Shivaji Maharaj the Greatest - 32 books and stories free download online pdf in Hindi

शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 32

अनेक घटनाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि शिवाजी महाराज महान् समझे जाने वाले अनेक अन्य योद्धाओं की अपेक्षा अधिक महान् थे।
महानता और महान् व्यक्ति, इस संदर्भ की चर्चा हम कर चुके हैं। हम आठ विदेशी एवं दो भारतीय राजकर्ताओं के जीवन की संक्षिप्त जानकारी लेकर इन दस व्यक्तियों की तुलना शिवाजी महाराज के जीवन एवं कार्यों से करेंगे।
शिवाजी महाराज के जीवन में ऐसी-ऐसी घटनाएँ घटी हैं कि सुनकर सारा संसार हिल जाए! उन घटनाओं के आधार पर हम उन्हें ‘एकमेवाद्वितीयम्’ घोषित करके स्वयं गौरवान्वित हो सकते हैं।
अलग-अलग अनोखी घटनाएँ अलग-अलग व्यक्तियों को अलग-अलग ऊँचे शिखर पर पहुँचा देती हैं। ऐसी महत्त्वपूर्ण घटनाएँ दो अलग-अलग व्यक्तियों के जीवन में बिल्कुल एक ही तर्ज पर घटित हों, ऐसी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती।
किंतु सचमुच ऐसा होता है और हुआ है।
मसलन— गोलिएथ लियोनिडास, ट्रॉय और सिंहगढ़, चीन की दीवार और धार्मिक लिंकनिझ्म, महान् पलायन, जिनेवा कंवेन्शन भाषा ( राज व्यवहार कोश ) एवं स्वतंत्रता का युद्ध, शिवाजी उत्सव एवं राष्ट्र निर्माण।
प्रारंभ करते हैं अकबर से। अकबर का क्रमिक वर्णन करने के बाद उसकी विशद् तुलना हम करेंगे शिवाजी महाराज से।

अकबर (1556-1605)
अकबर 13 वर्ष का था, तभी उसके पिता मुगल बादशाह हुमायूँ का इंतकाल हो गया। राज्यारोहण के बाद अकबर ने अपने पालक बैरम खाँ की सहायता से पानीपत के मैदान में हेमचंद्र (हेमू) का समूल नाश किया। हेमू था अकबर के प्रतिस्पर्धी मुहम्मद शाह आदिल सूर का दीवान।
सन् 1556 से 1560 तक अकबर के पालक की हैसियत से बैरम खाँ ने संपूर्ण सत्ता अपने हाथ में रखी। बैरम खाँ के कारनामे क्रूरता व अत्याचार से भरे हुए थे। इससे मुगल साम्राज्य में भारी असंतोष फैल गया। आखिर अकबर ने युक्ति लड़ाकर बैरम खाँ के हाथ से सत्ता छीन ली। इससे बैरम खाँ भड़क गया। उसने अकबर के खिलाफ बगावत कर दी, किंतु उसे अकबर की शरण में आना पड़ा।
बैरम खाँ ने मक्का चले जाने का फैसला किया। मक्का के रास्ते में किसी अफगान ने उसका खून कर दिया।
बैरम खाँ के खत्म होने के बाद अकबर की प्रमुख दाई माहम अनघा ने अपने साथियों की सहायता से शासन सँभाला, किंतु उसने भी बैरम खाँ से बेहतर काम नहीं किया। माहम अनघा की मौत के बाद अकबर ने सत्ता पूरी तरह अपने हाथ में ले ली।
शुरुआती सात वर्षों तक (1560 से 1567) अकबर अपनी दाई के बेटे आदमखान अब्दुल्लाखान उजबेक और उसके बगावतखोर साथियों की टोली को जेर करने में लगा रहा। रावलपिंडी जिले के बाशिंदे गख्खर लोगों पर तथा काबुल के बाशिंदे मिर्जा हाकिम की बगावत पर भी अकबर ने इसी दौर में काबू किया। मिर्जा हाकिम था आदमखान अब्दुल्लाखान उजबेक का भाई। गोंडवाना, मालवा, रावलपिंडी जिले का ईशान्य इलाका, चुनार और जौनपुर आदि प्रदेशों पर भी अकबर का परचम लहराने लगा।
अकबर ने सन् 1570 में ही बीकानेर, जैसलमेर, कालिंजर के प्रदेशों पर भी जीत हासिल कर ली थी। 1572 तक एक अकेले महाराणा प्रताप सिंह को छोड़कर ज्यादातर राजपूत बादशाह अकबर की शरण में आ चुके थे। सन् 1573 में गुजरात के मुसलमान राजाओं को पराजित कर महाराणा प्रताप ने अपनी सत्ता कायम की। सन् 1576 का हल्दी घाटी युद्ध अनिर्णायक साबित हुआ। अकबर राणा प्रताप को झुका नहीं पाया। उसी वर्ष अकबर ने बंगाल को जीत लिया। सन् 1580 में बंगाल में बगावत हुई और अकबर ने टोडरमल को भेजकर उस बगावत को खत्म किया और बंगाल को अपने राज्य में हमेशा के लिए मिला लिया।
1584 में काबुल का राजकाज अकबर का सौतेला भाई मुहम्मद हाकिम सँभाल रहा था। 1585 में उसकी मौत हो गई। तब उसका राज्य अकबर ने अपने अधिकार में ले लिया।
1586 में अकबर ने कश्मीर के राजा यूसुफशाह और उसके बेटे याकूब को कैद कर लिया। अकबर ने इन्हें अपने कैदियों की हैसियत में रखकर बिहार भेज दिया। अब कश्मीर को भी अपने राज्य में मिला लेने से अकबर को कोई नहीं रोक सकता था।
1586 से 1587 के दौरान अकबर कश्मीर पर आक्रमण करता रहा, ताकि उसे काबू में रख सके। इसी आक्रमण काल में जिस विद्वान् पर अकबर को बेहद भरोसा था, वह बीरबल मृत्यु को प्राप्त हुआ।
सन् 1591 से 1595 के बीच अकबर ने उड़ीसा, सिंध, कांधार और बलूचिस्तान को जीत लिया। अब उसने दक्षिण भारत को जीतने के लिए कूच किया। उसने खानदेश के राजा को अपनी ओर मिलाकर अहमदनगर पर आक्रमण कर दिया, किंतु वहाँ चाँदबीबी की बहादुरी ने अब तक अजेय अकबर को पराजित कर दिया! (1595)
1600 में, यानी पाँच वर्ष बाद, अकबर ने अहमदनगर पर फिर से आक्रमण किया और उसे जीत ही लिया। चाँदबीबी के किन्नर हमीदखान ने झूठी बात फैलाई कि वह अकबर को आदिलशाही बगैर लड़ाई के ही सौंप रही है। संतप्त अहमदनगर के प्रजाजन ने चाँदबीबी को उसके महल में घुसकर मार डाला! इस प्रकार अकबर ने अपना राज्य पश्चिम में काबुल से लेकर पूर्व में बंगाल तक एवं उत्तर में हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी के नीचे, अहमदनगर तक बढ़ा दिया।

माना जाता है हिंदुओं के बारे में अकबर की नीति उदार थी। दरअसल इस उदारता के पीछे अकबर की राजनीति ही थी। अकबर से पहले के मुसलिम शासकों ने हिंदुओं पर अत्याचार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। नतीजा यह हुआ कि उन्हें हिंदुओं के कठोर विरोध का सामना करना पड़ा था। अकबर नहीं चाहता था कि ठीक उसी जंजाल में वह भी फँस जाए। इसीलिए उसने हिंदुओं के साथ अपनत्व एवं भाईचारा विकसित किया। हिंदुओं को तकलीफ दे रहे जजिया कर को उसने रद्द कर दिया। हिंदू विरोधी अन्य कानून भी रद्द कर दिए।
अकबर ने हिंदुओं के राजकीय महत्त्व को बढ़ाया। युद्ध कैदियों को गुलाम बनाने और उन्हें जबरन इसलाम में ले आने की परंपरा उसने तोड़ी। हिंदुओं के सामूहिक धर्मांतर से भी रक्षा की। हिंदुओं के झगड़े पहले काजी निबटाया करते थे। अकबर ने काजियों की जगह ब्राह्मणों की नियुक्ति की। हिंदुओं को उसने अपने दरबार में नौकरियाँ दीं, बड़े-बड़े ओहदे और जवाबदारी की जगहें दीं।
इतना ही नहीं, जैसलमेर, मारवाड़ और बीकानेर के राजपूत घरानों से वैवाहिक संबंध स्थापित किए। इससे पहले के मुसलिम शासकों ने अपनी हिंदू बीवियों को पूजा के धार्मिक अधिकारों से वंचित रखा था। ये अधिकार अकबर ने हिंदू स्त्रियों को वापस सौंपे। इसके साथ ही उसने राजमहल में मंदिर भी बनवाया और हिंदू त्योहारों में स्वयं भी शामिल होना शुरू किया। परिणाम यह हुआ कि राजपूत अकबर के निष्ठावान सेवक बन गए और मुगल साम्राज्य का संरक्षण करने लगे।
उलेमा एवं मुल्लाओं की सत्ता नष्ट करने के लिए अकबर ने सरकारी मौलवी‌ द्वारा तैयार किए गए पद्य के पाठ के जरिए तलाक की काररवाई को स्वीकृति दी। मुसलमानों के दीवानी व धार्मिक मतभेदों का निबटारा करने का अधिकार अकबर ने अपने पास रखा।

अब हम दो खास मुद्दों पर चर्चा करेंगे—
1. अकबर और महाराणा प्रताप की शत्रुता।
2. इसलाम की तलवार के रूप में राजपूतों की भूमिका।
जब चित्तौड़ पर मुगलों का कब्जा हो गया, तब अकबर ने रणथंभोर के हाड़ा घराने पर अधिकार कर लिया। अब केवल मेवाड़ का घराना शेष था, जो अकबर से लड़ रहा था। इस घराने की बागडोर महाराणा प्रताप सिंह के हाथों में थी।
अकबर ने चित्तौड़ के किले को घेरने के लिए एक खास ‘दोहरी पद्धति’ का उपयोग किया; जमीनी सुरंग और सुरक्षित मार्ग। प्रारंभ के एक महीने में दो जमीनी सुरंगें बनाई गईं, किंतु दोनों में जब विस्फोट किया गया, तो दोनों में एक साथ विस्फोट नहीं हुआ। अकबर की आक्रमणकारी टुकड़ियों ने समझा कि अभी जो विस्फोट हुआ, वह दोनों सुरंगों में एक साथ हुआ है। टुकड़ियों ने सोचा भी नहीं था कि दूसरी सुरंग में विस्फोट होना अभी बाकी है। टुकड़ियाँ आगे बढ़ गईं और तभी हुआ दूसरा विस्फोट, जिसमें 200 मुगल सैनिक मौत के घाट उतर गए। उनमें अकबर के कई प्रिय सेनाधिकारी भी थे।
निराश हुए बिना अकबर ने अपनी योजना आगे बढ़ाई।
योजना कुछ ऐसी थी : शत्रु की दिशा में धीरे-धीरे बढ़ो, लेकिन बेहद मजबूत घेराबंदी के साथ। सैनिकों का संरक्षण हर कदम पर होता चले। सुरंग के भीतर दस घुड़सवार सैनिक कंधे से कंधा मिलाकर चल सकें, इतनी चौड़ाई का ‘संरक्षण-छत्र’ आगे-आगे सरकता था। ‘संरक्षण-छत्र’ जानवरों के मोटे चमड़े से तैयार किया गया था। सैनिक 'संरक्षण- छत्र' के नीचे दुबककर आगे बढ़ते।
सुरंग की भीतरी दीवार और छत को लकड़ी के फट्टे लगाकर सुरक्षित बना लिया गया था। इन फट्टों को पत्थरों और कीचड़ से दीवार पर जड़ दिया गया था। 'संरक्षण-छत्र' सुरंग के भीतर सर्प की तरह सरकता, जिसकी छत्रच्छाया में सैनिक एक-एक कदम आगे बढ़ते। ‘संरक्षण- छत्र पर अगर तोप का गोला भी आकर फट पड़ता, तो भी जान-माल की कोई बड़ी हानि नहीं हो सकती थी। सुरंग की दीवारें भले ही कामचलाऊ थीं, मगर उनकी रचना में ऐसी कारीगरी थी कि गोले का विस्फोट वहीं-का-वहीं शक्तिहीन हो जाता।
'संरक्षण छत्र' के मुहाने पर लगातार निर्माण कार्य होता चलता। इस निर्माण कार्य पर से मुगलों की तोपें निशाने साधकर दुश्मन पर गोले बरसातीं । हर कदम पर जोखिम था, लेकिन एक-एक कदम पर मुगल अपने शत्रु पर तोपें चला रहे थे। ये तोपें नीचाई से ऊँचाई पर चलाई जाती थीं। इससे उनका धुआँ और ताप ऊँचाई पर ही बिखर जाते; सुरंग के भीतर के 'संरक्षण छत्र' को विशेष प्रभावित न करते।
अकबर का यह फौलादी साँप मानो बख्तर पहनकर एक-एक कदम आगे सरक रहा था। वह चित्तौड़ के किले की नींव का भक्षण करना चाहता था और उसने सचमुच ऐसा कर लिया। नींव नष्ट होते ही किले की दीवारें खिलौनों की तरह टूटने और गिरने लगीं। इस प्रकार चित्तौड़ की हार हुई।
राजपूतों की यह हार कितनी भीषण थी और मुगलों की यह जीत कितनी जबरदस्त थी, इसका अंदाजा लगाने के लिए अकबर ने एक विचित्र तरीका निकाला। जिन राजपूत योद्धाओं की एक साथ हत्या की गई और निष्पाप हिंदू नागरिकों को भी उन्हीं के साथ खत्म कर दिया गया, उन सबके जनेऊ इकट्ठे करके तौले गए, तो वजन साढ़े चौहत्तर मन हुआ।
राजपूतों को युद्ध बंदी न बनाकर उन निहत्थे वीरों का कत्ले आम कर देने के अकबर के दुष्कृत्य की निंदा अनंतकाल तक होती रहे, इसके लिए राजस्थान के साहूकार आज भी अपनी हुंडी पर 74.5 का आँकड़ा लिखते हैं। यह आँकड़ा उस भीषण दुष्कृत्य की याद में लिखा जाता है। इस आँकड़े के अंकन के साथ लिखी गई हुंडी का सम्मान अगर कोई व्यक्ति नहीं करता, तो उसे 74.5 का शाप लगता है; ऐसी धारणा आज भी चली आ रही है।
अकबर ने चित्तौड़ का किला पूरी तरह नष्ट कर जला डाला और किले के दरवाजे आगरा भेज दिए। किले के मशहूर काली मंदिर में पीतल का भव्य दीपस्तंभ था। अकबर ने उसे अजमेर के मोहनुद्दीन चिश्ती की दरगाह को समर्पित कर दिया।
चित्तौड़ भले ही नष्ट हुआ, किंतु महाराणा प्रताप सिंह ने शरणागति स्वीकार नहीं की। वी. ए. स्मिथ के अनुसार राणा प्रताप की देशभक्ति ही उसका अपराध था। अपनी धूर्त एवं कुशल राजनीति के बल पर अकबर ने अधिकांश राजपूत प्रमुखों को अपनी ओर मिला लिया था। राणा प्रताप की समझौता न करने की जिद में आखिर तर्क क्या है, यही अकबर की समझ में नहीं आ रहा था! क्योंकि महाशक्तिशाली अकबर के सामने राणा प्रताप सदा के लिए तो टिक नहीं सकते थे। जो एक दिन होना ही है, उसे आज ही स्वीकार क्यों न कर लिया जाए? अकबर का तर्क यह था, किंतु वह महाराणा प्रताप का तर्क नहीं था।

