Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 48 books and stories free download online pdf in Hindi

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 48



भाग 47 जीवन सूत्र 55: आनंद को कायम रखने के सूत्र



भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है: -


विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।


निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति।।2/71।।


एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।


स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।2/72।।


इसका अर्थ है,जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करके इच्छारहित,ममतारहित और अहंकाररहित होकर आचरण करता है,वह शांति को प्राप्त होता है।हे पार्थ! यह ब्राह्मी स्थिति है।इसको प्राप्त कर कभी कोई मोहित नहीं होता।इस स्थिति में अन्तकाल में भी ब्रह्मानंद की प्राप्ति हो जाती है।


इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने चिर शांति की अवधारणा बताई है।उनके द्वारा अध्याय 2 के श्लोकों में मृत्यु और आत्मा की अमरता, समबुद्धि और स्थितप्रज्ञ मनुष्य के लक्षणों पर चर्चा की गई है और साधकों का मार्गदर्शन किया गया है। वास्तव में सुख और दुख, लाभ और हानि, जय और पराजय,यश और अपयश जैसे द्वंद्व जीवन में चलते ही रहते हैं। सुख और शांति के सूत्र इनके बीच ही ढूंढने पड़ेंगे।अगर मन आनंद की अवस्था को प्राप्त करना सीख जाए तो फिर विषम परिस्थितियों में भी जीवन कष्टपूर्ण नहीं होता।


यूं व्यावहारिक जीवन में हमारी शांति बार-बार भंग होती रहती है।हमें एकांत में भी शांति प्राप्त नहीं होती है।भीड़ और कर्तव्यस्थल के दौरान अड़चन आने पर तो हमारी शांति बार-बार भंग होते ही रहती है।आखिर स्थाई शांति का फार्मूला क्या है?मनुष्य वैसी अवस्था को कब पहुंचेगा जब चाहे वह एकांत में रहे तब उसका मन अशांत ना हो,या भीड़ में रहे तब भी वह बात- बात पर खीझ ना उठे और संतुलित होकर अपना कार्य करता रहे। श्री कृष्ण कहते हैं कि इसके लिए संपूर्ण फल के लक्ष्य से की जाने वाली कामनाओं को छोड़ना होगा। मोहवश हम घर, परिवार आदि से अत्यधिक बंधन का अनुभव कर अपने कर्तव्य मार्ग से हट जाते हैं।इसे भी छोड़ना होगा।सफलता,पद,सौंदर्य,ज्ञान,उपलब्धि,संपत्ति आदि को लेकर हमें जो घमंड रहता है,उसे छोड़ना होगा।अपनी असीमित इच्छाओं पर लगाम लगाना होगा।ये हैं स्थायी शांति के उपाय।यह ब्रह्म को प्राप्त होने वाली स्थिति है जो यहां तक कि अंतकाल में प्राणशक्ति के क्षीण होने की स्थिति में भी उस महाआनंद को क्षीण नहीं होने देती है।

कामनाओं का कहीं अंत नहीं है। मनुष्य एक इच्छा की पूर्ति होने पर दूसरी इच्छा करने लगता है। उसकी भी पूर्ति होने पर कोई और इच्छा उसके सम्मुख प्रकट होती है और यह अंतहीन सिलसिला चलता रहता है।

इसका उपाय बताते हुए संस्कृत में कहा गया है:-

शान्ति तुल्यं तपो नास्ति न सन्तोषात्परं सुखम् । न तृष्णायाः परो व्याधिर्न च धर्मो दयापरः।।

अर्थात शांति समान कोई तप नहीं है। संतोष के समान कोई सुख नहीं है।तृष्णा के समान कोई बीमारी नहीं है और करुणा तथा दया के समान कोई धर्म नहीं है।

कामनाओं को पूरी तरह छोड़ना संभव नहीं है।अगर कामनाएं नहीं होगी तो मनुष्य कर्म क्षेत्र में कैसे उतरेगा।अगर कामनाएं नहीं होंगी तो वह दैनिक आवश्यकताओं की चीजों की पूर्ति करने के लिए श्रम कैसे करेगा। अगर कामनाएं नहीं होंगी तो वह नए-नए कौशल, शिल्प,अनुसंधान, व्यापार आदि में प्रवृत्त कैसे होगा। एक प्रेरक के रूप में कामनाओं की भूमिका तो है लेकिन कर्तव्य पथ पर तो उसे गीता के अनुशासित और स्थितप्रज्ञ कर्मयोगी की तरह ही बढ़ना होगा।सुख मिले तो अच्छा।दुख मिले तो भी स्वीकार।


डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय