Chutki Didi - 11 in Hindi Fiction Stories by Madhukant books and stories PDF | छुटकी दीदी - 11

छुटकी दीदी - 11

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दिल्ली के लिए सलोनी को विदा करने के लिए सुकांत ने उसे स्टेशन पर मिलना था। ट्रेन के चलने का समय दस बजे था। सुकांत आठ बजे ही स्टेशन पर पहुँच गया। इंतज़ार की घड़ियाँ परेशान करने लगीं तो सलोनी को फ़ोन लगाया।

‘कहाँ हो सलोनी?’

‘रस्ते में … ऑफिस आवर है … इसलिए कुछ जाम लगा हुआ है, आप कहाँ हो?’

‘मैं तो पहुँच गया हूँ।’

‘ठीक है, हम टैक्सी स्टैंड के बाहर ही आपको मिलते हैं।’

‘ठीक है।’

‘शायद हम पाँच मिनट में पहुँच जाएँगे।’

दोनों सामान के साथ प्लेटफ़ार्म पर पहुँच गए, परन्तु अभी तो ट्रेन भी नहीं लगी थी। प्लेटफ़ार्म भी लगभग ख़ाली था। इसलिए वे एक बेंच पर सामान रखकर बैठ गए।

‘आप कभी दिल्ली आओ। आर्ट गैलरी में आपके चित्रों की प्रदर्शनी लगाएँगे,’ सलोनी ने सुझाव दिया।

‘मेरे तो सब चित्र बेरंग होने लगे हैं। जो भी चित्र बनाने की कोशिश करता हूँ, सबके चेहरे उदास, गमजदा बन जाते हैं।’

‘सुकांत बाबू, इतने अधीर क्यों होते हो? देखो, दिल्ली में आपकी नौकरी लग जाए तो हमारे सब सपने साकार हो जाएँगे। फिर आप तो संवेदनशील चित्रकार हो …. आपके हाथ में कला है …. जीवन के सुख-दुख, ख़ुशी-ग़म का कैसा भी चित्र बना सकते हो।’

‘नहीं सलोनी, कलाकार जब उदासी के गहरे समुद्र में चला जाता है तो उसे अँधेरा-ही-अँधेरा नज़र आता है। अपने मन की दारुण दशा को न तो वह समझ पाता है और न ही किसी को दिखा सकता है।’

‘सुकांत बाबू, सब की ऐसी ही हालत होती है, परन्तु मर्द उसे होंठों पर ले आता है और औरत उसे अपने दिल में ही दफ़्न कर देती है।’

सुकांत बाबू ने नज़रें उठाकर सलोनी की आँखों में झांका। कजरारी आँखें बोझिल थीं। न जाने कब चू पड़ें, इसलिए उसने प्रसंग बदल दिया - ‘अब कब आओगी?’

‘बताया तो था कि बीस दिन का शीतकालीन अवकाश होता है,’ कह तो दिया सलोनी ने, परन्तु फिर मन में सोचा, तब तक शायद कोलकाता से हमारा सम्बन्ध ही टूट जाए और यहाँ आने का सिलसिला ही बंद हो जाए। मन में आया, सुकांत बाबू को सब बता दूँ, परन्तु कुछ सोचकर वह चुप रही। सलोनी उसे दुखी देखना नहीं चाहती थी।

मनुष्य जिसे दिल से चाहता है, ख़ुशी के समाचार तो उसके साथ बाँट लेता है, परन्तु गमगीन करने वाले समाचारों की पीड़ा वह अकेला ही उठा लेना चाहता है। इस विचार के आते ही सलोनी ने चारों ओर दृष्टि फैलाकर कोलकाता को देखा। उसका मन हुआ, सारे कोलकाता को अपनी बाँहों में समेट ले।

सुकांत बाबू की ओर देखकर सलोनी मुखरित हुई - ‘शीतकालीन अवकाश तक शायद आपकी भी वहाँ नियुक्ति हो जाए!’

‘शायद…!’ एक गहरी साँस सुकांत के दिल से निकली। इस गहरी वेदना से उसे उबारने के लिए सलोनी ने अपना हाथ उसकी बाजू पर रख दिया, ‘चिंता क्या है! अब तो हम प्रतिदिन मिल सकते है …।’

‘वो कैसे?’

‘यह है ना हमारी मुट्ठी में,’ सलोनी ने अपना मोबाइल निकालकर दिखाया। ‘इससे हम जब चाहेंगे, वीडियो कॉल के द्वारा एक-दूसरे को देख भी सकते हैं और बातें भी कर सकते हैं।’

‘हाँ, यह तो ठीक है।’

सुकांत बाबू के चेहरे पर मुस्कान बिखर गई। ‘सोने से पूर्व नौ बजे मैं तुम्हें वीडियो कॉल करूँगा। बोलो, उठाया करोगी मेरे फ़ोन को?’