अकबर का आश्रित एवं गाजी (धर्म योद्धा) बनने की इच्छा से इतिहासकार बदाऊनी युद्ध में शामिल हुआ था। वह लिखता है—
‘मुगल सेना में राजपूत सैनिकों का नेतृत्व राणा लूनकरण कर रहे थे। एक बड़े विस्फोट में किले की दीवार टूट कर गिरी, तो किले के अंदर से गोले चलने लगे। लूनकरण संरक्षण के लिए पहले बाईं तरफ भागे, फिर दाईं तरफ लपक पड़े। सैनिकों के बीच अफरा-तफरी मच गई। तभी किले के अंदर से राजपूत सैनिकों की विशाल टोली निकल पड़ी और घमासान युद्ध करने लगी। कौन सा राजपूत सैनिक मुगलों का है और कौन सा महाराणा प्रताप का, समझना मुश्किल हो गया।
‘मैं उस वक्त मुगलों की अग्रिम टुकड़ी में था, जिसका नेतृत्व आसफखान कर रहा था। मैंने आसफ से पूछा, “ऐसे घमासान में कौन सा राजपूत हमारा है और कौन सा दुश्मन का, इसकी पहचान आप कैसे कर रहे हैं?”
‘आसफ ने जवाब दिया “हम सिर्फ इतना देख रहे हैं कि हमारा तीर किसी राजपूत को ही लगे। राजपूत हमारा है या दुश्मन का, इससे क्या फर्क पड़ता है! इधर का राजपूत मरे या उधर का, फायदा इसलाम का ही होगा।”
‘इस प्रकार हमने अंधाधुंध तीर चलाना जारी रखा। सामने दुश्मन की जबरदस्त टुकड़ी पहाड़ की तरह अड़ी हुई थी। हमारे सैनिक देख-देखकर तीर मार रहे थे। हर तीर किसी-न-किसी राजपूत को गिरा रहा था। इस प्रकार हमने काफिरों के खिलाफ लड़ाई में उनका संहार किया। मैं भी इसी तरह खींच-खींचकर तीर मार रहा था। मेरे लिए यह मौका किसी तोहफे से कम नहीं था। आखिर जब हम जीते, तो काफिरों का सत्यानाश करने का यश मुझे मिला और मेरे साथ की मुगल टुकड़ी को भी।’

अकबर से हारने के बाद राणा प्रताप सिंह एक लंबे समय तक जंगलों में छिपकर रहे। उन्हें अकसर भूखा रहना पड़ता, साथ में उनका परिवार भी भूखा रहता। नौबत यहाँ तक आएगी, ऐसा किसी ने नहीं सोचा होगा। महाराणा प्रताप को स्वयं की परवाह नहीं थी, लेकिन अपने परिवार के हालात वे नहीं देख पा रहे थे। वे इतने निराश हो गए कि अकबर से समझौता करने की तैयारी करने लगे।
यह समाचार जब उनके मौसेरे भाई पृथ्वीराज राठौर तक पहुँचा, तो वह तिलमिला गया। उसने फौरन राणा प्रताप सिंह को पत्र लिखा—
‘आप हिंदुओं की आशा हैं, आकांक्षा हैं। आप हिंदुओं के लिए सूर्य की तरह तेजस्वी हैं। क्या सूर्य कभी निराश होता है, राणा! आप हिंदुओं का साथ क्यों छोड़ रहे हैं? आप न होते, तो अकबर हम सभी को कितना तुच्छ समझा होता। क्या हमारे योद्धाओं ने अपनी वीरता खो दी है, क्या हम अपनी माँओं और बहनों की इज्जत भी नहीं बचा सकते?
‘अकबर राजपूत घरानों के लिए दलाल का काम कर रहा है। उसने बाजार के सारे योद्धाओं को खरीद लिया है। अपवाद स्वरूप केवल उदयसिंह के पुत्र हैं, जो बिकाऊ नहीं हैं। क्या कोई भी सच्चा राजपूत अपना मान-सम्मान मुगलों को ‘नौरोजा’ (पर्शियन नव वर्ष को 'नौरोजा' कहते हैं। इस अवसर पर अकबर अपने जनानखाने में घूमकर उन स्त्रियों का चयन करता था, जिन्हें वह अपने शयन कक्ष में ले जाना चाहे।) में बेच सकता है? जो भी राजपूत हारता है, उसके महल में अकबर खुद जाकर अपने शरीर-सुख के लिए स्त्रियों का चयन करता है। अनेक राजपूतों ने इस प्रकार अपने स्वाभिमान का सौदा किया है। क्या चित्तौड़गढ़ भी इस बाजार में बेचा जाएगा?
‘संसार जानता है कि आपने अपनी सारी संपत्ति युद्ध में लगा दी है। फिर भी ऐसा कौन सा खजाना है आपके पास, जो अब भी सुरक्षित है? संपूर्ण संसार आश्चर्यचकित है कि राणा प्रताप के शौर्य का स्रोत कहाँ है। क्या बिना धन के शौर्य सुरक्षित रह सकता है? राणा तो सब-कुछ फूँक चुके, फिर भी उनका शौर्य सुरक्षित है, यानी उनके धन का स्रोत सुरक्षित है। कौन सा गुप्त खजाना है राणा के पास? काश! लोग समझते कि राणा प्रताप के शौर्य का स्रोत किसी खजाने में है ही नहीं। राणा के शौर्य का स्रोत, शौर्य का उद्गम तो है उनकी तलवार में!
‘इतनी प्रतिष्ठा होते हुए भी आप अकबर के दरबार में शामिल हो जाने का विचार कर रहे हैं। मुझे तो यकीन ही नहीं होता।
‘न भूलें, राणा प्रताप सिंह जी! कि मानव एवं मानवता की दलाली कर रहा अकबर एक न एक दिन मौत की नींद तो सोएगा ही। वह अमर नहीं है। ज्यों ही उसका इंतकाल होगा, हमारी राजपूत जमात वापस हमारी ओर आ जाएगी। राजस्थान की उजाड़ मानी जाती धरती में राजपूतों की शूरवीरता के बीज एक बार फिर बोए जाएँगे। शूरवीरता की फसल फिर लहलहा उठेगी.......
‘अकबर अमर नहीं है, लेकिन राजपूतों का शौर्य अमर है। इस शौर्य की उपासना के लिए सब आपकी ओर ही देख रहे हैं; राणा प्रताप की ओर। राजस्थान की पवित्रता आप ही से देदीप्यमान होगी।
‘राणा प्रताप अकबर के सामने झुक रहे हैं, उसे अपना बादशाह मानने को तैयार हैं, यह मुझे असंभव लगता है। यह उसी प्रकार असंभव है, जैसे सूर्य का पश्चिम में उदित होना। मुझे बताइए, मैं क्या करूँ। क्या अपनी तलवार अपनी ही गरदन पर घुमाऊँ या स्वाभिमान से जिऊँ?’
ऐसा चुनौती भरा पत्र पाकर महाराणा प्रताप के मन की सारी निराशाएँ लुप्त हो गईं। उन्होंने नए उत्साह के साथ अपने आपको समेटा। राजपूतों के बिखरते जा रहे शौर्य को समेटा और टूट पड़े अकबर की सैन्य शक्ति पर। उन्होंने संपूर्ण पश्चिम मेवाड़ एवं पूर्व मेवाड़ का कुछ भाग, जिसमें अकबर की सैनिक छावनियाँ बन चुकी थीं, वापस अपने अधिकार में ले लीं। उदयपुर और मंडलगढ़ जैसे महत्त्वपूर्ण शहरों में भी महाराणा प्रताप की ध्वजा एक बार फिर लहराने लगी।
अकबर महाराणा प्रताप को किसी भी तरह काबू में नहीं कर सका। महाराणा प्रताप की मृत्यु हुई 19 जनवरी, 1597 में। उनके देह विलय के बाद उनके पुत्र राणा अमर सिंह ने मुगलों के विरुद्ध संघर्ष जारी रखने की शपथ ली और उसे दृढ निश्चय के साथ पूरा किया।

अब हम अकबर ने स्वयं को देवता कैसे घोषित किया, यह देखते हैं।
स्वयं अशिक्षित होते हुए भी अकबर ने एक जाहिरनामा तैयार किया कि यदि मुसलमानों में कोई धार्मिक अथवा दीवानी मतभेद है, तो उसका न्याय करने और आखिरी फैसला सुनाने का अधिकार किसी उलेमा-मुल्ला को न होकर अकबर को होगा।
अकबर के दरबार के खुशामदगार अब्दुल फजल ने लिखा है—
‘सभी प्रदेशों के लोग बादशा अकबर से मन्नत माँगते हैं कि उन्हें जीवन की कठिनाइयों से छुटकारा मिले। बादशाह ऐसी सलाह देते हैं, जिससे सबके मन को तसल्ली हो। बादशाह उनकी धार्मिक उलझनों को दूर करते हैं। रोजाना कितने ही लोग पानी का प्याला लेकर आते हैं और बादशाह से पानी में फूँक मारने की प्रार्थना करते हैं। ऐसे पानी को वे दवा की तरह पीते हैं। ये लोग ऐसे पक्के भरोसे के साथ आते हैं कि जो बीमारी हकीम की दवा से ठीक नहीं होती, वह अकबर की दैवी शक्ति से ठीक हो जाती है।
‘हर रोज बादशाह अकबर राजमहल की एक खिड़की में आकर खड़े रहते हैं, ताकि जनता सुलभता से उनके दर्शन कर सके। कुछ हिंदू प्रजाजन ने एक अलग पंथ स्थापित किया है, जिसके अनुयायी सुबह बादशाह अकबर के दर्शन करने के बाद ही अपना दैनिक कार्य प्रारंभ करते हैं। इस पंथ के लोग ‘दर्शनिया’ कहलाते थे। अकबर ने भी उन्हें 'जीवन कैसे जीना चाहिए’ इसे समझाने के लिए अलग नियम बनाए थे।
‘अकबर ने स्वयं का जो धर्म चलाया, वह ‘दीन-ए-इलाही’ कहलाता था। ‘दीन-ए-इलाही’ के अनुयायियों को चार श्रेणियों में विभाजित किया गया था। अकबर की भक्ति करने वाले उनके प्रति आदर एवं समर्पण की भावना किस प्रकार व्यक्त करते थे, इस पर आधारित थीं ये चार श्रेणियाँ। उन्हें चढ़ते क्रम में रखा गया था। कौन अनुयायी अकबर को क्या समर्पित करता है, इस आधार पर उसकी श्रेणी का क्रम निश्चित होता था। इस समर्पण में संपत्ति, जीवन, प्रतिष्ठा एवं धर्म इन चार बातों का समावेश किया जाता था।
‘जो अनुयायी इन चार बातों में से एक का त्याग अपने आध्यात्मिक गुरु बादशाह अकबर के लिए करता, उसे भक्ति की पहली सीढ़ी पर रखा जाता। जो चार में से दो बातों का त्याग करता, उसे दूसरी सीढ़ी दी जाती। इस प्रकार वह चार में से कितनी बातों का त्याग करता है, इस पर उसकी श्रेणी तय होती थी। इसमें अनुयायी अगर अपने मूल धर्म का त्याग कर देता, तो यह बात सबसे महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी; किंतु 'दीन-ए-इलाही' पंथ में आने के लिए अपने मूल धर्म का त्याग करने की कोई लाजिमी शर्त नहीं होती थी।
‘दीन-ए-इलाही’ पंथ में आते समय उस व्यक्ति को अकबर के सामने सिजदा करना पड़ता था। इसलाम में मुसलमानों को केवल अल्लाह के ही सामने सिजदा करने की इजाजत दी गई है। किसी भी अन्य व्यक्ति अथवा सत्ता के सामने सिजदा करने की इजाजत इसलाम में नहीं दी गई है। हिंदू समाज में इस प्रकार का कोई नियम या प्रथा नहीं थी।
अकबर ने 'दीन-ए-इलाही' की स्थापना (1577-1578) करने से काफी समय पहले ही घोषित कर दिया था कि शाही दरबार में आने वालों को बादशाह के सामने सिजदा करना होगा। यूँ सिजदा की प्रथा पहले से ही रूढ़ हो चुकी थी। उसे 'जमींबोसा' (जमीन को होंठों से स्पर्श करना) कहा जाता था। यह वह सिजदा था, जिसे सिर्फ खुदा के सामने करने की इजाजत इसलाम में है, लेकिन जो अकबर के सामने तब से किया जाने लगा था, जब उसने अपना धर्म 'दीन-ए-इलाही' शुरू भी नहीं किया था!
‘इससे जाहिर है कि अकबर कितना निरंकुश शासक था। उसने स्वयं को 'पृथ्वी पर खुदा की छाया' के तौर पर घोषित कर रखा था। यह घोषणा उसने 'दैवी राजसत्ता के अधिकार के सिद्धांत' के तहत स्वयं के लिए की थी। 'खुदा की छाया' उर्फ 'जिल्लेइलाही' होने के नाते अकबर ने स्वयं को सर्वोच्च बादशाह कहा और अपने सामने सिजदा का रिवाज शुरू करवाया।
‘सच पूछें, तो अकबर 'दीन-ए-इलाही' के संस्थापक के तौर पर अपने सामने सिजदा नहीं करवाता था, बल्कि इसके पीछे एक अनियंत्रित बादशाह का गरूर ही काम कर रहा था। 'दीन-ए-इलाही' के अनुयायी तो अकबर को सिजदा करते ही थे, लेकिन जो उस धर्म के अनुयायी न होते, उन्हें भी अकबर के सामने हाजिर होने पर सिजदा करना ही पड़ता था। 'दीन-ए-इलाही' को अमर कर देने के इरादे से अकबर ने सन् 1583 में गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम पर बसे प्रयाग शहर का नाम बदलकर 'इलाहाबाद' कर दिया था। यह 'इलाहाबाद' नाम आज तक चला आ रहा है।
'दीन-ए-इलाही' की दीक्षा लेने वाला अपना सिर अकबर के कदमों पर रखता था। अकबर स्वयं के छोटे चित्र वाली एक टोपी उस दीक्षार्थी के सिर पर पहनाता था।
‘इसके बाद खुद अकबर एक ऐसा चोगा पहनता था, जिस पर की गई सोने-चाँदी की कशीदाकारी मानो जगमग होती रहती थी। इस चोगे को खुद पहनने के बाद वह उतार देता और उसे उस दीक्षार्थी को पहनाकर उसे विभूषित करता। इससे यह साबित होता था कि बादशाह एवं वह दीक्षार्थी 'दीन-ए-इलाही' के पवित्र कार्य में एकरूप हो गए हैं।
‘अकबर बाकायदा महसूस करने लगा था कि वह कोई आम राजकर्ता नहीं, बल्कि वाकई एक दैवी शक्ति का स्वामी है। वह राज्य इसलिए कर रहा है कि खुदा ने उसे इसका हक दे रखा है और इसीलिए वह खुदा के समान ही पूजनीय है।’
अकबर को खुदा के समान पूजनीय माना जाने लगा, इसमें ब्राह्मणों का भी योगदान था। स्वयं ब्राह्मणों ने अकबर को विष्णु का अवतार मानना शुरू कर दिया था।
अकबर ने अनेक यादगार इमारतों का निर्माण किया। फतेहपुर सीकरी इसका एक बड़ा उदाहरण है।
अकबर ने अपने सपनों की राजधानी की रचना फतेहपुर सीकरी में की। राजधानी का यह शहर दो मील लंबा और एक मील चौड़ा है। उसके तीन तरफ ऊँची, अभेद्य दीवारें हैं और चौथी तरफ सुरक्षा के लिए एक कृत्रिम तालाब बनाया गया है। फतेहपुर सीकरी की दीवारों में नौ दरवाजे हैं। अकबर ने इस शहर में अनेक भव्य इमारतें बनवाई थीं, जहाँ से प्रशासनिक कार्य होते थे। उनमें मुगल सत्ता के केंद्रीय शासन का सचिवालय, कोषागार, दीवान-ए-खास, दीवान-ए-आम, पंचमहल, मरियम मकानी, तुर्की सुलताना, जोधाबाई और बीरबल के महल, इबादतखाना, अकबर के ग्रंथालय एवं शयन कक्ष इत्यादि इमारतों का समावेश था।
किंतु आज ये सभी इमारतें भग्नावस्था में हैं। इस शहर का प्रवेश द्वार बहुत ऊँचा है। लिहाजा इसे 'बुलंद दरवाजा' कहते हैं। फतेहपुर सीकरी की मसजिद के आँगन में शेख सलीम चिश्ती की कब्र है, जिस पर संगमरमर का मकबरा बना हुआ है। आगरा, लाहौर और इलाहाबाद में एक-एक बुलंद व जीते न जानेवाले किले अकबर ने बनवाए थे। इन तीनों किलों में शाही परिवार, खास-खास दरबारी एवं पराक्रमी सेनापतियों के लिए अनेक भव्य इमारतें खूब खर्चा करके बनवाई गई थीं। इनमें से कुछ इमारतें आज भी अस्तित्व में हैं। उन्हें देखकर पर्यटक एवं कला-समीक्षक मोहित हो जाते हैं और इमारतों की वास्तु कला की प्रशंसा करते हैं।
किंतु फतेहपुर सीकरी में पानी की किल्लत लगातार बनी रही। वहाँ रहना दूभर हो गया। आगामी पृष्ठों में इसकी तुलना शिवाजी महाराज की जल-नीति से की गई है।

