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युगांतर - भाग 2

शिक्षा तो तपस्या है और तपस्या करनी ही पड़ती है, खरीदी नहीं जाती। धन पुस्तकें खरीद सकता है, ज्ञान नहीं। हाँ, कभी-कभार डिग्रियाँ भी पैसे के बल पर मिल जाती हैं, लेकिन डिग्रियाँ प्राप्त करने और शिक्षित होने में जमीन-आसमान का अन्तर है। जो लोग डिग्रियाँ खरीदते हैं, उनकी तो छोड़ो, जो पढ़कर डिग्रियाँ हासिल करते हैं, वे भी सारे-सारे शिक्षित हो गए हों, ऐसा नहीं होता। यदि किसी को सिन्धुघाटी, न्यूटन, त्रिकोणमिति आदि का ज्ञान है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह बुद्धिमान है। परीक्षा में अंक प्राप्त करना और जीवन में सफल होना दो अलग-अलग बाते हैं। वैसे जीवन में वे लोग भी सफल हो जाते हैं, जिन्होंने कोई डिग्री हासिल नहीं की होती, लेकिन उनकी अपने क्षेत्र में की गई मेहनत किसी डिग्री के लिए की गई मेहनत से कम नहीं होती। सिर्फ़ डिग्री प्राप्ति हेतु की जाने वाली पढ़ाई तो शिक्षा का एक अंग है, सम्पूर्ण शिक्षा नहीं। सम्पूर्ण शिक्षा के लिए तो जीवन भर सीखना पड़ता है, जीवन भर तपस्या करनी पड़ती है और यही सम्पूर्ण शिक्षा ही इंसान को इंसान बनाती है, लेकिन प्रतापसिंह की नज़र में डिग्री महत्त्वपूर्ण है। उसकी नज़र में शिक्षा भी व्यापार है, जिसमें स्कूल में फीस भरना शिक्षा प्राप्ति की कीमत है, हालांकि सरकारी स्कूल में पढ़ने के कारण यादवेंद्र की फीस नाममात्र थी, लेकिन प्रतापसिंह को लगता था कि सरकारी अध्यापक को सरकार जो वेतन देती है, वह किसी-न-किसी रूप से आम आदमी की जेब से ही जाता है और यही उनके द्वारा शिक्षा पर किया जानेवाला खर्च है, जिसके बदले में उन्हें शिक्षा मिलनी है।
कहते हैं कि बच्चे सफेद कपड़े की तरह होते हैं, जिन्हें किसी निश्चित रंग में डूबो देना ही काफी है। प्रतापसिंह ने भी डूबोया है अपने बेटे को अहं के रंग में। पैसे के गुरूर ने यादवेन्द्र का बचपन छीन लिया है, क्योंकि बचपन तो वह है, यहाँ ऊँच-नीच का, अमीरी-गरीबी का कोई भेद नहीं होता, यहाँ एक पल हँसना, तो एक पल रोना होता है। अभी जिससे लड़ रहे हैं, अगले ही क्षण उसी के साथ खेलना होता है। जिन बड़ों से अब रूठे हैं, थोड़ी देर बाद उन्हीं की गोद में बैठना होता है। अपने हों या पराए, प्यार के हर बोल के पीछे खिंचे चले जाना ही बचपन है और इसी बचपन की बदौलत ही कोई बच्चा पढ़ सकता है। बड़ा व्यक्ति किसी की मार नहीं सह सकता। बच्चे अध्यापकों की मार सह जाते हैं क्योंकि उनका भोलापन उन्हें पुरानी बातें भुला देता है। वैसे अध्यापकों का काम मारना-पीटना नहीं होता, पढ़ाना होता है, लेकिन बच्चे तो आखिर बच्चे ही हैं और शरारत उनकी आदत है और इसी आदत से छुटकारा दिलाकर पढ़ाई की तरफ लाने के लिए अध्यापक को कभी प्यार से समझाना पड़ता है, तो कभी मारना भी पड़ता है, लेकिन उस मार में द्वेष की भावना नहीं होती, बल्कि प्यार होता है, कर्तव्य होता है, भलाई का जज्बा होता है। अध्यापक तो कुम्हार की तरह होता है, जो बर्तन को बाहर थापी से पीट रहा होता है और अंदर दूसरे हाथ से सहारा दे रहा होता है।