‘सुकांत बाबू, आप फ़ोन उठाने की बात कर रहे हो, हम तो बेसब्री से इंतज़ार किया करेंगे। आपके फ़ोन को न उठाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। … मन पर हमारा नियंत्रण ही नहीं रहा, यह आपके वश में हो चुका है।’

प्यार भरी बातों में दोनों को पता ही नहीं लगा कि कब ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म पर आकर खड़ी हो गई। वहाँ चहल-पहल, शोर-शराबा बढ़ा तो दोनों को होश आया।

‘चलो, तुम्हें सीट पर बिठा देता हूँ।’

दोनों ने सामान उठा लिया और टिकट के अनुसार अपनी बोगी की ओर चल पड़े। सलोनी की बर्थ नीचे ही थी तो सामान रखकर वे खिड़की के पास बैठ गए। फिर जैसे-जैसे सवारियाँ आने लगीं तो सुकांत गाड़ी के बाहर आकर खड़ा हो गया।

एक पानी की बोतल, चिप्स का पैकेट तथा एक लिम्का, क्योंकि जब भी वे घूमने जाते तो सलोनी लिम्का ही करती थी, सब सामान ख़रीद कर सुकांत खिड़की के पास आ गया। यह सारा सामान लेकर सलोनी ने सुकांत बाबू का हाथ दबाकर धन्यवाद किया।

पाँच मिनट बाद ट्रेन ने चलने की सीटी बजाई। सुकांत का मन हुआ, वह चलती ट्रेन में खिड़की से लटक जाए। जैसे ही ट्रेन रेंगने लगी तो सलोनी ने सुकांत के दोनों हाथ खिड़की से छुड़ा दिए और उस भीने-भीने स्पंदन से दोनों के हाथ हवा में हिलने लगे।

……

रेल में सफ़र करते हुए सलोनी प्यार के सुनहरे सपनों में खोई रही। उसे विश्वास था कि वह सुकांत बाबू को दिल्ली ले आएगी। रेल की यात्रा कब समाप्त हो गई, उसे पता ही नहीं चला।

दिल्ली आते ही भागदौड़ इतनी बढ़ गई कि सुकांत बाबू की स्मृतियाँ हल्की पड़ गईं। बाड़ी के बेचने से सम्बन्धित सब बातें माँ को बताईं। 

कल से स्कूल जाना होगा … सब कुछ सलोनी ने कर लिया। वीणा आंटी के कहने से माँ ने सीताराम  मामा को रुपए लाने के लिए मना कर दिया।

विद्यालय में वार्षिक उत्सव की तैयारियाँ चल रही थीं। वैसे तो वहाँ एक म्यूज़िक टीचर नियुक्त थी, परन्तु न तो उसको कुछ आता था और न ही वह कुछ करना चाहती थी। इसलिए प्राचार्या ने सलोनी को उसके साथ लगा दिया। 

सलोनी ने नृत्य नहीं सीखा था, परन्तु वह अपने स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रम में बहुत सक्रिय रहती थी। दूसरी ओर, कला अध्यापिका होने के कारण वह कला को जानती थी। प्रत्येक कार्यक्रम को कलाप्रेमी की दृष्टि से देखती और कुछ नया करने का प्रयत्न करती। उसकी आवाज़ में बंगाली भाषा का मिठास होने के कारण हर बार मंच संचालन का कार्य उसे ही सौंपा जाता। वैसे तो अपने विषय का सलोनी के पास बहुत कम काम था, परन्तु वार्षिक उत्सव के कारण उसकी व्यस्तता बढ़ गई थी। 

स्कूल से लौटकर घर पहुँची तो माँ ने बताया कि सायं को अग्रवाल जी ने हम दोनों को घर पर बुलाया है। कोलकाता वाली बाड़ी के बारे में बात करनी है। माँ और सलोनी ने फ़ैसला कर लिया कि दो करोड़ से कम में बात नहीं करनी है।

इस निश्चय के साथ वे वीणा आंटी के फ़्लैट पर चली गईं। अग्रवाल अंकल फ़्रेश होने गए थे, इसलिए वीणा आंटी ने उन्हें ड्राइंगरूम में बिठाया।

‘नमस्ते अंकल,’ अग्रवाल जी के आते ही सलोनी ने अभिवादन किया। 

‘चटर्जी जी हमारे जूट के बड़े व्यापारी हैं। वे उस बाड़ी की जगह जूट से बने सामान का शोरूम बनाना चाहते हैं। आपकी बाड़ी वाली जगह उनको पसन्द है। कुछ बातें उनके साथ आगे चली हैं, परन्तु फ़ाइनल बातें मैं आपके सामने करना चाहता हूँ,’ कहते हुए अग्रवाल जी सामने सोफ़े पर बैठकर फ़ोन लगाने लगे। बातचीत आरम्भ होने से पूर्व ही उन्होंने फ़ोन का स्पीकर ऑन कर दिया ताकि सबको बातें सुनाई देती रहें।