अब हम अकबर के वैवाहिक जीवन की जाँच करेंगे। पवित्र कुरान के अनुसार मुसलमानों को चार बीवियाँ रखने की इजाजत दी गई है, जबकि अकबर की 300 बीवियाँ थीं। जनानखाने में उन 300 के अलावा 5000 स्त्रियाँ और भी थीं, जो अकबर की रखैलें थीं। इन तमाम स्त्रियों को कोई भी काम नहीं था। शृंगार करके वे दिन भर अपना मुखड़ा शीशे में देखा करतीं। हर स्त्री को एक छोटा सा स्वतंत्र शीशा दे दिया जाता, जिसे वे अपने दाहिने हाथ में, अँगूठे के सहारे, रखे रहतीं। इस जनानखाने में केवल एक मर्द दाखिल हो सकता था, जिसका नाम था अकबर !
जनानाखाना क्या था, मधुमक्खियों का छत्ता ही था। हमेशा चहल-पहल से भरा रहता। तरह-तरह की कुटिल कारवाइयों का अड्डा बन चुका था वह।जनानखाने में जो 5000 स्त्रियाँ थीं, उनका अपने मालिक बादशाह अकबर से मिलन का क्या गणित बनता था? अगर मान लिया जाए कि अकबर एक रात्रि में एक स्त्री के साथ रहता था, तो इस हिसाब से 5000 को 365 से भाग देने पर हर स्त्री की बारी आने में 13.69 वर्ष का समय लग जाता था! अकबर अपनी पसंदीदा रखैलों को उनकी बारी के बिना भी बुला लेता था, जबकि न जाने कितनी रखैलें ऐसी रही होंगी, जिन्होंने अपने मालिक के साथ रात कभी बिताई ही नहीं थी। इसे सहज ही माना जाएगा।
यह स्थिति विचित्र ही थी, जिसमें अकसर दयनीय प्रसंग सामने आया करते। मसलन कोई स्त्री अगर बीमार पड़ती, तो उसे इलाज के लिए भी जनानखाने से बाहर जाने की इजाजत नहीं थी। वह बिछौने में ही पड़ी रहती। हकीम को भला कैसे बुलाया जाता, क्योंकि हकीम तो सब मर्द ही थे और किसी भी मर्द को, सिवा अकबर के, जनानखाने में कदम रखने की इजाजत नहीं थी। 5000 औरतें ही घरेलू टोटकों से इलाज करती रहतीं। बीमार स्त्री का मर्ज अगर बढ़ जाता, तो किसी हकीम को बुरका पहनाकर चुपके से जनानखाने में लाया जाता। उस समय क्या सावधानियाँ बरती जाती थीं, इसका विशद् वर्णन फ्रांस से आए एक यात्री-हकीम फ्राँकॉय बरनियर ने इस प्रकार किया है—
‘मुझे कश्मीरी रेशमी शॉल से सिर से पाँव तक ढाँक दिया जाता। कोई किन्नर मेरी उँगली पकड़कर जनानखाने में ले जाता। उस वक्त मेरी स्थिति किसी अंधे से बेहतर न होती। मुझे मरीज के करीब पहुँचाकर शॉल हटा ली जाती, किंतु मैं मरीज को रूबरू देख नहीं सकता था। मरीज तो एक परदे की आड़ में ही सोई रहती। जख्म अगर हाथ या पैर में होता, तो जिस्म का बस उतना ही हिस्सा परदे से बाहर आता, अगर जिस्म के किसी और हिस्से की जाँच करनी होती, तो खुद मुझे ही परदे के भीतर हाथ डालकर जाँचना पड़ता। इस तरह तो मर्ज की सही पड़ताल ही न हो पाती, मगर उपाय नहीं था।’
दिलचस्प यह भी था कि कई बार ऐसी स्त्रियाँ भी हकीम बुलवा लेतीं, जो बीमार पड़ी ही न होतीं। उनका जख्म भी हाथ-पैर में न होकर किसी और ही अंग पर होता। जाँच करने के लिए जब हकीम अपना हाथ परदे के भीतर डालता, तो उधर लेटी स्त्री उस हाथ को प्यार से सहलाती और चूमने लगती। उन स्त्रियों को केवल मर्द का स्पर्श चाहिए होता था और कुछ नहीं।
यात्री हकीम फ्राँकॉय बरनियर ने कहा है कि मुझे अकसर अनुभव होता था कि आड़ में लेटी स्त्री ने मेरा हाथ अपने किसी मार्मिक अंग पर रखकर दबाया है। ऐसे अवसर पर मैं अपने चेहरे पर कोई भाव नहीं आने देता था, क्योंकि मैं जानता था कि आसपास जो किन्नर मौजूद हैं, उन्हें पता नहीं चलना चाहिए। उन किन्नरों का काम ही यही था कि जनानखाने की हर औरत की जासूसी करें, साथ ही वे खुद भी संदेह और ईर्ष्या से पीड़ित रहते थे। उनकी दुष्टता का कोई ओर छोर नहीं था। कुछ इतने दुष्ट थे कि गाजर, ककड़ी जैसी सब्जियों को जनानखाने में भेजते वक्त उन्हें छीलकर, लिंग जैसी आकृति बनाकर भेजा करते।
मुगल बादशाह अकबर के विषय में हमने यह जो चर्चा की, इसके आधार पर ये निष्कर्ष हम सहज ही निकाल सकते हैं—
★.. शिवाजी महाराज एवं सम्राट् अकबर, इन दोनों को, संस्कार प्राप्त करने की कच्ची उम्र में, अपने पिता के अनुभव एवं ज्ञान का लाभ नहीं मिला।
★.. शिवाजी ने अपनी माता जीजाबाई एवं सभी बड़े बुजुर्गों को, जो गुरु-समान थे, योग्य मान-सम्मान दिया। ठीक विपरीत, अकबर ने छोटी उम्र का होते हुए भी उस बैरम खाँ के खिलाफ बगावत की थी, जिसने उसका राज्य सँभाला था। अंत में अकबर ने बैरम खाँ की हत्या भी करवा दी थी।
★.. शिवाजी ने अपने छोटे भाई राजाराम को जो पत्र लिखा है, उसमें उनका बंधु-प्रेम, अपनत्व, समझदारी इत्यादि सद्गुण स्पष्ट झलकते हैं। इसके विपरीत, अकबर ने अपने दूध-भाई आदमखान को दो बार राजमहल की दूसरी मंजिल से नीचे फेंकवा दिया था। पहली कोशिश में आदमखान की जान बच गई, तो अकबर ने उसे दुबारा दूसरी मंजिल की ऊँचाई से नीचे फेंकवाया, जिसमें उसकी जान चली गई।
★.. चित्तौड़गढ़ का किला ढहाने के लिए अकबर ने 'सबात तंत्र' का उपयोग किया था, जो युद्ध का बहुत महँगा पैंतरा है। उसमें अकबर को जन, धन, साधन, सामग्री एवं समय के रूप में भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। इसकी तुलना में शिवाजी अपने छापों आदि में जो खर्च करते थे, वह बहुत ही कम होता था। शिवाजी की युद्ध-शैली अफजल खान (प्रतापगढ़ और सिंहगढ़) एवं शाइस्ताखान (पूना) पर किए गए छापामार हमलों में बेहद किफायती और कारगर रही थी। इससे हम सेना-नायक के रूप में शिवाजी महाराज की महानता का आभास पा सकते हैं।
★.. चित्तौड़ पर अधिकार करने के बाद अकबर ने युद्ध में मारे गए राजपूतों के जनेऊ तुलवाकर उनका अपमान किया था। उन जनेऊ का वजन 74.5 मन हुआ था। शिवाजी ने असंख्य बार अपने शत्रुओं को पराजित किया था, किंतु एक बार भी किसी शत्रु का अपमान नहीं किया। मृत्यु को प्राप्त शत्रुओं को उन्होंने हमेशा उचित अंतिम संस्कार देकर सम्मानित किया।
★.. अकबर ने चित्तौड़ के कालिका मंदिर के दीप-स्तंभ को जब्त कर अजमेर के ख्वाजा निजामुद्दीन चिश्ती की दरगाह को तोहफे के तौर पर भेज दिया था। मंदिर के कलात्मक काम किए हुए दरवाजों को उखाड़ कर अकबर आगरा ले गया। शिवाजी महाराज ने कभी किसी मसजिद में तोड़-फोड़ नहीं की, न ही कोई संपत्ति लूटी।
★.. चित्तौड़ की विजय के बाद अकबर ने पराजित राजपूतों की खोपड़ियों के ढेर रचे। शिवाजी ने अपने पराजित शत्रु का ऐसा अपमान करने की कभी कल्पना भी नहीं की। चित्तौड़ की जीत को यादगार बनाने के लिए अकबर ने प्रयाग तीर्थ-क्षेत्र का नाम बदल कर इलाहाबाद कर दिया। शिवाजी महाराज ने कभी किसी शहर का नाम नहीं बदला। स्वयं के नाम पर भी उन्होंने कभी कोई शहर नहीं बसाया।
★.. अकबर ने सन् 1569 में निर्मित मुगल राजधानी फतेहपुर सीकरी में अपनी तीन रानियों सलीमा, रुक्कय्या और जोधा के लिए भव्यतम महल का निर्माण किया था, लेकिन यहाँ आयोजन की क्षति इतनी गंभीर थी कि पानी की किल्लत के कारण समूची राजधानी उजड़ गई थी। इसके विपरीत शिवाजी महाराज ने हर नया किला बनवाते समय पानी के स्रोतों का पता लगाया। इस संदर्भ में सिंधुदुर्ग किले का आश्चर्य यह था और आज भी है कि यह किला सिंधु यानी समुद्र के भीतर निर्मित किया गया है, मगर किले के प्रांगण में दूधबाव, दहीबाव और साखरबाव नामक तीन कुएँ हैं, जो मीठे पानी के हैं!
★.. स्त्रियों के साथ शिवाजी का व्यवहार हमेशा नैतिकतापूर्ण एवं सम्मानजनक रहा, जबकि अकबर के जनानखाने में 5000 स्त्रियाँ कैदियों की तरह रखी गईं।
★.. अकबर हमेशा संदेह में रहता था कि कहीं कोई उसके खिलाफ बगावत न कर दे। मनसबदार उसके साथ किसी भी प्रकार का छल-कपट न करें, इसके लिए वह मनसबदारों की बेटियों को अपने जनानखाने में रख लेता था। शिवाजी महाराज के सामने ऐसी कोई समस्या ही नहीं थी। जब वे आगरा में कैद थे, तब उनकी गैर मौजूदगी में भी मराठा प्रदेशों में किसी सेनापति या सेनाधिकारी ने उनके विरुद्ध कोई बगावत या छल-कपट नहीं किया।
★.. पानीपत की दूसरी लड़ाई में हेमू की आँख में तीर लगा और उसे बेहोशी की हालत में अकबर के सामने लाया गया। अकबर ने उसका सिर काट दिया।
इस प्रकार अकबर सिर्फ 13 साल की उम्र में गाजी यानी धर्म योद्धा बन गया। हेमू का सिर एक भाले पर रखकर दिल्ली के प्रवेश द्वार पर प्रदर्शित किया गया। इसके विपरीत शिवाजी महाराज ने युद्ध में मारे गए शत्रुओं के सैनिकों का कभी भी किसी भी तरह अपमान नहीं किया। शिवाजी महाराज अफजल खान से बदला लेना चाहते थे, क्योंकि महाराज के पिता शहाजी राजे को कैद करवाने में अफजल खान ने बड़ी भूमिका निभाई थी। इसके अलावा शिवाजी के बड़े भाई संभाजी की मौत के लिए भी अफजल खान ही जिम्मेदार था। ऐसा होते हुए भी शिवाजी महाराज ने अफजल खान के शव का सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार किया, जिसमें मुसलिम विधि को अपनाया गया।
★.. अकबर ने हिंदुओं के साथ उदारता का व्यवहार किया, किंतु समझना होगा कि अकबर ने हिंदुओं पर यह कोई मेहरबानी नहीं की थी। अकबर ने हिंदुओं को सिर्फ वह दिया, जो हिंदुओं का हक था। अकबर ने सिर्फ अपनी सत्ता सुरक्षित रखने के लिए हिंदुओं के प्रति सद्भावना दिखाई। अकबर ने सिर्फ अपने स्वार्थ की रक्षा की। इसके लिए अकबर की स्तुति करना अनावश्यक है। अकबर भलीभाँति जानता था कि हिंदू बहुसंख्यक हैं और कोई भी साम्राज्य अपनी बहुसंख्यक प्रजा को संतुष्ट रखे बिना स्थिर नहीं रह सकता।
अकबर देख रहा था कि दूसरे प्रदेशों में हिंदू अपनी शूरवीरता से बलशाली साम्राज्यों का निर्माण कर रहे हैं। हिंदू बहुसंख्यक तो थे ही, कर की अदायगी भी ईमानदारी से करते थे। कर अदा करके भी वे अपनी समृद्धि का निर्माण कर रहे थे। लड़ाई-झगड़े में हिंदुओं की दिलचस्पी नहीं थी। हिंदुओं का इतिहास आक्रामक नहीं था। उन्होंने मसजिदों में तोड़-फोड़ नहीं की; मुसलमानों की हत्याएँ नहीं की। उनकी स्त्रियों को कभी धर्म भ्रष्ट नहीं किया। जबरदस्ती धर्मांतर करने के लिए भी मुसलमानों को कभी मजबूर नहीं किया गया। अकबर को हिंदुओं से आक्रमण का भय नहीं था। उनके साथ अच्छा बरताव करके अकबर ने अपनी सुंदर साख बनाई, किंतु यह उदारता उसके हृदय की उपज नहीं थी। वह उसके चालाक मस्तिष्क की उपज थी। यदि उसने हिंदुओं से किसी भी तरह का खतरा महसूस किया होता, तो हिंदुओं को बरबाद करने में उसने कोई कसर न छोड़ी होती। इतिहास साक्षी है कि अकबर ने अपने विरोधियों के साथ हमेशा कैसी बेरहमी का व्यवहार किया।
शिवाजी महाराज की प्रजा में मुसलिम बहुसंख्यक नहीं थे। महाराज का आर्थिक आधार मुसलिम समाज से नहीं आया था। मुसलमानों की तलवारें महाराज का राज्य नहीं चलाती थीं। मुसलमानों का इतिहास आक्रामक का था। सच तो यह था कि हिंदुओं को मुसलमानों के आक्रमण का डर महसूस करना चाहिए था। महाराष्ट्र के पड़ोस में ही बादशाह औरंगजेब ने हिंदुओं पर जजिया कर थोपा था, फिर भी सहिष्णु हिंदू मुसलमानों के प्रति बहुत अधिक आशंकित नहीं थे। शिवाजी ने हिंदू परंपरा की रक्षा करते हुए मुसलमानों के साथ सदैव उदारता का ही बरताव किया।
★.. अकबर ने अपनी तथाकथित उदारता के बावजूद अपनी हिंदू प्रजा को मजबूर किया कि हिंदू अपने कंधे पर काले कपड़े का टुकड़ा रखकर बाहर निकलें।इस काले कपड़े को 'टुकाड़िया' कहते थे। कंधे पर 'टुकाड़िया' होने का अर्थ ही यही था कि यह व्यक्ति अल्लाह का विरोधी है, काफिर है।
★.. अकबर सिद्ध करना चाहता था कि मनुष्य को बोलने की शक्ति उसकी सुनने की शक्ति से प्राप्त होती है। अकबर ने नवजात शिशुओं को एकांत में रखने का प्रयोग किया। नवजात शिशुओं के कानों में रंच मात्र भी ध्वनि का प्रवेश न हो, इसका ध्यान रखा गया। ये शिशु बड़े तो होते गए, मगर कुछ भी बोले बिना। अकबर ने साबित कर दिया कि इन बच्चों का शारीरिक विकास तो होगा, किंतु वे मूक बने रहेंगे। यूँ अपनी महान् बुद्धिमत्ता का परिचय देने के लिए अकबर ने नवजात शिशुओं को 'गिनी पिग' के तौर पर इस्तेमाल किया, लेकिन शिवाजी महाराज ने ऐसी निष्ठुरता का कोई भी प्रयोग कभी नहीं किया।
★.. अकबर के शासन काल में गुलामी प्रथा बदस्तूर जारी थी, जबकि शिवाजी महाराज ने अपने शासन-काल में मनुष्यों की खरीद-फरोख्त पर कड़ी रोक लगा दी थी। इस कुप्रथा को रोकने में शिवाजी महाराज यूरोपीय देशों से भी आगे निकल गए थे।
★.. अकबर को महान् (दि ग्रेट) समझा जाता है, किंतु उसके इंतकाल के बाद ‘अकबर उत्सव’ जैसा कोई उपक्रम शुरू नहीं हो सका। ऐसा उत्सव न तो तत्कालीन बुद्धिजीवियों को सूझा और न ही जन-साधारण को, यहाँ तक कि वर्तमान युग में भी 'अकबर उत्सव' मनाने को लेकर किसी ने अपनी कल्पना के घोड़े नहीं दौड़ाए हैं, किंतु शिवाजी महाराज की स्मृति में ‘शिवाजी उत्सव’ मनाया जाता है। इसकी शुरुआत लोकमान्य तिलक ने 15 अप्रैल, 1896 में की थी। इस उत्सव के फलस्वरूप स्वतंत्रता संग्राम को बहुत समर्थन प्राप्त हुआ था। आज भी शिवाजी की स्थिति महाराष्ट्र में अत्यंत सुदृढ है। किसी भी जीवंत नेता से अधिक प्रभाव दिवंगत शिवाजी महाराज का है।
★.. ‘दीन-ए-इलाही’ धर्म की स्थापना करके अकबर ने जीवित होते हुए भी स्वयं का दैवीकरण करने का प्रयास किया। इसके विपरीत; शिवाजी ने स्वधर्म की गरिमा बढ़ाई, साथ में परधर्म के प्रति भी सहिष्णुता दिखाई। उन्होंने मसजिदें तोड़ना तो दूर, स्वयं ही मसजिदों का निर्माण भी करवाया। उन्होंने केवल धर्म की नहीं, बल्कि मानव मात्र की चिंता करते हुए मानवीय मूल्यों की स्थापना की। उन्होंने सबको महत्त्व दिया। स्वयं को धार्मिक सत्ता या तेजस्विता देने का कोई प्रयास शिवाजी महाराज ने कभी नहीं किया।
★.. संकट का सामना व्यक्ति किस प्रकार करता है, इससे उसके व्यक्तित्व का अंदाजा लगाया जा सकता है। तत्त्वनिष्ठ एवं कर्तव्यशील व्यक्तियों के जीवन में भी संकट के क्षण आते रहते हैं एवं उसे अच्छा या बुरा निर्णय लेने के लिए बाध्य करते रहते हैं। हर युद्ध में संकट के क्षण आते ही हैं। उनका सामना सेनानायक किस प्रकार करता है, इसका अत्यधिक महत्त्व है। युद्धों में संकट के क्षणों का सामना अकबर किस प्रकार करता था ? न लड़कर! वह यूँ कि अकबर युद्ध भूमि में उतर कर हथियार नहीं चलाता था। अकबर की सेना उसकी ओर से हथियार चलाती थी। सेना ही उसके लिए लड़ती थी। संकट के क्षण यदि आते थे, तो सेना के सामने आते थे। अकबर पर संकट के क्षण आते ही कहाँ थे! संकट के क्षण तो चरित्र का निर्माण करते हैं। इस कसौटी पर अकबर को कभी नहीं कसा गया। सेना की जीत ही अकबर की जीत होती थी। सेना लड़ती, कटती, मरती थी; अकबर केवल सुरक्षित मौजूद रहकर जीतने का श्रेय लेता था।
शिवाजी महाराज का चरित्र इससे भिन्न था। वे हमेशा अपने सैनिकों के साथ युद्ध-भूमि में उतरते और लड़ते थे। प्राणों का खतरा जितना आम सैनिक को होता था, कमोबेश उतना ही खतरा शिवाजी महाराज को हुआ करता था। संकट उनके सामने बार-बार उपस्थित होता था और बार-बार पीछे हटता था। इस सीधी-सरल कसौटी पर अकबर और शिवाजी दोनों को नापा जा सकता है। शिवाजी सेनानायक और प्रशासक, दोनों रूपों में यशस्वी हुए, जबकि अकबर को मात्र एक ही रूप में यश मिल सका और वह था कुटिल प्रशासक का रूप। अकबर ने धार्मिक प्रशासक के रूप में भी यश पाना चाहा, किंतु बात नहीं बनी।
उपर्युक्त वर्णन के आधार पर अकबर के व्यक्तित्व की मर्यादाओं को रेखांकित किया जा सकता है। देशी और विदेशी मुसलिम इतिहासकारों के अलावा गैर-मुसलिम ब्रिटिश इतिहासकारों ने भी अकबर को 'द ग्रेट' कहकर नवाजा है। अकबर की महानता महज एक भ्रम है। वह कुशल विजेता हो सकता है, किंतु महान् नहीं था। नए जमाने में हालात ऐसे बन गए कि अकबर को महान् चित्रित करने वालों को महान् धन-राशि प्राप्त होने लगी। अनेक लोगों ने अपने-अपने तरीकों से अकबर की महानता को दुहा है। उसमें सिनेमा जगत के व्यापारी एवं सर्जक सबसे आगे रहे। 'मुगल-ए-आजम' और 'अनारकली' जैसे चलचित्र इसके उदाहरण हैं।
अकबर और शिवाजी की तुलना करते ही तत्काल स्पष्ट हो जाता है कि यदि अकबर को महान् कहा जा सकता है, तो शिवाजी को महानतम कहना होगा। शिवाजी महाराज हर कसौटी पर मुगल बादशाह अकबर से आगे, बहुत आगे थे।

औरंगजेब ( 24 अक्तूबर, 1618– 20 फरवरी, 1707 )
औरंगजेब दिल्ली के मुगल घराने का 6वाँ बादशाह था। उसका पूरा नाम था, मुहियुद्दीन मुहम्मद औरंगजेब। वह 'आलमगीर' के नाम से भी ख्यात हुआ। वह शाहजहाँ और मुमताज का तीसरा पुत्र था। गुजरात के दोहद में उसका जन्म हुआ था।
शाहजहाँ की बगावत के कारण उसे 6 साल की उम्र में जहाँगीर के पास बंधक रहना पड़ा। कुछ दिन वह नूरजहाँ की कैद में भी रहा।
सन् 1628 में शाहजहाँ दिल्ली के सिंहासन पर बैठा। उसके बाद औरंगजेब की मुक्ति हुई। यहीं से उसकी शिक्षा प्रारंभ हुई। उसने कुरान एवं हदीस का अध्ययन किया। इसी प्रकार अरबी, चुगताई, फारसी व तुर्की भाषाएँ सीखीं। बचपन से ही उसे संगीत, चित्रकला एवं अन्य ललित कलाएँ पसंद नहीं थीं।
औरंगजेब को सन् 1636 में दक्षिण का सूबेदार बनाकर भेजा गया। 1644 तक वह इसी पद पर रहा। उसे 1645 से 1648 तक गुजरात का, 1652 तक मुलतान का और अंत में 1657 तक फिर से दक्षिण का सूबेदार बनाकर भेजा गया।
मुराद से समझौता कर दोनों ने शाहजहाँ की सेना को धरमत में और दाराशिकोह की सेना को सामूगढ़ में पराजित किया। बाद में उसने शाहजहाँ और मुराद दोनों को कैद कर लिया। फिर वह 21 जुलाई, 1658 के दिन सिंहासन पर बैठा। मुराद, दारा, शुजा और दारा शिकोह, इन चारों भाइयों को उसने अपने रास्ते से हटाया। जून, 1659 में औरंगजेब का राज्याभिषेक हुआ एवं उसने 'आलमगीर' की पदवी धारण की। 'आलमगीर' यानी जिसने दुनिया को जीत लिया हो।
अपने वैभव का प्रदर्शन करना औरंगजेब को अच्छा लगता था। विदेशी सत्ताधीशों को प्रभावित करने के लिए उसने सन् 1661 और 1667 के बीच मक्का, इरान, बाल्ख, बुखारा आदि राष्ट्रों से आए हुए दूतों को भारी कीमती उपहार देकर अपने वैभव का प्रदर्शन किया।
औरंगजेब का कार्यकाल दो भागों में बँटा हुआ स्पष्ट दिखाई देता है। उसने सन् 1658 से 1681 तक उत्तर भारत में एवं 1681 से 1707 तक का समय दक्षिण में मराठों से लड़ते हुए बिताया। जब वह उत्तर भारत में था, उसने अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए पूर्व एवं वायव्य दिशाओं के प्रदेशों पर आक्रमण किए। सन् 1657 में कूच बिहार के राजा प्रेमनारायण ने मुगल प्रदेश पर आक्रमण किया। फलस्वरूप औरंगजेब ने सन् 1660 में मीर जुमला को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया। मीर जुमला और दिलेरखान ने मिलकर असम पर आक्रमण कर दिया। इसमें मीर जुमला मारा गया। असम के राजा अहोम ने अपना प्रदेश वापस हासिल कर लिया। 1661 से 1665 तक मुगलों को असम में सफलता नहीं मिल सकी।
अहोमा के आक्रमण के बाद औरंगजेब ने शाइस्ता खान को बंगाल का सूबेदार बनाया। शाइस्ता खान ने बिहार, चटगाँव, सोनदीप इत्यादि प्रदेश जीतकर वहाँ के पुर्तगीज एवं ब्रह्मदेशीय लोगों का बंदोबस्त किया। फिर भी अहोम मुगलों को तकलीफ देता रहा। सन् 1670 से 1681 तक राजा अहोम असमर्थ पड़ा रहा। यह वह दौर था, जिसमें अहोम युद्ध जारी न रख सका। मौके का फायदा उठाकर मुगलों ने उस प्रदेश में अपने राज्य का विस्तार कर लिया।

औरंगजेब और दारा का संबंध

युद्ध हार चुके दारा को औरंगजेब ने आगरा लाने का हुक्म दिया। दारा जब किले के सामने से गुजर रहा था, एक फकीर जोर से चिल्लाया “अरे, दारा! याद करो जब तुम मालिक थे, मुझे भिक्षा दिए बिना आगे नहीं जाते थे। आज तुम्हारे पास मुझे देने के लिए कुछ भी नहीं है। यह बात मुझे अच्छी तरह मालूम है।”
सुनकर दारा ने अपना हाथ कंधे की ओर ले जाते हुए अपनी मैली शॉल उतारी और फकीर की ओर फेंकी।
लेकिन पहरेदार के तौर पर साथ चल रहे बहादुर खान ने हुक्म दिया कि दारा अपनी शॉल वापस ले ले, क्योंकि कैदियों को इजाजत नहीं है, किसी को कुछ दान करने की।
दारा को मौत की सजा फरमाने से पहले औरंगजेब ने उसे एक संदेश भेज कर पूछा था “किस्मत आज किस कदर तुम्हारे खिलाफ है! यही किस्मत इतनी ही तुम्हारे पक्ष में होती, अगर तुमने मुझे कैद कर लिया होता! बताओ, अगर मैं तुम्हारा कैदी होता, तो मेरे साथ तुम क्या बरताव करते।”
दारा अच्छी तरह समझ गया कि औरंगजेब ने उसका मजाक उड़ाने के लिए ऐसा सवाल पूछा है। दारा को यह भी मालूम था कि औरंगजेब उसे हमेशा के लिए खत्म कर देने को उतावला है। दारा ने औरंगजेब को वही उत्तर दिया, जो एक राजपुत्र को देना चाहिए था। उसने संदेश के जवाब में संदेश दिया, “अगर तुम मेरे कैदी होते, तो तुम्हारे जिस्म के चार टुकड़े करके दिल्ली के चार दरवाजों के सामने फेंक देने के लिए कहा होता।”
यह जवाब औरंगजेब के सामने रखा गया। दारा की हिमाकत देखकर औरंगजेब आगबबूला हो गया। उसने अपने सबसे बड़े भाई दारा को मौत की सजा सुना दी।
दारा का सिर काटने के लिए गुलामों की टुकड़ी अपने सरदार के साथ शाम 6 बजे खिजराबाग में आ पहुँची। गुलाम सरदार ने दारा को बेरहमी से नीचे गिराकर उसका सिर काट दिया।
दारा के लहूलुहान धड़ को वहीं छोड़कर उसका सिर लिये हुए गुलाम सरदार औरंगजेब के सामने पहुँचा।
दारा का सिर आया देखकर औरंगजेब ने उसे नीचे रखने को कहा। अपनी तलवार। की नोक से उसने सिर को तीन बार कोंचा । औरंगजेब ने खुफिया इशारे से हुक्म दिया कि सिर पेटी में रखकर शाहजहाँ के कैदखाने के अधिकारी एतबार खान के पास भेज दिया जाए।
शाहजहाँ दारा से अत्यधिक प्रेम करता था। औरंगजेब से उसे कोई प्रेम नहीं था। इसी का बदला लेने के लिए औरंगजेब ने यह कारवाई की। जैसे वह कहना चाहता था “लो! देखो! तुम्हारे प्यारे बेटे का क्या हश्र हुआ है। मुझे तो तुम तुच्छ समझते थे न? लेकिन आज यह मैं ही हूँ, जिसका पूरी सल्तनत पर अधिकार है। तुम्हारा प्यारा बेटा तो खुदा की खिदमत में चला गया।”
उस दिन औरंगजेब की प्रिय बहन रोशनआरा ने बड़ी मेजबानी दी।
इसके बाद औरंगजेब ने दारा की दोनों बीवियों को बुलाया। उनमें से एक चंचल स्वभाव की थी, जिसका नाम था उदेपुरी। वह जॉर्जियन वंश से थी। वह औरंगजेब का हुक्म मानकर सामने हाजिर हुई। औरंगजेब ने उसे अपनी बीवी बना लिया। उसने कामबख्श नामक राजपुत्र को जन्म दिया।
दूसरी बीवी का नाम था रानादिल। वह एकनिष्ठ थी और जन्म से हिंदू थी। रानादिल ने संदेश भेजकर औरंगजेब से पूछा “हुजूर हमसे क्यों मिलना चाहते हैं?”
रानादिल को बताया गया कि बादशाह आपको अपनी बेगम बनाना चाहते हैं। बड़े भाई की विधवा पर छोटे देवर का ही अधिकार माना जाता है। ऐसा नियम है।
इस पर रानादिल ने पूछा, “हुजूर ने हममें ऐसी क्या खासियत देखी, जो हमें इतनी इज्जत दी जा रही है?”
औरंगजेब ने संदेश दिया “हमें आपके बाल बहुत अच्छे लगते हैं।”
रानादिल ने अपने सारे बाल काटकर औरंगजेब को भेज दिए और कहा “हुजूर जिस खूबसूरती को पाने की तमन्ना रखते हैं, वह हमने हुजूर की खिदमत में पेश कर दी है। अब हमारी ओर से यही गुजारिश है कि हमें अकेले जीने की इजाजत दी जाए।”
लेकिन औरंगजेब का मन नहीं मान रहा था। रानादिल को अपनी बेगम बनाने के लिए वह सचमुच उतावला हो चुका था।
उसने फिर संदेश भेजा “आपकी खूबसूरती लाजवाब है। आपको हम तहेदिल से अपनी बेगम बनाना चाहते हैं। आप हमें अपना दारा ही समझ लीजिएगा। आपको बड़ी से बड़ी इज्जत बख्शी जाएगी। आपके ऐशोआराम में कोई कमी नहीं आने दी जाएगी। वैसे भी आप हमारे भाई की बेगम तो हैं ही।”
रानादिल निडर और धैर्यशील महिला थी। वह अपने महल में गई। एक छुरी लेकर उसने अपने चेहरे पर वार पर वार किए। पूरा चेहरा लहूलुहान हो गया। बहते खून से एक कपड़े को सानकर उसने औरंगजेब के पास भिजवा दिया और कहलवाया, “हुजूर हमारे चेहरे की खूबसूरती पर मेहरबान हुए हैं, लेकिन यह चेहरा अब खूबसूरत नहीं रहा। अगर हुजूर को हमारे खून की तमन्ना है, तो उसे हम आपकी खिदमत में पेश कर रहे हैं। इसके साथ जो करना हो, करें। हम आपको नहीं रोकेंगे।”
रानादिल की ऐसी खुद्दारी देखने के बाद औरंगजेब ने पीछे हट जाना ही उचित समझा।
औरंगजेब के व्यक्तित्व को अच्छी तरह समझने के लिए हमने निम्नलिखित दो शीर्षकों के अंतर्गत विशद् मीमांसा की है—
1. शिवाजी महाराज एवं धर्म।
2. शिवाजी महाराज एवं मृत्यु।
अब हम आठ मध्ययुगीन योद्धाओं यानी एलेक्जेंडर (सिकंदर), जूलियस सीजर, अटीला, हॉनीबॉल, रिचर्ड द लॉयन हार्ट, विलियम वॉलेस, चंगेज खान और एडॉल्फस गस्टावस से तुलना करेंगे, साथ में नेपोलियन से भी तुलना करेंगे, क्योंकि वह महान् माना जाता है। दूसरा योद्धा, जिसके बारे में विश्लेषण किया गया है, वह है स्पार्टाकस, जिसने एक गुलाम होते हुए भी कुछ वक्त तक शक्तिशाली रोम को टक्कर दी।

नेपोलियन:
नेपोलियन मूल रूप से फ्रांस से नहीं था। उसका जन्म कॉर्सिका में हुआ था। उसके पिता कार्लो फ्रांस के दरबार में कॉर्सिका की ओर से वकील थे। उन्हीं के प्रयत्नों से नेपोलियन को ‘इकॉल मिलिटरी’ नामक पेरिस के सैनिक स्कूल में प्रवेश मिला। यहाँ से उत्तीर्ण होने के बाद उसने 'रॉयल आर्टिलरी स्कूल' में प्रवेश लिया। सन् 1785 में वह सेकेंड लेफ्टिनेंट के पद पर फ्रेंच सेना में दाखिल हुआ।
सन् 1789 में फ्रांस क्रांति की शुरुआत हुई। नेपोलियन ने क्रांतिकारियों का समर्थन किया एवं सन् 1795 में सत्ताधीशों पर गोली चलाई।
सन् 1796 में नेपोलियन ने लॉडी के युद्ध में ऐसा शौर्य दिखाया कि उसे ‘लिटिल कॉर्पोरल’ कहा जाने लगा। उसका यह उपनाम मशहूर हो गया। 1792 में नेपोलियन की नियुक्ति फ्रांस के सरसेनापति के रूप में हुई। उस समय नेपोलियन ने संसार में पहली बार टेलीकम्यूनिकेशन का उपयोग किया।
सन् 1798 में नेपोलियन ने मिस्र (इजिप्ट) पर आक्रमण किया। वहाँ उसने ब्रिटेन से भारत जाने वाली नौकाओं को काफी परेशान किया, किंतु थोड़े ही समय बाद ब्रिटेन के मशहूर नौसेनानी नेल्सन ने 'बैटल ऑफ नाइल’ के युद्ध में नेपोलियन की नौसेना के छक्के छुड़ा दिए। इस प्रकार नेपोलियन का कार्य इटली की भूमि तक ही सीमित रहा।
सन् 1799 में नेपोलियन फ्रांस का सैनिक तानाशाह (मिलिटरी डिक्टेटर) बना। उसने अपने कार्यालय में शिक्षा, वित्त, प्रशासन एवं न्याय संबंधी कई सुधार किए। नेपोलियन ने अनेक उपयोगी नागरी नियम भी प्रस्थापित किए। ये नियम आज भी कई देशों में ‘नेपोलियन की नागरी संहिता’ के रूप में प्रचलित हैं।
2 दिसंबर, 1804 के दिन नेपोलियन का फ्रांस के सम्राट् के रूप में राज्यारोहण हुआ।
26 मई, 1805 के दिन मिलान में नेपोलियन का इटली के राजा के रूप में मंचारोहण हुआ।
2 दिसंबर, 1805 के दिन ऑस्टरलिट्ज में ऑस्ट्रिया एवं रूस की सेनाओं को नेपोलियन ने हराया।
14 अक्तूबर, 1806 के दिन नेपोलियन ने प्रशिया को सॉलफेल्ड, जेना और स्टेड के युद्ध में हराया ।
सन् 1812 से नेपोलियन का पतन शुरू हो गया। उसने सभी सलाहकारों के विरोध की अवहेलना कर रूस पर आक्रमण कर दिया। रूस के सेनापति कुटजोन ने 'देशभक्ति युद्ध' की घोषणा की और उसी के खास पैंतरे के मुताबिक बगैर युद्ध किए पीछे हटना शुरू किया। कुटजोन दरअसल समय बिता रहा था। उसे इंतजार था ठंड के मौसम का। युद्ध विश्लेषकों का यह मानना था कि शिवाजी महाराज के पास कई सेनापति थे, लेकिन सबसे धाकड़ सेनापति था 'सेनापति सह्याद्री' यानी दक्षिण की घाटी। उसी तरह रूस का सबसे धाकड़ सेनापति था 'जनरल विंटर' यानी ठंड का मौसम। इन दोनों नैसर्गिक शक्तियों को केवल वहाँ के भूमिपुत्र ही झेल सकते हैं।
नेपोलियन ने सोचा था कि रूस का जार समझौते के लिए तैयार हो जाएगा, किंतु ऐसा नहीं हुआ। समझौता तो दूर, उलटे रूसियों ने अपनी राजधानी मॉस्को को खुद ही आग लगा दी! नतीजा यह हुआ कि खाने-पीने की चीजों की जबरदस्त तंगी हो गई।
नेपोलियन 6 लाख सैनिकों की विशाल सेना लेकर रूस में दाखिल हुआ था। रूसी सेना जानबूझकर पीछे हटती रही और नेपोलियन आगे बढ़ता रहा। रूसी सेनापति कुटजोन यही चाहता था। नेपोलियन रूस के मौसम का अच्छा जानकार नहीं था। उसे अंदाजा लगा ही नहीं कि कुटजोन इस प्रकार समय बिता रहा है कि ठंड के दिन शुरू हो जाएँ।
रूस में बड़ी कातिल ठंड पड़ती है। उसे केवल रूसी ही सहन कर सकते हैं। दूसरों के लिए तो वैसी ठंड मौत का पैगाम ही लेकर आती है। नेपोलियन रूसी सेनापति के पैंतरे में अच्छी तरह फँसा। मॉस्को का पूरा शहर आग के हवाले करके रूसियों ने नेपोलियन के 6 लाख सैनिकों को भूख से तड़पा दिया। तभी कातिल ठंड भी शुरू हो गई। नेपोलियन को समझ में ही न आया कि क्या करें, कैसे करें! आखिर नेपोलियन ने पीछे हटने का फैसला किया, लेकिन यह भी आसान नहीं था । ज्यों ही नेपोलियन की सेना ने पीठ दिखाई, त्यों ही रूसी सैनिकों ने उन पर आक्रमण शुरू कर दिए।
कातिल ठंड की मार, भूख-प्यास की मार, पीछे हटने की शर्मिंदगी की मार और अब रूसी सैनिकों के खतरनाक आक्रमण ! नेपोलियन के सैनिकों की मौतें होने लगीं। गिनती के दिनों में इतनी मौतें हो गईं कि नेपोलियन जब रूस की सरहद से निकलकर अपने देश पहुँचा, तब उसके सैनिकों की संख्या सिर्फ 10 हजार रह गई थी। 6 लाख सैनिकों का सिर्फ 10 हजार रह जाना, यह कोई मामूली हादसा नहीं था।
इसी मौके को साधकर सन् 1814 में ब्रिटेन, रूस, प्रशिया एवं ऑस्ट्रिया एकजुट होकर फ्रांस के खिलाफ भिड़ गए। इनके संगठन का एकमात्र उद्देश्य था, नेपोलियन का पतन। इन चार देशों ने नेपोलियन को ऐसा घेरा और मजबूर किया कि नेपोलियन को अपना सिंहासन छोड़ना पड़ा।
नेपोलियन को इटली के नजदीक के एक द्वीप एल्बा में कैद कर लिया गया। वहाँ नेपोलियन को भनक लग गई कि उसे एल्बा से हटाकर सुदूर अटलांटिक समुद्र के किसी द्वीप पर ले जाने की तैयारी चल रही है ।
6 फरवरी, 1815 के दिन नेपोलियन एल्बा से भाग निकला।
1 मार्च, 1815 के दिन वह फ्रांस पहुँच गया। फ्रांस की जो सेना कभी उसके हर आदेश को सिर-आँखों पर लिया करती थी, वही उसके खिलाफ रवाना कर दी गई।
लेकिन नेपोलियन का प्रभाव कुछ ऐसा था कि फ्रांस की सेना ने उसे कैद करने की बजाय, उसी को अपना सर्वोच्च नेता मान लिया!
20 मार्च, 1815 को नेपोलियन ने जब पेरिस में प्रवेश किया, तब 1 लाख 40 हजार सैनिकों की सेना उसके साथ चल रही थी। उसमें 2 लाख स्वयंसेवी सैनिक पेरिस में और भरती हुए।
सिर्फ 20 दिन पहले नेपोलियन जब एल्बा से भागकर पेरिस पहुँचा था, तब उसके पास सेना के नाम पर शून्य ही था, किंतु मात्र 20 दिनों में लगभग साढ़े तीन लाख सैनिकों ने उसके प्रति वफादारी दिखाते हुए उसी को अपना अधिनायक मान लिया! मानव-इतिहास में यह घटना, जो 20 मार्च, 1815 को घटी थी, अपने नाटकीय रोमांच के लिए अमर हो चुकी है।
इसके बाद विडंबना यह रही कि नेपोलियन सिर्फ 100 दिनों तक राज कर सका।
18 जून, 1815 का दिन नेपोलियन के जीवन का सबसे काला दिन था, जब ब्रिटेन के सेनापति वेलिंग्टन ने नेपोलियन को वाटरलू (बेल्जियम) की लड़ाई में बुरी तरह हरा दिया।
वेलिंग्टन ने नेपोलियन को सेंट हेलेना द्वीप पर कैद कर लिया, जहाँ 5 मई, 1821 के दिन नेपोलियन का देहांत हो गया। उसके अंतिम शब्द थे—
“फ्रांस.. द आर्मी.. जोस्फिन..” नेपोलियन की पत्नी का नाम था जोस्फिन। वह नेपोलियन की पहली पत्नी थी। जब वह फ्रांस की महारानी थी, तब उसके अनेक प्रेम प्रकरण प्रकाश में आए थे। वे ब्रिटेन के प्रमुख अखबारों में सुर्खियों के साथ प्रकाशित हुए थे।

विलियम वॉलेस ( सन् 1270 से 1305 )
सर विलियम वॉलेस स्कॉटलैंड का देशभक्त था। उसने स्कॉटलैंड की आजादी की लड़ाई में इंग्लैंड के राजा एडवर्ड प्रथम को टक्कर दी थी। उसके पिता का नाम था सर मॉल्कम वॉलेस।
विलियम वॉलेस जब छोटा ही था, तभी अंग्रेजों ने उसके पिता सर मॉल्कम वॉलेस को मार डाला था। नन्हे विलियम को उसके चाचाओं ने पाला-पोसा। ये चाचा धर्म-गुरुओं के पद पर थे। उन्होंने विलियम को अच्छी शिक्षा दी और फ्रेंच के साथ लैटिन भाषा भी सिखाई।
सन् 1293 में स्कॉटलैंड के सरदारों में आपस में ही लड़ाई छिड़ गई थी। वे सब स्कॉटलैंड की सत्ता हथियाने के लिए आपस में लड़ पड़े थे। लड़ाई थी कि थमने का नाम नहीं ले रही थी। आखिर सभी सरदारों ने मिलकर इंग्लैंड के राजा एडवर्ड प्रथम से निवेदन किया कि कृपया इस झगड़े को निबटाने के लिए आप मध्यस्थ बनें ।
एडवर्ड अपनी सेना के साथ आ धमका। उसने स्कॉटलैंड को इंग्लैंड का मांडलिक-राज्य बना लिया। जॉन बेलिऑल नामक एक सरदार को उसने वहाँ की गद्दी पर बिठाया। मार्च 1226 में स्वयं जॉन बेलिऑल ने एडवर्ड के खिलाफ विद्रोह कर दिया। नाराज होकर एडवर्ड ने स्कॉटलैंड पर आक्रमण कर दिया। डैन्वर के युद्ध में स्कॉटलैंड की हार हुई। स्कॉटलैंड पर इंग्लैंड का प्रभुत्व सच्चे अर्थ में अब स्थापित हुआ।
सन् 1297 के वर्ष को विलियम वॉलेस के उदय का वर्ष माना जाता है। वॉलेस ने जो मछलियाँ पकड़ी थीं, उन्हें दो अंग्रेज सैनिकों ने छीन लिया था। वॉलेस ने मछलियाँ वापस छीननी चाहीं। इसमें जो छीनाझपटी हुई, उसमें वॉलेस के हाथों वे दोनों सैनिक जान से मारे गए। अंग्रेज सरकार ने वॉलेस के नाम वारंट निकाला। इस तरह अंग्रेजों के साथ वॉलेस का संघर्ष शुरू हो गया।
वॉलेस के मन में अंग्रेजों के खिलाफ बहुत गुस्सा भरा हुआ था, क्योंकि अंग्रेजों ने उसके पिता को मार डाला था। उसने सर विलियम डगलस की सेना में शामिल होकर अंग्रेजों को लॉवडन-हील, आयर और स्कोन में हराया। वॉलेस की सबसे बड़ी जीत स्टर्लिंग ब्रिज की लड़ाई में हुई। वहाँ उसने सरे अर्ल के 300 घुड़सवारों और 10 हजार पैदल सैनिकों को शिकस्त दी। इस मुठभेड़ में दिखाए गए शौर्य के लिए वॉलेस को नाइटहुड के खिताब से नवाजा गया। अब वह अपने नाम के आगे 'सर' जैसी आदरसूचक उपाधि लगाने का अधिकारी हो गया। इस युद्ध में वॉलेस का वरिष्ठ ‘द मोर’ मारा गया।
इसके बाद, सन् 1298 में, फॉलकर्क के युद्ध में वॉलेस की दयनीय हार हुई। बहुत सारे स्कॉटिश योद्धा मारे गए। वॉलेस किसी तरह वहाँ से भाग निकला।
सन् 1305 में स्कॉटलैंड के सरदार सर जॉन मेंटीन ने दगा किया और वॉलेस की गिरफ्तारी हो गई। ग्लासगो में उसे बेड़ियाँ पहना दी गईं।
वॉलेस पर लंदन में देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया, जिसमें उसे दोषी ठहराकर फाँसी की सजा सुनाई गई। उसे अत्यंत हीन तरीके से खत्म किया गया। जब वह फाँसी के फंदे से लटक रहा था, मगर अभी जिंदा था, तभी उसकी आँतें निकालकर वहीं, उसके सामने ही जलाई गईं। मौत के बाद उसका सिर भाले की नोक पर लटकाकर घुमाया गया। उसकी लाश के चार टुकड़े किए गए, जिन्हें चार दिशाओं में एक-एक रखकर प्रदर्शित किया गया। वे चार जगह थीं— न्यू कासल, बारविक, एडिनबरो और पर्थ इतनी निर्ममता इसलिए बरती गई कि ऐसे उदाहरण के बाद देशद्रोह करने की हिम्मत कोई दूसरा न कर सके।