यादवेन्द्र का बचपन सिर्फ शारीरिक है, मानसिक रूप से वह बच्चा नहीं। धन के अहम् ने उसे व्यस्क बना दिया है और इसी व्यस्कता के कारण उसकी शरारतें मासूमियत भरी न होकर कपट भरी हैं और इसी लिए उसे मार भी अधिक पड़ती है। स्कूल की मार को भूल जाना उसके वश में नहीं। घरेलू माहौल भी उसे ऐसा नहीं करने देता। बड़े-बड़े कलाकारों को रोने का अभिनय करने के लिए भले ही मेहनत करनी पड़ती है, लेकिन बच्चे बड़ी आसानी से ऐसा कर लेते हैं। यादवेन्द्र भी रोते-रोते घर आता है और अपने पिता जी से कहता है, पा...पा...पा...पा...मास… टर...ने...मु...झे...मा...रा…
"क्यों मारा बेटे?" प्रताप सिंह ने उसके करीब आते हुए उससे पूछा।
"ऐ… से...ही...", यादवेंद्र ने आँखो को मसलते हुए कहा।
प्रताप सिंह ने उसे गोदी में उठा लिया और उसके आँसू पोंछते हुए गुस्से से बोले, "ऐसे ही क्यों मारा। हमने क्या उसके बाप का कुछ देना है? पढ़ाई के लिए फीस देते हैं, वे कोई मुफ्त नहीं पढ़ाते।"
बच्चे का रोना सुनकर बच्चे की माता रजवंतकौर भी दौड़ी आती है और यादवेंद्र को पति से पकड़कर अपनी गोद में उठाते हुए कहती है, देखो कितनी बेरहमी से मारा है कसाई ने, हम बच्चे को स्कूल पढ़ने के लिए भेजते हैं या मार खाने के लिए। वैसे बच्चे की गालों और शरीर के किसी भी अन्य भाग पर ऐसा कोई निशान न था, जिससे यह कहा जा सके कि बच्चे को बुरी तरह से पीटा गया है, लेकिन उसके रोने मात्र से ही माँ का दिल यह अंदाज़ा लगा रहा था कि उसे बहुत मारा गया है और यादवेन्द्र यह सहानुभूति पाकर चुप होने की बजाए और अधिक जोर से रोने लगा। रजवंत फिर अपने पति की तरफ मुड़ते हुए कहती है, "सुनो जी, हमने नहीं पढ़ाना मुन्ने को ऐसे स्कूल में। आप आज ही जाकर स्कूल से मुन्ने का नाम कटवा लाएँ, हम इसे कहीं और पढ़ा लेंगे।" इतना कहकर वह यादवेन्द्र को साथ लेकर अंदर चली गई। प्रतापसिंह तो पहले से गुस्से में था ही कि राजवंत कौर ने आकर आग में घी डाल दिया। वह चाहता था कि जल्दी से जल्दी सुबह हो जाए तो मास्टर से जाकर पूछे कि उसने उसके बेटे पर हाथ उठाने की हिम्मत की तो की कैसे। जहाँ तक नाम कटवाने बात थी, वह इससे असहमत था और असहमति का कारण था कि शहर गाँव से दूर था । सात-आठ वर्ष के बच्चों का शहर से रोज गाँव आना-जाना असंभव था, क्योंकि शहर के स्कूलों से कोई वैन या बस गाँव में नहीं आती थी। प्रतापसिंह ख़ुद भी छोड़ने-लाने का काम नहीं कर सकता था। अभी बेटे को होस्टल में छोड़ना भी वह उचित नहीं समझता था। बच्चे को होस्टल छोड़ने या फिर गाँव में ही पढ़ाने के दो विकल्पों में से बच्चे को गाँव में ही पढ़ाना वह उचित समझता था। हालाँकि गाँव का स्कूल सरकारी था और कभी-कभार उसे लगता था कि विशेष दिखने के लिए बेटे को प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना चाहिए, लेकिन वह बच्चे को गाँव में ही पढ़ाने के लिए बाध्य था, लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं था कि वह अध्यापक का विरोध नहीं करेगा। उसे विश्वास था कि वह अध्यापक पर तो बड़े अफसर से भी डाँट डलवा सकता है, हालांकि उसे लगता था कि इसकी नौबत आएगी नहीं।

 

क्रमशः