‘नमस्कार अग्रवाल जी,’ फ़ोन पर चटर्जी आ गए।

‘नमस्ते। अम्मा जी की बाड़ी बेचने की बात आपसे चल रही है। इसी विषय में निर्णय करने के लिए मैंने उनकी बेटी और नातिन को यहाँ बुलवाया हुआ है। सलोनी के पिताजी मेरे बड़े भाई जैसे थे। इसलिए इस काम में इनको कोई कठिनाई नहीं आनी चाहिए।’

‘अग्रवाल जी, आप हमारे साथ वर्षों से व्यापार कर रहे हैं, कभी कोई गड़बड़ हुई क्या? नहीं ना! ऐसे ही इस काम को निपटा देंगे। इस बाड़ी का बहन जी कितना अमाउंट माँगती हैं?’

‘ढाई करोड़ इन्होंने माँगा है।’

‘अग्रवाल जी, बहुत अधिक है। इतनी क़ीमत नहीं है वहाँ पर। आप किसी से भी पता कर सकते हैं। देखो, मैं इनको एक करोड़ अस्सी लाख रुपए दे सकता हूँ। पूछ लीजिए।’

‘कैसे बात बनेगी? बहुत अंतर है।’

‘बन जाएगी, आप इनसे पूछकर तो देखिए ..।’

‘पूछना क्या है? लो, मैं इनसे आपकी बात ही करा देता हूँ,’ कहते हुए अग्रवाल जी ने फ़ोन सलोनी को दे दिया। 

‘अंकल, मैंने तो आपको कोलकाता में भी बताया था कि एक प्रॉपर्टी डीलर ने ढाई करोड़ रुपए क़ीमत लगाई थी, परन्तु तब हमारा बेचने का मन नहीं था।’

‘देखो बेटी, अब मार्केट बहुत गिर गया है। ज़रा अग्रवाल जी को फ़ोन दो, मैं उनको समझा देता हूँ,’ सलोनी ने फ़ोन अग्रवाल अंकल को दिया तो उधर से आवाज़ आई, ‘अग्रवाल जी, मैं समझता हूँ, यह आपका ही परिवार है, और हम भी वर्षों से आपके साथ व्यापार कर रहे हैं। कुछ ऐसा करो, जिससे दोनों पार्टियाँ ख़ुश हो जाएँ।’

‘ठीक है चटर्जी जी। इनकी माँग है ढाई करोड़ की और आपने लगाए हैं एक करोड़ अस्सी लाख … तो मुझे एक बात समझ में आती है … मैं आप दोनों के बीच में खड़ा हो जाता हूँ अर्थात् क़ीमत दो पन्द्रह निश्चित कर देता हूँ … आप दोनों को मंज़ूर हो तो बताओ?’

‘अग्रवाल जी, मैंने कभी आपकी बात से इनकार नहीं किया है। मुझे मंज़ूर है, बहन जी से और पूछ लो।’

‘देखो चटर्जी जी, इनकी ओर से तो बात लगभग तय है, परन्तु रात को कोलकाता अम्मा जी से बात करके आपसे फ़ाइनल कर देंगे।’

‘ठीक है, इतना बड़ा फ़ैसला है, सब की स्वीकृति से ही होना चाहिए।’

‘तो ठीक है चटर्जी जी, नमस्ते,’ कहते हुए अग्रवाल जी ने फ़ोन रख दिया।

‘अब भाभी जी, रात को आप अम्मा जी से बात कर लेना, इसलिए मैंने सौदा पक्का नहीं किया।’

‘भाई साहब, हम तो सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि बाड़ी की इतनी क़ीमत मिल जाएगी। वैसे तो हमारी ओर से फ़ाइनल समझो, फिर भी रात को मैं माई को सब बातें बता दूँगी।’

‘थैंक्यू अंकल,’ कहते हुए सलोनी उठ खड़ी हुई।

उसे लगा, अग्रवाल अंकल ने पिता बनकर हमारा भला किया है।

घर आकर सब बातें सलोनी ने नानी को बताईं तो उन्होंने कह दिया, ‘मेरी ओर से तो पक्की है, बाक़ी तुम दोनों देख-समझ लेना। ठीक लगे तो हाँ कर देना,’ कहकर नानी दो पन्द्रह को व्यवस्थित करने का हिसाब लगाने लग गई।

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