जूलियस सीजर ( ईसा पूर्व सन् 100 से ईसा पूर्व सन् 44 )
जूलियस सीजर का जन्म ईसा पूर्व सन् 100 में 13 जुलाई को हुआ था। सीजर ने 25 वर्ष का होने से पहले ही सुला नामक एक रोमन राजकीय परामर्शदाता की बेटी से शादी की थी। कालांतर में सुला रोम का तानाशाह बन बैठा। उसने चाहा कि सीजर उसकी बेटी को तलाक दे दे, किंतु सीजर नहीं माना। वह रोम छोड़कर बिथीयाला चला गया। तब ईसा पूर्व सन् 81 चल रहा था।
ईसा पूर्व सन् 78 में तानाशाह सुला की मौत हो गई। अब सीजर रोम वापस आ गया। यहाँ उसने वकालत शुरू की। इस दौर में समुद्री अपहरणकर्ताओं ने किसी फिरौती के लिए उसे 6 हफ्तों तक बंधक बनाकर रखा।
इससे सख्त नाराज होकर सीजर ने प्रतिज्ञा कर ली कि इन अपहरणकर्ताओं को क्रॉस पर लटकाकर जान से मारूँगा। कालांतर में सीजर जब सत्ताधीश हुआ, तब उसने सचमुच यही सजा अपहरणकर्ताओं को दी।
ईसा पूर्व सन् 57 में सीजर का परिचय क्रैशीअस से हुआ। क्रैशीअस एक अत्यंत धनाढ्य एवं समर्थ उच्च अधिकारी था। सीजर ने क्रैशीअस को प्रभावित कर लिया।क्रैशीअस की पदोन्नति के अवसर पर सीजर ने आनंदोत्सव मनाने के लिए भव्यतम कार्यक्रम आयोजित किए। इससे सीजर का नाम जन-जन तक पहुँच गया।
ईसा पूर्व सन् 62 में सीजर को प्रेटर (दंडनायक) के पद पर नियुक्त किया गया। इससे उसकी हैसियत सेनापति के समकक्ष हो गई। उसने स्पेन पर एक बहुत ही सधा हुआ आक्रमण किया। वहाँ उसकी जीत इतनी सरलता से हो गई कि उसके होंठों से एक ऐसा उद्गार फूटा, जो पूरे विश्व पर आज तक छाया हुआ है—
“मैं आया। मैंने देखा। मैंने जीत लिया।”
ईसा पूर्व सन् 54 में सीजर ने 800 युद्ध-नौकाएँ लेकर ब्रिटेन पर आक्रमण किया और जीत हासिल की। सीजर जब रोम वापस आया, तब उपरोक्त जीत के लिए तमाम रोमन राज्य परिषद् एवं गणमान्य नागरिकों ने उसकी भारी प्रशंसा की एवं उसके स्वागत में 15 दिनों तक लगातार उत्सव मनाया।
उस अनुकूल स्थिति एवं वातावरण का लाभ उठाते हुए सीजर ने उस काल की मशहूर हस्ती पॉम्पेई के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। पॉम्पेई के पास बिलाशक एक विशाल फौज थी, लेकिन जनमत था सीजर के पक्ष में।
और यह जनमत इतना उग्र था कि पॉम्पेई को रोम से पलायन करना पड़ा। पॉम्पेई मिस्र (इजिप्ट) भाग गया और सीजर ने उसका पीछा किया। पॉम्पेई ने दया की याचना की, लेकिन टॉल्मी ने सीजर के कहने से पॉम्पेई का सिर काट दिया।
सीजर कुछ वर्ष इजिप्ट में ही रहा। यहाँ उसका परिचय क्लियोपैट्रा से हुआ, जो प्रणय में बदल गया। सीजर क्लियोपैट्रा की प्रेमकथा पूरे विश्व में गूँजी अनेक साहित्यिक कृतियाँ इस प्रेम-कथा की धुरी पर रची गईं। आधुनिक युग में इस प्रसंग पर कई फिल्में बन चुकी हैं और बनती रहेंगी।
सीजर ने रोम के साम्राज्य का विस्तार किया और देश के लिए असीम संपत्ति हासिल की। इससे प्रसन्न होकर रोमन राज्य-परिषद् ने सारा राज-काज सीजर को ही सौंप दिया।
सीजर ने रोमन प्रजातंत्र पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। इतना ही नहीं, उसने समूची सत्ता पर काबिज होने के लिए धर्माधिकारी, कौंसिल, सेंसार, पाँटीफेकस मक्झीमम इत्यादि के अधिकार भी अपने हाथ में ले लिये। सीजर सम्राट् नहीं था, फिर भी उसने सम्राट् की ही तरह सत्ता का उपभोग किया।
सीजर के पराक्रमों से सभी प्रभावित रहते थे। लोग उसमें साक्षात् ईश्वर का अंश देखने लगे थे और उसकी सत्ता को ईश्वर का दिया उपहार ही समझते थे। रोमन कैलेंडर के 'क्विंटलिस' महीने का नाम जूलियस सीजर के नाम पर 'जुलाई' रख दिया गया!
सीजर को राष्ट्र-पिता की उपाधि दी गई। सीनेट में सोने के आसन पर बैठने का सम्मान उसे मिला। उसकी तानाशाही को आजन्म पदवी के तौर पर कबूल कर लिया गया।
सीजर की सत्ता में इतनी निरंकुशता आ गई थी कि रोमन राज्य परिषद् के लिए मुश्किल हो गया था उसे झेलना। क्रैशियस एवं ब्रूटस के नेतृत्व में सीजर की हत्या करने की साजिश कर ली गई।
ईसा पूर्व सन् 15 के मार्च महीने में रोमन राज्य परिषद् के 23 सदस्यों ने मिलकर जूलियस सीजर की हत्या कर दी। इसमें जूलिसय सीजर का अवैध पुत्र ब्रूटस भी शामिल था। उसे संबोधित करते हुए सीजर ने जो अंतिम शब्द कहे, उन्हें विश्वासघात के प्रसंग के सबसे वेधक शब्द माना जाता है। स्वयं के ही पुत्र ने जब छुरे का घातक वार किया, तब सीजर पीड़ा से व्याकुल होकर बोल पड़ा “एततू, ब्रूटस?” (ब्रूटस, तुम भी ब्रूटस?)

स्पार्टाकस ( ईसा पूर्व 110 से ईसा पूर्व 71)
स्पार्टाकस रोमन सेना में था, किंतु वहाँ से वह भाग निकला। वह अधिक समय तक स्वतंत्रता का आनंद न ले सका। उसे कैद कर लिया गया। उसके गठीले, शक्तिशाली शरीर को देखकर उसे 'ग्लैडियेटर' के बाजार में बेचा गया। 'ग्लैडियेटर' यानी ऐसे योद्धा, जो अपने साथी 'ग्लैडियेटर' से सम्राट् के मनोरंजन के लिए विशाल अखाड़े में युद्ध करते थे। यह युद्ध तब तक जारी रहता, जब तक दो में से एक योद्धा की मौत न हो जाती। अकसर दोनों ही योद्धा, जो बराबरी के हुआ करते, लड़ते-लड़ते मौत के घाट उतर जाते।
स्पार्टाकस गुलाम के तौर पर बिका जरूर लेकिन वह अपने 70 'ग्लैडियेटर' योद्धाओं के साथ कापुआ के 'ग्लैडियेटर अखाड़े' से भाग निकला और माउंट वीसूवियस में सहारा ले लिया। यह पलायन इतना सफल रहा कि दूसरे गुलामों ने भी अपने रोमन मालिकों के खिलाफ हथियार उठा लिये और स्पार्टाकस के साथ जा मिले। स्पार्टाकस की ग्लैडियेटर-सेना के योद्धा केवल एक साल में 70 से बढ़कर 90 हजार हो गए! उनके पास शस्त्र भले ही कम थे, लेकिन शारीरिक शक्ति एवं मानसिक हौसला बहुत बढ़ा-चढ़ा था।
इस 'ग्लैडियेटर-सेना' ने लूशस गोलियस के नेतृत्व में घातक शस्त्रों से सुसज्जित रोमन सेना से न केवल टक्कर ली, बल्कि उसे धूल भी चटा दी! रोमन राज्य परिषद् (सीनेट) इस समाचार को सुनते ही स्तब्ध रह गई। सीनेटर्स घबरा गए। 'ग्लैडियेटर-सेना' जो वास्तव में गुलाम-सेना ही थी, सीनेटर्स को इतनी खतरनाक महसूस हुई कि उसका दमन करने के लिए उन्होंने रोम के सबसे धनी यात्री मार्कस निसिनस क्रैशियस को नियुक्त किया।
क्रैशियस ने आठ लीजन यानी दस हजार चुनिंदा सैनिकों की सेना तैयार की, जिसके हर सैनिक को अमानवीय तरीकों से प्रशिक्षित किया गया। दस-दस योद्धाओं के ऐसे गुट बनाए गए, जिनके एक योद्धा की भूल या कमजोरी की सजा पूरे गुट को दी जाती थी और यह सजा थी, सिर काट देना! दसों के सिर काट दिए जाते। क्रैशियस की यह क्रूर योजना अत्यंत सफल रही। क्रैशियस की सेना ने स्पार्टाकस की सेना को बार-बार धूल चटाई।
अब स्पार्टाकस ने शक्ति की बजाय युक्ति से काम लेने की सोची। उस वक्त स्पार्टाकस सिसिली में था। वहाँ स्पार्टाकस ने समुद्री लुटेरों से समझौता किया कि हम अपनी सेना का सारा सोना तुम्हें दे देंगे, बशर्ते तुम हम सबको सिसिली से भाग जाने में मददगार बनो। समुद्री लुटेरों ने सोना तो ले लिया, किंतु ऐन मौके पर उन्होंने स्पार्टाकस को धोखा दिया। कहाँ तो स्पार्टाकस सपना देख रहा था, सभी साथियों के साथ पलायन कर जाने का और कहाँ उसे क्रैशियस की सेना से टकराने के लिए जहाँ-का-तहाँ छोड़ दिया गया।
ईसा पूर्व सन् 71 में लूसेनिया में स्पार्टाकस और क्रैशियस की सेनाओं में भिड़ंत हुई। स्पार्टाकस के पास योद्धा तो कम थे ही, वे युद्ध कला में कमजोर भी थे। उनके शस्त्र भी कमजोर थे। सुस्पष्ट युद्ध-नीति स्पार्टाकस के पास नहीं थी। स्पार्टाकस को बुरी तरह हारना पड़ा। उसे युद्ध में शहीद होना पड़ा। उसके अधिकांश साथी कटकर गिर गए। जो थोड़े बहुत 'ग्लैडियर' जिंदा पकड़े गए, उन्हें रोमन कायदे के अनुसार क्रॉस पर चढ़ाकर मौत के घाट उतार दिया गया। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि स्पार्टाकस को भी क्रॉस पर लटकाया गया।

हॉनीबॉल (ईसा पूर्व 247 से ईसा पूर्व 183 )
हॉनीबॉल का जन्म ईसा पूर्व सन् 247 में कार्थज नगर में हुआ था। वह नौ साल का था, तभी उसके पिता हामीलकार ने उसे रोम के विरुद्ध लगातार लड़ने की कसम दिला दी थी। स्पेन पर आक्रमण करते समय हामीलकार ने बेटे हॉनीबॉल को अपने साथ ले लिया। हामीलकार की मौत के बाद हॉनीबॉल के जीजा हासडूबॉल ने सेना सँभाली।
हासडूबॉल की भी मौत हो गई और कार्थज के सेनापति की कमान हॉनीबॉल ने सँभाली। उस समय हॉनीबॉल उम्र के 27वें पड़ाव पर था। उसका नीति- वाक्य था, 'मार्ग ढूँढ़ेंगे। नहीं मिला, तो बनाएँगे।'
ईसा पूर्व सन् 218 में हॉनीबॉल ने रोम पर आक्रमण करने का फैसला किया। वह संसार का पहला सेनापति बना, जो अपने चालीस हाथियों सहित आल्प्स पर्वत की बर्फीली चोटियों पर से चढ़ाई करके फ्रांस से इटली में उतरा।
इटली में हॉनीबॉल और रोमन सेनापति स्कीपियो आमने-सामने आए। हॉनीबॉल ने स्कीपियो की सेना को हरा दिया। स्कीपियो जख्मी हो गया।
इसके बाद हॉनीबॉल ने कैनॉय की लड़ाई में रोम के अनेक सेनापतियों को हराया, जैसे फ्लॉमिनस, टॉरेंटर और एमेलियस आदि। वह इटली में 15 साल रहा, किंतु राजधानी रोम को हासिल नहीं कर सका।
इसके बाद हुई झामा की लड़ाई, जिसमें स्कीपियो ने हॉनीबॉल को हरा दिया। हॉनीबॉल ने अपने मूल देश कार्थज से सहायता माँगी, लेकिन कार्थज ने मना कर दिया और सलाह दी कि तुम वापस अपने देश आ जाओ। हॉनीबॉल ने सलाह मान ली। काज वापस आकर हॉनीबॉल वहाँ के राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक हालात में सुधार लाने की कोशिश करता रहा। आम जनता में उसकी लोकप्रियता बढ़ती चली गई। इसी अनुपात में उससे जलने वालों की तादाद भी बढ़ गई।
रोम की सीनेट ने कार्थज से बार-बार निवेदन किया कि वहाँ हॉनीबॉल को कैद कर लिया जाए। लेकिन कार्थज ने ऐसी कोई कारवाई नहीं की। झामा की लड़ाई को 14 वर्ष हो चुके थे। अब हॉनीबॉल स्वेच्छा से कार्थज छोड़कर चला गया। उसने एफिसस के राजा ऑटिओक्स के यहाँ आसरा लिया।ऑटिओक्स रोम से युद्ध करने की तैयारियों में जुटा हुआ था। उसने युद्ध नीति को लेकर अनुभवी हॉनीबॉल से सलाह तो माँगी, किंतु मानी नहीं। हॉनीबॉल ने तटस्थ एवं सच्ची सलाह दी थी, जिसे न मानने के ही कारण ऑटिओक्स को रोम से हारना पड़ा।
अब हॉनीबॉल बिथीनिया के राज प्रुसीअस के पास चला आया। प्रुसीअस रोम का मांडलिक (सेनापति) था। परगॉमन का राजा इयुमीनीझ के साथ जलयुद्ध करने की तैयारी कर चुका था।
हॉनीबॉल ने इस युद्ध में शत्रु की नौकाओं पर जहरीले साँपों के गुच्छे फेंके। इससे जो हड़कंप मचा, उसमें हॉनीबॉल अपनी सेना के खून की एक बूँद भी बहाए बिना विजेता हो गया। शत्रु पर प्रहार करने की हॉनीबॉल को जरूरत ही नहीं पड़ी। शत्रु के सैनिक या तो जहरीले साँपों के काटने से मर गए या हड़बड़ाकर नौका से बाहर गिर जाने से मर गए। शायद यह मानव इतिहास की एकमात्र ऐसी लड़ाई है, जिसमें एक पक्ष के सारे सैनिक मारे गए, फिर भी उनके खून की एक बूँद भी नहीं गिरी। दूसरे पक्ष की, यानी हॉनीबॉल की जबरदस्त जीत हुई, किंतु उसके भी एक भी सैनिक के खून की एक बूँद भी न गिरी।
रोम की सेना हॉनीबॉल का पीछा कर रही थी। हॉनीबॉल जानता था कि कभी-न-कभी वह पकड़ा जरूर जाएगा। 'तब मेरी कितनी बदनामी होगी!' बार बार वह यही सोचने लगता। आखिर उसने लिबीस्सा के एक देवालय में जहर खाकर आत्महत्या कर ली। मरने से पहले उसने एक टिप्पणी लिखी—
‘रोम के शासकों के मन की चिंता अब दूर हो जाएगी, क्योंकि वे मुझ जैसे बूढ़े यात्री की मौत का इंतजार अभी और कर सकें, इतना धैर्य उनमें नहीं है!’

