Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 96 books and stories free download online pdf in Hindi

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 96


जीवन सूत्र 181 पूर्वजों के अच्छे कार्यों का करें स्मरण


गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है: -

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।

कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्।।4/15।।

इसका अर्थ है,पूर्वकाल के मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक लोगों ने भी इस प्रकार समझकर कर्म किए हैं,अतः तू भी पूर्वजों के द्वारा हमेशा से किए जानेवाले कर्मों को उन्हीं का अनुसरण करते हुए कर।


जीवन स्तोत्र 182 स्वयं के विशिष्ट कार्य करने का अहंकार छोड़ दें


पूर्व के श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण ने मनुष्यों के लिए जिस अकर्तापन,आसक्ति के त्याग और कर्मों के फल में नहीं बंधने की बात कही है,इस सिद्धांत का पूर्वजों ने भी अनुसरण किया है अर्थात अर्जुन इस मार्ग पर चलने वाले पहले व्यक्ति नहीं हैं। अर्जुन से भी पूर्व विभिन्न युगों में महान पुरुषों से लेकर साधारण लोगों ने कर्तव्य के मार्ग पर अपने पग रखे हैं।


जीवन सूत्र 183 साधना पथ प्रारंभ में अभ्यास में थोड़ा कठिन, बाद में सरल और सहज



यह मार्ग प्रारंभ में अभ्यास में थोड़ा कठिन दिखाई देने पर भी अचूक है।सुनिश्चित सफलता का है।

भगवान श्री कृष्ण ने कर्मों के साथ विशेष बात यह बताई है कि ये तभी सम्मोहन और मोह माया के बंधन का निर्माण करते हैं,जब हम इसके फल को लेकर आसक्त हो जाते हैं।कर्मों में आसक्ति के त्याग और कर्म करते रहने पर उपलब्ध होते रहने वाले परिणामों को स्वीकार कर आगे बढ़ने में कहीं भी बंधन नहीं है।ठीक इसी तरह आसक्ति कुछ पाने को लेकर भी हो सकती है और त्याग में अहं भावना के प्रदर्शन को लेकर भी हो सकती है।


जीवन सूत्र 184 कुछ छोड़ने के भाव में उतना ही अहंकार है


"मुझे धन प्राप्त हो गया,यश और उपलब्धि प्राप्त हो गई,सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त हो गई", इन भावनाओं में आसक्ति भाव है तो "मैंने सब कुछ छोड़ दिया है,मैं भी त्यागी हूं।मैं सांसारिक मोह माया से ऊपर उठ गया हूं",इन भावनाओं में भी आसक्ति है।"योगेश्वर श्रीकृष्ण के साथ वर्षों से सख्य और शिष्य भाव से संपर्क में रहने वाले अर्जुन भी कुरुक्षेत्र के युद्ध के पूर्व भ्रमित हो गए थे।


जीवन सूत्र 185 अर्जुन की सी जिज्ञासा रखना अनुचित नहीं


उन्हें लगा था कि ऐसा धर्म संकट शायद पहली बार ही किसी के जीवन में उपस्थित हुआ हो,जब दोनों पक्षों से लड़ने को तत्पर योद्धागण उनके ही अपने रक्त संबंधी और मित्रगण हैं।जब किसी विजय को प्राप्त करने के लिए एक सुनिश्चित विनाश के रास्ते से होकर गुजरना पड़ रहा हो।इस पर श्री कृष्ण ने संकेत किया कि ऐसी स्थितियां,भले ही भिन्न संदर्भों में हो,उपस्थित होती रही हैं और लोग पलायन के बदले इसमें मार्ग ढूंढने की कोशिश करते रहे हैं।अतः अर्जुन को भी अपने पूर्वजों के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।


(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय