः
दशाएँ शरीररूपी दृश्य की होती हैं। शरीर के स्वामी 'आत्मा' की नहीं। जैसे वृक्ष के कच्चे, अधपके और पके फल नष्ट होते हैं, वैसे ही इस मनुष्य शरीर की भी गति होती रहती है, किन्तु 'आत्मा' अविनाशी एवं नित्य है। अनेक श्रुतियाँ इसके प्रमाणरूप में कही जाती हैं। उनका भाव है कि 'आत्मा' अव्यय है क्योंकि वह किसी भी योनि में जाने पर निर्विकार रहता है। वह शुद्ध है, एक है, क्षेत्रज्ञ है, आश्रय है, अविक्रिय है, व्यापक है, असङ्गी है, अनावृत है, स्वदृक् है, सबका हेतु है और नित्य है। ये बारह उसके विशेषण हैं और इन्हीं विशेषणों से युक्त 'आत्मा' बृहत्त्वादि गुणों के सहित चैतन्य ब्रह्म है। यह हमारा है, और हम अमुक हैं—ये असद्भाव अर्थात् झूठे भाव है। इनको देह, घर, सम्पत्ति आदि में जो लगा रखते हैं वे भूलते हैं। ज्ञानियों को इन असद्भावों को त्याग कर आत्मा के वास्तविक रूप को पहचानना चाहिये। जिस प्रकार चतुर सुनार रासी सोने—मिश्रित सोने को कसौटी पर परीक्षा करके उसमें मिश्रित धातुओं को गला कर जला डालते हैं और असली सोने को उसमें से निकाल लेते हैं। वैसे ही अध्यात्म ज्ञान को जानने वाले विद्वान् शरीर मध्यवर्ती जीव होकर आत्मा को ज्ञानयोग द्वारा ब्रह्म के रूप में पहचानते हैं। मूलप्रकृति, महत्, अहंकार और पाँच तन्मात्रा— ये आठ प्रकृति हैं। तीन गुण, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, एक मन तथा पाँचों महाभूत— पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश— इन विकारों को कह कर आचार्यों ने जीव और ब्रह्म में एकता दिखलायी है। देह तो सबका सहकारी है, स्थावर-जङ्गम— इन दो भेदों से मनुष्य के देह में ही जीव द्वारा पुरुष, परब्रह्म की परीक्षा करता है। श्रुतियाँ भी जिन परब्रह्म के ज्ञान के सम्बन्ध में ‘ये भी नहीं, ये भी नहीं, नेति, नेति,’ कह कर चुप हो जाती हैं, ज्ञानयोग के सहारे विद्वान् लोग उस परब्रह्म को जानते हैं। मणि की माला को देखिये। सभी मणियों में सूत प्रविष्ट है—पिरोया हुआ है इसी को 'अन्वय' कहते हैं और सूत और मणि पृथक्-पृथक् वस्तु हैं, इस ज्ञान को 'व्यतिरेक' कहते हैं। इसी प्रकार जगत् की उत्पत्ति, पालन एवं नाश की वस्तु स्थिति के जानने वाले ज्ञानयोगी धीरे-धीरे परब्रह्म को जानते हैं। जागृति, स्वप्न एवं सुषुप्ति— ये तीन बुद्धि की वृत्तियाँ हैं, जो इन तीनों का अनुभव नहीं करता है वही सारे जगत् का साक्षीभूत ईश्वर है। इन तीनों बुद्धि-वृत्तियों से बुद्धि में भेद होता है जो आत्मा से सम्बन्ध नहीं रखता। जैसे पुष्प के गन्ध को वायु ले जाता है किन्तु वायु में गन्ध नहीं है वैसे ही आत्मा को भी जानना चाहिए। गुण और कर्म इन्हीं दोनों से जीव का बन्धन होता है, ये ही संसार के द्वार हैं, अज्ञान के फल हैं और वस्तुतः मिथ्या हैं जो मनुष्यों को स्वप्न के समान सत्य मालूम पड़ते हैं। अतएव त्रिगुणात्मक कर्मों के बीज को नाश करनेवाले ज्ञानयोग को तुम धारण करो, जिससे संसार का धारावाहिक सम्बन्ध दूर होकर परमपद अर्थात् मोक्ष प्राप्त हो। वही सबसे श्रेष्ठ उपाय है।