रिचर्ड ‘द लॉयन हार्ट’ (सन् 1157 से सन् 1199 )
इंग्लैंड के शासक 'द लॉयन हार्ट' (शेरदिल) रिचर्ड का जन्म ऑक्सफोर्ड में 8 सितंबर, 1157 में हुआ था। उसकी शादी नवारे की राजकन्या बेरेगारिया से हुई, किंतु उसकी रुचि समलैंगिकता में थी।
वह एवं फ्रांस का राजा फिलिप एक साथ एक ही थाली में खाना खाते थे एवं एक बिछौने पर सोते थे।
सन् 1189 में रिचर्ड का राज्याभिषेक हुआ, किंतु उसने ज्यू को उस समारोह में शरीक होने से रोक दिया। यह एक आश्चर्य ही था, क्योंकि रिचर्ड ने ज्यू साहूकारों से जबरदस्त कर्ज ले रखा था। इन साहूकारों ने जब उग्र विरोध दरशाया, तब रिचर्ड क्रोध से भड़क गया। उसने साहूकारों को नंगा करके उन पर चाबुक बरसाए। यह देखकर अंग्रेज उत्साहित हो गए। उन्होंने ज्यू को लूटकर जिंदा जलाना शुरू किया। ज्यू के कारोबार और मकानात के कागजात भी खाक कर दिए गए।
येशुख्रिस्त की जन्मभूमि यरुशलम पर कब्जा करने के लिए मुसलमानों और ईसाइयों के बीच धर्मयुद्ध हो चुके थे। ये धर्मयुद्ध रिचर्ड के कार्यकाल से पहले, सन् 1096 से 1099 एवं सन् 1146 से 1149 - इन काल-खंडों के बीच हुए थे।
धर्म-युद्ध को ‘क्रूसेड’ कहा जाता था। एक बार ‘क्रूसेड’ के लिए चंदा उगाहने निकले रिचर्ड ने फरमाया था—
“सही खरीदार मिल जाए, तो मैं तो इंग्लैंड की राजधानी लंदन को भी बेच दूँ !”
इस ‘क्रूसेड’ के वक्त रिचर्ड को टक्कर इसलाम की तरफ से, सलादीन दे रहा था। हतीम की लड़ाई के बाद यरुशलम, सन् 1187 से सलादीन के अधिकार में था। रिचर्ड, फ्रांस का राजा फिलिप और ऑस्ट्रिया का ड्यूक लियोपोल्ड सन् 1190 में नौका लेकर निकले और जुलाई 1191 में एकर में पहुँचे।
किंतु वहाँ रिचर्ड एवं ऑस्ट्रिया के ड्यूक लियोपोल्ड में विवाद हो गया। लियोपोल्ड था उस 'क्रूसेड' का तीसरा घटक। उसके साथ चिनगारी झड़ने की हद तक बहस हो जाना किसी भी तरह उचित नहीं था, किंतु ऐसा हुआ और हुआ भी बहुत मामूली वजह से। बहस का सबब था; गणवेश का रंग और परचम झंडे की लंबाई क्या हो!
मतभेद इतना बढ़ा कि फ्रांस का राजा फिलिप और ऑस्ट्रिया का ड्यूक लियोपोल्ड रणभूमि छोड़कर चले गए !
रिचर्ड का व्यक्तित्व राजकुमारों जैसा था, लेकिन राजनीति के दाँव-पेंच वह समझता नहीं था। रणनीति में भी वह कुशल नहीं था। जब दो साथी अचानक चले गए, तो रिचर्ड को समझ में आ गया कि अगर उसने यरुशलम को जीत भी लिया, तो भी वह अधिक समय तक अपनी सत्ता स्थिर नहीं रख सकेगा। लिहाजा उसने सलादीन से तीन सालों के लिए समझौता कर लिया।
किंतु रिचर्ड के पीठ फेरते ही सलादीन ने यह समझौता तोड़ दिया। इससे रिचर्ड अत्यधिक क्रोधित हो गया। आवेश से थरथराकर उसने यरुशलम छोड़ने से पहले एकर नामक स्थान में तीन हजार मुसलिम कैदियों के सिर काट डाले‌!
वापसी में रिचर्ड की नौका दुर्घटनाग्रस्त हो गई, जिससे ऑस्ट्रिया के ड्यूक लियोपोल्ड ने उसे आसानी से धर दबोचा। लियोपोल्ड ने उसे सम्राट् हेनरी के सुपुर्द कर दिया। हेनरी ने एक लाख मार्क की रकम बदले में माँगी। यह रकम इंग्लैंड से अदा की गई।
रिचर्ड रिहा होकर इंग्लैंड वापस आया।
सन् 1199 में रिचर्ड ने शालस शाब्रॉल नामक एक किले पर घेरा डाला था। एक बार वह किले के चारों ओर घूम रहा था और उसने बख्तर पहना हुआ नहीं था। किले का निरीक्षण करने के दौरान अचानक कहीं से एक तीर आया और उसके कंधे में दाहिनी तरफ घुस गया। यह तीर एक बच्चे ने मारा था। 11 दिनों में रिचर्ड की मौत हो गई। इसी घटना पर कहावत बनी है कि रिचर्ड एक शेर था, जिसे चींटी ने मार डाला!

अटीला ( सन् 406 से सन् 453 )
अटीला का जन्म सन् 406 में हूण राज परिवार में हुआ था। उसका चाचा रूगीला हूण साम्राज्य का स्वामी था। बचपन से ही अटीला घोड़े की रकाब में खड़ा होकर अपने धनुष-बाण से अचूक लक्ष्य वेध सकता था।
सन् 418 में रोमन एवं हूण साम्राज्यों में समझौता हुआ। जैसा कि उस समय का रिवाज था, दोनों राज-परिवारों ने अपने-अपने लोगों की बतौर बंधक अदल-बदल की। उसके तहत अटीला बंधक बनकर रोम में दो साल रहा। रोम की भव्यता से वह अत्यंत प्रभावित हुआ। उसने ठान लिया कि बड़ा होकर वह जरूर रोम वापस आएगा, किंतु बंधक के रूप में नहीं, विजेता के रूप में।
सन् 433 में रूगीला की मृत्यु हुई। उसने अपना राज-काज अपने बड़े भाई के दोनों बेटों को सौंपा। बड़े बेटे का नाम था, ब्लेडा और छोटे का नाम था, अटीला।
सन् 440 में रोमन एवं हूण साम्राज्यों में युद्ध हो गया। उसमें अटीला ने रोम की सेना को बार-बार हराया। उसकी क्रूरता एवं रक्त पिपासा के कारण उसे 'ईश्वर का चाबुक' (‘स्कर्ज ऑफ गॉड’) कहा जाने लगा। अटीला की सेना में महिलाएँ भी उत्साह से शामिल होती थीं। यह नीति चंगेज खान ने भी अपनाई। इस युद्ध में परास्त होने के बाद रोमन सम्राट् थिओजेसीअस मजबूर हो गया, 'जबरदस्ती की रकम' दोगुनी अदा करने के लिए। पहले वह 115 किलो सोना हूणों को सालाना अदा करता था, उसी को दोगुना करके अब वह 230 किलो सोना हर साल अदा करने को सहमत हो गया। इसी प्रकार रोम के प्रत्येक युद्ध-बंदी को छुड़ाने के लिए वह सोने के आठ ठोस सिक्के हूणों को देने के लिए राजी हो गया।
सन् 443 में फिर एक बार रोमनों एवं हूणों के बीच युद्ध हुआ, जिसमें रोमन सम्राट् थिओजेसीअस की दयनीय हार हुई। नया समझौता करते समय पहले से भी ज्यादा कड़ी शर्ते लाद दी गईं। 230 की जगह 700 किलो सोना हूणों को हर साल अदा किया जाए एवं प्रत्येक युद्ध-बंदी को छुड़ाने के लिए सोने के 12 'सॉलिडी' सिक्के अदा किए जाएँ। हूणों की ऐसी शर्तें कबूल करने के सिवा रोमन सम्राट् के पास और चारा भी क्या था?
इसके बाद सन् 445 में अटीला ने एक शिकारी की मदद लेकर स्वयं के भाई ब्लैंडा का कत्ल करवा दिया, जो सिंहासन पर आरूढ़ होने जा रहा था। अब स्वयं अटीला अखिल हूण साम्राज्य पर काबिज हुआ।
सन् 450 में पश्चिम रोम के सम्राट् वैलेंटाइन (तीसरे) की बहन होनोरीया को उसके साथ शादी का उम्मीदवार युवक पसंद नहीं आया होनोरीया ने युक्ति से अटीला को सगाई की अँगूठी भेजी और विनती की कि जो युवक मुझे पसंद नहीं है, उसके साथ शादी करने से मुझे अवश्य बचाएँ। अटीला ने होनोरीया का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया, किंतु उसने होनोरीया के भाई यानी सम्राट् वैलेंटाइन (तीसरे) से दहेज में आधा रोम माँगा। सम्राट् वैलेंटाइन (तीसरे) ने उसकी माँग को ठुकरा दिया। इससे अटीला चिढ़ गया। उसने सेना लेकर रोम की ओर कूच कर दिया।
किंतु इस बार ‘फ्रैंक’, ‘बर्गडी', 'सेल्ट' और 'विसीगाथ' नामक यूरोपियन जंगली टोलियों ने रोम की तरफ से लड़ने का निश्चय किया।
सन् 452 में अटीला ने होनोरीया से शादी करने का प्रस्ताव रोम को दुबारा भेजा।
रोम ने इस बार भी प्रस्ताव ठुकरा दिया। तब अटीला ने इटली में इतनी अराजकता फैलाई कि वहाँ की प्रजा अपना देश छोड़-छोड़कर भागने लगी। इस भागमभाग में बहुत से लोगों ने जगह-जगह छोटे आशियाने बना लिये। इसी प्रक्रिया से वेनिस शहर अस्तित्व में आया।
सम्राट् वॉलेंटाइन ने इन हालात से निजात पाने के लिए पोप लिओ (प्रथम) को मध्यस्थ बनाकर अटीला से समझौते का प्रस्ताव रखा, ताकि वह रोम आठवीं शादी रचाई। दुलहन का नाम था इल्डीको। वह एक युवा, सुंदर गोथिक युवती थी। शादी की पहली रात में ही अटीला की नववधू इल्डीको ने छुरा भोंककर उसका खून कर दिया, किंतु कुछ खोजकर्ताओं की राय में अटीला की मौत अत्यधिक शराब पी लेने से हुई थी। शराब के अतिरेक से उसके गले की रक्तवाहिनियाँ फट गई थीं।
अटीला के शव को सोने की पेटी में रखकर किसी अज्ञात स्थल में दफन कर दिया गया। उसके बाद पास से बह रही एक नदी के बहाव की दिशा बदल दी गई, ताकि अटीला की दफन-भूमि कहाँ है, यह हमेशा छिपा रहे।

एडॉल्फस गस्टावस ( सन् 1594 सन् 1632 )
एडॉल्फस गस्टावस का जन्म 9 दिसंबर, 1594 के दिन स्टॉकहोम में हुआ। वह वॉस घराने के नवम् चार्ल्स एवं होल्स्टीन-गोटार्प की राजकुमारी ईस्टीना का पुत्र था। एडॉल्फस का राज्याभिषेक सन् 12 अक्तूबर, 1617 में हुआ। उसका प्रसिद्ध वाक्य था “देवों एवं यशस्वी शस्त्रों की कृपा से संपन्न!” (विथ गॉड एंड विक्टोरियस आर्म्स)
स्वीडिश साम्राज्य के इतिहास में जिस काल खंड को ‘महान् शक्तिशाली युग’ के नाम से पहचाना जाता है, उस कालखंड का एक महत्त्वपूर्ण घटक है एडॉल्फस गस्टावस। यूरोप के 30 साल तक जारी रहे युद्ध में एडॉल्फस ने ऐसे-ऐसे पराक्रम किए कि उसे ‘उत्तर का सिंह' (लॉयन ऑफ द नॉर्थ) और 'प्रोटेस्टैंटों का रक्षक’ (सेविअर ऑफ द प्रोटेस्टैंट्स) की उपाधियाँ दी गईं।
एडॉल्फस ने अपने कार्यकाल में अनेक छोटे-बड़े शहर बसाए और उसमें टाई स्वीडन विश्वविद्यालय' की स्थापना की।
एडॉल्फस निस्संदेह एक कुशल सेनापति था। उसने बचाव की भूमिका न लेकर आक्रमण की भूमिका पर जोर दिया। वजनदार, विशाल, स्थायी तोपों से अधिक महत्त्व उसने तुरंत ले जाई जा सकें, ऐसी छोटी तोपों को दिया।
वह वरिष्ठ सेनापतियों से लेकर कनिष्ठ सिपाहियों तक सभी के साथ भाईचारे का व्यवहार करता था। अपने इस गुण के कारण वह अत्यंत प्रतिष्ठित व सम्मानित युद्धनायक माना जाता था। नेपोलियन ने एडॉल्फस को 'सर्वश्रेष्ठ सेनापति' कहा थाा।
एडॉल्फस रण में सक्रिय भाग लेता था। बंदूक की गोलियों से वह अनेक बार घायल हुआ था। गोलियों के जख्मों की वजह से वह फौलाद का बख्तर नहीं पहन सकता था। उसे चमड़े का लोचदार बख्तर ही पहनना पड़ता।
ल्यूटजेन के युद्ध में एडॉल्फस घने कोहरे और कमजोर दृष्टि के कारण शत्रु के करीब पहुँच गया था। शत्रु ने उसे गोली से बींध दिया था। वहीं रणभूमि में गिरकर उसने आखिरी साँस ली थी।
उसकी मृत्यु के बाद उसकी रानी मारिया एलियोनारा ने कुछ समय तक उसका शव एवं बाद में उसका हृदय उसकी स्वयं की मृत्यु तक अपने शयनगृह में सुरक्षित रखा।
स्वीडन ने एडॉल्फस को 'एडॉल्फस द ग्रेट गस्टैव डेन स्टोर' की उपाधि देकर सम्मानित किया। यह सम्मान बाद में किसी को भी नहीं दिया गया।

