Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 50 books and stories free download online pdf in Hindi

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 50


भाग 49: जीवन सूत्र 57:जीवन के कर्मक्षेत्र में तो उतरना ही होगा



भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है:-


न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।


न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।3/4।।


इसका अर्थ है,मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता अर्थात योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के त्यागमात्र से सिद्धि अर्थात पूर्णता को ही प्राप्त होता है।


भगवान कृष्ण की इस दिव्य वाणी से हम 'कर्मों का आरंभ' इन शब्दों को एक सूत्र के रूप में लेते हैं। वास्तव में हम अपने जीवन में किसी बड़े अवसर की तलाश करते रहते हैं और एक नई शुरुआत के लिए किसी अच्छे समय या कभी-कभी शुभ मुहूर्त की प्रतीक्षा करते हैं। अच्छे कार्य के प्रारंभ करने के लिए किसी औपचारिक समय की भी आवश्यकता नहीं होती।जब मन में आया,एक उचित संकल्प लेकर कार्य की शुरुआत कर देनी चाहिए। मनुष्य जीवन का कोई न कोई उद्देश्य है और अपने सीमित संसाधनों में ही मनुष्य एक श्रेष्ठ नागरिक बनकर समाज को अपना योगदान करने की कोशिश कर सकता है।

जो व्यक्ति प्रतिदिन कार्य करके प्रतिदिन अपनी रोटी कमाता है, यहां तक कि उसका योगदान भी समाज के लिए कुछ कम नहीं हो सकता है।वास्तव में वह भी प्रतिदिन एक अच्छे कार्य की शुरुआत करता है, ईमानदारीपूर्वक श्रम करता है।उसका श्रम समाज के लिए उत्पादक है,उपयोगी है,फिर वह पारितोषिक के रूप में मजदूरी प्राप्त करता है। इस विकट कोरोनाकाल में स्वयं स्वस्थ रहना और समस्त दिशानिर्देशों का पालन करना आज की परिस्थिति के अनुसार श्रेष्ठ कर्म है।

विद्यार्थी अपने शैक्षणिक सत्र की शुरुआत भी उत्साह से करते हैं।केवल परीक्षा के कुछ दिनों पहले पढ़ाई की शुरुआत से अच्छा यह होगा कि विद्यार्थी रोज थोड़ा-थोड़ा पढ़ने लगे।साल के प्रारंभ से यही शुरुआत एक दिन उसकी सफलता की सुदृढ़ इमारत के लिए एक नींव का कार्य करेगी। कुल मिलाकर एक महान शुरुआत कोई बड़ा कार्य कर जाने वाले लोग ही नहीं करते, बल्कि हर व्यक्ति अपने स्तर पर एक नई शुरुआत कर सकता है।

भगवान श्री कृष्ण ने अध्याय 2 में स्थितप्रज्ञता, समबुद्धि जैसे ज्ञान और साधना पर आधारित मार्गों की चर्चा की थी।अर्जुन के प्रश्न के उत्तर के क्रम में अध्याय 3 में श्रीकृष्ण द्वारा कहे गए इस प्रारंभिक श्लोक में मनुष्य द्वारा कर्म की अवधारणा पर प्रकाश डाला गया है।


वास्तव में मनुष्य एक क्षण भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता है। अगर वह यह सोच ले कि उसने संन्यास ले लिया है और अब वह इन कर्मों को करने के दायित्व से मुक्त हो गया है तो ऐसा करना गलत है क्योंकि कहीं न कहीं, कोई न कोई कर्म उसे संपन्न करना ही है। हमारे द्वारा भोजन ग्रहण करना,हमारी सांसें, हमारा सोना, हमारा उठना- बैठना,ये सब भी तो कर्म ही हैं।


अगर हम फल की कामना से कोई कार्य करें तो वह कर्म है।लक्ष्य निर्धारित कार्य भी कर्म की श्रेणी में आएंगे।अगर हम फल की कामना और आसक्ति को छोड़कर कार्य करें तो वह अकर्म है। किसी को कष्ट देना,हिंसा,अत्याचार आदि विकर्म की श्रेणी में आते हैं।कर्म के अकर्म या विकर्म होने का निर्धारण परिस्थितियों पर भी निर्भर होता है। हिंसा और लूटपाट विकर्म है लेकिन अगर किसी की प्राण रक्षा और देश के दुश्मनों को मारने के लिए ऐसा किया जाए तो यह अकर्म है।


जिस तरह निष्क्रिय होकर बैठे रहना या कुछ ना करना किसी समस्या का हल नहीं है,और केवल ऐसा करने से वैराग्य या संन्यास नहीं हो जाता है,इसी तरह कर्मों में आसक्ति रहितता वाली स्थिति को प्राप्त करने के लिए भी कर्म क्षेत्र में उतरना ही होता है। हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से काम नहीं चलेगा। अगर आपको आवश्यक वस्तुएं खरीदने के लिए बाजार जाना है तो घर से निकलना ही होगा। केवल इसलिए आप कार्य को टाल नहीं सकते हैं कि अभी बहुत भीड़ भाड़ होगी। ट्रैफिक में फंसने का डर है। इस कार्य को बुझे मन से या मजबूरी में करने के बदले अगर हम उत्साह भाव मन में ले आएं तो सच्चे कर्मयोगी होने और महा आनंद की दशा को प्राप्त करने की ओर एक कदम और आगे बढ़ा पाएंगे।



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय