Chutki Didi - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

छुटकी दीदी - 10

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नानी अपने मकान की चाबी सुकांत की अम्मा को ही सौंप कर आती थी। पीछे से न जाने क्या काम पड़ जाए। नानी ने उसको अपने आने का समाचार भी भिजवा दिया था। इसका यह फ़ायदा होता था कि नानी के पहुँचने से पहले ही सुकांत की अम्मा बाई को बुलाकर सारा मकान साफ़ करवा देती थी।

नानी और सलोनी ने घर में प्रवेश किया तो उन्हें ऐसा लगा ही नहीं कि वे इस घर में एक माह बाद लौटी हैं। सुकांत की अम्मा ने बताया कि सुकांत का कोर्स पूरा हो गया है और वह आजकल घर पर आया हुआ है। नानी और सुकांत की अम्मा बातों में लग गईं तो सलोनी भी पंख लगाकर सुकांत की बालकनी में उड़ गई। 

सुकांत बाबू को मालूम था, सलोनी आज आएगी और माँ ने जाते हुए बता भी दिया था कि वह सलोनी की नानी से मिलने जा रही है। द्वार की ओर पीठ करके सुकांत आँखें बंद करके बैठ गया, परन्तु उसके दिल की धड़कन एक-एक आहट को पहचानने की कोशिश कर रही थी।

सलोनी ने दबे पाँव कमरे में प्रवेश किया और पीछे से अपने दोनों हाथों से सुकांत बाबू की आँखें बंद कर लीं। बंद होंठों के अन्दर से सलोनी के दिल की आवाज़ उठी - ‘सुकांत बाबू, बताओ तो कौन?’

सुकांत कुछ देर शान्त रहा। उसे असीम सुख का अनुभव हो रहा था। उसे लगा, जैसे तपती हुई पृथ्वी पर वर्षा की बूँदें गिरने लगी हैं। उसके बंद होंठों के अन्दर से मन की आवाज़ उठी - ‘सलोनी, बहुत देर कर दी आते-आते। फिर कभी ऐसा हुआ तो मेरी जान ही निकल जाएगी।’

‘सुकांत बाबू …,’ आहिस्ता से सलोनी मुखर हुई। सुकांत ने आँखों पर रखे दोनों हाथों को पकड़कर उसे अपनी ओर खींच लिया और बाँहों में भर लिया।

‘छोड़ो सुकांत बाबू, यह क्या करते हो, कोई आ जाएगा?’ सलोनी ने बनावटी रोष से कहा, किन्तु  उसे सुकांत बाबू की यह हरकत बहुत अच्छी लगी। उसने अपनी ओर से आज़ाद होने की तनिक भी कोशिश नहीं की।

उसी अवस्था में सुकांत ने कहा - ‘सलोनी, यहाँ आने के बाद तुम मुझे दिखाई नहीं दी तो मेरी जान ही निकल गई थी। तुम यहाँ होती हो तो मेरे यहाँ आने का कुछ अर्थ है अन्यथा मेरी साँस तो चलती है,  लेकिन लगता है जैसे मैं कोमा में चला गया होऊँ ..।’

सलोनी ने उसके मुँह पर हाथ रखते हुए कहा - ‘कोमा में जाएँ आपके दुश्मन। अभी तो हमें आपको अपनी नियुक्ति की पार्टी देनी है, ख़ुशियाँ मनानी हैं।’

सलोनी को अपनी गिरफ़्त से मुक्त करते हुए सुकांत ने पूछा - ‘चलो, पहले यह बताओ कि तुम्हारी नौकरी कैसी है और तुम यहाँ कितने दिनों के लिए आई हो?’