हे बेटी दानवदुहिता! जिस प्रकार से सम्भव हो सहस्र-सहस्र उपायों से मनुष्य को चाहिये कि सर्वदुःखहारी जगद्विहारी भगवान् को जाने और उन पर प्रीति करे। गुरु की शुश्रूषा द्वारा भगवद्भक्ति को प्राप्त करना ही परम श्रेयस्कर है। गुरु की शुश्रूषा, उनकी भक्ति, सत्संग, भागवत-भक्ति और इन सबके द्वारा ईश्वराराधन करने से ही ईश्वर प्रसन्न होते हैं। भगवान् की कथा में श्रद्धा करे, ईश्वर के गुण-कर्मों का कीर्तन करे, उनके चरण कमलों का ध्यान करे, भगवान् की प्रतिमा की पूजा करे, उन्हीं का स्मरण करे। उनके ही चरणकमलों में सिर झुकावे। उनको ही संसार यात्रा का सबसे बड़ा साथी-सखा माने, उन्हीं की दासता को स्वीकार करे और उन्हीं के चरणकमलों में सम्पूर्णतया आत्मसमर्पण कर दे। इस प्रकार से जो पुरुष भगवान् की नवधा भक्ति करते हैं वे इस असार संसार के बन्धन से मुक्त होकर परमपद मोक्ष को प्राप्त होते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद (अहंकार) और मात्सर्य (ईर्ष्या) ये शरीरधारियों के छः प्रबल शत्रु हैं, जो इन छहों शत्रुओं को जीत कर भगवान् लक्ष्मीनारायण में प्रीति करते हैं वे ही अपने जीवन को सफल बनाते हैं। जो पुरुष भगवान् के अतुल गुण, कर्म, वीर्य (वैदिक साहित्य में वीर्य का आशय 'नायकत्व' और 'पौरुष' से है।) आदि को जिनको वे लीलातनु धारण करके समय-समय पर अवतीर्ण होकर प्रकट किया करते हैं उनको सुने और जाने, वही मनुष्य सफल जीवन है। जो पुरुष भगवान् के गुणानुवाद को सुनकर हर्षविह्वल हो अश्रुपात करने लगते हैं, उनके गुणानुवाद को उच्च स्वर से गाते और नाचते हैं, उन्मत्त के समान भगवान् की भक्ति में लीन होकर चारों ओर उन्हीं को पुकारते, हँसते, रोते, ध्यान करते, बारम्बार उसाँसे लेते और उनको सर्वव्यापी समझ कर सभी जीवों को प्रणाम करते तथा प्रतिक्षण हे हरे! हे जगत्पते! हे नारायण! इस प्रकार कहते फिरते हैं एवं जिनकी मिथ्या लोकलाज जाती रहती है वही जीवन्मुक्त जन संसार के बन्धन को तोड़ भगवान् के चरणों को प्राप्त होते हैं। भगवान् के द्वारा ही संसार-बन्धन छूट सकता है। अतएव सब को उन्हीं की भक्ति, उन्हीं का भजन और उन्हीं का ध्यान करना चाहिए। ईश्वर जो अपने अन्तरात्मा में सदा विराजमान हैं उनकी उपासना में कौनसा परिश्रम है? जो ईश्वर सर्वव्यापी है, उसकी उपासना में कौनसी कठिनाई है? जो ईश्वर माता, पिता, भ्राता, सखा, सुहृद् आदि सभी भावनाओं से पूजा जा सकता है उसकी उपासना में क्या अड़चन है? अर्थात् कुछ भी नहीं। अतएव मानवजीवन को पाकर परमात्मा की ही उपासना करके संसार से मुक्त होना सर्वश्रेष्ठ धर्म है। हरि-स्मरण ही परम मन्त्र है और हरि-पूजन ही परम श्रेयस्कर कार्य है।