चंगेज खान (सन् 1162-1227)
चंगेज खान का जन्म सन् 1162 में मंगोलिया में हुआ था। उसका जन्म नाम था तेमुजीन। उसके पिता येसुगेई 'बोरजीगीन' कबीले के मुखिया थे। यह कबीला शिकार करके अपनी जीविका चलाता था। ऐसा कहा जाता है कि जन्म लेते समय बालक तेमुजीन की मुट्ठी में रक्त की गुठली थी। यह तेमुजीन के बलिष्ठ योद्धा बनने की भविष्यवाणी थी।
तेमुजीन 9 वर्ष का था, उस समय उसके पिता को टार्टर कबीले ने विष देकर मार डाला था। इसके बाद कबीले के अन्य सदस्यों ने मिलकर तेमुजीन, उसकी माँ और भाई को कबीले से बाहर कर दिया। तेज मिजाज तेमुजीन ने मछली चुराने जैसी छोटी सी बात पर अपने सौतेले भाई बेख्तेर का खून कर दिया। इस कारण उसे पाँच साल की गुलामी की सजा दी गई।
तेमुजीन 16 वर्ष का हो गया, तो उसकी शादी बोर्ते नामक एक लड़की से कर दी गई। ‘केरेयीड’ नामक एक शक्तिशाली कबीले के मुखिया वांग ने तेमुजीन को अपने मानस पुत्र के रूप में स्वीकार कर लिया।
इसके बाद 'मेर्कीड' कबीले ने तेमुजीन की पत्नी बोर्ते का अपहरण कर लिया। ओंगखान की 'केरेयीड' सेना की मदद से तेमुजीन ने बोर्ते को वापस हासिल किया। इस आक्रमण में जमुका नामक एक नौजवान ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। जमुका था, तेमुजीन का मुँहबोला भाई।
अब तेमुजीन जमुका के साथ ही रहने लगा। धीरे-धीरे तेमुजीन को लगने लगा कि उसका मुँहबोला भाई जमुका खुद को अब कुछ ज्यादा ही समझने लगा है और हमेशा एक दूरी बनाए रखता है। जमुका एवं ओंगखान के बेटे सेंगम ने आपस में सुलह कर ली। दो गुट बन गए। तेमुजीन का गुट और जमुका का गुट। दोनों गुटों में युद्ध जैसा संघर्ष हुआ, जिसमें तेमुजीन जीत गया। अब 'केरेयीड' कबीले पर तेमुजीन का अधिकार हो गया। जमुका इतना घबराया कि युद्ध भूमि से ही भाग गया।
सन् 1201 में जब तेमुजीन उम्र के 27वें पड़ाव पर था, उसने सभी मंगोल कबीलों की सभा, 'कुरुलताय दरबार' का आयोजन किया। ठीक उसी समय जमुका ने भी दूसरा 'कुरुलताय दरबार' आयोजित किया, जिसमें उसने स्वयं को 'गुरखान' (विश्व का राजा) घोषित कर दिया।
किंतु जमुका के कुछ साथियों ने उसे धोखा देकर बेड़ियों से जकड़ दिया। उन्होंने जमुका को खींचकर तेमुजीन के सामने हाजिर किया (1206)
अचंभे की बात यह है कि तेमुजीन ने जमुका को धोखा देने वालों को तत्काल जान से मार दिया। तेमुजीन ने कहा कि मुझे मेरी सेना में धोखेबाज लोग नहीं चाहिए।
तेमुजीन ने जमुका से दोस्ती करनी चाही, लेकिन जमुका ने इनकार कर दिया।
जमुका ने कहा “आकाश में जैसे एक ही सूरज होता है, वैसे ही मंगोल साम्राज्य का राजा एक ही हो सकता है। मुझे ऐसी मृत्यु चाहिए, जो किसी राजा के लिए उचित हो। मुझे मेरा रक्त बहाए बिना मृत्यु दी जाए।”
गरदन की हड्डी तोड़कर बिना रक्त बहाए मृत्यु दी जा सकती थी। स्वयं जमुका ने ऐसी मृत्यु किसी को नहीं दी थी। जमुका ने अपने कई सेनापतियों को पानी में उबालकर मारा था। फिर भी तेमुजीन ने जमुका की विनती मान्य रखी।
अपने हर प्रतिस्पर्धी को हराकर तेमुजीन ने सभी मंगोल कबीलों को एकजुट किया। तेमुजीन ने मेर्कीट, नॉयमन, केरेट, तार्तर आदि छोटी-छोटी जातियों का 'कुरुलताय दरबार' बुलाया, जहाँ उसने स्वयं को 'चंगेज खान' की उपाधि से विभूषित किया।
सन् 1211 तक चंगेज खान की मंगोल सेना 'झीया' यीन, चीन 'काराखीता', 'खानाट' आदि घरानों को परास्त कर चुकी थी।
अब चंगेज खान ने ख्वारेझीमिया राज्य पर आक्रमण करने के लिए 2 लाख सैनिक भेजे। इन सैनिकों ने कदम-कदम पर तोड़-फोड़ की, अनेक शहरों को नेस्तनाबूद कर दिया और चारों तरफ हत्याओं की झड़ी लगा दी। कई जगह उन्होंने नदियों के प्रवाह की दिशा बदल दी।
सन् 1223 में चंगेज खान की सेना ने रूस की ओर कूच किया। इस आक्रमण में जेबे नामक सेनापति ने भयंकर क्रूरता दिखाई।
रूस की सेना को परास्त करने के बाद जेबे ने कीव के राजा मिस्तील के साथ पाँच राजपुत्रों को भी बंदी बना लिया। इन सभी को ऐसा मृत्यु दंड दिया गया, जिसमें उनका खून न बहे। इसके लिए एक अलग ही तरीका सोचा गया।
लकड़ी का एक विशाल चबूतरा बनाया गया। उसके खंभों के रूप में कीव के राजा और छहों राजपुत्रों को इस्तेमाल किया गया। जेबे और उसके विजयी सेनापति एक साथ उस चबूतरे पर चढ़े, जहाँ उन्होंने साथ बैठकर भोजन किया। विशाल चबूतरे के वजन एवं उन तमाम सेनापतियों के वजन के नीचे कीव का राजा दब गया। छहों राजपुत्र भी दब गए। सब मारे गए। खून किसी का न निकला। न्यायपालिका के आदेश का शब्दशः पालन किया गया।
चंगेज खान ने छोटी सी शुरुआत करके 20 वर्षों में संसार के सबसे विशाल साम्राज्य की रचना की। उसकी सरहद रोम द्वारा 400 वर्षों में जीते गए तमाम प्रदेशों की सम्मिलित सरहद से भी बड़ी थी। अपने साम्राज्य का विस्तार करते समय चंगेज खान ने 6 करोड़ शत्रुओं की, यानी उस वक्त की समग्र विश्व की आबादी की 17 प्रतिशत जनता की हत्या की।
मुंबई की आबादी मोटे तौर पर एक करोड़ मान लें, तो 6 करोड़ लोगों को कत्ल करना। यानी मुंबई की संपूर्ण आबादी का 6 बार कत्ल करना।
चंगेज खान की निर्ममता और जीत ने जैसे सारी दिशाओं को ध्वस्त कर दिया था। सचमुच उसके जैसा कोई नहीं था। उसे 'मंगोलों का निरंतर नीला आकाश' कहकर नवाजा गया। उसे 'मंगोलों का सर्वोच्च देवता' कहकर अलंकृत किया गया।
शत्रु पक्ष की कैद की गई स्त्रियों के साथ वह रोज बलात्कार करता था। उसने उन स्त्रियों से कितने हजार बच्चे पैदा किए होंगे, कौन बता सकता है। आज के मंगोलिया में जो 20 लाख की आबादी है, उसमें 2 लाख की आबादी चंगेज खान की ही वंशज मानी जाती है।
“सबसे ज्यादा मजा किसमें आता है?” इसका जो उत्तर चंगेज खान ने दिया था, उसे विश्व कभी नहीं भूलेगा।
“मजा यानी अपने दुश्मन को हराना, उसे दौड़ा-दौड़ाकर मारना, उसका धन छीन लेना, उसके रिश्तेदारों और पड़ोसियों को छाती पीट-पीटकर रोते देखना, उसके बाग-बगीचों को बरबाद करना, उसके घोड़ों पर सवार होना, उसकी बीवियों और बेटियों पर बलात्कार करना; इसे कहते हैं मजा!”
सन् 1227 के अगस्त महीने में चंगेज खान की मौत हुई। उसे किस जमीन में दफन किया गया, इसे खुफिया रखने के लिए एक नदी के प्रवाह की दिशा बदल दी गई।
बर्बरता की हद तब हुई, जब चंगेज खान की अंतिम विधि में उपस्थित एक-एक गुलाम का कत्ल कर दिया गया। जिन सैनिकों ने गुलामों का कत्ल किया, उन सैनिकों का उनके अधिकारियों ने कत्ल किया। उन अधिकारियों का उनके वरिष्ठों ने कत्ल किया। आज 800 साल बाद भी कोई बता नहीं सकता कि चंगेज खान को कहाँ दफनाया गया।
चंगेज खान की मौत के बाद उसका साम्राज्य सन् 1368 तक बना रहा।

एलेक्जेंडर द ग्रेट
( ईसा पूर्व सन् 1 अक्तूबर, 356 से ईसा पूर्व 13 जून, 323)

सिकंदर उर्फ एलेक्जेंडर, मैसेडोनिया (ग्रीस) के विश्व विख्यात सम्राट् किंग फिलिप (द्वितीय) और साम्राज्ञी क्वीन ओलिंपिया का पुत्र था। उसका जन्म मैसेडोनिया के पेला क्षेत्र में हुआ था। किंग फिलिप ने उसे बचपन से ही राजपुत्र के लिए आवश्यक हर तरह की सैनिक एवं राजकीय शिक्षा दी थी। अरस्तू (एरिस्टॉटल) उसका गुरु था। एलेक्जेंडर पर एकिलिस का प्रभाव बहुत अधिक था। एकिलिस, दरअसल, एक मशहूर योद्धा था, जिसे महाकवि होमर ने अपने महाकाव्य 'इलियाड' का एक पात्र बनाया था। एकिलिस ने ट्रॉय के युद्ध में भाग लिया था। ट्रॉय को हराने में उसका काफी बड़ा हाथ था। एकिलिस जैसे योद्धा से प्रभावित एलेक्जेंडर बचपन से ही सपना देखने लगा था कि उसे संपूर्ण विश्व पर जीत हासिल करनी है। ‘युद्ध’ और ‘जीत’ ये दो शब्द एलेक्जेंडर के मन में लगातार चलते रहते थे।
ईसा पूर्व सन् 336 में किंग फिलिप का खून हो गया। एलेक्जेंडर उस समय मात्र 20 वर्ष का था। उसे मैसेडोनिया के राज सिंहासन पर बिठाया गया। शासन सँभालने के पहले ही वर्ष में एलेक्जेंडर ने उत्तर में डेन्यूब नदी और पश्चिम में एड्रिएटिक तक अपनी सत्ता फैलाई।
थीब्स और एथेंस ये दोनों राज्य मैसेडोनिया से अलग होने की फिराक में थे। उन्हें सबक सिखाने के लिए एलेक्जेंडर ने पहले थीब्स पर आक्रमण करके अनेक नागरिकों की हत्या की। कुछ को गुलाम बनाकर भी बेचा। वहाँ के एक मंदिर एवं अपने प्रिय कवि पिंडर के घर के अलावा उसने तमाम मकानात मिट्टी में मिला दिए। यह देखकर एथेंस घबराकर स्वयं ही उसकी शरण में आ गया। किंतु स्पार्टा शरण में नहीं आया।
इसके बाद एलेक्जेंडर ने ईरानी साम्राज्य पर आक्रमण करने की ठानी। ईरान उन दिनों एक अत्यंत समृद्ध एवं शक्तिशाली राष्ट्र था।
ईसा पूर्व सन् 334 में ग्रीस के प्रमुख स्थानों की सुरक्षा के लिए आवश्यक सैनिक के पीछे छोड़कर एलेक्जेंडर ने अपनी विशाल सेना के साथ दार्नानेल्स नदी पार की। पॉमोयिओ, टॉल्मी, एंटिगोनस, सेल्यूकस और निआर्कस जैसे जाँबाज सेनापति उसके साथ चल रहे थे। एलेक्जेंडर स्वयं भी अत्यंत साहसी, शूरवीर और जिद्दी था। ऐसे गुणों के कारण वह किसी भी संकट का सामना सफलतापूर्वक कर लेता था।
एलेक्जेंडर ने अपने 40 हजार सैनिकों के साथ ईरान पर धावा बोल दिया। फिर वह सीरिया की तरफ गया। वहाँ इसस की खाड़ी के पास उसका सामना इरायस की विशाल सेना से हुआ। एलेक्जेंडर ने उसे इस तरह हराया कि वह भाग जाने पर मजबूर हो गया। अब एलेक्जेंडर ने फिनीशियन जलसेना पर कब्जा कर लिया। मिस्र भी उसके कब्जे में आ गया। वहाँ उसने ‘एलेक्जांड्रिया’ नाम के सोलह शहरों की स्थापना की।
इरायस, जो इसस की खाड़ी के युद्ध में मैदान छोड़कर भाग गया था, झाँगामी में अपनी विशाल सेना के साथ फिर से एलेक्जेंडर के सामने आया। एलेक्जेंडर ने इस बार भी उसे इस तरह हराया कि दुबारा उसे मैदान छोड़कर भागना पड़ा! इससे एलेक्जेंडर ईरानी साम्राज्य का स्वामी बन गया। उसने ऐसे सोलह एलेक्जेंडर नाम के शहर स्थापित किए, जिनके नामों में 'एलेक्जेंडर' की झलक थी।
ईरानी एवं ग्रीक लोगों को संगठित करने के लिए एलेक्जेंडर ने स्वयं इरायस की बेटी से विवाह किया। अन्य सेनाधिकारियों को भी उसने ईरानी स्त्रियों से विवाह करने के लिए प्रोत्साहित किया। एलेक्जेंडर ने ईरानी युवकों को सैनिक प्रशिक्षण देकर सेना में भरती किया। ईरानी घुड़सवारों के जत्थे भी तैयार किए। स्वयं एलेक्जेंडर ईरानी पोशाक पहनने लगा।
ईरान के लोग उन दिनों राजा को ईश्वर ही मानते थे। एलेक्जेंडर को भी उन्होंने ईश्वर के अवतार के रूप में देखना शुरू कर दिया। स्वयं एलेक्जेंडर ने भी ऐसा प्रचार करवाया कि वह ईश्वर का अवतार है और उससे रू-ब-रू होनेवाला हर शख्स उसे दंडवत् प्रणाम करे। एलेक्जेंडर के ऐसे व्यवहार से मैसेडोनिया के सैनिक असंतुष्ट हो गए। वे एलेक्जेंडर के खिलाफ साजिश करने लगे, किंतु एलेक्जेंडर को इसका पता चल गया। उसने सभी साजिशखोरों को मौत की सजा सुना दी।
ईसा पूर्व सन् 328 में एलेक्जेंडर ने बैक्ट्रीया एवं उसके उत्तर में स्थित सॉग्डिआना पर विजय प्राप्त की। उसने वहाँ की राजकन्या से विवाह किया। इसके बाद उसने हिंदूकुश पर्वत पार करके ईसा पूर्व सन् 327 के मई महीने में भारत पर आक्रमण किया।
असरकेनॉया के राजा ने जब युद्ध भूमि में वीरगति प्राप्त की, तो उसकी रानी ने युद्ध जारी रखा। रानी को स्वयं लड़ते देखकर वहाँ की सभी स्त्रियाँ जोश में आ गई और मातृभूमि की रक्षा के लिए युद्ध के मैदान में कूद पड़ीं। इस युद्ध में एलेक्जेंडर जख्मी होने से न बच सका। इससे उसका क्रोध भड़क उठा। उसने निर्दोष, निहत्थे प्रजाजन के कत्लेआम का हुक्म देकर अपना क्रोध शांत किया।
झेलम और चिनाब नदियों के बीच के प्रदेश पर उन दिनों राजा पुरु (पोरस) का राज्य था। पूरु ने एलेक्जेंडर का विरोध किया। झेलम के किनारे इन दोनों में घनघोर युद्ध हुआ। पोरस हार गया। एलेक्जेंडर ने उससे पूछा, “तुम्हारे साथ अब कैसा बरताव किया जाए?”
स्वाभिमानी पोरस ने शांति से कहा, “जैसा बरताव एक राजा को दूसरे राजा के साथ करना चाहिए, वैसा ही बरताव आप मेरे साथ करें।”
एलेक्जेंडर ऐसा जवाब सुनकर चकित रह गया। वह भारतीयों के स्वाभिमान का लोहा मान गया। उसकी सेना को भी युद्ध के दौरान भारतीय आन-बान एवं शूरवीरता का अच्छा परिचय मिल गया था। एलेक्जेंडर ने सोचा कि पोरस के जैसे शूरवीर योद्धा को अपना साथी बना लेना चाहिए।
पोरस के उस एक जवाब ने एलेक्जेंडर जैसे निर्मम योद्धा को भी झुका दिया। उसने युद्ध में जीता हुआ संपूर्ण राज्य राजा पूरू (पोरस) को वापस समर्पित कर दिया, साथ ही 15 अतिरिक्त गणराज्यों का प्रदेश भी उसे सौंप दिया।
एलेक्जेंडर जब व्यास नदी के निकट पहुँचा, तब उसके सैनिकों ने आगे जाने से इनकार कर दिया। वे आठ से दस वर्षों से लगातार युद्ध कर रहे थे और बुरी तरह थक चुके थे। एलेक्जेंडर ने राजा पोरस को झेलम और व्यास नदियों के बीच के प्रदेश का स्वामी नियुक्त किया। इसके बाद उसने ईसा पूर्व सन् 326 के फरवरी मास में वापस अपने देश लौट जाने का फैसला कर लिया।
वापस जाते समय उसकी सेना की बहुत हानि हुई। स्यूसा में ईसा पूर्व सन् 323 के जून की 13वीं तारीख को एलेक्जेंडर की मृत्यु हो गई।
एलेक्जेंडर संसार का अद्वितीय योद्धा एवं सेनानायक था। भारत में वह ‘सिकंदर’ के नाम से जाना जाता है।
एलेक्जेंडर ने संसार के जितने हिस्से जीत लिये थे, उन सभी को ग्रीस के सांस्कृतिक स्वामित्व के अंतर्गत लाकर एक नया राष्ट्र तैयार करने की उसकी तीव्र महत्त्वाकांक्षा थी। असमय मृत्यु के कारण उसकी यह महत्त्वाकांक्षा पूरी न हो सकी। इतना ही नहीं, जीते हुए प्रदेशों में इस महत्त्वाकांक्षा के अनुरूप कार्यक्षम प्रशासन प्रणाली लागू करना भी संभव नहीं हो सका।


संदर्भ—
1. मध्ययुगीन भारताचा बृहत इतिहास / जे. एल. मेहता / भाषांतर : डॉ. वसंतराव देशपांडे
2. The Great Moghul / Bamber Garcoigne
3. A New History of India / Stanley Wolpert
4. The Cambridge History of India / John F. Richards
5. A History Of India / Burton Stein