‘नौकरी बहुत अच्छी है। पहला वेतन पचास हज़ार मिल चुका है। अभी तो हम नानी को छोड़ने तीन दिन का अवकाश लेकर आए हैं। अगले मास शीतकालीन अवकाश है, तब हम दो सप्ताह यहाँ रहेंगे आपके पास।’

एक बार तो सलोनी का मन हुआ कि नानी के लिए दिल्ली में फ़्लैट ख़रीदने और कोलकाता का मकान बेचने की बात सुकांत बाबू को बता दे, किन्तु यह सोचकर कि यह बात सुनकर वह अधिक दुखी होगा, इसलिए उसने चर्चा नहीं की। एक-दो दिन में नानी के द्वारा स्वयं ही पता लग जाएगा।

‘सुकांत बाबू, आप दिल्ली के लिए ही नौकरी का फार्म भरना।’

‘भरा तो दिल्ली का ही है, परन्तु यह सब हमारे हाथ में नहीं है। प्यार में तुमने बहुत बड़ी शर्त लगा दी है। मेरा भी तो परिवार है। माँ-बाबू जी हैं। मैं कैसे सबको छोड़कर तुम्हारे साथ चल पाऊँगा। किसी-न-किसी को तो अपनी ज़िद छोड़नी ही पड़ेगी।’

‘यह ज़िद नहीं है, सुकांत बाबू… यह हमारी संस्कृति है … हमारे कर्त्तव्य हैं। अपने प्यार के लिए, अपने सुख के लिए हम कर्त्तव्यों से मुँह नहीं मोड़ सकते।’

‘लगता है, इन कर्त्तव्यों की चक्की में हमारा प्यार सिसक-सिसक कर मर जाएगा,’ सुकांत बाबू की आँखों में आँसू झलक पड़े। सलोनी ने अपनी उँगलियों से उसके आंसुओं को पोंछते हुए कहा - ‘ऐसा नहीं है। हमें पूरा विश्वास है कि कोई-न-कोई रास्ता निकल आएगा। भगवान पर भरोसा रखो।’

‘कान खोलकर सुन लो सलोनी, यदि तुम्हारा साथ नहीं मिला तो मैं ज़िंदा नहीं रहूँगा,’ सुकांत ने उत्तेजित होकर कहा।

‘ऐसा नहीं सोचते, हमें जीना है …. एक-दूसरे के लिए जीना है …। अब हम चलते हैं, शाम को मिलने आऊँगी,’ कहती हुई सलोनी कमरे से बाहर चली गई।

…….

सुकांत की माँ उन दोनों का भोजन भी बनाकर रख गई। सलोनी ने कमरे में बैठकर नानी के साथ भोजन किया। 

सलोनी का मन अभी सुकांत बाबू के प्यार से प्रफुल्लित था। वह तो प्यार पाकर तृप्त हो गई थी। फिर भी नानी का साथ देने के लिए उसने भोजन किया। भोजन करके बर्तन समेटे ही थे कि उसके फ़ोन की घंटी बजने लगी। बिल्कुल अनजान नंबर देखकर एक बार उसे हिचकिचाहट हुई। फिर ‘न जाने किसका आवश्यक फ़ोन हो’ सोचकर उसने फ़ोन उठा लिया। 

‘अरे छुटकी, मैं दिल्ली से तुम्हारी वीणा आंटी बोल रही हूँ…।’

‘नमस्ते आंटी। हम लोग अच्छे से कोलकाता पहुँच गए हैं।’

‘बहुत अच्छा। लो, एक बार अपने अंकल से बात करो।’

‘जी, आंटी जी।’

‘हैलो …?’

‘जी अंकल, प्रणाम।’

‘सुनो सलोनी बेटी, मैंने कोलकाता के एक व्यापारी को तुम्हारा नंबर दिया है। वह तुम्हारे इलाक़े में मकान ख़रीदना चाहता है। उसका नाम विष्णु चटर्जी है। पहले उसका फ़ोन आएगा, फिर वह तुम्हारा घर देखने के लिए आएगा। हाँ, एक सावधानी अवश्य रखना, उसको कोई क़ीमत नहीं बताना। वैसे तुम्हारे हिसाब से मकान की क़ीमत कितनी होनी चाहिए?’