हे बेटी कयाधू! विषयवासनाओं में पड़कर सांसारिक बन्धनों में फँसना मानवधर्म नहीं है। स्त्री, धन, पुत्र, पशु, घर, भूमि, हाथी, खजाने, विभूति ये सब के सब मानव आयु के समान ही क्षणभंगुर हैं और ये सभी चलायमान हैं, ये कभी मानव शरीर से कोई प्रेम नहीं रखते। अतएव इन पर ममता रखना भूल है। सभी सांसारिक ऐश्वर्य जो यज्ञ आदि पुरुषार्थों से प्राप्त हैं वे नाशवान् हैं, पुण्य की न्यूनाधिकता के अनुसार ही इनकी अवधि होती है किन्तु मोक्ष में ये बातें नहीं हैं अतएव एकमात्र भगवान् की भक्ति से प्राप्त मोक्ष ही अक्षय और सबसे श्रेष्ठ है। अतएव सभी मनुष्यों को भगवद्भक्ति में लग जाना चाहिए। जो अपने को विद्वान् मानते हैं और कामना के वशीभूत कर्म करते हैं, वे भूलते हैं। प्रत्यक्ष;देखने में आता है कि, लोग सुख के लिये प्रयत्न करते हैं, किन्तु उनको दुःख प्राप्त होता है किन्तु जो मनुष्य निष्काम हो भगवत्कैंकर्य करते हैं, उनको अनायास ही सांसारिक सुख एवं परमपद मोक्ष की प्राप्ति होती है। कुटुम्ब, परिवार, राजपाट, सुख-समृद्धि ये सब मानव शरीर से सम्बन्ध रखते हैं और शरीर अनित्य है, क्षणभंगुर है, पराया है अतएव इन कुटुम्बादि के सम्बन्ध से जो सकाम उपासना आदि कार्य किये जाते हैं वे भी पराये के अर्थ, नाशवान् और व्यर्थ हैं। परमानन्दरूपी भगवत्प्राप्ति के सम्मुख ये स्त्री-पुत्रादि सुख तुच्छ अतितुच्छ हैं। देहधारी मानवजनों को संसार में कौनसा स्वार्थ है? देखो न, जन्म से मरणपर्यन्त अपने-अपने कर्मों के अनुसार ये किस प्रकार भाँति-भाँति से पीड़ित रहते हैं। अपने आत्मा के अनुसार यह जीव देह के द्वारा कर्मों को आरम्भ करता है, कर्मों के अनुसार ही देह प्राप्त होता है, किन्तु ये दोनों ही अज्ञानमय हैं। अतएव अर्थ, धर्म एवं काम की इच्छाओं को त्याग कर निष्काम भाव से ईश्वर को भजने से ज्ञानयोग द्वारा मोक्ष प्राप्त करना सबसे श्रेष्ठ है। समस्त जीवों की आत्मा और प्रियतम एकमात्र श्रीहरि हैं, जिनको योगिजन परब्रह्म परमात्मा के नाम से ध्यान करते हैं। पञ्चमहाभूतों से बने हुए इन शरीरों में अपने किये हुए कर्मानुसार इन जीवों को अन्तर्यामीरूप से उन्हीं को समझना चाहिए। उन्हीं परमात्मा मुकुन्द के चरणारविन्द को भजते हुए न जाने कितने देवता, असुर, मनुष्य, यक्ष, गन्धर्व आदि सांसारिक बन्धनों से मुक्त होकर परमानन्दरूपी मोक्ष को प्राप्त हुए हैं। हे बेटी! जाति, वर्ण, अवस्था, ज्ञान आदि कुछ भी भगवान् के प्रसन्न करने के लिये साधन नहीं हैं। दान, तप, शौच, व्रत आदि पुण्यकर्मों से बहुत अधिक काल में अन्तरात्मा को पवित्रता प्राप्त होती है, किन्तु भगवान् की प्रसन्नता के लिये और शीघ्रातिशीघ्र प्रसन्नता के लिये एकमात्र निर्मल भक्ति की आवश्यकता है। अतएव कल्याण चाहने वाले मनुष्यों को हरिभक्ति करनी चाहिए और सर्वत्र समदर्शी बनकर सबको प्रेम की दृष्टि से देखना चाहिए। ऐसा करने से ही परमलाभ और अक्षय सुख प्राप्त होता है।”