‘अंकल, हम तो एक करोड़ का अनुमान लगा रहे हैं।’

‘बेटी, तुमको कुछ नहीं मालूम। यदि वह क़ीमत पूछे तो तीन करोड़ से कम नहीं बताना। बाक़ी सब बातें मैं अपने आप कर लूँगा। वह इस क्षेत्र में मॉल बनाना चाहता है।’

‘तीन करोड़ अंकल …!’ सलोनी का मुँह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया। ‘ठीक है अंकल, हम समझ गए। उससे जो भी बातें होंगी, हम आपको बता देंगे।’

‘ठीक है बेटी, भगवान ने चाहा तो जल्दी ही काम बन जाएगा।’

फ़ोन बंद करके सलोनी ने तीन करोड़ की बात नानी को बताई तो वह भी बहुत ख़ुश हुई। एक बार तो उसकी बूढ़ी नसों में भी खून तेज़ी से दौड़ने लगी और फिर वह मन-ही-मन तीन करोड़ को व्यवस्थित करने का हिसाब लगाने लगी। एक करोड़ तो सलोनी की शादी के लिए … उसी के नाम से बैंक में जमा करा दूँगी … इसी के सहारे से हँसते-खेलते जीवन की नैया पार हो गई … मैं भी क्या सपने देखने लगी … पहले पैसा आने तो दो … फिर इसकी चिंता करेंगे। नानी ने सोचना बंद किया और अपने बैग को खोलकर कपड़े अलमारी में लगाने लगी।

कुछ देर बाद एक अनजान नंबर से फ़ोन आया तो सलोनी ने अनुमान लगा लिया और फ़ोन उठा लिया।

‘आप अग्रवाल जी की भतीजी सलोनी बोल रही हैं?’

‘जी अंकल।’

‘उन्होंने हमसे आपके मकान के विषय में बात की थी। क्या आज हम देखने के लिए आ सकते हैं, शाम को चार बजे?’

‘अंकल, ठीक है। आ जाइए।’

‘चार बजे आपके घर आएँगे।’

फ़ोन दोनों ओर से बंद हो गया।

……

चार बजे सलोनी के पास चटर्जी का फ़ोन आया - ‘सलोनी बेटे, मैं तुम्हारी बाड़ी के नीचे खड़ा हूँ। तुम बताओ, मुझे कहाँ आना है?’

‘अंकल, हम आपको लेने के लिए आ रहे हैं।’

मकान को चारों ओर से गहराई से जाँचते देख सलोनी ने समझ लिया, यही अंकल चटर्जी हैं।

‘नमस्ते चटर्जी अंकल।’

‘नमस्ते सलोनी बेटी। तुम ही अग्रवाल जी की भतीजी हो?’

‘जी हाँ,’ सलोनी ने बताया परन्तु चटर्जी का ध्यान इधर नहीं था। उसकी नज़रें तो गहनता से मकान का मूल्यांकन कर रही थीं। तीन मंज़िला बाड़ी, तीन मंज़िलों में प्रत्येक में पन्द्रह कमरे … तीस वर्ष पुरानी बाड़ी है …. बनने के बाद न कभी इसकी ढंग से मरम्मत हुई, न रंग-रोगन।

बीस वर्ष पूर्व नाना जी का व्यापार बढ़ रहा था तो उन्होंने एक बंगाली बाबू से तीस हज़ार में ख़रीदी थी। तब यही सोचा था कि व्यापार में हानि-लाभ का क्या भरोसा, इसलिए कुछ किराए की आमदनी बन जाए तो अच्छा है। तब से इस बाड़ी में मध्यम आय वर्ग के लोग किराए पर आते-जाते रहते हैं। 

सलोनी चटर्जी को अपने कमरे में ले आई। नानी से मिलवाया।

‘यह ज़मीन कितनी है?’ चटर्जी ने पूछा।

‘अंकल, कभी ऐसा हिसाब नहीं लगाया। आप ये काग़ज़ देख लीजिए,’ कहते हुए सलोनी ने बाड़ी की रजिस्ट्री के काग़ज़ उनको दे दिए। सभी काग़ज़ों को उसने ध्यान से देखा। फिर अपनी जेब से मोबाइल निकालकर कुछ चित्र खींचे। तब तक नानी चाय बना लाई।

‘अरे बेटी, चाय का कष्ट क्यों किया?’ काग़ज़ों को वापस करते हुए उसने पूछा, ‘बेटी, क्या तुम हमें इसकी क़ीमत का आइडिया दे सकती हो?’

‘अंकल, वैसे तो सब बातें अग्रवाल अंकल ने करनी हैं, परन्तु पिछले दिनों एक प्रॉपर्टी डीलर आया था तो उसने तीन करोड़ रुपए का ऑफ़र हमको दिया था, परन्तु तब हमारा बेचने का विचार नहीं बना।’

‘अरे बेटी, मार्केट में इतनी क़ीमत नहीं है। वैसे भी आजकल बहुत मंदा है। ख़ैर, मैं अग्रवाल जी से बात कर लूँगा,’ उठते हुए चटर्जी अंकल ने सचेत किया, ‘अभी यहाँ बाड़ी में किसी से बेचने की बात न करना, क्योंकि कमरों को ख़ाली कराने में बहुत झंझट आता है।’

‘समझ गई अंकल,’ सलोनी ने चटर्जी अंकल को गेट तक छोड़ने आई।

उसके जाते ही जो बातें चटर्जी अंकल के साथ हुई थीं, सलोनी ने तुरन्त दिल्ली फ़ोन करके अग्रवाल अंकल को बता दीं। अग्रवाल अंकल ने आश्वासन दिया, ‘ठीक है बेटी। संभावना है, जल्दी ही काम बन जाएगा।’

अग्रवाल जी ने सब समाचार अपनी पत्नी वीणा को बताया तो वह तुरन्त अपनी सहेली ज्योत्सना को बताने के लिए चल पड़ी।

ज्योत्सना रसोई में खाना बना रही थी, इसलिए वह रसोई में ही चली गई। 

‘वीणा बहन, मैं तो आपके पास आने की सोच रही थी। अच्छा हुआ, आप यहाँ आ गई।’

‘अरे, पहले मेरी सुन। अभी-अभी कोलकाता से अपनी छुटकी का फ़ोन आया था। अग्रवाल जी ने एक प्रॉपर्टी डीलर को मकान के लिए भेजा था। लगता है, उससे सौदा हो जाएगा।’

‘हो जाए तो अच्छा ही है। भाई साहब का तो बहुत सहारा है। … मैं भी इसी विषय में बात करने के लिए आपके पास आ रही थी। मैंने भी सीताराम भाई को रुपयों के लिए फ़ोन किया था। उसने कहा है कि एक-दो दिन में व्यवस्था हो जाएगी।’

‘तुमको रुपयों की आवश्यकता है तो बता?’

‘अरे नहीं, मुझे कोई रुपया नहीं चाहिए। वह ब्याने के दस लाख रुपए देने की बात हुई थी ना!’

‘अरे, छोड़ भी ना … देख, मैं कहती हूँ, सीताराम जी को रुपयों के लिए मना कर दे। पहली बात तो यह है कि यह कोलकाता वाला सौदा हो गया तो उसका ब्याना आ जाएगा और रही टोकन मनी की बात तो आपका चाँदी का सिक्का हमारे पास आया हुआ है। समझो, अब तो यह फ़्लैट आपका हो चुका है। ठीक है, चलती हूँ। मुझे तो यह समाचार आपको देना था, सो भागी-भागी चली आई,’ कहते-कहते वीणा वापस लौट गई।

‘कितनी अच्छी है वीणा …. परिवार से अधिक सहारा है हमें इन लोगों का,’ उत्साह और ख़ुशी के साथ ज्योत्सना अपनी किचन में काम समेटने लगी।

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